कहानी – प्रेम गली अति सांकरी….

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विश्व साहित्य में प्रेमकथाओं का सदा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इनमें भी वे कथाएं अधिक लोकप्रिय हुई हैं, जिनका अंत सुखद नहीं रहा। ऐसा क्यों है, कहना कठिन है। शायद विरह और दुख के अंगारों पर धीमे-धीमे सुलगता हुआ प्रेम ही अन्य प्रेमीजनों के दिल को शांति देता है।

हीर-रांझा, लैला-मजनू, शीरी-फरहाद आदि प्रेमकथाओं को लोककथा और गीतों ने समय के झंझावातों के बीच भी जीवित रखा है। फिल्मों ने इन्हें पूरी दुनिया में लोकप्रिय बना दिया। फिर भी अनेक प्रेमकथाएं समय के गर्भ में दबी हैं। ऐसी ही एक कथा है रूपा और कुंदन की, जो देवभूमि उत्तराखंड की गंगा और यमुना की घाटियों में जन्मी और फिर वहीं उसका दुखद अंत भी हो गया।

इस कथायात्रा पर आगे बढ़ने से पहले यह जान लें कि सोलह वर्षीय रूपा यमुनाघाटी की रहने वाली थी और बीस वर्षीय कुंदन गंगाघाटी का। सुविधा के लिए हम उनके गांव को ‘जमुनगांव’ और ‘गंगांव’ कहेंगे। रूपा अपने नाम के अनुरूप अतीव रूपवती थी, तो कुंदन का रंग-रूप कुछ सांवला होने पर भी पहाड़ की कठिनाइयां सहते हुए कुंदन जैसा निखर गया था।
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उत्तराखंड स्थित चार धामों की यात्रा यमुनोत्री से प्रारम्भ होकर क्रमशः गंगोत्री, केदारनाथ और फिर बदरीनाथ में पूरी होती है। इन मंदिरों के कपाट अक्षय तृतीया (मई-जून) को खुलकर भाई दूज (अक्तूबर-नवम्बर) में बंद होते हैं। आज तो सड़कें बनने से अधिकांश यात्री बस और कार आदि से ही आते हैं; पर यह कथा तब की है, जब यह यात्रा हरिद्वार में पवित्र स्नान के बाद शुरू होती थी। वह समय पैदल चलने का ही था। अतः अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार कोई दो धाम की यात्रा करता था, तो कोई चारों धाम की। कई बुजुर्ग तो यात्रा पर चलने से पहले अपने गांव और घर वालों को अंतिम राम-राम कर लेते थे। पता नहीं, लौटें या नहीं ? लौटने पर वे भगवान को धन्यवाद देते हुए पूरे गांव को भोज देते थे। उनके अनुभव सुनने के लिए हर दिन उनके दरवाजे पर लोग एकत्र होते थे।

loveयात्रा प्रारम्भ होने से पहले ही आसपास के गांवों से घोड़े और खच्चर वाले हरिद्वार आ जाते थे। पहाड़ में घोड़े की बजाय खच्चर अधिक उपयोगी होता है। छोटे कद और मजबूत शरीर के कारण वह कहीं भी चढ़ जाता है। पहाड़ की सर्दी भी वह अच्छे से सह लेता है। जो लोग पैदल चलने में असमर्थ होते थे, वे घोड़े वाले को साथ ले लेते थे। सामान ढोने के लिए खच्चर को अधिक अच्छा माना जाता है। कुंदन भी एक घोड़ा लेकर हरिद्वार आया था। वह पिछले तीन साल से ऐसा कर रहा था। पहले तो वह घोड़ा किराये पर लेता था; पर इस बार उसने एक घोड़ा खरीद ही लिया था।
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उत्तराखंड के पहाड़ों में मुख्यतः दो तरह के लोग रहते हैं। कुछ वे हैं, जिनके पुरखे ऋषि-मुनि थे। वे कंदमूल और फल खाकर, भगवान का भजन करते थे। गोमाता की सेवा करते हुए उसका प्रसाद पाते थे। अपनी झोपड़ी के आसपास कुछ मोटा अन्न और सब्जियां उगा लेते थे। नदियों का स्वच्छ और शीतल जल उनकी प्यास बुझा देता था। पेड़ों से टूटी डालियों से उनका चूल्हा जल जाता था। इस प्रकार वे शांति और संतोष से जीवन बिताते थे। उनके वंशज प्रायः ऊंचे क्षेत्रों में बसे हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों ने उनमें से अधिकांश को जनजाति (एस.टी.) की मान्यता दी है।

