लोकसभा चुनाव 2014: कारगिल बनाम नक्सल शहीद

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-तनवीर जाफ़री-
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लोकसभा 2014 के आम चुनाव अपने अंतिम दौर से गुज़र रहे हैं। इस बार के चुनाव अभियान में विभिन्न राजनैतिक दलों व उनके नेताओं द्वारा तरह-तरह के भावनात्मक मुद्दे उछाले गए। कभी कारगिल युद्ध मेें सांप्रदायिकता का रंग भरने की कोशिश की गई तो कभी किसी कारगिल शहीद जवान की शहादत पर घड़ियाली आंसू बहाकर वोट मांगे गए। हद तो तब हो गई जबकि मांस निर्यात जैसे कारोबार को मात्र मतदाताओं की भावनाओं को भड़काने के लिए अपने चुनाव भाषण का हिस्सा बनाया गया। हिमाचल प्रदेश के पालमपुर क्षेत्र में जिस समय भाजपा नेता नरेंद्र मोदी ने शहीद विक्रम बत्रा की शहादत का अपने भाषण में जि़क्र किया उसी समय शहीद विक्रम बत्रा के पिता जीएल बत्रा ने मोदी को नसीहत दी कि ‘विक्रम बत्रा के नाम पर राजनीति करने की कोई ज़रूरत नहीं। पंद्रह वर्षों के बाद ही चुनाव सभा में मोदी को शहीद विक्रम बत्रा की याद क्यों आई? और यदि मोदी शहीद विक्रम बत्रा का इतना ही सम्मान करते हैं तो आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़ रही विक्रम बत्रा की मां के विरुद्ध लड़ रहे भाजपाई उम्मीदवार को चुनाव मैदान से हटा क्यों नहीं लेते’? जीएल बत्रा ने यह भी कहा कि कारगिल में केवल विक्रम बत्रा ही शहीद नहीं हुए बल्कि 2 हज़ार से अधिक शहीद हुए सैनिक शहीद विक्रम बत्रा के ही समान थे। परंतु इस प्रकार अपने मुंह की आए दिन खाने के बावजूद राजनेता अपनी गैरजि़म्मेदाराना बयानबाजि़यों से बाज़ आने का नाम ही नहीं लेते। प्राय: बुद्धिजीवियों द्वारा यह सवाल खड़ा किया जाता है कि राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति तथा शहीदों के प्रति घड़ियाली आंसू बहाने का ढोंग करने वाले यह राजनेता आख़िर अपनी संतानों को राजनीति में धकेलने के बजाए भारतीय सेना में भेजकर राष्ट्रप्रेम दर्शाने का साहस क्यों नहीं करते?

बहरहाल, लोकसभा 2014 के चुनाव में एक बात और खासतौर पर देखी गई कि नेताओं व राजनैतिक दलों द्वारा इस बार जहां कारगिल की शहादत तथा पाकिस्तान सेना द्वारा एक भारतीय सैनिक का सिर काटकर ले जाने जैसे भावनात्मक मुद्दों को अपने चुनाव प्रचार का शस्त्र बनाने की कोशिश की गई वहीं माओवादी तथा नक्सली संघर्ष में मारे जाने वाले भारतीय सुरक्षा बलों के जवानों के प्रति इन्हीं नेताओं की आंखें बंद नज़र आईं। सीमा पर शहीद होने वाले जवान संभवत: इन नेताओं की राजनीति करने का अवसर हमवार करते हैं जबकि देश की सबसे बड़ी आंतरिक समस्या जिसकी एक प्रकार से गृहयुद्ध जैसे हालात से भी तुलना की जा सकती है, इन संघर्षों में शहीद होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों की लाशों पर आंसू बहाने का व ऐसी शहादतों को नियंत्रित करने के बारे में सोचने का इनके पास या तो समय नहीं या कोई मास्टरप्लान नहीं है। कितने अफ़सोस की बात है कि गत् दो दशकों के इस नक्सल व माओ संघर्ष में अब तक 12 हज़ार 187 लोगों की जानें जा चुकी हैं। जिनमें 9 हज़ार 471 नागरिक मारे गए हैं जबकि 2 हज़ार 712 केंद्रीय सुरक्षा बलों के लोगों ने अपनी जाने गंवाई हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्रप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इस हिंसक आंदोलन की चपेट में हैं। वैसे तो इन संघर्षों में कई छोटे-बड़े हादसे होते रहे हैं। परंतु 6 अप्रैल 2010 को दंतेवाड़ा में हुआ नक्सली हमला अब तक के सबसे बड़े हमलों में गिना जाता है। जिसमें सीआरपीएफ़ के 75 जवान एक ही नक्सली हमले में शहीद हो गए थे। और नक्सली, शहीदों के हथियार अपने साथ ले गए थे। ऐसा ही एक हमला 25 मई 2013 को छत्तीसगढ़ की दरभा घाटी में कांग्रेस पार्टी द्वारा निकाले गए एक यात्रारूपी क़ाफ़िले पर हुआ था। इसमें 25 लोग मारे गए थे। मृतकों में नक्सल आंदोलन के विरुद्ध चलाए जा रहे सलवाजुडूम आंदोलन के संस्थापक महेंद्र कर्मा तथा छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल खासतौर पर शामिल थे।

