प्राण, परिवेश और परिवर्तन

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गंगानन्‍द झा

“किसी वयस्क व्यक्ति को किसी गर्म दिन बिना भोजन और पानी के सहारा मरुभूमि के एक छाँवरहित भाग में रख दिया जाए, तो रात बीतने के पहले ही वह मर जाएगा। ”

उपर्युक्त अवलोकन बतलाता है कि शरीर के प्राणवंत रहने में उसका परिवेश समान रूप से महत्वपूर्ण होता है। जीव का शरीर आत्मा के बिना निष्प्राण हुआ करता है; यह मान्यता भले ही सर्वमान्य न हो, पर इस कथन में विवाद की संभावना बिलकुल नहीं है कि जीव का शरीर उसके परिवेश से स्वतन्त्र एवम् निरपेक्ष कभी भी नहीं हो सकता। जीवन शरीर के माध्यम से अपनी उपस्थिति की अभिव्यक्ति करता है। परिवेश शरीर को प्राणवन्त रखता है, क्योंकि जीवित कोशिका इतनी जटिल एवम् नाजुक संरचना होती है कि इसे अपने आपको कायम रखने के लिए ऊर्जा के निरन्तर खर्च की जरूरत रहती है। इसके अलावे जीवन की पहचान करानेवाली प्रक्रियाओं के संचालन के लिए भी ऊर्जा की निरन्तर आपूर्ति की जरूरत रहती है। परिवेश ही प्राणी के लिए ऊर्जा एवम् पदार्थ का स्रोत होता है। इस तरह परिवेश प्राणी के जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण और अपरिहार्य होता है।. स्वस्थ परिवेश में प्राणी के लिए आवश्यक सारी ऊर्जा एवम् पदार्थ इस रूप में मौजूद रहती हैं कि प्राणी को उपलब्ध होती रह पाए। स्वस्थ परिवेश प्राणी की जीवनी प्रक्रियाओं के फलस्वरूप पैदा होने वाले दूषित पदार्थों को निपटाने की सामर्थ्य भी रखता है।

परिवेश और जीव के पारस्परिक संबन्धों को नंगी चट्टान पर जीवों के आविर्भाव के सिलसिले के अवलोकन एवम् अध्ययन से बड़ी अच्छी तरह समझा जा सकता है। चट्टान की सतह पर अटकी हुई बारिश और ओस की बूँदें लाइकेन्स की ‘क्रस्टोज़’ प्रजाति के उगने के लिए काफी हो जाती है। लाइकेन ऐसे सूक्ष्म प्राणी होते हैं जिनके शरीर का एक अंश फँफूदी का कवक और दूसरा शैवाल होता है। लाइकेन्स चट्टान की सतह पर एक हलकी सी परत के रूप में उगा करते हैं। इनके शरीर का कवक वायुमण्डल से पानी कॊ अवशोषित करने में विशेष दक्षता रखता है तथा शैवालीय-अंश प्रकाश-संश्लेषण क्रिया सम्पादित करता है। कवकीय भाग वायुमण्डल में शामिल काफी कम पानी को भी ग्रहण कर लेता है; इसलिए इस भीषण सूखे की स्थिति में भी लाइकेन्स अपना जीवन-चक्र पूरा करते रह पाते हैं। इनके आविर्भाव से चट्टान की प्रकृति में फर्क़ आने लगते हैं। लाइकेन्स के उत्सर्जित और संसृत पदार्थ चट्टान के कणों में शामिल होकर उनके टूटने और बदलने की प्रक्रिया में त्वरण लाते रहते हैं। जीवन चक्र पूरा होने पर जीवाणुओं द्वारा मृत शरीरों का विघटन होता है। इससे चट्टानों में कार्बनिक यौगिकों का अनुपात बढ़ता है तल की उर्वरता बढ़ती है और उच्च किस्म के लाइकेन्स के उगने का सिलसिला शुरु हो जाता है। इस नई मिट्टी में अधिक जल-ग्रहण क्षमता होने के कारण ‘फोलियोज़’ प्रजाति के लाइकेन्स, जिनको अपेक्षाकृत अधिक पानी की आवश्यकता होती है, उगने लगते हैं। इनके शरीर बड़े होते हैं, इसलिए ये पूर्ववती ‘क्रस्टोज़’ को ढककर उन्हें धूप से वञ्चित कर देते हैं, जिससे उनका जीवन यापन करना काफी कठिन होने लग जाता है। अन्तत: क्रस्टोज़ लाइकेन्स लुप्त हो जाते हैं। साथ साथ एक और प्रक्रिया चल रही होती है ; अपने पूर्ववर्ती लाइकेन्स से अधिक दक्षता के साथ ‘फोलियोज़’ लाइकेन्स चट्टान को तोड़ने और मिट्टी बनाने का काम करते हैं , जिसके फलस्वरुप यह मिट्टी’ फ्रक्टोज़’ प्रजाति के लिए अनुकूल हो जाती है और स्वयम् के प्रतिकूल। अनुकूलता और प्रतिकूलता का यह क्रमशः सिलसिला चलता रहता है ; लाइकेन्स के बाद क्रमश: उच्च प्रजातियों के पौधों के वहाँ उगने का और पहले से मौजूद प्रजातियों के लोप होने का सिलसिला चलता रहता है। चट्टान टूटते टूटते मिट्टी में बदल जाती है, और विभिन्न उच्च प्रजातियों के पौधों को धारण करने लायक। अन्त में यह जगह सामान्य उद्भिदों से भर जाती है।

