लीबिया न बने दूसरा वियतनाम

ट्यूनीसिया और मिस्र के मुकाबले लीब्या की बगावत ज़रा लंबी खिंचती चली जा रही है| अबीदीन बिन अली और हुस्नी मुबारक की तुलना में मुअम्मर कज्ज़ाफी ज्यादा बड़े तानाशाह सिद्घ हो रहे हैं| उन्होंने अपने 41 साल के राज में अपनी जड़ें इतनी गहरी कर ली हैं कि उन्हें उखाड़ना मुश्किल हो रहा है| अपने आप को ‘बादशाहों’ का ‘बादशाह’ कहनेवाले कज्ज़ाफी ने अमेरिका को चेतावनी दी है कि अगर वह सैन्य हस्तक्षेप करेगा तो उसे लीब्या में वियतनाम से भी भयंकर स्थिति का सामना करना पड़ेगा| उन्होंने यह भी कहा है कि वे 30 लाख लीब्याई नागरिकों को इतने हथियार दे देंगे कि वे विदेशी फौजों को मार गिराएंगे|

 

 

 

अमेरिका और बि्रटेन जैसे राष्ट्र इस समय बड़ी दुविधा में फंस गए हैं| उन्होंने कज्ज़ाफी के खिलाफ मोर्चा तो खोल दिया है लेकिन वह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे लीब्या में सैन्य हस्तक्षेप करें या न करें| बि्रटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन ने प्रधानमंत्री ब्लेयर के नक्शे-कदम पर चलते हुए लीब्या में फौज भेजने का नारा लगा दिया है लेकिन ब्लेयर को जैसे सद्दाम हुसैन ले डूबा, वैसे ही कज्ज़ाफी कहीं केमरन का बेड़ा गर्क न कर दे, यह भय अब बि्रटेन की जनता को सताने लगा है| इधर केमरन ने अपने सैन्य-प्रमुखों को सतर्क कर दिया है, उधर अमेरिका ने अपना जंगी जहाजी बेड़ा – ‘यूएसएस एंटरप्राइज़’ भूमध्यसागर में भेज दिया है|

 

 

 

पश्चिमी राष्ट्रों ने संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद पर दबाव डालकर कज्ज़ाफी के खिलाफ प्रतिबंध तो घोषित करवा दिए हैं लेकिन अगर वे चाहेंगे कि लीब्या में फौजें उतार दी जाएं तो उन्हें रूस और चीन के वीटो का सामना करना पढ़ सकता है| भारत और ब्राजील जैसे सु.प. के अस्थायी सदस्य भी फौजी कार्रवाई का समर्थन नहीं करेंगे| पश्चिमी राष्ट्रों ने जैसे एराक़ पर हमला बोल दिया था, यदि वैसे ही वे लीब्या पर भी हमला बोल देंगे तो वे अपने आपको भारी मुसीबत में फंसा लेंगे| इसके कई कारण हैं|

 

 

 

पहला तो यही कि फौजी कार्रवाई के पीछे सं.रा. का समर्थन नहीं होने के कारण उसकी वैधता संदिग्ध हो जाएगी| दुनिया के देश मानेंगे कि वह कार्रवाई शुद्घ पश्चिमी दादागिरी है, जिसे ब्लेयर ने कभी ‘उदार हस्तक्षेपवाद’ कहा था| दूसरा, लीब्या में हस्तक्षेप का कारण यह बताया जाएगा कि वहां मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, लेकिन इस तरह के उल्लंघन कई देशों में हो रहे हैं| कहीं कम, कहीं ज्यादा ! पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा लीब्या में किए जानेवाले हस्तक्षेप को यह कहकर बदनाम किया जाएगा कि यह मानव अधिकारों की रक्षा के लिए नहीं बल्कि लीब्या के तेल पर कब्जा करने के लिए किया गया है| तीसरा, अमेरिका के एक लाख सिपाही अफगानिस्तान में और 50 हजार सिपाही पहले से ही एराक़ में फंसे हुए हैं| सैकड़ों की संख्या में वे मारे जा रहे हैं और हर माह अरबों डॉलर पानी की तरह बह रहे हैं| फिर भी अमेरिका को इस अंधी सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा है| अब वह एक नई सुरंग में छलांग लगाने की गलती क्यों करेगा ? चौथा, कज्ज़ाफी न तो बिन अली है, न मुबारक है, न सद्रदाम है| उस पर झूठे ही सही, वैसे गंभीर अरोप नहीं हैं, जैसे सद्दाम हुसैन पर लगाए गए थे| सद्दाम की तरह वह शिया बहुल देश का अल्पसंख्यक सुन्नी शासक नहीं है| कज़्ज़ाफी का अपना कबीला-कज्ज़ाफ-हालांकि सबसे बड़ा नहीं है लेकिन पिछले चार दशक में उसने लीब्या के हर महत्वपूर्ण और नाजुक स्थान पर अपना कब्जा जमा रखा है| वह कज्ज़ाफी के लिए जरूर लड़ेगा याने यदि लीब्या में फौजी हस्तक्षेप होता है तो गृह-युद्घ छिड़ने की पूरी संभावना है, जो लंबा खिंच सकता है और जिसके दुष्परिणाम पड़ौसी देशों को भी भुगतने पड़ सकते हैं|

