मुसलमान ही करते हैं मुसलमानों के वोट का सौदा

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ए एन शिबली

हिंदुस्तान में जब भी चुनाव का समय आता है चाहे वह विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव सबसे अधिक बहस इस बात को लेकर होती है कि इस बार मुसलमान किसे वोट देंगे। चूंकि भारत में मुसलमानों की एक बड़ी संख्या बस्ती है, इसलिए अधिकांश राज्यों में पार्टी की जीत या हार में मुसलमानों के वोट की बड़ी अहमियत होती है। मुसलमानों के वोट के इसी महत्व को समझते हुए राजनीतिक पार्टियां मुसलमानों में से ही कुछ दलालों को तैयार करती हैं जो केवल अपने थोड़े बहुत लाभ के लिए मुस्लिम वोटों की दलाली का काम करते है। उनमें राजनीति में रुचि रखने वाले और हमेशा नेताओं के के आगे पीछे करने वाले लोग तो शामिल होते ही हैं दुख इस बात का है अपना उल्लू सीधा करने के लिए मुस्लिम वोटों की दलाली के इस काम में वह उलेमा हज़रात भी शामिल होते हैं या हैं जिन पर सारे मुसलमान नहीं तो कम से मुसलमानों की एक बड़ी संख्या आँख बंद कर के भरोसा करती है।

पिछले दिनों दिल्ली में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ जिसमें वक्ताओं ने यह तो स्पष्ट शब्दों में नहीं कहा कि मुसलमानों को किस पार्टी को वोट देना चाहिए लेकिन वहां जो कुछ भी कहा गया इससे यह साफ जाहिर हो रहा था कि सब लोग मिल कर किस पार्टी के लिए वोट मांग रहे हैं। उक्त कार्यक्रम में यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि मुसलमानों को राजनीतिक पार्टियां नहीं बनानी चाहिए। इस देश में मुस्लिम राजनीतिक दल की आवश्यकता ही नहीं है। दूसरी जिस बात पर विशेष बल दिया गया वह यह कि मुसलमान अपने वोट के महत्व को समझें और उसे विभाजित नहीं होने दें। कुल मिलाकर इस कार्यक्रम के आयोजन का उद्देश्य यह था कि मुसलमानों को चाहिए कि वह कांग्रेस को वोट दें। कमाल की बात तो यह है कि इस कार्यक्रम में उस जमाते इस्लामी हिंद के एक सचिव भी थे जिसने वेलफ़ैयर पार्टी के नाम से अपनी एक राजनीतिक पार्टी बनाई है। जब इस कार्यक्रम में यह कहा गया कि मुसलमानों को राजनीतिक दल बनाने की आवश्यकता नहीं है तो फिर पार्टी के सचिव ने इस पर आपत्ति क्यों नहीं।

अक्सर यह बात कही जाती है कि इस देश में मुसलमान इसलिए विभिन्न प्रकार की परेशानियों में घिरा हुआ है क्योंकि उसकी अपनी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है। अगर मुसलमान राजनीतिक रूप से मजबूत हो जाएं तो उनकी बहुत सी परेशानियों अपने आप कम हो जाएंगी। मगर अब जबकि मुसलमानों की कई राजनीतिक पार्टियां बन गई हैं और उनमें से कई ने तो शानदार परिणाम भी दिए हैं तो ऐसा कहा जा रहा है कि हिंदुस्तान में मुस्लिम राजनीतिक दल की न तो आवश्यकता है और न ही यहां यह संभव है।

मुस्लिम उलेमा और विशेषज्ञों का यह दोहरा व्यवहार क्यों?

सच्चाई यह है कि इस देश में अधिकांश मुस्लिम विशेषज्ञों और बड़े उलेमा भी किसी न किसी पार्टी के लिए काम करते हैं। जो बेचारे छोटे मौलाना हैं, वह तो बस अपने भाषण करने की क्षमता का फायदा उठाकर पूरे चुनाव के दौरान किसी पार्टी के लिए भाषण करने का ठेका ले लेते हैं और जो बड़े मौलाना हैं वह समाचार पत्रों द्वारा मुसलमानों से किसी पार्टी को समर्थन देने की अपील करते हैं। कुछ मौलाना ऐसे भी हैं जो चुनाव के दौरान उर्दू के अख़बारों में छोटे मोटे संगठन से नाम विज्ञापन प्रकाशित कराकर किसी विशेष पार्टी के इशारे पर किसी विशेष पार्टी के खिलाफ अभियान चलाते हैं। लेकिन यह तय है कि अधिकांश मौलाना इसी कांग्रेस पार्टी का समर्थन करते हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी पार्टी ने मुसलमानों का सबसे अधिक शोषण किया। कुछ कमज़ोर क़िस्म के मौलाना को तो कांग्रेस इस्तेमाल करती है जबकि जो बड़े मौलाना हैं और जिनकी बड़ी हैसियत है, वह कांग्रेस को एक तरह से कहें तो ब्लैक मेल करते हैं।

