पेंशन के लिए भटकती वृद्धाएं

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चकेरी गांव की शांतिबाई, लीलाबाई और राजरानी , जो पेंशन से वंचित है।
चकेरी गांव की शांतिबाई, लीलाबाई और राजरानी , जो पेंशन से वंचित है।
चकेरी गांव की शांतिबाई, लीलाबाई और राजरानी , जो पेंशन से वंचित है।

राजेन्द्र बंधु
भारत की लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में सरकार लोगों के हितों में योजनाएं संचालित करने का दावा करती है। किन्तु जमीनी स्तर पर कई योजनाएं नौकरशाही के गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पा रही है। कुछ दिनों पहले केन्द्र सरकार ने बुजुर्गो, विधवा महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के लिए सामाजिक सुरक्षा पेंशन राशि में बढ़ोतरी करने की बात कही थी। पेंशन रा‍शि में यह बढ़ोतरी हो या न हो, लेकिन कई लोगों उनकी घोषित पेंशन भी नहीं मिल पा रही है। मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र के सागर जिले के बंडा विकास खण्ड का चकेरी गांव प्रशासनिक तंत्र की संवेदनहीनता का एक गंभीर उदाहरण है, जहां कई बुजुर्ग महिलाओं के सामने भरण पोषण का संकट पैदा हो गया है।
करीब 1500 की आबादी वाले चकेरी गांव की शांतिबाई, लीलाबाई, राजरानी और पूनाबाई अपनी पेंशन के लिए 3 किलोमीटर दूर कर्रापुर गांव की बैंक में हर महीने दो तीन बार पैदल चक्कर लगाती है। हर बार बैंक से यही जवाब मिलता है कि ‘‘अभी पेंशन जमा नहीं हुई।’’ कारण पूछने पर कहा जाता है कि पंचायत से पूछो। सरपंच और सचिव से पूछते हैं तो कहा जाता कि ‘‘हमें नहीं मालूम, जनपद में जाकर पूछो।’’ किन्तु जनपद तक जाने के लिए न तो पैसे हैं और न बुजुर्ग शरीर में वहां तक पहुंचने की क्षमता। 70 से 80 वर्षीय ये विधवा महिलाएं पिछले पांच महीनों से बैंकों का चक्कर लगाते-लगाते थक चुकी है, किन्तु उन्हे नहीं मालूम की उनकी पेंशन कहा रूकी हुई है।
पहले सूखे और अब बाढ़ से जूझ रहे बुन्देलखण्ड में पेंशन से वंचित इन बुजुर्ग महिलाओं के सामने आज जीवन जीने का संकट पैदा हो गया है। पांच महीने पहले तक 300 रूपए प्रतिमाह की पेंशन से जैसे-तैसे गुजारा करने वाली महिलाओं के लिए अपना पेट भरा मुश्किल हो गया है। 70 वर्षीय शांतिबाई के दो लड़के है जो चार महीने से रोजगार की तलाश में गांव से बाहर है। शांतिबाई बताती है कि ‘‘गांव में उनके लिए कोई काम नहीं था, इसलिए रोजी-रोटी की तलाश में बीवी-बच्चों सहित इन्दौर चले गए। मुझे चलते नहीं बनता है और शरीर की इस हालत को देख कर वे मुझे गांव में ही छोड़ गए। आज चार महीने हो गए, लेकिन उनकी कोई खबर नहीं है।
बेटो के पलायन करने और पेंशन बंद होने के बाद गांव में अकेली रह गई शांतिबाई के सामने सबसे बड़ा संकट अपना पेट भरने का था। इस दशा में शांतिबाई ने गांव के नजदीक जंगल में लकड़ियां बीनना शुरू किया। वह सुबह 8 बजे जंगल चली जाती और शाम को घर वापस पहुची। इस तरह दो दिनों की कोशिश के बाद लकड़ी का एक गठ्ठर तैयार होता और तीसरे दिन सिर पर लकड़ी का गठ्ठर लिए 7 किलोमीटर पैदल चलकर पास के कस्बे में पहुंचती, जहां 40 से 50 रूपए के बीच वह गठ्ठर बिकता। महीने में सात-आठ बार गठ्ठर बेचकर 300 रूपए तक कमा पाती। इस तरह शांतिबाई पेट भरने के अपने संघर्ष को किसी तरह पूरा करती। वह कहती है कि सरकारी राशन दुकान से 1 रूपए किलो में गेहूं मिल जाता है। यदि 300 महीने की पेंशन मिलने लगे तो पेट भरना थोड़ा आसान हो जाएगा।’’
अस्सी वर्षीय राजरानी की भी स्थिति यही हैं। वह बताती है कि ‘‘इस साल सिर्फ तीन बार 300 रूपए की पेंशन मिली और बाद में बंद हो गई। यानी वे नौ महीनों से पेंशन से वंचित है। उनका लड़का काम की तलाश में बाहर गया हुआ है। पूनाबाई को भी पांच महीनों से पेंशन नहीं मिल रही है। 70 वर्षीय विधवा लीलाबाई पूरी तरह से भूमिहीन है। उनका लड़का रोजगार की तलाश में गांव से बाहर है। वह बताती है कि पहले 150 रूपए महीने की पेंशन मिलती थी, लेकिन साल भर से वह भी बंद है। जब पंचायत सचिव से पेंशन नहीं मिलने का कारण जानना चाहा तो पता चला कि उनका नाम गांव की गरीब परिवारों की सूची में नहीं है, इसलिए उनकी पेंशन बंद हो गई है। लीलाबाई को पता ही नहीं वह गरीबी रेखा से ऊपर कब और कैसे उठ गई। लेकिन उसके सामने अपने भरण पोषण का संकट कायम है। पांच महीनों से पेंशन से वंचित 80 वर्षीय पूनाबाई की स्थिति में यही है।
प्रषासनिक उत्तरदायित्व के अभाव ने इनकी समस्या को ज्यादा गंभीर बना दिया था। ग्राम पंचायत चकेरी के सरपंच हुकुम आदिवासी बताते हैं कि ‘‘इनकी पेंशन क्यों जमा नहीं हुई, बारे में मुझे कोई जानकारी नही है। जनपद वाले भी किसी को ठीक से बताते नहीं है।’’ दूसरी और यह सवाल भी कायम है कि पूरी तरह गरीबी और अभाव में जीवन जीने को विवश लीलबाई का नाम बीपीएल सूची से क्यों गायब हैं?
दरअसल में जमीनी स्‍तर पर प्रशासनिक तंत्र में आपसी समन्‍वय और संवेदनशीलता का बेहतर अभाव है। ग्राम पंचायत और जनपद पंचायत का यह दायित्‍व है कि वह जरूरत मंद लोगो को योजनाओं का लाभ दिलवाए। किन्‍तु यदि पेंशन या किसी योजना में धनराशि का अभाव हो तो इस तंत्र को कोई जानकारी नहीं होती औार न हीं जमीनी स्‍तर के कोई कर्मचारी इस तरह की जानकारियां जुटाने आवश्‍यकता समझते। आज जब कि लोगों को सूचना के अधिकार के जारिये किसी भी कार्यालय से किसी भी तरह की जानकारियां हासिल करने का कानूनी अधिकार है, वहीं चकेरी गावं की इन महिलाओं को अपनी पेंशन नहीं मिलने की जानकारी नहीं मिल पा रही है।

 

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