दूसरे वे लोग हैं, जिनके पुरखे राजस्थान, मध्यभारत, गुजरात और महाराष्ट्र आदि के मूल निवासी थे। विदेशी और विधर्मी हमलों के कारण जब उन्हें अपनी जान और बहू-बेटियों की लाज बचाना कठिन हो गया, तो वे इधर आ बसे। इनमें अधिकांश लोग योद्धा जातियों के हैं। जब ये आये, तो इनके घर और मंदिरों में पूजा कराने वाले पंडित और सेवक भी आ गये। रूपा ऐसे ही एक पंडित परिवार में जन्मी थी, जबकि कुंदन एक सेवक परिवार में।

एक साथ रहने के बावजूद जाति, बिरादरी, भाषा और क्षेत्र के भेद आज भी वहां विद्यमान हैं। शिक्षा के प्रसार और मैदानी क्षेत्रों में नौकरी के कारण अब बड़ी संख्या में अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह होने लगे हैं; पर बड़े-बूढ़े इसे आसानी से स्वीकार नहीं करते। फिर जिस समय की ये कथा है, उस समय तो इस बारे में सोचना भी अपराध जैसा ही था।
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उन दिनों यात्रा के लिए लोग बैसाखी (अपै्रल) से चलना शुरू कर देते थे। कुंदन भी तभी आना चाहता था; पर मां की बीमारी के कारण वह जेठ (जून) में ही हरिद्वार आ सका। अधिकांश घोड़े-खच्चर वाले जिस धर्मशाला में रुकते थे, वहीं वह भी रुका। शाम को गंगास्नान के बाद उसने मां गंगा के आगे हाथ जोड़े, जिससे उसे कोई अच्छा यात्री जल्दी ही मिल जाए। मां गंगा ने उसकी प्रार्थना सुन ली और तीसरे ही दिन एक पंजाबी सेठ ने उसे चारों धाम की यात्रा के लिए साथ ले लिया। सेठ जी के तामझाम से लग रहा था कि वे काफी सम्पन्न हैं। अतः कुंदन ने पैसे के बारे में नहीं पूछा। सामान ढोने के लिए उसने एक खच्चर भी किराये पर ले लिया। गंगा दशहरा (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) को पवित्र स्नान कर उनकी यात्रा शुरू हो गयी।

उत्तराखंड के लोग स्वभाव से सरल व धर्मभीरू होते हैं। इसलिए यात्रा में लूटपाट का डर नहीं रहता; पर नदी, नाले तथा घने जंगल तो पार करने ही पड़ते थे। वर्षा का भी कोई भरोसा नहीं, जाने कब बादल बरसने लगें। ऐसे में नदी-नालों में पानी अचानक बढ़ जाता है। जंगल में शेर, चीते, भालू तथा हाथी बहुतायत में थे। अतः यात्री समूह में चलते थे। हर चार-छह मील की दूरी पर बने डेरों में यात्री तथा उनके पशुओं के लिए भोजन तथा विश्राम की अच्छी व्यवस्था होती थी। एक-दूसरे के अनुभव सुनते तथा दुख-सुख बांटते हुए लोग हरिद्वार से देहरादून होते हुए यमुना का किनारा पकड़ लेते थे। इसके आगे की यात्रा फिर यमुना के किनारे-किनारे चलकर ही पूरी होती थी।
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सेठ जी की यात्रा अच्छी तरह चल रही थी। सेवाभावी होने के कारण कुंदन सेठ जी के स्नान के लिए पानी गरम कर देता था। उनके कपड़े धो देता था। खाना तो दोनों मिलजुल कर ही बनाते थे; पर बर्तन कुंदन ही साफ करता था। सेठ जी घोड़े पर सवार होने के बावजूद बहुत थक जाते थे। कुंदन उनके पांव दबा देता था। अपनी सेवा से उसने सेठ जी का दिल जीत लिया।

