पशुधन संरक्षण की दिशा में अहम् पहल

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प्रमोद भार्गव

 

भारतीय नस्ल के दुधारु पशुओं के अनुवांशिक संरक्षण और संवर्धन के लिए केंद्र सरकार प्रतिबद्ध दिखाई दे रही है। इस हेतु राष्ट्रिय स्तर पर 500 करोड़ की आर्थिक सहायता से ‘गोकुल मिशन’ चलाया जाएगा। मिशन दुधारु पशुओं और दूध डेयरी विकास संबंधी कार्यक्रमों में गतिशीलता लाएगा। गो-संरक्षण राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के अजेंडे में भी शामिल रहा है। इसलिए विपक्ष राजग सरकार पर संघ के अजेंडे को आगे बढ़ाने का आरोप मढ़ सकता है। लेकिन संघ के अजेंडे में गाय-भैंस के मांस ;बोवाइनद्ध पर अंकुश लगाना भी रहा है। सोलहवीं लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने इस गुलाबी क्रांति पर नियंत्रण करने की दृष्टि से हुंकार भरते हुए कहा था, ‘उस सरकार को हटाना होगा, जो मटर की जगह मटन की बिक्री की छूट देती है।’ लेकिन इस संदर्भ में मिशन से जुड़े कार्यक्रम में अफसोसजनक चुप्पी है। जबकि देश में दूध एवं उसके सह-उत्पादों का उत्पादन घटने की यह एक बड़ी वजह है।

पशुधन का संरक्षण इसलिए जरुरी है, क्योंकि ग्रामीण रोजगार और अर्थव्यवस्था में इसकी बड़ी भागीदारी है। देश में करीब 19.9 करोड़ पशु हैं, जो विश्व में पशुओं की आबादी का 14.5 फीसद हैं। लेकिन अभी तक हमारा राष्ट्रिय अनुवांशिक संसाधन ब्यूरो महज 20 फीसदी पशुओं का ही अनुवांशिक वर्गीकरण कर पाया है। इससे पता चलता है कि हम अपने पशुधन के प्रति कितने लापरवाह हैं। जबकि घरेलू नस्ल के दुधारु जानवरों को स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों में पलने-बढ़ने व वंश वृद्धि में ज्यादा मजबूत और जुझारु पाया जाता है। ये पशु जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को बर्दाश्त करने में भी ज्यादा समर्थ होते हैं।

2012-2013 की पशु गणना के मुताबिक 4.5 करोड़ पशु दुधारु थे और देश में दूध का उत्पादन 15 करोड़ लीटर था। देश के प्रत्येक नागरिक को औसतन 290 ग्राम दूध रोजाना मिलता है। इस हिसाब से प्रतिदिन 45 करोड़ लीटर दूध की आपूर्ति रोजाना होती है। मसलन दूध के उत्पादन और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर है। जाहिर है, इस कमी की पूर्ति सिंथेटिक दूध बनाकर और पानी मिलाकर की जा रही है। यूरिया से भी दूध बनाया जा रहा है। दूध की बढ़ती मांग के कारण दूध का कारोबार गांव-गांव फैलता जा रहा है। इस असली-नकली दूध के परिणाम जो भी हों, लेकिन हकीकत यह है कि देश की अर्थव्यवस्था में इसका योगदान एक लाख 15 हजार 970 करोड़ रुपए का है। दाल और चावल की खपत से कहीं ज्यादा दूध और उसके सह-उत्पादों की मांग व खपत बढ़ी है।

दूध की इस खपत के चलते, दुनिया के अन्य देशों की निगाहें, इस पर गढ़ी हैं। विदेशी कंपनियों ने स्वेत क्रांति से जुड़े इस कारोबार को हड़पने की शुरूआत कर दी है। फ्रांस की लैक्टेल बहुराष्ट्रिय कंपनी ने भारत की सबसे बड़ी ‘तिरुमाला दूध डेयरी’ को 1750 करोड़ रुपए में खरीद लिया है। हैदराबाद की इस डेयरी को चार किसानों ने मिलकर बनाया था। भारत की तेल कंपनी ‘आॅइल इंडिया’ भी दूध कारोबार में प्रवेश की तैयारी में है। क्योंकि दूध का यह कारोबार सालाना 16 फीसद की दर से छलांग लगा रहा है।

