लंबे राजनैतिक सफर के अंतिम पड़ाव पर लडखडा गए थे दादा!

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भारत के इतिहास मे पहली बार कोई वित्त मंत्री रायसीना हिल्स जाना चाहता हैं और वो हैं प्रणव मुखर्जी । इस देश मे वित्त मंत्री का पद प्रधानमंत्री के समकक्ष हैं इसलिए वित्त मंत्री का पद हमेशा प्रधानंमंत्री के किसी खास करिबी और अर्थशास्त्री हीं बनाता हैं । अगर वाजपेयी कि सरकार को छोड़ दे पिछले बीस सालों से मनमोहन सिंह इस देश की अर्थव्यवस्था को देखते आ रहे हैं अब वो प्रधानमंत्री हैं और इस देश के बेहतरीन अर्थशास्त्री वित्त मंत्री थे लेकिन पिछले तीन सालों मे देश की जो हालात बिगड़ी हैं कि इसकी तुलना 1992 से कि जा हैं ।कांग्रेस वर्किग कमीटी से इस्तीफा देने बात दादा के चेहरे कि खुशी किस बात की थी, ये मुस््कुराहट क्या रायसीना हिल्स पहुंचने की हैं या देश की आर्थिक स्थिती की जिम्मेदारियों से मुक्ती केी खुशी थी? प्रणव मुखर्जी भले हीं एक बेहतर और कांगर्ेस के संकट मोचक हैं लेकिन एक वित्त मंत्री के तौर पर असफल रहे हैं । अपने कार्यकाल के आखिरी हफ्ते मे प्रणव मुखर्जी ने देश को भरोसा दिलाया की वो आर्थिक सुधार की दिशा मे कोई बड़ा कदम उठाएंगे, उनका साथ प्रधानमंत्री ने भी दिया । वित्तमंत्री के साथ-साथ प्रधानमंत्री के बयान ने भी देश की उम्मीदे जगाई थी की शायद देश की पेरशानी कुछ कम हो, देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे। लोगों को दोनो के बयान से ज्यादा उम्मीदें इसलिए भी जगी क्योकी लगा कि दादा अपने असफलता का टैग हटाने के लिए हो सकता हैं कुछ राहत दे। कॉरपोरेट सेक्टर के साथ आम आदमी को भी ये उम्मीद थी की जाते-जाते दादा कुछ कर जाएंगे लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमीटी से इस्तिफे के बाद शाम होते हीं तस्वीर साफ हो गई की दादा ने जो उम्मीद जगाई थी वो खोंखली थी । सब अपने आप को ठगा महसुस कर रहे थे जिस बाजार को उम्मीद थी वह शाम होते होते धराम से निचे गिर गया । क्या इस देश ने दादा से कुछ ज्यादा उम्मीद कर बैठे थे ? क्योंकी अभी कुछ हीं महिनो पहले उन्होने बजट दिया था जब उसमे वो कुछ नहीं दे पाए, फिर अभी वो क्या कर सकते थे ? इसलिए यह सवाल बनता हैं । प्रणव मुखर्जी को जो आर्थिक राहत आम आदमी या बाजार को देना था वो अपने बजट मे दे चुके थे । पिछले तीन सालों से लोग उम्मीद सिर्फ इसलिए करते आ रहे हैं क्योंकी वाकई देश की आर्थिक स्थिती खराब हैं, और कुछ ठोस कदम उठाने की जरुरत हैं । प्रणव मुखर्जी हमेशा से एक परिपक्व, गंभीर और समझदार नेता रहे हैं ,वो जो भी बोलते हैं, पुरी जिम्मेदारी से । इसलिए दादा के उस बयान से लोगो को निराशा हुई । जब कोई ठोस कदम नहीं उठाना था, तो वित्त मंत्री ने क्यों कहा कि सोमवार को कड़े फैसले लिए जाएंगे ? वित्त मंत्री के साथ-साथ प्रधानमंत्री ने भी कुछ ऐसा हीं इशारा किया । क्या दादा का बयान सिर्फ राजनीतिक बयान था क्योकी वो वित्त मंत्री के तौर पर आखिरी बार अपने प्रदेश मे गए थे । प्रणव मुखर्जी के विदाई के समय, एक बार फिर सरकार से लोगो का भरोसा टुटा हैं दादा अगर चाहते तो जाते-जाते कुछ कर सकते थे, लेकिन कुछ किया नहीं इसलिए पहली बार प्रणव मुखर्जी के उपलब्धियों के बजाय लोग उनकी नाकामियों की चर्चा कर रहे हैं । वित्त मंत्री के बयान के बाद प्रधानमंत्री ने भी देश को उम्मीद जगाई थी इसलिए सरकार की साख एक बार गिरी हैं । जिस कॉरपोरेट सेक्टर को वित्त मंत्री ने 5 हजार कड़ोर की टैक्स का राहत दिया आज आम आदमी के साथ-साथसरकार से निराश हुआ हैं । सरकार के पास एक अच्छा मौका था अपनी गिरी हुई साख को डैमेज क्ट्रोल करने की लेकिन वो भी गवां बैठी । अभी तक प्रणव मुखर्जी अपनी और सरकार कि नाकामीयों के पिछे किसी ना किसी बाहरी ताकत या गठबंधन को दोषी ठहराते रहे हैं । पिछले एक साल मे डॉलर के मुकाबले रुपये कि कीमत 20 रु कम हुई हैं, कल कारखानों मे निवेश कम हुआ हैं, शेयर बाजार इस साल कई बार