मैदानी क्षेत्र के डेरों की तरह यमुनोत्री के मार्ग में स्याना चट्टी, राना चट्टी, हनुमान चट्टी, जानकी चट्टी, फूल चट्टी आदि चट्टियां थीं। इनमें यात्रियों को विश्राम करने के लिए चटाई अर्थात बिस्तर आदि मिल जाते थे। गांव के लोग उन्हें खाना भी खिला देते थे। रात में यात्री और गांव वाले बैठकर बातें करते थे। इससे उन्हें एक-दूसरे के क्षेत्र की भाषा, बोली और रीति-रिवाजों की जानकारी मिलती थी। सुबह चलते समय यात्री अपना सहयोग करने वाले को कुछ राशि दे देता था। इस प्रकार यात्रा से धार्मिक उद्देश्य पूरा होने के साथ ही देश के बारे में जानकारी भी मिलती थी।

इस प्रकार यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरते हुए सेठ जी ‘जमुनगांव’ पहुंच गये। उन्हें हरिद्वार से चले लगभग डेढ़ महीना हो चुका था। अब यमुनोत्री बस पांच मील ही दूर था; पर दो दिन से सेठ जी तेज बुखार में तप रहे थे। पहाड़ों में कभी भी हो जाने वाली वर्षा में वे कई बार भीग चुके थे। खानपान भी अनियमित हो गया था। जमुनगांव के बाद की चढ़ाई एकदम खड़ी थी। कुंदन ने सेठ जी से कहा कि वे कुछ दिन जमुनगांव में ही आराम कर लें। सेठ जी ने उसकी बात मान ली।

यमुनोत्री का अंतिम पड़ाव होने के कारण जमुनगांव अपेक्षाकृत बड़ा और समृद्ध गांव था। वहां आज भी एक प्राचीन चारमंजिला मंदिर है। मंदिर को लकड़ी की खूंटियों और बल्लियों से ऐसे कसा गया है कि भारी भूकम्प में भी उसका कोई पत्थर इधर से उधर नहीं होता। रूपा के पिता पंडित सुंदरलाल इस मंदिर के मुख्य पुजारी थे। शीतकाल में यमुनोत्री मंदिर के कपाट बंद होने पर उसकी मूर्तियों को डोली में रखकर नीचे ‘खरसाली’ गांव में ले आते हैं। उस दौरान वहीं उनकी पूजा होती है। कपाट खुलने पर ये मूर्तियां यमुनोत्री मंदिर में पहुंचा दी जाती हैं। मूर्तियों की वह डोली जमुनगांव से भी होकर गुजरती है। इस अवसर पर मंदिर में विशाल भंडारा होता है। उसका प्रसाद जिन बड़े बर्तनों में बनता है, वे मंदिर की चौथी मंजिल पर रखे जाते हैं। साल में दो बार ही उन्हें निकालते हैं। फिर वह कमरा बंद हो जाता है; पर हैरानी की बात यह है कि जब कमरा खुलता है, तो दायीं ओर रखा गया बर्तन बायीं ओर तथा बायीं ओर वाला दायीं ओर रखा मिलता है। इसे चमत्कार कहें या कुछ और; पर यह जनमान्यता सैकड़ों सालों से वहां चली आ रही है।