 

 

 

लीब्या में विदेशी फौजी हस्तक्षेप का सबसे बड़ा खतरा यह है कि तेल का उत्पादन बिल्कुल ठप्प हो सकता है| तेल पैदा करनेवाले ज्यादातर क्षेत्र् पूर्वी लीब्या में हैं| इन क्षेत्रें में अभी तक बागियों का बोलबाला था लेकिन ताजा खबरों से पता चलता है कि कज़्ज़ाफी के सैनिकों ने उन पर दुबारा कब्जा कर लिया है| यह असंभव नहीं कि कज़्ज़ाफी-जैसा सिरफिरा नेता इन तेल के कुओं में आग लगा दे और पाइपलाइनों को तुड़वा दें| शक तो यह भी है कि यदि विदेशी फौजी हस्तक्षेप होगा तो कज्ज़ाफी विषाक्त रासयनिक गैसों का इस्तेमाल करने से भी बाज़ नहीं आएंगें| ऐसी हालत में यही बेहतर होगा कि अंतरराष्ट्रीय समाज सीधे सैन्य हस्तक्षेप से बचे लेकिन कज्ज़ाफी को हटाने की पुरजोर कोशिश करे|

 

 

 

कज़्ज़ाफी भागने के लिए मजबूर हो जाएं, इस दृष्टि से लीब्या को ‘उड़ान-निषिद्घ क्षेत्र्’ घोषित करने का प्रस्ताव हवा में तैर रहा है| कल तक बागियों का जो संगठन दावा कर रहा था कि हमें किसी भी तरह की विदेशी मदद नहीं चाहिए, उसने भी ‘उड़ान-निषिद्घ क्षेत्र्’ का समर्थन कर दिया है| इस घोषणा का व्यावहारिक अर्थ यह है कि कज़्ज़ाफी के विमानों और हेलिकॉप्टरों को उड़ने नहीं दिया जाएगा| फिलहाल इन्हीं के जरिए कज्ज़ाफी बागियों और साधारण नागरिकों पर हमले बोल रहे हैं| लीब्या की हवाई सेना पर उनके अपने कज्ज़ाफ कबीले का लगभग एकाधिकार है| यदि लीब्या की वायुसेना को निष्कि्रय कर दिया जाए तो कज़्ज़ाफी का टिके रहना मुश्किल हो जाएगा| 45000 जवानों की फौज में वारफल्लाह, मघराहा और सेनूस्सी कबीलों के लोगों की संख्या काफी बड़ी है| इन कबीलों के सीनों में कज़्ज़ाफी ने गहरे घाव लगा रखे हैं| इसीलिए वायुसेना के निष्कि्रय होते ही फौज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा कज्ज़ाफी के खिलाफ खड़गहस्त हो सकता है|

 

 

 

‘उड़ान निषिद्घ क्षेत्र्’ की घोषणा का अर्थ है, कज्ज़ाफी के खिलाफ अप्रत्यक्ष युद्घ की घोषणा ! अमेरिकी रक्षामंत्री रॉबर्ट गेट्रस उसे अव्यावहारिक बता चुके हैं लेकिन बि्रटिश प्रधानमंत्री उसके उत्साही समर्थक हैं| जैसे सद्दाम के विरूद्घ इस तरह की घोषणा ने उन्हें पंगु बना दिया था, वैसे ही कज्ज़ाफी को घेरने का यह सबसे सुरक्षित उपाय मालूम पड़ रहा है लेकिन लीब्या की राष्ट्रीय बागी परिषद के अध्यक्ष मुस्तफा अब्दुल जलील ने कहा है कि यह हस्तक्षेप केवल संयुक्तराष्ट्र संघ की देखरेख में ही होना चाहिए| जलील की यह राय काफी दूरदर्शितापूर्ण है| इस संबंध में सुरक्षा परिषद को तुरंत विचार करना चाहिए| इसके अलावा पश्चिमी राष्ट्र लीब्या में सीधा हस्तक्षेप करें, उससे कहीं अधिक बेहतर होगा कि वे बागियों को हथियार और प्रशिक्षण सुलभ करवाएं|

 

 

 

वैसे अंतरराष्ट्रीय फौजदारी अदालत भी सकि्रय हो गई है| सुना है िक वह शीघ्र ही कज्ज़ाफी और उनके सहयोगियों के नाम वारंट जारी करेगी लेकिन असली सवाल यह है कि उन्हें गिरफ्रतार कौन करेगा और उन्हें पकड़कर हेग की अदालत में कौन पेश करेगा ? इस बीच यह खबर भी गर्म है कि वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्रयुगो शावेज ने, जो कज्ज़ाफी के मित्र् भी हैं, एक शांति समझौते का प्रस्ताव रखा है लेकिन बागी नेता जलील ने उसे रद्द करते हुए कहा है कि वे कज्ज़ाफी से कोई बात नहीं करेंगे| उन्हें जाना ही होगा| कज्ज़ाफी जाएंगे जरूर लेकिन डर यही है कि जाते-जाते वे पश्चिमी राष्ट्रों को कहीं लीब्या के दल-दल में न फंसा जाएं|

 

दैनिक हिन्दुस्तान, 5 मार्च 2011 में प्रकाशित

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