प्रमोद भार्गव
लोकतंत्र में लोक-राज की लाज किसने रखी, किसने खोई इसका ताजा उदाहरण बिहार में महागठवंध की पृष्ठभूमि से उभरे नए गठबंधन की छाया में देखा जा सकता है। एक पिता ने पुत्र को सत्ता में बने रहने के लिए धृतराष्ट्र को अनुसरण किया। नतीजतन सत्ता तो खोई ही अपने कुनबे के भविष्यको भी दांव पर लगा दिया। चूँकि नीतीश कुमार भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई लड़ते रहने के साथ भाजपा अर्थात राजग गठबंधन के साथ आए है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तत्काल उनकी इस पहल का स्वागत किया। नतीजतन नीतीश के इस्तीफे के बाद जो घटनाचक्र चला उसमें 16 घंटों के भीतर नीतीश कुमार ने बिहार के छठे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली। इसके पहले देश में अन्य कोई राजनीतिक घटनाचक्र इतने तेजी से घटा हो, ऐस दूसरा उदाहरण नहीं है। ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री से लेकर राज्यपाल एक ही दल और विचारधारा के थे। अन्यथा सबसे बड़े दल राजद को अवसर देने के फेर में संवैधानिक रस्साकसी चल रही होती और नीतीश व लालू विधायकों की गोलबंदी में लगे होते ? बहरहाल भाजपा गठबंधन की सत्ता का विस्तार अब देश के 18 राज्यों में हो गया है। और अब इस नई बनी सरकार को शीर्ष न्यायालय अथवा विधायकों की तोड़फोड़ के जरिए भी कोई बड़ी चुनौती मिलेगी, फिलहाल ऐसा लगता नहीं है।
भ्रष्टाचार के आरोप में घिरे बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री व राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के इस्तीफा नहीं देने से उत्पन्न स्थिति से असहज हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अचानक इस्तीफा देकर देश की राजनीति में हलचल ला दी थी। उनके त्याग पत्र के मंजूर होते ही बिहार की 20 माह पुरानी महागठबंधन सरकार धराशायी हो गई। इस गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल थी। नीतीश ने इस्तीफे के बाद अपना दर्द व नाराजी जताते हुए कहा कि ‘मैंने 20 माह तक गठबंधन का धर्म निभाया। मेरी प्रतिबद्धता बिहार की जनता व विकास के प्रति है। आज की परिस्थिति में यह निभाना संभव नहीं था। लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। तेजस्वी को आरोपों की सफाई देनी थी। लेकिन नहीं दी। इससे जनता में गलत धारणा बन रही थी। इसलिए ऐसे माहौल में मेरे लिए काम करना मुश्किल हो रहा था। मैं किसी पर कोई आरोप नहीं लगा रहा हूँ। मैंने लालू, तेजस्वी और राहुल गांधी से बात की लेकिन समस्या का समाधान नहीं निकला। राहुल ने कोई पहल नहीं की। इसलिए सबके अपने रास्ते हैं।‘ लिहाजा नीतीश ने नया रास्ता पकड़ा और अपने पुराने घर राजग गठबंधन में प्रवेश कर गए। अब भाजपा के सहयोग से आनन-फानन में शपथ लेकर नए सिरे से मुख्यमंत्री भी बन गए। उनके साथ उप मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा के सुशील मोदी ने भी शपथ ले ली है। नीतीश की पार्टी जदयू के विधानसभा में 71 और भाजपा के 53 विधायक हैं साथ ही राष्ट्रीय लोकसत्ता पार्टी के भी दो विधायक नीतीश के साथ है। इस तरह से 126 विधायकों का स्पष्ट बहुमत नीतीश के साथ है।