अब भी इन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय सुरक्षा बलों की 90 बटालियन अर्थात 90 हज़ार जवान तैनात हैं। एक भारतीय रिज़र्व नागा बटालियन भी इस संघर्ष से जूझने के लिए तैनात है। सवाल यह है कि जहां भारत, बांग्लादेश व नेपाल यहां तक कि चीन से लगती देश की सीमाएं पूरे तरह से असुरक्षित हों, वहां लगभग एक लाख जवानों का आंतरिक संघर्ष से जूझते रहना कहां तक मुनासिब है? जो भारत सरकार कश्मीरी व गोरखा अलगाववादी आंदोलनकारियों से बातचीत कर सकती है वह सरकार माओवादियों तथा नक्सल नेताओं से बातचीत करने का साहस क्यों नहीं जुटाती? जबकि यह नक्सल व माओ संघर्ष से जुड़े संगठन व नेता अलगाववाद जैसी कोई बात भी नहीं करते? भारत में लोकसभा 2014 का चुनाव अभियान शुरू होने से पूर्व ही अप्रैल के प्रथम सप्ताह में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी की ओर से संगठन के केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय ने एक वक्तव्य जारी कर केंद्र सरकार से वार्ता करने की पेशकश भी की थी। परंतु चुनाव के लगभग सभी चरण पूरे हो चुके हैं। और अभी तक केंद्र सरकार की ओर से इस प्रस्ताव का कोई जवाब नहीं दिया गया। संगठन के प्रवक्ता ने मांग की थी कि जेल में बंद माओ नेताओं को रिहा किया जाए ताकि माओवादियों की ओर से वार्ताकार प्रतिनिधि मंडल गठित हो सके। इनकी यह मांग भी थी कि सरकार को चाहिए कि वह माओवादी आंदोलन को एक राजनैतिक आंदोलन के रूप में स्वीकार करे। प्रवक्ता ने अपने नेताओं की रिहाई के संबंध में यह लचीलापन भी दिखाया कि जेल में बंद उनके वरिष्ठ नेताओं पर चलाए गए मुक़दमे या तो वापस लेकर उन्हें रिहा किया जाए अन्यथा उन्हें ज़मानत पर छोड़ दिया जाए ताकि वार्ता के लिए रास्ता बनाने में यह नेता मददगार साबित हो सकें। परंतु सरकार की ओर से इस प्रस्ताव को कोई उत्तर नहीं दिया गया।

