सिर्फ नरमुंडों की गिनती नहीं लोकजीवन का आईना भी

-संजय द्विवेदी

देश में दुनिया की विशालतम जनगणना का कार्य प्रारंभ हो चुका है। सही अर्थों में जनगणना का आशय सिर्फ नरमुडों की गितनी की कवायद नहीं है वरन अपने समाज और लोकजीवन को, उसकी खुशहाली, बदहाली और विकास के मानकों का रेखांकन भी है। हर 10 साल पर की जाने वाली जनगणना के निष्कर्षों के आधार पर ही हम भविष्य की योजनाएं एवं अपने लक्ष्य तय करते हैं। ये सिर्फ रुखे आंकड़े नहीं हमारे जातीय समाज की विशेषताओं का जीवंत दस्तावेज भी हैं। यह अलग बात है कि जनगणना को लेकर आम भारतीय समाज में कोई खास उत्साह नहीं दिखता, न ही सूचनाओं को देने में वे जनगणनाकर्मियों को सहयोग देते नजर आते हैं। फिर भी इस प्रक्रिया का अपना महत्व है।

हमारे देश के संदर्भ में जनगणना का काम अंग्रेजी शासनकाल में शुरू हुआ। जाहिर है इसके पीछे अंग्रेजी शासन की मंशा बहुत पवित्र नहीं थी। वे जनगणना के माध्यम से भारतीय समाज को कई इकाइयों में बांटकर अपने ‘फूट डालो-राज करो’ वाले वाले सिद्धांत पर ही अमल कर रहे थे। इन इकाइयों में तब परिवार, जाति, जनजाति, क्षेत्रीय उतार-चढ़ाव जैसी बातें शामिल थी। 1931 में कराई गई जनगणना वास्तव में पूर्ण एवं सही थी। बाद में 1941 की जनगणना द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते पूरी न हो पाई तो 1931 के पहले पूरी जनगणना नहीं हुई थी। 1931 की यह जनगणना आज भी इतनी विश्वसनीय मानी जाती है कि उसके आधार पर किसी भी जाति की संख्या का पता लगाया जा सकता है। आजाद भारत की पहली जनगणना 1951 में हुई। आजादी के बाद पं. नेहरू एवं अन्य नेताओं की सोच जाति विहीन समाज बनाने के पक्ष में थी-सो 1951 की जनगणना से वे सारे सवाल हटा दिए गए जो इन संदर्भों पर बल देते थे। इसी कारण 1931 की जनगणना जातियों के संदर्भ में एक आधार कार्य बन गई है। पिछड़ी जातियों के आरक्षण के संदर्भ में आई मंडल आयोग की रिपोर्ट के लिए भी ये आंकड़े (1931 की जनगणना) ही आधार बने।

जाति को लेकर बहस

सन 2001 की जनगणना तय होने के पूर्व यह बहस खासी तेज रही कि इस बार जाति के आंकड़े भी इकट्ठे किए जाएं, हालांकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने उससे जातीयता एवं विवाद बढ़ने की बात करके जनगणना से ‘जाति’ के आंकड़े शामिल करने की मांग को खारिज कर दिया। हालांकि संयुक्त सोर्चा की केंद्र में बनी सरकार ने वायदा किया था कि 2001 की जनगणना जाति के आधार पर भी होगी। जाति के आधार पर जनगणना के पक्षधर मानते हैं कि इससे समाज जीवन की हकीकत सामने आएगी और सरकार को उसके आधार पर योजनाएं बनाने में सहूलियत होगी। जबकि सरकार वे कुछ समाजशात्री मानते हैं कि इससे जातिवाद को ही बढ़ावा मिलेगा और फिर से सामाजिक तनाव व हिंसा बढे़गी, क्योंकि ऐसा करने से हर जाति के लोग अपना अलग-अलग प्रतिनिधित्व मांगने लगेंगे और जाहिर है इन मांगों का समाधान किसी व्यवस्था के पास नहीं है। प्रख्यात समाजवादी चिंतक मस्तराम कपूर इस बात से सहमत नहीं हैं। वे मानते हैं कि ‘जातिवार मतगणना से हमारा मध्यवर्ग इसलिए डरता है कि उसे जनगणनाकर्मियों को अपनी जाति बतानी पड़ेगी। यह डर उन लोगों में अधिक होगा जिनकी जाति के साथ अपमान का भाव जुड़ा है, लेकिन जनगणनाकर्मियों को दी गई सूचना का उपयोग दैनिक व्यवहार में नहीं होता है। बहुत संभव है कि इन सूचनाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के बाद 4 हजार के करीब जातियों को 4-4 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाए। जाति-उन्मूलन की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग होगी।’किंतु सरकार ने तमाम ना-नुकुर के बाद जातिवार जनगणना की बात स्वीकार कर ली है। इसके लाभ -हानि आगे चलकर ही पता चलेंगें।

