सस्ती एवं जेनेरिक दवाओं के लिए कानून

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प्रमोद भार्गव

महंगी दवाओं के चलते इलाज न करा पाने वाले लाखों गरीब मरीजों के लिए यह खुश खबरी है, कि नरेन्द्र मोदी सरकार एक ऐसे कानून को बनाने जा रही हैं, जिसके बाद चिकित्सक पर्चे पर जेनेरिक दवाएं लिखने को मजबूर हो जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी ने यह घोषणा एक निजी अस्पताल के उद्घाटन समारोह में बोलते हुए कही। हालांकि इस दिशा में सरकार पहले ही पहल करते हुए स्टेंट की कीमत समेत सात सौ दवाओं की कीमतें घटा चुकी है। महंगी दवा और उसी नमूने की दवा के मूल्य में कम से कम 5 से लेकर 10 गुना तक का अंतर होता है। जैसे रक्त कैंसर के लिए एक माह की ब्रांडेड दवा की खुराक की कीमत लगभग एक लाख रुपए है, वही जेनेरिक दवा महज 11 हजार की है।
दवाओं की कीमतों को लेकर लंबे समय से सबाल उठाये जा रहे हैं। अब जाकर सरकार कानून बनाने का विचार कर रही है। कंपनी मामलों के मंत्रालय की एक सर्वे रिपोर्ट कुछ समय पहले आई थी, जिसमें खुलासा किया गया था कि दवाएं महंगी इसलिए की जा रही हैं, जिससे दवाएं आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएं। इस रिपोर्ट ने तय किया है कि दवाओं की मंहगाई का कारण दवा में लगने वाली सामग्री का महंगा होना नहीं है, बल्कि दवा कंपनियों का मुनाफे की हवस में बदल जाना है। इस लालच के चलते कंपनियां “राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए)“ के नियमों का भी पालन नहीं करती हैं। इसके मुताबिक दवाओं की कीमत सिर्फ लागत से सौ गुनी ज्यादा रख सकते हैं। लेकिन दवाओं की कीमत 1023 फीसदी तक ज्यादा वसूली जा रही है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्लैक्सोस्मिथलाईन, फाईजर, रैनबैक्सी, डाॅ.रेड्डी लैब्स और एलेमबिक जैसी नामी- गिरामी दवा कंपनियां भी दो सौ से पांच सौ गुना ज्यादा कीमत अपने दवा उत्पादों की रख रही हैं।