यहाँ मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कांग्रेस को वोट नहीं दिया जाए। मेरे कहने का मतलब यह है कि अगर कांग्रेस को ही वोट देना है तो फिर यह मौलाना हज़रात या मुस्लिम बुद्धिजीवी कांग्रेस से यह क्यों नहीं कहते कि मुसलमानों पर सबसे अधिक ज़ुल्म आपकी सरकार में ही हुआ है। वह कांग्रेस से यह क्यों नहीं कहते कि आपकी सरकार में ही जब चाहा मुसलमानों को किसी न किसी बहाने गिरफ्तार कर बिना किसी अपराध के जेलों में बंद किया जा रहा है। जिन मुस्लिम युवाओं का किसी मामले में निर्दोष होना लग लगभग तय हो गया है वह भी जेलों में बंद हैं। जिन्हें कई साल की यातना के बाद जेल से रिलीज किया जाता है उन्हें कुछ रुपये देकर बहला दिया जाता है। कांग्रेस् के लिए वोट मांगने वाले कांग्रेस् से यह कियूं नहीं पूछते की आप जिन मुसलमानों के वोट की मदद से सरकार बनाते हैं उन्हीं मुसलमानों को बार बार क्यों देश भक्त होने का सबूत देना पड़ता है। जब यह मुस्लिम बुद्धिजीवी या मौलाना हजरात मुसलमानों से कांग्रेस को ही वोट देने की अपील करते हैं तो वह उनसे यह भी तो कह सकते हैं कि काँगरेस मुसलमानों पर अत्याचार बंद करे। उसके शासनकाल में आए दिन जो नियोजित साजिश के तहत साम्प्रदायिक दंगे कराकर जिस तरह मुसलमानों की हत्या है या फिर उनकी दोलतें लौटी जाती हैं उस पर रोक लगे।

कुछ हज़रात तो केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए खुद को मुसलमानों का हमदर्द बताते हैं मगर इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनके बारे में हर किसी को पता है कि वह कांग्रेस के लिए काम करते हैं मगर वह अपनी क़ौम के लिए भी चिंतित रहते हैं। इनमें मौलाना अरशद मदनी का नाम लिया जा सकता है। उनके बारे में कहा जाता है कि वह हर दौर में कांग्रेस के साथ रहे और हर चुनाव में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से कांग्रेस की मदद करते रहे। इसका उदाहरण उन्होंने असम चुनाव में भी दिया जहां उनके लोगों ने बदरुद्दीन अजमल के खिलाफ कांग्रेस का समर्थन किया। इसके बावजूद अरशद मदनी हमेशा मुसलमानों की आवाज उठाते रहते है। उनका एक सबसे बड़ा काम विभिन्न घटनाओं में गिरफ्तार निर्दोष मुसलमानों को मुफ्त कानूनी सहायता उपलब्ध कराना है। उनके इस काम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। एक तरफ जहां बहुत से मौलाना लोग उर्दू अखबार म केवल प्रेस विज्ञप्ति भेज कर समझते हैं कि उन्होंने मुसलमानों पर एहसान कर दिया वहीं दूसरी ओर मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान कराकर अरशद मदनी साहब की टीम एक बड़ा काम कर रही है।

खैर बात होरी थी चुनाव और मुसलमान की। हमेशा यह सवाल उठता रहा है कि मुसलमान किसे वोट दें। चुनाव करीब आते ही यह कहा जाने लगता है कि मुसलमान अपना वोट बंटने नहीं दे। इन दिनों मौलाना वाली रहमानी भी यही कह रहे हैं। जो मुसलमान कुछ हद तक होशमंद हैं और पढे लिखे हैं उन पर तो किसी अपील का असर नहीं होता लेकिन अधिकांश ऐसे हैं जो तथाकथित मुस्लिम संगठनों की अपील के अनुसार अपनी राय बनाते हैं। इन संगठनों या फिर मुस्लिम बुद्धिजीवियों से मेरी अपील है कि कृपया अपने कुछ लाभ के लिए पूरी मिल्लत के साथ धोखा नहीं करें। अगर लोग उन पर भरोसा करते हैं तो उन्हें चाहिए कि वह उनकी भावनाओं से न खेलें। मुसलमानों से बड़े संगठन मिलकर ऐसा साझा निर्णय लें जिससे मिल्लत का भी फायदा हो और देश का भी।

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