मंदिर के सामने एक धर्मशाला बनी थी। सेठ जी के ठहरने की व्यवस्था वहीं कर दी गयी। पंडित सुंदरलाल जी पुजारी होने के साथ ही एक अच्छे वैद्य भी थे। उनकी दवा से सेठ जी को तेजी से आराम होने लगा। कुंदन उनकी सेवा में था ही; पर सेवक जाति का होने के कारण उसकी पहुंच पंडितों के घर के दरवाजे तक ही थी, उससे आगे नहीं। अतः घर से परहेज का भोजन लाने की जिम्मेदारी रूपा निभा रही थी। वह प्रायः धर्मशाला में आकर सेठ जी और कुंदन के पास बैठ जाती थी। वह अपने माता-पिता की अकेली संतान थी। लाड़-प्यार में पली होने के कारण उसे कोई टोकता भी नहीं था। इसलिए उसके स्वभाव में चंचलता आ गयी थी। उसे सेठ जी से देश-विदेश के किस्से सुनना अच्छा लगता था। सेठ जी भी उसे बेटी कहते थे; पर कुंदन…।

सेठ जी एक सप्ताह वहां रुके। इस दौरान कुंदन और रूपा में अच्छा परिचय हो गया। पंडित जी तो पूजा-पाठ के चक्कर में आसपास के गांवों में व्यस्त रहते थे। सेठ जी जब आराम करते, तब वह कुंदन के साथ बाहर बैठकर बातें करने लगती। दोनों जीवन के उस मोड़ पर थे, जब बिना किसी विषय के भी घंटों बातें की जा सकती हैं। बातों ही बातों में वह परिचय कब घनिष्ठता से होते हुए प्रेम में बदल गया, इसका दोनों को पता ही नहीं लगा।

कभी वे कल-कल छल-छल करती मां यमुना के इस ओर बैठते, तो कभी उस ओर। कभी पेड़ की छांव में बैठते, तो कभी मंदिर के पीछे। कभी गोशाला में तो कभी घुड़साल में। कभी-कभी तो वे यह भी भूल जाते थे कि सेठ जी की दवा या भोजन का समय हो गया है। दोनों ने न जाने कितनी कसमें उन दिनों खायी होंगी; पर वे भूल गये कि उन दोनों के निश्छल प्रेम के बीच जाति की ऐसी दीवार है, जिसे तोड़ना तो दूर, पार करना भी असंभव था।

इधर सेठ जी ठीक हो रहे थे, उधर रूपा और कुंदन के दिल की धड़कनें तेज हो रही थीं। जिस दिन सेठ जी को प्रस्थान करना था, उससे एक दिन पहले वे यमुना के तट पर बैठे थे।

– कुंदन, क्या तुम मुझे सदा के लिए छोड़ जाओगे ?

– नहीं रूपा, सदा के लिए नहीं। सेठ जी की यात्रा पूरी हो जाए। इसके बाद मैं जल्दी ही आऊंगा।

– जल्दी यानि कब ?

– पता नहीं यात्रा में कितना समय लगेगा; पर मैं आऊंगा जरूर।

– सच बताओ कुंदन, अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती।

– कुछ धैर्य रखो रूपा।

– नहीं, अब मुझसे धैर्य नहीं रखा जाता।

– देखो रूपा, सेठ जी की यात्रा दशहरे तक पूरी होने की आशा है। फिर मैं वहां से चलूंगा; लेकिन कितनी भी देर हो, कैसा भी काम हो, यमुनोत्री के कपाट बंद होने से पहले मैं हर हाल में आ जाऊंगा; पर एक बात बताओ, यदि मेरा रंग और रूप बदला हुआ हो, तो क्या तुम मुझे पहचान लोगी ?

