अविनाश वाचस्पति
लोकपाल मतलब नेता। चौंकिए मत जो लोक को पाले वह नेता ही हो सकता है। अरे भाई इसमें इतनी हैरानी की क्या बात है, क्योंकि लोक हुआ आम आदमी और आम आदमी को पालता है नेता। चाहे यह नेताओं की गलतफहमी ही क्यों न हो, परंतु किसी हद तक तो ठीक बैठ रही है। नेता वही जो लोक को कंट्रोल करे। कंट्रोल करने के लिए चाहे लोक के वोट हथियाए जाएं या वोटरों को खरीदा जाए और खरीदने का काम बखूबी नेताओं के ही वश का है, अन्य किसी का जादू यहां नहीं चलता है।
अब इसके उलट विचार कीजिए कि भला नेताओं को कौन पाल सका है, इसका जीता जागता भ्रम लोक को है। लोक को अपने सर्वशक्तिमान होने का भ्रम है, यह लोक की पागलता भी है। सोचता है कि वोट है मेरे पास, सामने नेता खड़ा है जोड़ कर हाथ। जो चाहेगा मनवाएगा। वोट देगा और पांच साल चक्करघिन्नी की तरह घुमाएगा नेता को। बस यहीं लोक का तंत्र फेल हो जाता है। उसकी सारी क्रियाएं धरी रह जाती हैं। वोट चला जाता है। वोटर खाली हाथ रह जाता है। यही लोकपाल के साथ हो रहा है बल्कि बलात् किया जा रहा है। किसने कहा है कि जबर्दस्ती सिर्फ देह के साथ ही होती है। जो जबर्दस्ती नियमों, कानूनों के साथ होती है, और जो करने वाले हैं, वे सब बचे रहते हैं और मंच पर सदा सजे रहते हैं। यह सजना ही चुनाव की सरंचना है जो लोकतंत्र का जीवंत मंत्र है।
ले देकर, घूम फिर कर, वही बात सामने आती है कि सत्ता के सभी झूलों पर नेता ही विराजमान आनंद ले रहे हैं। झूले होते ही आनंद देने के लिए हैं। वो लोक ही हैं जिनके झूलों की रस्सी रोज टूट जाती है। बाकी जितने झूले आपको दिखलाई दे रहे हैं, वह सभी मेहमान हैं। मेह यानी बारिश नहीं है तो क्या हुआ, मान सम्मान तो है ही।
भला वोटर का क्या सम्मान, सम्मान तो सिर्फ नेता का ही होता है और सम्मन लोक को मिलते हैं। नेता ही लोक को पाल सकता है। लोक किसी के भी पालने से नहीं पलता है और न ही झूलता है। लोक को पालने के लिए नेता का जिगर चाहिए, सत्ता की डगर चाहिए। जरूरत पड़ती है मनमोहिनी फिगर चाहिए। जिगर की बदौलत ही घपले घोटालों में कीर्तिमान स्थापित होते हैं। इसके बाद तिहाड़ में जाना पड़े तो यह जिगर की ही ताकत है जो उसको अस्पताल का रास्ता मुहैया कराता है। नाम तिहाड़ का और नेता अस्पताल में। ऐसे खूब सारे किस्से आजकल चर्चा में हैं। वह तो लोकपाल पर सबका ध्यान इस बुरी तरह भटक गया है कि उसे लोकपाल के सिवाय कुछ नहीं सूझ रहा है।
लो कपाल कहने से कपाल का घटता प्रभाव नहीं। कपाल कहने मात्र से ही तांत्रिक विधा का ध्यान बरबस हो जाता है। कपाल, माथे अथवा ललाट के लिए है जिसके खराब होने पर माथा खराब होना कहा जाता है, इसी कारण कईयों का माथा खराब हो रहा है। उनमें सत्ता,बे सत्ता, दल, पक्षी और विपक्षी भी सभी सक्रिय हो चुके हैं।
कपाल की कारगुजारियां कम ही होंगी पर अब लोकपाल की गतिविधियां आतंकित करने के लिए पर्याप्त हैं। आतंक जो जादू के माफिक सबके सिर चढ़कर बोल रहा है बल्कि चिल्ला रहा है। लोक के साथ पाल इस लोकपाल ने सबका हाल बेहाल कर रखा है। संसद, क्या सरहद और इन तक पहुंचाने वाली सड़क – सब पर इसी का शोर और जोर है। दिल्ली मुंबई नहीं, हर कोने की ओर है। ताकत लोकपाल की है। सत्ता पक्ष इससे बुरी तरह बोर हा चुका है। पर यह वह शीशा है जिसे न तो बोरी में बंद किया जा सकता है और न तोड़ा ही जा सकता है। सब तरंगित हैं, कह सकते हैं इससे ही इसके प्रभाव का जायजा लिया जा रहा है। शरद मास है। शरद ऋतु है। इस बार लोकपाल भी सर्दी की वर्दी से अछूता न रह सका।
लोकपाल को उर्दू के माफिक पढ़ेंगे तो लपाक लो या लपक लो होता है पर कौन किसको लपक रहा है। कौन इस लपक के फेर में फंस रहा है। पर कहीं कुछ लपलपा जरूर रहा है यही लपकन धड़कन बन गई है। पाल के मध्य में ग लगा दें तो लोक को पा(ग)ल बनाने की मुहिम में खांटी राजनीतिज्ञ खुद पागल हो गए हैं।
upa gov. justification is not good for indian . because indian leader’s understanding indian public is foolish / mad.