न्यायालयों में भारतीय भाषा में न्याय पाने का हक

विजन कुमार पाण्डेय

shyam rudra pathakकेवल तीन प्रतिशत भारतीय ही अंग्रजी को अच्छी तरह जानते हैं। इसके बावजूद भी हमारे न्यायालयों में अंग्रेजी का प्रयोग अधिकतम होता है। हमारा संविधान भी इसकी इजाजत देता है। यह बात सच है कि हमारा संविधान के अनुच्छेद 348(1)(क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां केवल अंग्रेजी में होंगी। जबकि भारत में अंग्रेजी जानने वाले तीन प्रतिशत से भी कम हैं। यह कहां का न्याय है। यह 97 प्रतिशत भारतीयों के साथ अन्याय है। वैसे भी अनुच्छेद 343 में हिन्दी को राजभाषा के रूप में घोषित करने वाले हमारे संविधान के लागू होने के अनेक वर्षों के बाद जब 27 अप्रैल, 1960 को आदेश द्वारा राष्ट्रपति जी ने केन्द्र सरकार के कर्मचारियों (जिनकी आयु 1.1.1961 को 45 वर्ष से कम थी) के लिए हिन्दी पढ़ना अनिवार्य किया तो उस पर मद्रास उच्च न्यायालय ने स्टे आर्डर दे दिया। इस पर संघ सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील की जो कि स्वीकार कर ली गई और उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति जी के आदेश को उचित ठहराया। केन्द्रीय हिन्दी समिति के निर्णय को लागू करने के लिए भारत सरकार ने दिनांक 19.02.76 को आदेश दिए कि अगले 5 वर्षों में बचे हुए कर्मचारियों को हिन्दी का प्रशिक्षण अनिवार्य रूप से दिला दिया जाए और प्रत्येक वर्ष कम से कम 20 प्रतिशत हिन्दी न जानने वाल कर्मचारियों को हिन्दी कक्षाओं के लिए नामित किया जाए। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि यदि कोई प्रशिक्षणार्थी नियमित रूप से उपस्थित न हो तो उसे पहले मौखिक रूप से चेतावनी दी जाए और बाद में लिखित। यदि उसके बाद भी स्थिति में न सुधार हो तो संबंधित कर्मचारी के विरूद्ध अनुशासनिक कार्रवाई की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने से पहले राजभाषा विभाग से परामर्श अवश्य कर लिया जाए। तब श्री रमा प्रसन्न नायक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार थे और देश में आपातकाल लागू था। इसलिए हिन्दी के प्रति प्रतिबद्ध होते हुए भी वे फँूक फूँक कर कदम रख रहे थे। बाद में राजभाषा विभाग के दिनांक 11.3.1985 के परिपत्र में संबंध में स्थिति की समीक्षा करते हुए विभाग ने स्पष्ट किया कि उसके पहले के दिनांक 19.02.1976 के ज्ञापन में बताई गई प्रक्रिया के अनुसार अब राजभाषा विभाग से परामर्श करना आवश्यक नहीं है। संबंधित विभाग स्वंय कार्यवाई कर सकते हैं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और कार्यलय ऐसे मामले राजभाषा विभाग को भेजने से कतराते रहे। कोई अनुशासनिक कार्यवाई न होने पर आम कर्मचारी यह समझने लगा कि कोई दंड व्यवस्था है ही नहीं। राजभाषा विभाग ने अपने 22 अगस्त, 1989 के कार्यालय ज्ञापन में यह भी स्पष्ट किया कि ‘‘यदि कोई कर्मचारी या अधिकारी जान बूझ कर राजभाषा के बारे में लागू प्रावधानों की अवहेलना करता है तो प्रकरण में संबंधित नियमों एवं आदेशों के उल्लंघन होने के आधार पर कार्यवाही की जा सकती है’’। लेकिन स्थिति अब भी वही है। कोई परिवर्तन नहीं आया। हिंदी की अवहेलना होती रही। अंग्रेजी बोलने वालों का मान बढ़ता रहा।