सामाजिक लक्ष्यों के रेखांकन की चुनौती

लोकतंत्र का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि वह जनता से प्राप्त जानकारियों का उपयोग जनहितकारी परियोजनाएं बनाने एवं उन्हें क्रियान्वित करने में करे। योजनाकार प्रायः जनगणना को लेकर उसके 5 सामाजिक लक्ष्यों की ओर संकेत करते हैं- सामुदायिक समस्याओं को हल करना, महामारी या प्राकृतिक प्रकोप के समय में समस्या का सही आंकलन कर राहत तथा पुनर्वास के कामों को अंजाम देना, सरकार को विभिन्न वर्गों के प्रति उसके उत्तरदायित्व का अहसास कराना, आर्थिक प्रगति के लिए नीतियां बनाना एवं सामाजिक विकास के दूरगामी लक्ष्यों का निर्धारण करना।

वास्तव में जनगणना के इन व्यापक सरोकारों के प्रति सरकारी तंत्र में रुचि नहीं दिखती। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूर, महिलाओं की पारिवारिक कार्यों में भूमिका के चलते होने वाली आर्थिक बचत, बालश्रम एवं विकलांगता संबंधी मामलों के आंकड़ों से ही सही जानकारी के आधार पर सामाजिक न्याय की प्रक्रिया को गति दी जा सकती है। जाहिर है कि हमारे सरकारी तंत्र के सामने जनगणना को सामाजिक लक्ष्यों के अनुरूप बनाने की चुनौती मौजूद है, क्योंकि यह आंकड़े ही हमारी आंख खोलने का काम करते हैं। सेंटर ऑफ कन्सर्न फॉर चाइल्ड लेबर की निदेशक जोसेफ गाथिया के मुताबिक ‘एक गैरसरकारी अनुमान के मुताबिक एक औसत भारतीय लड़की शादी से पूर्व परिवार को लगभग 40 हजार रुपए का योगदान अपने विभिन्न कार्यों से करती है एवं शादी के पश्चात उसके द्वारा किए घरेलू कामों का बाजार मूल्य लगभग 3000 रूपए प्रतिमाह पड़ता है।’ लेकिन जनगणना में ऐसे आंकड़ों का अभाव है। संभवतः यह हमारी पुरुष मानसिकता के चलते ही है। इसके विपरीत जनगणना में उपभोक्तावादी आंकड़े खूब मिल जाएंगे। भारत जैसे देश में यह जानकारी बेमानी है कि प्रति हजार ग्रामीण आबादी पर कितने टेलीफोन हैं, जबकि यह जानकारी कि प्रति हजार ग्रामीण आबादी को कितने लीटर पीने का पानी उपलब्ध है, ज्यादा उपयोगी है।

