जाने भी दो, पत्रकारो !

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जगमोहन फुटेला

मैंने एक न्यूज़ चैनल पे देखा. सी वोटर के एग्जिट पोल के सहारे वो बता रहा था कि हिसार में अन्ना टीम के हक़ में फैसला आता है या कांग्रेस के !

ये अन्ना आन्दोलन की प्रशंसा है तो ठीक हैं. भक्ति है तो भी ठीक है और चमचागिरी तो तब भी उनकी मर्ज़ी. लेकिन ये व्यावहारिक नहीं है. ये सच नहीं है. बल्कि मैं कहूँगा कि ये जिम्मेवार पत्रकारिता नहीं है. एक पत्रकार के नाते जब आप किसी का दोष किसी और के माथे नहीं मढ़ सकते तो किसी और का श्रेय भी किसी और को कैसे दे सकते हो? वैसे भी ये जो पब्लिक है वो सब जानती है. ज़मीनी सच्चाई इस न्यूज़ चैनल की जानकारीऔर अब हो रहे इस प्रचार से अलग है. खुद टीवी में स्ट्रिंगर से सम्पादक तक के अपने अनुभव से मैं ये कह सकता हूँ कि ज़मीनी सच्चाई या जन-धारणा के खिलाफ आप जब रिपोर्ट करते हो तो अपनी ही विश्वसनीयता और यों टीआरपी (अगर वो कोई है) तो उसका नुक्सान करते हो.

मुझे अन्ना के आन्दोलन या उसको कोई क्रेडिट जाता भी हो तो इस पर ऐतराज़ नहीं है. लेकिन मुझे दुःख होगा ये जान कर कि अगर वे या उनके साथी भी किसी ऐसी घटना के लिए वाहवाही बटोरते हैं जो उनके आगमन से बहुत पहले और उनके बिना भी घट ही रही थी. मुझे लगता है कि खुद अकेले अन्ना पर छोड़ दिया जाए तो वे शायद हिसार परिणाम का कोई श्रेय नहीं लेना चाहेंगे. इसके कारण हैं…हिसार या तो भजन लाल का था या ओमप्रकाश जिंदल का. कांग्रेस का तो वो कभी था भी नहीं. चौटाला के उम्मीदवार के रूप में सुरेन्द्र बरवाला और खुद अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में लड़े यही जयप्रकाश भी यहाँ से सांसद रह चुके हैं. तो पहली बात तो ये मान के चलिए कि हिसार भी किसी ग्वालियर या रायबरेली की तरह पार्टियों से अधिक व्यक्तियों का संसदीय क्षेत्र रहा है. इसे विशुद्ध पार्टी के नज़रिए से अगर देखें भी तो वो शायद चौटाला की पार्टी का तो रहा हो सकता है (दो बार जीती उनकी पार्टी यहाँ से). लेकिन कांग्रेस का वो कभी नहीं रहा. कांग्रेस के साथ कभी वो रहा तो इस लिए कि भजन लाल उसके साथ थे. हिसार अगर कांग्रेस की ही जागीर होती तो हिसार के रहने वाले नवीन जिंदल भी कुरुक्षेत्र से जा के चुनाव न लड़ते होते. तो सबसे पहली बात ये कि हिसार न कांग्रेसी कभी था. न हिसार से पिछला सांसद ही कांग्रेस से था.

दूसरी बात. हिसार में कांग्रेस जीतती तो वैसे भी नहीं रही. मगर इस बार उसकी हार तो तभी हो गई थी जब से हरियाणा में ये आम धारणा बनी कि मौजूदा मुख्यमंत्री हुड्डा को हरियाणा में सिर्फ रोहतक दिखाई देता है. पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा के बिना भी चौटाला का 90 में से 32 (एक अकाली समेत) सीटें जीत जाना इसका प्रमाण है. हरियाणा का इतिहास गवाह है कि चौटाला की पार्टी ने जब जब भी भाजपा के साथ मिल के चुनाव लड़ा है, हरियाणा में सरकार बनाई है. पिछली बार वे मिल के लड़े होते तो उनकी सीटें हो सकती थीं साथ के पार और कांग्रेस शायद बीस के नीचे. इस न्यूज़ चैनल समेत जिन मेरे पत्रकार बंधुओं ने कभी हरियाणा देखा, सुना या पढ़ा न हो उन्हें बता दें भाजपा के ऐन वक्त पे इनेलो-भाजपा गठबंधन और उधर जनहित कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन टूट जाने से मिली ज़बरदस्त मदद के बावजूद कांग्रेस 90 में से महज़ 40 सीटें ही जीत पाई थी. दोनों विपक्षी गठबन्धनों में से कोई एक भी बचा रहता और सिर्फ दो तीन सीटें भी इधर की उधर हो गईं होतीं तो हरियाणा में आज कांग्रेस की सरकार नहीं होती.

