शब्दों की कथा

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अदभुत थी कथा

और कथनीय था कथन

सुन रहे थे सभी वहाँ

रूचि लेकर.

शाखों और पत्तों पर यहाँ वहाँ

अटक जाते थे विचार.

वातावरण हो रहा था कथामय

और चल रहा था साथ साथ कथा के

लगभग एकसार..

शब्द थे जो उसमे

सभी भीगे भीगे से

अपने अर्थों के कपड़ो को चिपकाएँ हुए थे

अपने शरीर से

कि जैसे अपने अर्थों से वे नहीं हो पा रहे थे

पूरे चरितार्थ.

इसी उहापोह में बीत गए उनके

कुछ अध्याय जीवन के

कुछ होने लगे लोप विलोप

और कुछ अध्याय नए होने लगे सृजित.

सृजन के इस नए रूप से

जीवन पढ़ने लगा

अ ब स – क ख ग.

समय के इस प्रवाह में

बहते बहते सभी कुछ था गतिमान

किन्तु गति ही स्थितप्रज्ञ है अपनी पूरी प्रज्ञा के साथ.

 

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