इसके पहले नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने भी देशी-विदेशी दवा कंपनियों पर सवाल उठाते हुए कहा था कि दवा कंपनियों ने सरकार द्वारा दी उत्पाद शुल्क का लाभ तो लिया लेकिन दवाओं की कीमतों में कटौती नहीं की। इस तरह से ग्राहकों को करीब 43 करोड़ का चूना लगाया। साथ ही 183 करोड़ रुपए का गोलमाल सरकार को राजस्व कर न चुकाकर किया है। इस धोखाधड़ी को लेकर सीएजी ने सरकार को दवा मूल्य नियंत्रण अधिनियम में संशोधन का सुझाव दिया था। यह सरकार की ढिलाई का ही परिणाम है कि उत्पाद शुल्क में छुट लेने के बावजूद कंपनियों ने कीमतें तो कम की नहीं, उल्टे नकली व स्तरहीन दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी बाजार में मजबूती से कारोबार फैला लिया। नतीजतन लाखों गरीब लोग हर साल उपचार के अभाव में दंम तोड़ रहे हैं। सरकार चिकित्सकों को कंपनियों द्वारा महंगे उपहार देने और विदेश यात्रा कराने पर भी अंकुश नहीं लगा पाई है।
इंसान की जीवन-रक्षा से जुड़ा दवा करोबार अपने देश में तेजी से मुनाफे की अमानवीय व अनैतिक हवस में बदलता जा रहा है। चिकित्सकों को महंगे उपहार देकर रोगियों के लिए मंहगी और गैर-जरुरी दवाएं लिखवाने का प्रचलन लाभ का धंधा बन गया है। इस गोरखधंधे पर लगाम लगाने के नजरिये से कुछ समय पहले केन्द्र सरकार ने दवा कंपनियों से ही एक आचार संहिता लागू कर उसे कड़ाई से अमल में लाने की अपील की थी। लेकिन संहिता का जो स्वरूप सामने लाया गया, वह राहत देने वाला नहीं था। संहिता में चिकित्सकों को उपहार व रिश्वत देकर न तो अनैतिक कारगुजारियों को लेकर कोई साफगोई थी और न ही संहिता की प्रस्तावित शर्तें कानूनन बाध्यकारी थीं। इन प्रस्तावों को लेकर दवा संघों में भी मतभेद हैं।
विज्ञान की प्रगति और उपलब्धियों के सरोकार आदमी और समाज के हितों में निहित हैं। लेकिन हमारे देश में मुक्त बाजार की उदारवादी व्यवस्था के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जो आगमन हुआ, उसके तईं जिस तेजी से व्यक्तिगत व व्यवसायजन्य अर्थ-लिप्सा और लूटतंत्र का विस्तार हुआ है, उसके शिकार चिकित्सक तो हुए ही, सरकारी और गैर-सरकारी ढांचा भी हुआ। नतीजतन देखते-देखते भारत के दवा बाजार में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की 70 प्रतिशत से भी ज्यादा की भागीदारी हो गई। इनमें से 25 फीसदी दवा कंपनियां ऐसी हैं जिन पर व्यवसायजन्य अनैतिकता अपनाने के कारण अमेरिका भारी आर्थिक दण्ड दे चुका है।
सिंतबर 2008 में भारत की सबसे बड़ी दवा कंपनी रैनबैक्सी की तीस जेनेरिक दवाओं को अमेरिका ने प्रतिबंधित किया था। रैनबैक्सी की देवास (मध्यप्रदेश) और पांवटा साहिब (हिमाचल प्रदेश) में बनने वाली दवाओं के आयात पर अमेरिका ने रोक लगाई थी। अमेरिका की सरकारी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) का दावा था कि रैनबैक्सी की भारतीय इकाइयों से जिन दवाओं का उत्पादन हो रहा है उनका मानक स्तर अमेरिका में बनने वाली दवाओं से घटिया है। ये दवाएं अमेरिकी दवा आचार संहिता की कसौटी पर भी खरी नहीं उतरीं। जबकि भारत की रैनबैक्सी ऐसी दवा कंपनी है, जो अमेरिका को सबसे ज्यादा जेनेरिक दवाओं का निर्यात करती है। रैनबैक्सी एक साल में करीब पौने दो सौ करोड़ डाॅलर की दवाएं बेचने का कारोबार करती थी। ऐसी ही बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किसी आचार संहिता के पालन के पक्ष में नहीं हैं।
किसी बाध्यकारी कानून को अमल में लाने में भी ये रोड़ा अटकाने का काम करती हैं। क्योंकि ये अपना कारोबार विज्ञापनों व चिकित्सकों को मुनाफा देकर ही फैलाये हुए हैं। छोटी दवा कंपनियों के संघ का तो यहां तक कहना है कि यदि चिकित्सकों को उपहार देने की कुप्रथा पर ही कानूनी तौर से रोक लगा दी जाए तो दवाओं की कीमतें 50 फीसदी तक कम हो जाएंगी। चूंकि दवा का निर्माण एक विशेष तकनीक के तहत किया जाता है और रोग व दवा विशेषज्ञ चिकित्सक ही पर्चे पर एक निश्चित दवा लेने को कहते हैं। दरअसल इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह मकसद अंतर्निहित है कि रोगी और उसके अविभावक दवाओं में विलय रसायनों के असर व अनुपात से अनभिज्ञ होते हैं, इसलिए वे दवा अपनी मर्जी से नहीं ले सकते। इस कारण चिकित्सक की लिखी दवा लेना जरूरी होती है, लिहाजा चिकित्सक मरीज की इस लाचारी का लाभ धड़ल्ले से उठा रहे हैं। अब नया कानून से उनकी मनमानी पर लगाम लग जाएगी।
सरकारी चेतावनी की परवाह किए बिना दवा कंपनियों का संघ जो नई आचार संहिता सामने लाया है, उसमें उपहार के रूप में रिश्वत देने का केवल तरीका बदला गया है। मसलन तोहफों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा। संहिता में केवल दवा निर्माताओं से उम्मीद जताई गई है कि वे चिकित्सकों को टीवी, फ्रिज, एसी, लेपटाॅप, सीडी, डीवीडी जैसे इलेक्ट्रोनिक उपकरण व नकद राशि नहीं देंगे। वैज्ञानिक सम्मेलन, कार्यशालाओं और परिचर्चाओं के बहाने भी तोहफे देने का सिलसिला और चिकित्सकों की विदेश यात्राएं जारी रहेंगी। जाहिर है आचार संहिता के बहाने चिकित्सक और उनके परिजनों को विदेश यात्रा की सुविधा को परंपरा बनाने का फरेब संहिता में जानबूझकर डाला गया। केंद्र सरकार को इस संहिता में भी बदलाव लाने की जरूरत है ?
जो नया कानून आने वाला है, उसके तहत चिकित्सक पर्चेे पर केवल दवा का कंपोजीशन लिखेंगे, ब्रांड का नाम नहींे लिखेंगे। सरकार इन दवाओं को बेचने के लिए 3 हजार से भी ज्यादा स्टोर खोलेगी। स्टोर संचालक को प्रोत्साहन राशि भी देंगी। सरकार ने सस्ती व जेनेरिक दवाएं देने की दृष्टि से डेढ़ लाख का स्टेंट 20-22 हजार रुपए में उपलब्ध करा दिए हैं। साफ है कि सरकार में इच्छाशक्ति हो तो सस्ती व जेनेरिक दवाओं को बाजार में उतारना मुश्किल नहीं है।

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