जंबू द्वीप के बिहार प्रांत के छपरा में अमृत तुल्य मिड डे मील लेने के बाद बच्चों की मृत्यु से संत्रस्त हो यमराज यमपुरी में दस दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित कर बच्चों के अभिभावकों से संवेदना जताने चित्रगुप्त को लेकर निकल पड़े। काफी देर चलने के बाद जब उनका वाहन जंबू द्वीप में आकर रूका तो उन्हें भूख सी लगने लगी! अपने वाहन को रोक कर इधर उधर नजर दौड़ार्इ तभी उन्हें सड़क के किनारे तीन चार ढाबे दिखार्इ दिए। यमराज को भूख तो लगी ही थी। भूख तो चित्र गुप्त को भी लगी थी पर उनसे कहा नहीं जा रहा था। साहब के सामने मातहत की भलार्इ इसी में होती है कि वह अपन पेट को पकड़ कर रखे। उन्होंने आव देखा न ताव! अपने वाहन को किनारे खड़ा कर चित्रगुप्त से कहा,’ मित्र! बहुत भूख लग रही है। और सामने ढाबों को देख कर तो पेट में और भी चूहे दौड़ने लगे हैं। बड़े दिनों से मृत्युलोक के ढाबों का खाना नहीं चखा। तुम जरा देखो तो सही ये ढाबे शाकाहारी हैं या….
यमराज का आदेश पा चित्रगुप्त सामने सड़क पा कर ढाबों की ओर निकले । सामने कतार में तीन ढाबे! बाहर पतीले सजाए हुए। खाने वालों के लिए चारपाइयां बिछी हुर्इं। पर आसपास कोर्इ नहीं। पहले पर बोर्ड टंगा था- मसूद वैष्णव ढाबा! हर सौ टंच माल पांच रूपए। भरपेट खाओ और हमारी पार्टी के हो जाओ! चित्रगुप्त ने ढाबे के भीतर झांका, पर कोर्इ न था। फिर चमकीले पतीलों के ढक्कन उठाए तो पतीले खाली!
हिम्मत कर दूसरे ढाबे की ओर बढ़े। वहां भी वैसे ही खाली चम चम करते पतीले! अंदर बाहर कोर्इ नहीं! चम चम करते पतीलों के ढक्कन उठाए तो वे भी खाली! बस, सामने बोर्ड टंगा था -बब्बर शाकाहारी भोजनालय! थाली पंद्रह रूपए मात्र! जो चाहो खाओ और न उठने वाला पेट लिए घर को जाओ!
चित्रगुप्त शंकित हो तीसरे ढाबे की ओर बढ़े। आगे से तो वह भी बंद ही लग रहा था , सोचा शायद पीछे से खुला हो। जंबू द्वीप में वैसे भी पिछले द्वार ही चौबीसों घंटे खुले रहते हैं! पर वह आगे पीछे दोनों ओर से बंद था। बस, उसके चारों ओर बोर्ड लगे थे- फारूख अक्षय भोजन भंडार! आइए और एक रूपए में भरपेट खाना खाकर मौज मनाइए। पर वहां न पतीले थे ,न चारपाइयां!
तीनों ढाबों को बंद देखकर वे चिंतित मुद्रा में लौट आए तो यमराज ने पूछा,’ क्यों चित्रगुप्त! क्या क्या बना है ढाबों में ? जंबू द्वीप का कुछ मशहूर हो या न पर यहां के ढाबों का भोजन तो स्वर्ग के देवता तक पंसद करते हैं और यदा कदा जब मृत्युलोक में आते हैं तो इतना खाकर जाते हैं कि स्वर्गलोक में जा बीमार हो जाएं तो हो जाएं ,’ तो चित्रगुप्त ने कहा ‘,प्रभु! लगता है ढाबे बंद कर ढाबा मालिक कहीं चले गए हैं। वहां पर तो हर ढाबे में बस, खाली चारपाइयां, खाली पतीले ही पड़े हैं। पर प्रभु! डाइट दे बड़ी सस्ती रहे थे!
‘ नानवेज का क्या रेट था?
‘ वह तो पता नहीं पर एक पांच रूपए में वेज थाली दे रहा था तो दूसरा पंद्रह रूपए में! और तीसरे ने तो हद ही कर रखी थी!
‘कैसी?
‘ वह तो एक रूपए में रोटी खिला रहा था!
‘ एक रूपए में भर पेट रोटी?? इस मंदी के दौर में भी?
‘ हां प्रभु! पता नहीं वह कैसे सब कर रहा था? पर था बेचारा बड़ा परमार्थी! भगवान उसको लंबी उम्र दे! प्रभु ! अपनी जेब से तो इस देश में कोर्इ खिलाने से रहा। यहां तो बंदे सोए सोए भी औरों की जेब में ही हाथ डाले रहते हैं। ऐसे में ? कुछ समझ नही आ रहा कि हम किस द्वीप में आ पहुंचे हैं, जंबू द्वीप तो मुझे यह लग नहीं रहा प्रभु! जीपीएस तो चालू करो प्रभु! कि तभी पेड़ से उल्टे लटके बेताल ने ठहाका लगाते हुए कहा,’ हे बटोहियो! वे सब पार्टी के लोगों के ढाबे थे! सो सजने से पहले ही बंद हो गए। ऐसे ढाबे अकसर चुनावों के दिनों में गरीबों के लिए सुबह खुलते है और दिन में बंद हो जाते है। बेचारों का खाकर दिल खुश हो या न हो,सुन कर तो दिल खुश हो ही जाता है। देखते जाओ! अब तो ये गरीबों के पेट में गुदगुदी कर वोट लेकर ही रहेंगे! पर डरो नहीं,तुम जंबू द्वीप में ही हो! भूख मिटानी हो तो वो देखो सामने पंजाबी ढाबा! जो चाहे खाओ! पैसे नहीं तो खाने की खुशबू ले आगे हो जाओ! इस देश में अधिकतर लोग वैसे भी भोजन की खुशबू से ही अपना पेट भरते हैं।
‘ तो सरकार क्या करती है?
‘वह तो बस अपनी बनार्इ नर्इ नर्इ गरीबी रेखाओं में ही हरदम उलझी रहती है।
अशोक गौतम
आलेख की कैटेगरी राजनीति लिखी हुई है,पर यह आलेख तो व्यंग लग रहा है. हो सकता है कि कैटेगरी में राजनीति जानबूझ कर लिखी गयी हो, क्योंकि आज की राजनीति ग़रीबों के लिए व्यंग ही तो हो गयी है. ऐसे गौतम जी का व्यंग अच्छा है.