अमेरिका भी अपने देश में दूध से बने उत्पाद भारत में खपाने की तिकड़म में है। अमेरिका ‘चीज’ का निर्यात भारत में करना चाहता है। अमेरिकी पनीर की ही यह एक किस्म है। चीज के निर्यात की मंजूरी नहीं मिलने का कारण है कि इसके बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। गोया, भारत के शाकाहारियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गो-सेवक व गाय को माता मानने वाला समाज इसे स्वीकार नहीं करता। एक दूसरा कारण यह भी है कि अमेरिका में गायों को मांसयुक्त चारा खिलाया जाता है, जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैंस भले ही कूडे-कचरे में मुंह मारती फिरती हों, लेकिन दुधारु पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता ? लिहाजा अमेरिका को भारतीय बाजार में चीज बेचने की अनुमति नहीं दी जा रही है। लेकिन इस कोशिश से यह तो स्पष्ट है कि अमेरिका की आंखों में हमारे दूध कारोबार को हड़पने की लालसा है।

अब तक बिना किसी सरकारी मदद के हमारा दूध का कारोबार फलता-फूलता रहा है। दूध का 70 फीसद कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस व्यापार में लगे ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पांरपरिक ज्ञान मे न केवल वे दुग्ध उत्पादन में दक्ष हैं, बल्कि दूध के सह-उत्पाद बनाने में भी कुशल हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित क्षेत्र, मसलन दूध डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध के उत्पादन से 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की भी अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण संस्थाएं केवल दो प्रतिषत हैं। बावजूद वे अशिक्षित किंतु पारंपरिक ज्ञान से कुशल ग्रामीण स्त्री-पुरुश ही हैं, जो दूध का देशी उपायों से प्रसंस्करण करके दही, घी, मक्खन, पनीर आदि बना रहे हैं। इस कारोबार की विलक्षण खूबी यह भी है कि इससे सात करोड़ से ज्यादा लोगों की आजीविका चलती है।

एक अनुमान के मुताबिक 2020 तक जलवायु परिवर्तन और उच्च तापमान के चलते, सालाना दूध उत्पादन में 32 लाख टन की कमी आ सकती है। इस दूध का मूल्य 5,000 करोड़ रुपए के बराबर होगा। इसलिए जरुरी है कि दुधारु पशुओं की सभी प्रजातियों की नस्लों का संरक्षण व संवर्धन किया जाए। हमारे देश में गिर, राठी, साहिवाल, देवनी, थरपाकर, लाल सिंधी जैसे देशी नस्ल के दुधारु पशु उत्तर, मध्य, पूर्व और पश्चिम भारत में पाए जाते हैं। वाकई यदि इनके अनुवांशिक स्वरुप को उन्नत करने और इनके वंश की वृद्धि के कारगर प्रबंध किए जाते हैं तो देसी नस्ल की गायों से दुग्ध का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। दक्षिण भारत में पाई जाने वाली पंगुनूर, विचूर और कृष्णा घाटी की गायों के अनुवांशिक संरक्षण की आवष्यकता को भी पूरा किया जाना जरुरी है। क्योंकि इस नस्ल के पशुओं की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। लेकिन इन उपायों के साथ ही यदि बूचड़खानों पर अंकुश नहीं लगाया तो इस मिशन द्वारा लक्ष्य पूर्ति करना मुश्किल है ? क्योंकि इन बूचड़खानों में चोरी के दुधारु पशु धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं। नतीजतन पूरे देश में गाय-भैंसों की चोरी का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है।

 

 

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