लोक कला महोत्सव

प्रमोद कुमार बर्णवाल

लोक विधाओं के महत्व का अभिज्ञान इसलिए आवश्यक है क्योंकि लोक-साहित्य लोकजीवन का अभिलेखागार है। किन्तु यह विडम्बना ही कही जायगी कि लोक कलाओं और कलाकारों को कभी वैसी प्रतिष्ठा नहीं मिली जैसी शास्त्रीय कलाओं और कलाकारों को मिली। बाजारीकरण ने तो इसके अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया। आज की युवा पीढ़ी का भी इनसे परिचय का दायरा घटा है। भय है कि लोक-कलाएं जनमानस में ही कहीं विलुप्त न हो जाय। अतः इनके डाक्युमेन्टेशन की आवश्यकता है। इनके महत्व पर चर्चा कराके इनके अध्ययन की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की जरूरत है ताकि नये लोक-कलाकारों का भी अभ्युदय हो और उनका एक दर्शकवर्ग तैयार हो। इसी उद्देश्य को लेकर कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी और संगीत नाटक अकादमी, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में 17—19 नवम्बर को तीन दिवसीय ‘लोक कला’ महोत्सव का आयोजन बी.एच.यू. के कला संकाय के प्रेक्षागृह और राधाकृष्णन सभागार में किया गया। पहले दिन राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त डॉ. मन्नू यादव के नेतृत्व में अहिरऊ नृत्य एवं गायन हुआ। गोचारण, पशुपालक अहीर जाति के द्वारा किये जाने वाले नृत्य को अहिरऊ नृत्य कहते हैं। भारत के भूखण्ड में जहाँ भी अहीर समुदाय निवास करता है, वहाँ अहिरऊ नृत्य किसी न किसी रूप में आज भी पाया जाता है। काशी के ग्रामीण अंचलों में दीपावली के पवित्र त्योहार के पश्चात गोवर्धन पूजा के दिन यादव बंधुओं द्वारा लाठी एवं ढाल के साथ इस नृत्य को किया जाता है। यह एक तरह का शौर्य-नृत्य है। इसमें लाचारी एवं ठाड़ी बिरहा को दोहे की भाँति बोल-बोल कर नृत्य सम्पन्न किया जाता है। इसमें किसी खास वेशभूषा या सजने संवरने की आवश्यकता नहीं होती है। इस नृत्य को छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में ‘राऊत नाचा’, गोरखपुर अंचल में ‘फरूवाही नृत्य’ मण्डला मध्य प्रदेश में ‘बिरहा नृत्य’ तथा काशी अंचल में ‘अहिरऊ नृत्य’ कहा जाता है।

लोक कला महोत्सव के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. कमलेशदत्त त्रिपाठी ने कहा कि औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप में लोक कलाएं लगभग खत्म हो गईं। लेकिन जब उनका परिचय भारत की लोककला से हुआ तो उन्हें भी अपनी लोककला को जानने की प्रेरणा मिली। बीसवीं शताब्दी में लोककला पर सभी का ध्यान गया। प्रगतिशील चिन्तन का ध्यान लोक आख्यान, लोक नाटक, लोकगाथा, लोकवार्ता पर गया। लोक और शास्त्र को एक दूसरे का विरोधी माना जाता रहा है किन्तु इनमें कोई विरोध नहीं है। एक समय के बाद लोक बदलकर शास्त्र हो जाता है और शास्त्र का बदलाव लोक में हो जाता है।

लोककला के मर्मज्ञ प्रो. हेतुकर झा ने कहा कि लोक-साहित्य, लोक-ज्ञान, लोक-विद्या ये सभी भारत की ऐसी विधायें हैं जिनकी पश्चिमी सभ्यता से तुलना नहीं की जा सकती। सनातन, बौद्ध एवं जैन परम्परा की लोक-कलाओं को समझने की जरुरत है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के साथ भक्ति काल के दौरान प्रेम का पुरुषार्थ आया और यह लोक से आया। लोक विद्याओ में जो ज्ञान है वह शास्त्रीय विद्याओं के ज्ञान से स्वतंत्र है। पहले ही दिन ब्रजेश यादव, डॉ. राम नारायण तिवारी, डॉ. जयप्रकाश धूमकेतु, श्री राम प्रसाद, डॉ. मन्नू यादव, प्रो. एम.एन. राय, श्री गिरीश पाण्डेय ने भी अपने विचार व्यक्त किये।

महोत्सव के दूसरे दिन ‘राउत नाच’ की धूम रही। डॉ. सोमनाथ यादव के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ से आये कलाकारों ने राउत नाच कर लोगों के मन-मस्तिष्क में इस विलुप्त हो रही कला को जानने-समझने की उत्कठ अभिलाषा जगा दी। ‘राउत नाच’ छत्तीसगढ़ का प्रमुख नृत्य है जो समूह में यादवों द्वारा किया जाता है। यह नाच श्रृंगार एवं वीर रस का नृत्य है। इस नृत्य में सजे धजे यदुवंशी एक हाथ में तेंदू लाठी और दूसरे हाथ में ढाल (फरी) लिये हुए नृत्य का प्रदर्शन करते हैं। इनके साथ जो वादक होते हैं वे गंधर्व जाति के होते हैं। इनके वाद्य यंत्र को छत्तीसगढ़ में गड़वा बाजा कहते हैं। राउत नाच के दौरान बीच-बीच में रहीम, तुलसी, कबीर, सूरदास पद्माकर के दोहे पढ़े जाते हैं। राउत नाच के दौरान ही आशु कवि की भाँति तत्काल दोहे भी रचे जाते हैं। दोहों के साथ-साथ शस्त्र चालन का भी प्रदर्शन किया जाता है। श्रीकृष्ण के द्वारा कंस के वध के बाद उसकी खुशी में ही राउत नाच का प्रदर्शन किया जाता है। डॉ. सुधाकर बीबे ने कहा कि योद्धाओं की भाँति धोती बाँधे, लगभग छह मीटर कपड़े का पागा बांधे, गले में चमकीली माला पहने छबीले दूल्हे की भाँति चलते हुए लाठी और ढाल लेकर मनमोहक प्रदर्शन राउत नाच में किया जाता है। डॉ. लोहिताक्ष्य जोश ने कहा कि गौड़ जाति के लोग अपने आप को श्रीकृष्ण का वंशज मानते हैं और राउत नाच का प्रदर्शन करते हैं डॉ. विनय पाठक, मोहम्मद उसमान और डॉ. सोभनाथ यादव ने भी अपनी बात रखी।