यमुना पार करने के लिए गांव वालों ने लकड़ी के लट्ठों का एक छोटा पुल बना रखा था। रूपा ने उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘‘रूपा की आंखें धोखा नहीं खा सकतीं कुंदन; पर तुम आना जरूर। मां यमुना की साक्षी में कह रही हूं, यदि तुम नहीं आये, तो मंदिर के कपाट बंद होने के बाद मेरी सांसें भी बंद हो जाएंगे। मैं इसी पुल से यमुना में कूद जाऊंगी।’’ कुंदन ने रूपा के मुंह पर अपना हाथ रख दिया। रूपा की आंखें गंगा-यमुना हो रही थीं। दोनों काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे। वह मौन संवाद हजार बातों से बढ़कर था। अंधेरा होने पर दोनों वापस लौटे।

जमुनगांव से यमुनोत्री जाने और आने में दो दिन लगते थे। सेठ जी अब ठीक हो चुके थे। अतः वे यमुनोत्री हो आये। अगले दिन उन्होंने पंडित जी को धन्यवाद एवं दक्षिणा दी। मंदिर में चांदी का छत्र चढ़ाया। रूपा को भी उन्होंने कुछ राशि देकर आशीर्वाद दिया। चलते समय उन्होंने रूपा की जो दशा देखी, उसे उनकी अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया। कुंदन का हाल भी कुछ ऐसा ही था; पर सेठ जी का अगला लक्ष्य अब गंगोत्री धाम पहंुचना था।
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हरिद्वार से यमुनोत्री तक तो लगातार ऊपर की ही ओर चढ़ना पड़ता है। कहीं कम, कहीं अधिक; पर अब आगे की यात्रा में ऐसा नहीं था। क्योंकि सभी धाम लगभग समान ऊंचाई पर हैं। फिर भी चढ़ाई और उतराई का क्रम तो लगातार चल ही रहा था। लगभग 15 दिन चलकर वे गंगोत्री धाम जा पहुंचे। यात्रा के इस दौर में सेठ जी कुंदन के व्यवहार में आये परिवर्तन को साफ अनुभव कर रहे थे। हरिद्वार से अब तक वह खूब हंसते और बोलते हुए आ रहा था; पर अब ऐसा लगता था कि मानो वह कहीं खोया हुआ है। जब सेठ जी कुछ पूछते, तब ही वह बोलता था। यद्यपि सेठ जी की सेवा में उसने कोई कमी नहीं की; पर सेठ जी ने भी दुनिया देखी थी। वे सब समझ रहे थे।

गंगोत्री से केदारनाथ और फिर बदरीनाथ की यात्रा में लगभग डेढ़ महीना और लगा। सभी जगह उन्होंने पूरी श्रद्धा से पूजा की। मंदिर तथा पंडों को अच्छी दान-दक्षिणा भी दी। बदरीनाथ से अब वापस हरिद्वार आना था। अब प्रायः उतराई का दौर था। चारों धाम के दर्शन कर लेने के कारण सेठ जी प्रफुल्लित थे। जमुनगांव के पंडित जी की दवाओं के कारण सावन और भादों की वर्षा के बावजूद उनका स्वास्थ्य काफी ठीक था।

बदरीनाथ से श्रीनगर, देवप्रयाग और ऋषिकेश होते हुए हरिद्वार पहुंचने में भी लगभग महीना भर लग जाता है। देवप्रयाग के पास ही कुंदन का गांव था। वह आग्रहपूर्वक सेठ जी को वहां ले गया। उसके माता, पिता और भाई-बहिनों से मिलकर सेठ जी बहुत प्रसन्न हुए। कुंदन ने सेठ जी से निवेदन किया कि उसका कुछ पारिश्रमिक यहीं दे दिया जाए। सेठ जी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। उन्होंने कुंदन के पिताजी को आशानुरूप धन देकर आगे की यात्रा प्रारम्भ कर दी।

लगभग 20 दिन बाद सेठ जी हरिद्वार पहुंच गये। यात्रा पूरी होने से वे अति प्रसन्न थे। कुंदन ने उनका सामान धर्मशाला में उतार दिया। सेठ जी ने उसका शेष पारिश्रमिक देकर पूछा –

– कुंदन, अब कहां जाओगे ?

– देखिये, भाग्य कहां ले जाता है ?

– भाग्य या दुर्भाग्य.. ?

