विद्या और मधु

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विद्या आध्यात्मिक एवं भौतिक सभी प्रकार के सत्य वा यथार्थ ज्ञान को कहते हंै। विद्या को विज्ञान भी कहा जा सकता है। विद्या से ही हमें आपनी आत्मा, परमात्मा व सृष्टि के सत्य व यथार्थ स्वरूप का परिचय मिलता है। हमारी आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है। यह इतना सूक्ष्म है कि आंखों से दिखाई नहीं देता। मृत्यु के समय जब यह सूक्ष्म शरीर के साथ स्थूल शरीर से बाहर निकलता है तो वहां उपस्थित किसी भी व्यक्ति को दृष्टिगोचर नहीं होता। इस कारण से बहुत से लोग यहां तक कि वैज्ञानिक भी जीवात्मा के शरीर से पृथक अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों में भी अनेक भा्रन्तियां प्रचलित है। वह जीवात्मा के अस्तित्व पर एकमत नहीं हैं। विद्या से हमें जीवात्मा के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है। विद्या और वेद के आधार पर ही जाना गया है कि जीवात्मा एक सत्य एवं चेतन सत्ता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म, अनुत्पन्न, अनादि, अजन्मा, नित्य, अविनाशी, अमर, एकदेशी, ससीम, ज्ञान कर्म इसका स्वाभाविक गुण है, जन्म मृत्यु के मध्य यह कर्म करने में स्वतन्त्र फल भोगने में ईश्वर के पराधीन है। अनादि नित्य होने के कारण यह सदासदा से जन्म मृत्यु के चक्र में फंसी है। अपने जीवन काल में जीवात्मा जो कर्म करता है उसमें शुभ व अशुभ कर्म होते हैं। जिन कर्मों का भोग करना मृत्यु के समय तक शेष रहता है, उन कर्मों के अनुसार इसको ईश्वर के द्वारा नई जीव योनी मनुष्य, पशु, आदि में जन्म मिलता है। जिस प्रकार से हर यात्रा की एक मंजिल लक्ष्य स्थान होता है, उसी प्रकार से इस आत्मा की जीवन यात्रा का भी लक्ष्य मुक्ति वा मोक्ष है जो कि शुभ कर्मों, वेद ज्ञान की उपलब्धि तथा ईश्वर साक्षात्कार आदि होने पर होती है। इसी प्रकार से विद्या से ईश्वर व प्रकृति के स्वरूप को भी जाना जा सकता है। इसको जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का स्वाध्याय उपयोगी होता है।

विद्या मधु के समान है। मधु एक मधुर पदार्थ होता है जिसे शहद भी कहा जाता है। शहद ओषधि का भी कार्य करता है। यह मधु विविध कुसुमों वा फूलों से विविध मधु मक्खियों = मक्षिकाएं एकत्र करती हैं। मधु के छत्ते के ऊपर सैकड़ो मधु-मक्खियां इसकी रक्षार्थ बैठी रहती है। मनुष्य इसको बड़ी कठिनाई और चतुरता से प्राप्त करता है। विद्या भी ऐसी ही है। विद्या बहुत मधुर है। विद्या के रस में जो निमग्न हो गए हैं, जो विद्यारसिक बन गए हैं उन्हें अन्य सब रस तुच्छ प्रतीत होते हैं। रात-दिन पुस्तक पढ़ते ही रहते हैं। कभी-कभी भोजन को त्याग कर भी पढ़ते ही रहते हैं अथवा भोजन के समय भी उसी रस को स्मरण करते रहते है। विद्यारसिक निद्रा को अपना शत्रु समझने लगते हैं। यह निद्रा के लिए निद्रा नहीं लेते किन्तु इस निद्रा से शरीर और मन नीरोग रहेगा और इसके द्वारा विद्या का दिव्य व मधुर  रस चूसना है, यह भावना होती है। यह भोजन के लिए भोजन नहीं करते किन्तु विद्या के कारण भोजन करते हैं। लम्पट विषयी पुरूष भी अपनी प्रिया के समीप विद्याव्यसनी के समान अपने को सर्वथा नहीं भूल जाता। देखा गया है कि जब कोई विद्वान् विद्या के विचार में लगा हुंआ है तब उसके समीप से सेना चली गई है। बैण्ड-बाजे के साथ बड़ी-बड़ी बारातें कोलाहल करती हुईं निकल जाती हैं परन्तु उस विद्वान को कुछ खबर नहीं। वह विद्या-ग्रहण करने में विद्या से एकाकार हुआ रहता है। मधुपान से आदमी तृप्त हो जाता है। परन्तु विद्या रूप मधु के पान से कोई तृप्त नहीं होता। प्रत्येक रस को काल व शरीर आदि की अपेक्षा रहती है किन्तु विद्या का रस सर्वकाल, सर्व ऋतु, सर्व देश और बाल्यावस्था छोड सर्व अवस्था में समान रूप से विद्यानुरागी को आनन्द पहुंचाता है। आप स्वयं विचार करें कि विद्या कैसी मधुर व स्वादिष्ट वस्तु है।

मधु को मधु-मक्खियां अनेक कुसुमों वा फूलों से एकत्रित करती हैं। विद्या भी ऐसी ही है। विद्वान भी अनेक ज्ञानी पुरूषों से विद्या को एकत्रित करते हैं। भिन्न-भिन्न विद्याओं को तो भिन्न-भिन्न  महापुरूषों ने अपने विवेक द्वारा प्रकाशित किया है, इसमें सन्देह नहीं है। किन्तु एक विद्या भी अनेक महापुरूषों से प्रकट होके पूर्णता को प्राप्त हुई है। किसी एक ही विद्वान ने संस्कृत का पूर्ण व्याकरण नहीं बनाया है। किन्तु धीरे-धीरे बनते-बनते पूर्ण व्याकरण पाणिनि के समय बन गया। इसी प्रकार अन्यान्य विद्याएं भी बनी हैं। मधु के छत्ते के ऊपर मधु मक्खियां रक्षार्थ बैठी रहती हैं जिससे यह सभी मनुष्यों को प्राप्त नहीं हो पाता। विद्या भी ऐसी ही है। अब्रह्मचर्य, अमति, कुबुद्धि, दुःसंग, अमनन, अमनस्कता, अधैर्य, अनम्रता, आलस्य आदि सैकड़ों दंशक जीवन आत्म रक्षक विद्या को नहीं लेने देते। जो मन्ता, बोद्धा, शुश्रुषु, निरालस्य, धैर्यसम्पन्न, आचार्ययुक्त, जितेन्द्रिय, अचल, एकान्तसेवी, निरन्तरअभ्यासी होते हैं, वे ही विद्या को प्राप्त कर लेते हैं। अतः विद्या वास्तव में मधु है।

विद्या व मधु से संबंधित उपर्युक्त विचार वैदिक विद्वान पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी ने अपनी पुस्तक वैदिक-इतिहासार्थ-निर्णय में प्रस्तुत किये हैं। विद्या से मनुष्य को विनम्रता प्राप्त होती है तथा वेदों के अनुसार विद्या से ही दुःखों से निवृति, अमृत अर्थात् जीवन-मुक्ति मोक्ष वा ईश्वर साक्षात्कार आदि में सफलता मिलती है। विद्या का महत्व जान लेने पर हमारा कर्तव्य है कि हम सत्य विद्यओं की प्राप्ति के लिए ईश्वर प्रदत्त सभी विद्याओं की पुस्तक वेदों के अध्ययन की शरण लें जिससे हमारा मनुष्य जीवन सफल हो सके।

 

 

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