जनगणना में लोगों के वास्तविक जीवन का सही चेहरा उभरकर सामने आए तभी इसकी प्रामाणिकता एवं प्रासंगिकता बनी रह सकती है। वास्तविक जीवन का विवरण होने से भ्रम का सृजन होता है। सच कहें तो जनगणना के आधार पर ही आप देश की आर्थिक स्थिति का पता नहीं लगा सकते। देश में बेरोजगारी की दर क्या है, अर्द्धबेरोजगारों एवं बेरोजगारों की वास्तविक संख्या जान पाना संभव नहीं है। अक्सर यह भारतीय समाज में फैली लापरवाही के चलते ही होता है। जैसे यदि जनगणनाकर्मी पूछते हैं कि ‘कुछ काम करते हो’ तो सामने वाला जवाब देता है-‘हां’। बस उसकी गिनती रोजगारशुदा लोगों में हो जाती है। भले ही वह बेरोजगार हो। पूछने पर वह व्यक्ति अपने बारे में यह साफ नहीं बताता कि वह कितने दिन काम करता है और उसकी जीवन स्थिति क्या है। ऐसा ही आकलन स्त्रियों के बारे में है। पंजाब के आंकड़े इसका प्रमाण हैं। सभी जानते हैं कि पंजाब की महिलाएं घरेलू कार्यों के अलावा बाहर के कामों एवं कृषि कार्यों में भी बेहतर योगदान देती हैं, किंतु जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि वहां मात्र 4 प्रतिशत महिलाएं काम करती हैं।

गलतियों और गफलतों का अंतहीन सिलसिला

कहा जाता है कि बड़ा से बड़ा योजनाकार तभी सफल हो सकता है, जब उसके पास स्थितियों की सही तस्वीर हो। किंतु भारत का योजना आयोग गलत आंकड़ों के मकड़जाल में उलझकर रह जाता है। सही तस्वीर के अभाव में हमारी योजनाएं एवं कार्यक्रम विफल हो जाते हैं। अपने देश की जनगणना की तमाम तारीफों के साथ उसकी शैली पर सवाल भी उठते रहे हैं। सबसे पहले तो जनगणना विभाग के बारे में कहा जाता है कि उसके आंख, कान, पैर और हाथ तो हैं ही नहीं और वह दूसरे विभागों से उधार ली गई फौज से अपना काम करवाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि यहां गड़बड़ कैसी होती है। जनगणना के आधार वर्ष में मकानों की गिनती का काम होता है। सरकारी कर्मी इस काम को निपटाने के अंदाज में अंजाम देते हैं और अखबारों में यह समाचार आपने भी देखे होंगे कि पूरा गांव या मोहल्ला ही गायब है। प्रायः यह गंभीर किस्म की लापरवाही के चलते ही होता है। प्रत्येक गांव में व्यक्ति के विषय में जानकारी एकत्र करने का काम भी इसी अंदाज में होता है। कभी-कभी किसी बड़े आदमी के दरवाजे पर बैठकर पूरे गांव की सूचनाएं लिख ली जाती हैं। जनगणनाकर्मी अध्यापक हुआ तो काम किसी ‘शिष्य’ के हवाले कर देता है। जाहिर है वह ‘शिष्य’ इस कार्य में प्रशिक्षित नहीं होता। ऐसे में जनगणना से बेहतर परिणाम कैसे पाए जा सकते हैं? यहां यह बात भी रेखांकित की जानी चाहिए कि आम जनता इन कार्यों में घोर असहयोग पूर्ण रवैया अपनाती है। शहरी क्षेत्रों के लोग इसलिए भी पूरी सूचनाएं देने में डरते हैं कि मतगणनाकर्मी कहीं आयकर विभाग के लोग तो नहीं हैं। गांवों में लोग महिलाओं की संख्या छिपाते हैं। जाहिर है कि जनगणना के समक्ष ऐसी तमाम चुनौतियां है और इससे जूझकर, निकलकर हमारे जनगणनाकर्मी इस यज्ञ से भावी भारत के भविष्य का शिलालेख तैयार करेंगे, जिसके आधार पर 21 वीं सदी को हम वैश्विक संदर्भ में ‘भारत की सदी’ बनाने के सपने को साकार होता देख पाएंगे।

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