गिर चुका हैं, महंगाई 10 प्रतिशत तक पहुंच गई हैं, इन सबका जिम्मा वित्तमंत्री का हैं, और ये सारी चिजें प्रणव मुख्र्जी संभाल सकते थे । आखिरी दिन भी प्रणव मुखर्जी डीस्प्वाइंट करके गए । बेशक दादा कांग्रेस के सबसे अनुभवी और देश के एक बड़े नेता माने जाते हैं लेकिन उन्होने देश के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिससे देश उनको याद कर सकें, हां कांग्रेस के संकट मोचक जरुर रहे । दादा कि अच्छाइयों से ज्यादा आज उनकी कमियों की चर्चा हर जगह हो रही थी । प्रणव मुखर्जी जैसे शालिन, मिलनसार और बेहतर अर्थशास्त्री नेता की सरकार से विदाई के समय उनकी नाकामीयों पर चर्चा होना हीं बड़ी बात हैं, यह पुरी सरकार की नाकामी साबीत करता हैं क्योंकी सरकार मे दादा से बेहतर इमानदार, अनुभवी, और कर्मठ नेता नहीं हैं ।प्रणव मुखर्जी सरकार और कांग्रेस मे एकलौते ऐसा नेता थे जिनकी बात को गंभीरता से विपक्ष के नेता भी सुनते थे । दादा के आपसी रिस्ते विपक्षी पार्टींयों के साथ भी अच्छे रहे हैं, इसलिए हमेश वो सरकार को मुश्किल से निकालते आए थे, इसलिए वो संकट मोचक कहे जाते हैं । यूपीए-2 की सरकार मे नाकामियों का अंबार लगा हैं,सरकार अहम फैसले ना लेने कि पिछे जब गठबंधन धर्म का रोना रोती हैं तो सारा देश यूपीए-१ को याद करने लगता हैं जब इससे बुरी हालत थी सरकार की लेकिन तब भी परमाणु समझौते पर अडीग रही और लेफ्ट को किनारा कर दिया । यूपीए-2 मे पहले से ज्यादा सांसद चुन के आए, फिर इस बार ऐसा क्या हो गया की वो अपने फैसले नही ले सकती, क्या ये माना जाना जाए की प्रणव मुखर्जी की सोंच आज के समय के साथ नहीं मिलती ? क्या दादा इस बार सिर्फ किसी तरह सरकार को मैनेज करके चलाने के फार्मुले पर काम कर रहे थे ? पिछले कुछ दिनो से बिजनेस कंपनीयों के सर्वे बता रहें हैं, कि भारत की आर्थिक स्थिती कितनी खराब हैं, विदेशी निवेश ठप हैं, विदेशी निवेशक सरकार के फैसलें ना लेने की वजह से, बाजार कि अनिश्चितता, और घाटे के डर से अपने पैसे बैंको से नहीं बाहर नहीं निकाल रहे हैं । देश की चार बड़ी कंपनीयां बैंको से अपने पैसे निकालकर इन्वेस्ट करने से डर रही हैं, फिर दादा जैसे अनुभवी नेता पर सवाल उठना लाजीमी हैं ? इसमे कोई दो राय नहीं कि प्रणव मुखर्जी एक अनुभवी इमानदार और कर्मठ नेता रहे हैं किसी को इसमे शक नही की दादा एक बेहतर नेता हैं लेकिन देश कि जो हालत हैं उसमे दादा की अहम भूमिका हैं इसलिए एक फेल वित्तमंत्री कहा जा रहा हैं । भारत के 2012 कि तुलना राजीव गांधी के 90 के दशक की सरकार से हो रही हैं ।राजनीति और आर्थिक जानकारों का मानना हैं कि दादा की सोंच अभी भी पुरानी हैं इसलिए वो इकसवीं सदी के जरुरतों के मुताबिक फैसला नहीं कर पाए । प्रणव मुखर्जी राजनीति के अनुभवी, पुराने और बड़े कद के बावजुद उन्होने ना तो किसी पार्टी को या ना हीं व्यक्तिगत तौर पर किसी को आगे नहीं बढ़ाया जिससे लोग उन्हे याद करें । लगभग 30 साल के राजैनतिक करियर मे उन्होने किसी भी नेता को आगे नहीं बढाया ना हीं दिल्ली मे औऱ ना हीं कोलकाता मे,हालांकी दादा की की कई शानदार उपलब्धियां रही हैं, कई अच्छे काम भी किए हैं, हमेशा संसद की गरिमा का खयाल रखा हैं, बेदाग छवि के एक लोकप्रिय नेता रहें है, और अभी भी उनकी लोकप्रियता का नतीजा और कुशल तथा सक्षम राजनीतिक जीवन के कारण हीं विपक्षी पार्टीयों ने भी तमाम उतार चढ़ाव के बाद, उन्हे रायसिना हिल्स भेजने का फैंसला लिया हैं । हमेशा से कांग्रेस और सरकार के हर मुसीबत को टाला हैं, इसलिए एक संकट मोचक के तौर पर तो वो हमेशा याद किए जाएंगे, लेकिन देश के लिए कुछ करने वाले नेताओं की श्रेणी मे शायद उनका नाम शामिल ना हों । दादा का राजनैतिक अनुभव राष्ट्रपति के तौर पर बहुत काम आ सकता हैं लेकिन निर्भर उनके उपर करता हैं कि वो अब भी वो वित्त मंत्री के असफल होने का दोष दुसरों पर डालते हैं या इमानदार कोशिश करते हैं

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