अगले सत्र में गोपीचंद की लोककथा पर विद्वानों ने अपने वक्तव्य दिये। उड़िया साहित्यकार डॉ. अंजली पाढ़ी ने कहा कि गोपीचंद की कथा मौखिक रूप में चली आ रही थी। गोपीचंद को लेकर अनेक कथाएं लोक में प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार गोपीचंद बंग देश के राजा थे। उनकी माता का नाम मुक्ता था। रानी मुक्ता को पता चलता है कि अट्ठारहवे वर्ष में गोपीचंद की मृत्यु हो जायेगी। इसलिए वह गोपीचन्द को सन्यास के लिए प्रेरित करती हैं। गोपीचंद की कथा उड़ीसा, बंगाल, उत्तर प्रदेश में प्रचलित है।

उड़िया साहित्यकार एवं शैडो पपेट थियेटर के विख्यात कलाकार-निर्देशक डॉ. गोरांग चंद दास ने बताया कि नाथ पंथी ऊँची जातियों के थे लेकिन उनके बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे निम्न जाति के लोगों के बीच रहते थे। डॉ. रामनारायण तिवारी ने लोक में प्रचलित गोपीचंद की दूसरी कथा की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। इस कथा के अनुसार गोपीचंद व्यापारी वर्ग से थे। जब ये योगी बन गये तो सारंगी नहीं बांसुरी बजाते थे। अध्यक्षीय वक्तव्य में गांधीवादी चिंतक प्रो. दीपक मलिक ने कहा कि इतिहास में लोक को लेकर द्वन्द्व रहा है। हमेशा से लोक-जीवन, लोक परम्परा को सीमान्त में धकेलने की कोशिश की जाती रही है। डॉ. अजय शर्मा ने कहा कि छत्तीसगढ़ में साप्ताहिक बाजार की तरह एक राउत बाजार होता है जिसमें गऊ माताएं बैठती हैं, तीन-चार कोस से औरतों की टोली गाते-बजाते आती है। इस टोली को ‘गोल’ कहते हैं। छत्तीसगढ़ में इस वर्ग के लोग तीन-चार दिन नहीं बल्कि महीने भर तक दीपावली का उत्सव मनाते हैं।

लोककला महोत्सव के अंतिम दिन भरथरी गायन और नाटक का आयोजन हआ। श्री संतोष और उसके दल ने राजा भरथरी की कथा का बिरहा रूप में गायन प्रस्तुत किया तो जोखूराम और उसके दल ने नाटक प्रस्तुत किया। लोक में प्रचलित कथा के अनुसार भरथरी नाम के एक राजा थे, उनकी रानी का नाम पिंगला था। राजा भरथरी अपनी रानी से बहुत प्रेम करते थे। वे रानी पर आसक्त थे किन्तु एक योगी का सानिध्य प्राप्त होने पर वे संन्यास ग्रहण कर लेते हैं। राजा भरथरी का कथा पूर्व मध्यकाल से योगियों के द्वारा कही जा रही है। लोक में राजा भरथरी के विभिन्न रूप प्रचलित हैं।

इससे पूर्व चर्चा में लोककला के मर्मज्ञ डॉ. पुरुषोत्तम ने कहा कि जगत में जो भी कुछ है वह अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होता है। इतिहास के ज्ञान के लिए कहानी, आख्यान और मिथ की समझ आवश्यक है। डॉ. जोश कलापुरा ने कहा कि लोकनाटक कलम के समान तलवार से अधिक मजबूत होता है। लोक नाटक संस्कृति का कार्यशील रूप है। अध्यक्षीय वक्तव्य में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के पूर्व कुलपति प्रो. आर.पी. सिंह ने कहा कि हम लोकगाथाओं में ही जीते, मरते तथा आनंदित होते हैं।

कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ने कहा कि लोक कथाएं कल्पनाशीलता का प्रतीक हैं। ये सामाजिक, सांस्कृतिक एकता को उजागर करती हैं। डॉ. रामाज्ञा राय ने कहा कि आज दलित और स्त्री विमर्श साहित्य के केन्द्र में है किन्तु ब्रिटिश काल से प्रचलित नटवा दयाल और बहुरा गोड़िन की लोकगाथा से इसे समझा जा सकता है। प्रो. अवधेश प्रधान ने कहा कि लोक कलाओं, लोकज्ञान और लोकविद्याओं के महत्व को समझे बिना भारत का अभ्युदय नहीं हो सकता। चीन ने क्रान्ति के बाद लोक विद्याओं और लोक कलाओं की सामर्थ्य का विकास कर उन्नति की थी।

समस्त कार्यक्रम का संचालन प्रो. राजकुमार ने किया। संयोजन डॉ. संजय कुमार और डॉ. अर्चना कुमार ने किया।

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