नंगी चट्टान के साधारण मिट्टी में बदलने में पौधों के सिलसिले की भूमिका का यह उदाहरण प्राणियों और उनके परिवेश के पारस्परिक प्रभावकारिता को निरुपित करती है। प्राणी की जीवनी क्रियाओं से परिवेश परिवर्तित होता है ; इसके कारण वह परिवेश भिन्न किस्म के प्राणी के लिए अनुकूल बन जाता है तथा पूर्ववर्ती प्राणी के लिए प्रतिकूल। इसका नतीजा होता है कि पूर्ववर्ती समष्ठियों के लिए संकट उपस्थित होने लगता है और नई प्रजातियों का उदय होता है।

अपने को कायम रखने के लिए निरन्तर अनुकूलन की आवश्यकता होती है। अनुकूलन की प्रक्रिया द्वारा प्राणी अपनी संरचना/ क्रियाशीलता में परिवर्तन लाता है ताकि बदले हुए परिवेश से प्राणी की सम्प्रेषणीयता बनी रहे। परिवर्तन अवश्यम्भावी होता है। परिवर्तन के वाहक हम ही हुआ करते हैं ; हम इसे मानें या न मानें — फर्क़ नहीं पड़ता। परिवेश और प्राणी साथ साथ क्रम-विकास की प्रक्रिया से गुजरते हैं। परिवेश प्रदूषित तब कहा जाता है जब इसकी संरचना तत्कालीन जीवित प्राणियों के अस्तित्व के लिए संकट उपस्थित करती हो। जीव-मण्डल में प्राणियों और परिवेश के बीच ऐसा सामंजस्य होना ही चाहिए ताकि परिवेश से प्राणी तक तथा उलटी दिशा में भी पदार्थ और ऊर्जा का संप्रेषण अबाधित रूप से चलता रह सके।

आज यह बात ताज्जुब की हो सकती है कि धरती के वायुमण्डल में ऑक्‍सीजन का उदय तत्कालीन प्राणी-जगत के लिए भयंकर प्रदूषण के रूप में आया था। किन्तु यही सत्य है। आदि वायुमण्डल में ऑक्सीजन नहीं था। तत्कालीन जीव अनाक्सि विधि से श्वसन की क्रिया संपादित करते थे। फिर जब प्रकाश-संश्लेषण क्रिया के फलस्वरूप वायुमण्डल में आक्सीजन समाविष्ट होने लगा तो इन जीवों के पदार्थों का ऑक्सीकरण अबाध तथा अनियन्त्रित रुप से होने लग गया; फलस्वरुप जीवित कोशाएँ जल कर नष्ट होने लग गईं। जीव-मण्डल के लिए विनाश का संकट उपस्थित था। पर, जैसा कि हम समष्ठि में ‘वितरण के सिद्धान्त'(principle of distribution) से जानते हैं, समष्ठि के सदस्य किसी भी लक्षण के लिए बिलकुल समरूप नहीं हुआ करते; विभिन्न सदस्यों में उनके लक्षणों के स्तर का एक सीमित विस्तार (limited range) रहा करता है। मुक्त ऑक्सिजन को सह पाने की क्षमता समष्ठि के जिन थोड़े सदस्यों में थी, वे इस संकट को झेल गए। वायुमण्डल में ऑक्सिजन के शामिल होने के पहले ऐसे सदस्यों की संख्या काफी कम थी, परन्तु अब इन बचे हुए सदस्यों को परिवेश के सारे संसाधन बिना प्रतियोगिता के उपलब्ध थे, अतः इनके प्रजनन द्वारा नई समष्ठियाँ बनीं जो ऑक्सिजन के वायुमण्डल में काफी अच्छी तरह अनुकूलित थीं। ऑक्सिजन की अनुपस्थिति में जीना इन समष्ठियों के लिए सम्भव नहीं था। अब जीवमण्डल के कायम रहने के लिए ऑक्‍सीजन की उपस्थिति ही अनिवार्य शर्त हो गई और इसकी कमी प्रदूषण का संकेत।

उपर्युक्त उदाहरण बतलाते हैं कि जीव और उनके परिवेश के बीच के अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध परिवर्तनों की श्रृँखलाएँ बनाया करते हैं तथा परिवर्तन अवश्यम्भावी और निरन्तर प्रक्रिया है। प्राणी अपने जीवनयापन से परिवेश को प्रदूषित करते हैं और अपने विनाश के वाहक की भूमिका स्वयम् ही ग्रहण कर लेते हैं।

जीव मण्डल में मनुष्य एक मात्र ऐसा प्राणी है जो इस शृंखला को निंयंत्रित कर प्रकृति में अपना अस्तित्व कायम रख सकता है। बेफिक्र रहना आत्माघाती साबित हो सकता है।

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