गौरतलब है कि माओ अथवा नक्सल आंदोलन का मुख्य एजेंडा वास्तविक लोकतंत्र, भूमि सुधार एवं कृषि व अर्थव्यवस्था के विकास का आत्मनिर्भर मॉडल तथा देश के विकास के लिए शांति का एक लंबा दौर है। यह सभी मुद्दे निश्चित रूप से ज़मीनी तौर पर आम लोगों से खासतौर से देश के वंचित समाज से जुड़े मुद्दे हैं। जब तक देश के अंतिम व्यक्ति को विकास का लाभ न पहुंचे अथवा उसे विकास का एहसास न हो तब तक हम मात्र आंकड़ों की बाज़ीगरी से देश को विकसित देश कैसे कह सकते हैं? क्या मात्र उद्योगपितयों की पूंजी बढ़ने से अथवा करोड़पति लोगों के अरबपति बन जाने से अथवा नेताओं या उच्चाधिकारियों के परिजनों के आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो जाने से देश को विकसित देश या विकास की राह पर चलने वाला देश माना जा सकता है? बड़े आश्चर्य का विषय है कि नक्सल समस्या जैसी गंभीर आंतरिक समस्या से जूझ रहे देश के नेताओं के पास इस समस्या से निपटने के लिए न तो कोई फ़ॉर्मूला है न ही यह नेता इस विकराल समस्या को कोई अहमियत देते दिखाई दे रहे हैं? न ही लोकसभा के वर्तमान चुनावों में न ही इससे पूर्व हुए चुनावों में इस विषय को प्राथमिकता दी गई है। हां इतना ज़रूर कि जब कभी नक्सली संघर्ष में सुरक्षाकर्मी शहीद होते हैं उस समय उनके ताबूत पर सलामी देने के लिए चंद मिनटों का समय निकालकर कोई नेता, सरकारी मंत्री या उसका प्रतिनिधि शहीद की लाश पर आंसू बहाने के लिए ज़रूर शामिल हो जाता है।

कारगिल यद्ध को लगभग 15 वर्षों का समय बीत चुका है। परंतु आज तक किसी न किसी रूप में इसकी गूंज राजनैतिक हल्क़ों में सुनाई देती है। परंतु नक्सल व माओवादी संघर्ष से जुड़ी समस्या एक ऐसी समस्या का रूप धारण कर चुकी है जो कारगिल से भी कहीं अधिक गंभीर व खतरनाक है। जिस प्रकार सीमा पर शहीद होने वाला कोई भारतीय जवान देश की तथा अपने परिवार की एक बहुमूल्य संपत्ति होता है वही क़ीमत नक्सली संघर्षों में शहीद होने वाले जवानों की भी होती है। परंतु सीमा पर शहीद होने वाले जवानों के माध्यम से राजनेताओं को राजनीति करने का अवसर मिल जाता है जबकि नक्सली संघर्ष में शहीद होने वाले जवानों की अनदेखी करने, इस विकराल समस्या से मुंह छिपाने में या इसकी चर्चा करने से कतराने में अथवा आंतरिक संघर्ष जैसे इस मुद्दे को चुनावी मुद्दा न बनाने में ही राजनैतिक दल व राजनेता अपना भला समझते हैं। यदि ऐसा न होता तो गुलाबी क्रांति जैसी भावनाओं को भड़काने वाली बात करने के बजाए राष्ट्रीय स्तर पर नक्सल व माओ समस्या से निपटने के उपायों या इससे न निपट पाने की नाकामियों पर चर्चा की जाती। अपने चुनावी फायदे के लिए कारगिल के जवानों की शहादत पर राजनीति करने के बजाए उन 12 हज़ार से अधिक शहीदों का जि़क्र किया जाता जो देश की विभिन्न सरकारों की नाकामियों के परिणामस्वरूप नक्सल समस्या की भेंट चढ़ चुके हैं। परंतु 2014 का लोकसभा चुनाव भी पहले के चुनावों की भांति इस गंभीर समस्या पर चर्चा से पूरी तरह अछूता रहा। राजनेताओं व राजनैतिक दलों का इन समस्याओं से मुंह मोड़ने का अर्थ यह नहीं कि ऐसी समस्याएं समाप्त हो गई हैं, बल्कि इन मुद्दों की अनदेखी इन समस्याओं को और भी खतरनाक व विकराल रूप दे सकती है।

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