बहरहाल इस नए गठबंधन को सदन में बहुमत साबित करने में कोई दिक्कत पेश नहीं आनी है। नीतीश के राजग गठबंधन में जाने की पृष्ठभूमि पिछले 6 माह से चल रही थी। इसी क्रम में नीतीश ने नोटबंदी, जीएसटी और राष्ट्रपति के चुनाव में राजग उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का नाम सामने आने के साथ ही समर्थन कर दिया था। इसलिए भाजपा कोविंद की जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थी। इस बड़े राजनीतिक परिवर्तन से नीतीश को तो फायदा हुआ ही है, भाजपा बहुत बड़े फायदे में है। दरअसल महागठबंधन में नरेंद्र मोदी को सबसे मजबूत चुनौती देने का उपयुक्त एवं जनता में स्वीकार चेहरा नीतीश का ही था, जो अब राजग का हिस्सा हो गए हैं। इस परिवर्तन से तय सा लग रहा है कि 2019 के आम चुनाव का जनादेश राजग के पक्ष में आना निश्चित सा लग रहा है। नीतीश के लिए राजग में आना कोई नई बात नहीं है, क्योंकि भाजपा के साथ वे 17 साल रहे हैं। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में नीतीश रेल मंत्री रहे हैं। बिहार में लंबे समय तक भाजपा गठबंधन के साथ वे मुख्यमंत्री रहे हैं। इसलिए लालू पुत्रों से अनबन होने के बाद जब कोई रास्ता नहीं सूझा और सोनिया गांधी व राहुल भी कोई समन्वय नहीं बिठा पाए तो उन्होंने महागठबंधन से अलग होने का रास्ता चुन लिया।
दरअसल सोनिया और राहुल ने राजनीतिक मसलों का हल निकालने की बजाए, स्थिति को भगवन भरोसे छोडने का जो रवैया अपनाया हुआ है, उससे महागठबंधन को तो क्षति पहुंच ही रही है, कांग्रेस भी रसातल में जा रही है। कांग्रेस नेतृत्व की इसी ढिलाई के चलते गुजरात में शंकर सिंह वाघेला ने हाल ही में कांग्रेस से तौबा कर ली है। आम चुनाव आते-आते कांग्रेस किस हाल मे होगी इसका अंदाजा लोगों के छिटकने से सहज ही लगाया जा सकता है। दरअसल बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद दो ध्रुव बन गए थे। तेजस्वी के उप मुख्यमंत्री बनने के साथ ही सत्ता का एक सिरा लालू की मुट्ठी में आ गया था। साथ ही तेजस्वी के अनुज तेजप्रताप और उनकी पुत्रियों का दखल भी प्रशासन में बढ़ गया था। इन विपरीत धु्रवों की कारण षक्ति और सत्ता का जो द्रुपयोग बड़ा उसमें नीतीश जैसे बेदाग छवि के नेता को काम करना मुश्किल हो गया। नतीजतन गठबंधन की गांठ खुल गई।
नीतीश और सुशील मोदी की दोस्ती राजग गठबंधन से नीतीश के अलग होने के बाबजूद कायम रही। गोया, जैसे ही नीतीश में राजद से अलग होने भावना पनपी, वैसे ही सुशील ने इन्हें परवान चढ़ाने का काम शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप देखते-देखते एक गठबंधन टूटा और दूसरे में तुरत-फुरत नीतीश शामिल होकर फिर से मुख्यमंत्री भी बन गए। यही कारण है कि अब बौराए लालू नीतीश को हत्या का आरोपी सिद्ध करने में लगे हैं। लेकिन इस बाबत लालू से पूछा जा सकता है कि जब 2015 में लालू ने नीतीश के हाथ मिलाया था, तब हत्या का यह मामला कहां था ? यही सवाल नीतीश से भी पूछा जा सकता है कि जब उन्होंने लालू से गलबहियां की थी तब लालू पर लगे दाग क्यों बेअसर हो गए थे ? लेकिन भारतीय राजनीतिक का चरित्र कुछ ऐसा है कि उसमें दाग भी समय और परिस्थिति के अनुसार अनुकूल और प्रतिकूल हो जाते हैं। नीतीश ने जब नरेंद्र मोदी के बढ़ते वर्चस्व के चलते लालू से हाथ मिलाया था, तब उन्होंने संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) मुक्त भारत का नारा दिया था। लेकिन पिछले साढ़े तीन साल में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का परचम फहराया है, उसके परिप्रेक्ष्य में जिस तरह से माहौल बदल रहा है, उसमें संघ और भाजपा की लगातार स्वीकारता बढ़ रही है। धर्मनिरपेक्ष, सांप्रदायिक, पिछड़ा, दलित और मुस्लिम की राजनीति निरंतर गौण हो रही हैं। ऐसा लग रहा है कि इन मुद्दों को उछालकर चुनाव लड़ने वाले नेताओं का भविष्यकालांतर में इन जुमलों के भरोसे सुरक्षित रहने वाला नहीं है। गोया, राहुल गांधी, लालू, मुलायम, मायावती और ममता बनर्जी को नए मुद्दों और नए नारों के साथ मोदी से मुकाबला करने की जरूरत है। अन्यथा भारतीय राजनीति के सियासी खेल में ये पिछड़ भी सकते हैं।