हिंदी को लेकर आज जितनी उछलकूद मची हुई है उतनी वास्तविकता जमीन पर नहीं है।सच कहें तो कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम हिंदी में इसलिए लिख पढ़ रहे हैं क्योंकि अंग्रेजी हमारे समझ में नहीं आती। अगर वह समझ में आती तो हम हिंदी की तरफ शायद देखते भी नहीं। जिनको अंग्रेजी थोड़ा बहुत आती है उन्हें हिंदी दोयम दर्जे की लगती है। वैसे इंटरनेट पर अंग्रेजी देखने के बाद तो ऐसा लगता है कि लोगों की अंग्रेजी भी कोई परिपक्व नहीं है। उन्हें न तो ठीक से अंग्रेजी ही आती है और न हिंदी। वे दोनों तरफ के मारे हुए इंसान हैं। बहरहाल अंग्रजी के प्रति मोह लोगों का इसलिए अधिक नहीं है कि उसमें बहुत कुछ लिखा गया है बल्कि वह दिखाते हैं ताकि लोग उनको पढ़ा लिखा इंसान समझें। आप कितने भी पढ़े लिखे हों लेकिन अगर आपको अंग्रेजी नहीं आती तो आपका पढ़ना लिखना बेकार है। अंग्रेजी आज आधुनिकता का बोध कराती है. यह नयी भारतीय सभ्यता की प्रतीक बन गई है। मध्यम वर्ग की यह नयी पीढ़ी हिंदी के प्रति रूझान दिखाने के बजाय उसकी उपेक्षा में आधुनिकता का ऐसा बोध कराती है जैसे यही नयी भारतीय सभ्यता का प्रतीक हो। इनमें तो कई ऐसे है जिनकी हिंदी तो गड़बड़ है ही साथ ही अंग्रेजी भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। उन्हें हिंदी एक गरीब भाषा लगती है। यहां प्रश्न हिंदी या अंग्रेजी का नहीं हैं। दरअसल अपराधियों को न्याय मिलना सबसे अधिक जरूरी है।

मानव सभ्यता के प्रारंभ से ही अपराधियों को दंड देने का प्रावधान बनाया गया था। लेकिन इससे न तो पीडि़त पक्ष का कोई भला हुआ और न अपराधी में कोई सुधार हुआ। उल्टा बढ़ती जनसंख्या बढ़ते अपराधों के कारण आज न्याय पाने के लिए व्यक्ति को कितना भटकना और आर्थिक रूप से टूटना पड़ता है कि न्याय पाने के लिए लोग अदालतों और पुलिस के पास जाने के बजाय या तो खुद ही फैसला कर डालते हैं या कानून अपने हाथ में लेकर स्वयं अपराधी बन जाते हैं। चाहे वो अंग्रेजों की सत्ता हो या फिर स्वतंत्र भारत का कानून, न्याय की प्रकिया यही रही है कि दोषी को उसकी सजा के हिसाब से कैद कर दो कैदखाने में। जिन्हें आजीवन कारावास के नाम पर जीवन भर के लिए कैद कर दिया जाता है या 15 या 20 वर्षों के लिए। इसका क्या औचित्य है। यह तो जेल से भी बदतर सजा हुई। मान लीजिए एक व्यक्ति 30 वर्ष की उम्र में 20 साल की सजा पाता है। उसकी रिहाई 50 साल में होती है। इन बीस सालों में बाहर की दुनिया उसके लिए खत्म हो जाती है। समाज उसे अस्वीकारता है। उसका न घर बचता है और न परिवार। न ही वह व्यक्ति किसी काम का रहता है। ये व्यक्ति या तो भीख मांगेगा या फिर अपराध करेगा। दूसरा कोई विकल्प इसके पास नहीं है। इसकी सजा कभी न खत्म होने वाली सजा बन जाती है। यह प्रताडि़त, अपमानित होता रहता है और दूसरे अपराध के लिए प्ररित होता रहता है।

क्रोध, काम, लोभ के आवेग में जो मनुष्य के प्रकृति प्रदत्त गुण है। उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए कालकोठरी में कैद करना वैसा ही है जैसे कोई किसी पंछी को पिंजरे में कैद कर ले। कानून के पिंजरे में इतने पंछी कैद हैं कि सरकार का अरबों रूपए तो कैदखाने में बर्बाद हो रहा है। अफसोस तो तब होता है जब इनमें ढेरों बेगुनाह भरे पड़े हों और शातिर अपराधी अपने छल, बल, धन से भ्रष्टाचार में लिप्त न्याय और पुलिस से खरीद-फरोख्त कर छूट जाते हैं और निर्बल बेवजह गुनाहगार होकर सजा काटता है। फिर लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते तो न्याय-अन्याय में फर्क करना ही बेमानी हो जाती है। क्या जेलांे में अपराधियों को बंद करने से अपराध खत्म हुआ या कम हुए। क्या पीडित को न्याय मिला। क्या दोषी में कोई सुधार हुआ। यदि नही ंतो न्याय प्रक्रिया विफल ही रही न। इसलिए हमें कोई और तरीका तलाशना होगा। जिसमें गवाह सबूत और सजा से बेहतर हम पीडि़त पक्ष को लाभ दे सके और दोषी पक्ष में सुधार ला सके। जहां तक हिंदी या अंग्रेजी का प्रश्न है तो धीरे-धीरे हमें हिंदी को न्यायलय में न्याय देना होगा। यह हमारी मातृभाषा है और इसकी जगह न्यायलय में न हो तो इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है।

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