पर, कोई कह सकता है कि बुआ के अगर मूंछें होतीं तो क्या वो तय न होती?..ठीक. माना कि राजनीति में काल्पनिक कुछ नहीं होता. जो होता है वही होता और जो होता है वो ही दिखता है. अब अगर इस आधार पर भी देखें तो अब हिसार का श्रेय अन्ना को देने वालों को जाटों की खापों का वो आन्दोलन क्यों नहीं दिखता जो उन्होनें संगोत्र विवाह के खिलाफ कानून बनाने के लिए चलाया था? उसके बाद आरक्षण के लिए उनक वो आन्दोलन क्यों दिखता मेरे इन पत्रकार मित्रों को जिसकी वजह से कोई तीन हफ्ते तक उत्तर भारत की रेल सेवाएं बाधित रहीं थीं. जाट कांग्रेस से बहुत दूर जा चुके मित्रो. ठीक वैसे ही जैसे कमलापति त्रिपाठी, ललित नारायण मिश्र और शुक्ल बंधुओं के पतन के बाद यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश के ब्राह्मण चले गए थे. और आपरेशन ब्ल्यू स्टार के बाद किसी हद तक सिख आज भी हैं.

ऊपर से इस सब कारणों का बाप, मिर्चपुर. हरियाणा के दलित तो सन 96 मायावती के उफान पे होने के बावजूद एक अकेले जगन्नाथ की वजह से बंसीलाल की हविपा के साथ भी चले गए थे. वे किसी मायावती या कांग्रेस को नहीं, अपना हित अहित देखते हैं. वैसे भी आम तौर पर धारणा ये है कि हरियाणा में आमतौर पर जाटों को पोषित करने वाली पार्टी या नेता के साथ दलित जाते नहीं हैं. ऐसे में हुड्डा वाली कांग्रेस के साथ दलितों के जा सकने की कोई संभावना बची थी तो वो मिर्चपुर में जल कर स्वाहा हो गई थी. कोई समझता हो या न समझता हो, अरविंद केजरीवाल ये बखूबी समझ रहे थे. वैसे भी वे हरियाणा के ही हैं. उन ने दिमाग लगाया. सोचा कि कांग्रेस जब हिसार में लुढ़क ही रही है तो क्यों उसका श्रेय बटोर लें. वे कांग्रेस नहीं तो फिर क्या जैसे सवालों में घिरे. सफाई देते फिरे कि उनके समर्थकों ने उन्हीं की तरह एक सवाल खड़ा करने वाले को क्यों पीटा. मेरी समझ से हिसार के क्रेडिट बटोरने के चक्कर में टीम अन्ना अपने मुख्य एजेंडे से भटकी, जाने अनजाने उस पे भाजपा समर्थित और समर्थेक होने के आरोप लगे, छवि कुछ तो संदिग्ध हुई. इसके चर्चा फिर कभी. लेकिन एक बात तय है कि कांग्रेस का विरोध करने जब गई हिसार में अन्ना टीम तो वो बस यूं ही नहीं चल दी होगी. मैं तारीफ़ करूंगा उनकी कि उन्होंने हिसार संसदीय क्षेत्र की वोटगत ज़मीनी सच्चाई को ठीक से समझा और फिर अपनी रणनीति के तहद कांग्रेस की पहले जर्जर और ढहती हुई दीवार में एक लात मारने का प्रयास उन्होंने भी किया. लेकिन हिसार में कांग्रेस उनकी वजह से तीसरे नंबर पे आ ही रही है तो वो उन्हीं की वजह से कतई नहीं आ रही है.

सो, मेरे पत्रकार मित्रो, आप अन्ना के कसीदे पढो मगर हरियाणा में जाटों और दलितों दोनों के आन्दोलनों और कांग्रेस से विमुख होने के असल कारणों से मुंह न मोड़ो. सिर्फ आपके कह देने से वो तबके आप से सहमत नहीं हो नहीं हो जाएंगे जो अन्ना के आन्दोलन के भी बहुत पहले से आन्दोलन की राह पे और कांग्रेस से नाराज़ हैं. रही अन्ना के कांग्रेस के खिलाफ जाने की बात तो वे जाएँ. बेशक ये तर्क दे के कि सरकार उसकी है तो जन लोकपाल बिल पास करना उसी की जिम्मेवारी है. लेकिन मेरा मानना ये है कि वैचारिक द्रष्टिकोण से कांग्रेस अन्ना की राजनैतिक विचारधारा के ज्यादा नज़दीक होनी चाहिए. इसे हम प्रशांत भूषण पर हमला करने वाली फासीवादी शक्तियों के सन्दर्भ में देखें तो और भी बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. फिर भी वे करें कांग्रेस का विरोध तो करते रहें. लेकिन पकी पकाई दाल पर हरा धनिया छिड़क भर देने से जैसे कोई कुक नहीं हो सकता, वैसे ही हिसार में पहले से तय कांग्रेस की पराजय उन ने कराई इसका कोई तुक भी नहीं हो सकता.

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