– मैं समझा नहीं सेठ जी ?

– मेरा मतलब है जमुनगांव जाने का विचार तो नहीं है ?

कुंदन चौंका। फिर साहस कर बोला, ‘‘हां सेठ जी, अब तो वहीं जाना है। यदि यमुनोत्री के कपाट बंद होने से पहले वहां न पहुंचा, तो …।

सेठ जी जानते थे कि रूपा और कुंदन में कोई समानता नहीं है। रूपा पंडित की बेटी थी, तो कुंदन सेवक का बेटा। रूपा के पिता खूब सम्पन्न थे, तो कुंदन के पिता बहुत गरीब। दोनों के रूप-रंग में भी बहुत अंतर था; पर वह प्रेम ही क्या, जो सिर चढ़कर न बोले। उन्होंने कुंदन को समझाने का प्रयास किया, ‘‘देखो कुंदन, मैं तुम्हारे पिता समान हूं। जो बात तुम्हारे मन में है, उसे मैं भी समझ रहा हूं; पर मेरी बात मानो, तो अपने और अपने परिवार के हित के लिए रूपा का विचार मन से निकाल दो।

कुंदन ने हाथ जोड़े और चल दिया। सेठ जी ने कहीं सुना था –

प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय
सीस उतारे भुई धरे, सो इसको ले जाए।

सेठ जी समझ गये कि कुंदन ने प्रेम के लिए अपना सिर दांव पर लगा दिया है। उन्होंने गंगा माई से उसकी रक्षा के लिए प्रार्थना की। दो दिन बाद दशहरा था। सेठ जी ने पवित्र स्नान कर अपने घर के लिए प्रस्थान कर दिया।
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उधर कुंदन के जाने के बाद रूपा के स्वभाव में भी बहुत परिवर्तन आ गया था। उसकी चंचलता मानो एकदम से ही समाप्त हो गयी थी। पहले वह हर समय गिलहरी की तरह अंदर-बाहर कूदती रहती थी; पर अब वह हर समय खोयी-खोयी सी रहने लगी। उसकी सहेलियां उसे बुलातीं, तब ही वह बाहर आती थी। पंडित जी को लगता था कि वह बीमार है; पर मां की अनुभवी आंखें सब समझ रही थीं। पंडित जी ने पूछताछ की, तो गांव के कई लोगों ने बताया कि जब सेठ जी यहां ठहरे थे, उन दिनों उनके सेवक के साथ इसे कई बार घूमते देखा गया था।

पंडित जी का माथा ठनक गया। रूपा उनकी एकमात्र संतान थी। यदि कुछ उल्टा-सीधा हो गया, तो सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी। उनकी रोटी-रोजी का एकमात्र आधार इस मंदिर की पंडिताई ही थी। यदि लोगों ने उन्हें पुजारी पद से हटा दिया, तो गांव में रहना कठिन हो जाएगा। ऐसे में उनके मन में वही बात आयी, जो प्रायः मां-बाप सोचते हैं। अर्थात बेटी का जल्दी से जल्दी विवाह कर दिया जाए। पंडित जी इस भागदौड़ में लग गये। उन्होंने गांव के प्रधान जी तथा आसपास के कुछ अन्य लोगों से भी इस बारे में प्रयास करने को कहा।

परिणाम यह हुआ कि जमुनगांव से दस मील नीचे ‘सुरखेत’ में रूपा का रिश्ता तय हो गया। उनके समधी जी वहीं मंदिर में पुजारी थे। बेटा भी उनके साथ पूजा-पाठ ही करता था। पंडित जी तो यात्रा सीजन समाप्त होते ही रूपा को ब्याह देना चाहते थे; पर पिछले माघ मास में उनके समधी के पिताजी का निधन हुआ था। इस कारण एक साल तक परिवार में कोई शुभ कार्य नहीं हो सकता था। अतः फागुन संक्रांति का दिन विवाह के लिए तय कर लिया गया।

पंडित जी ने रूपा को जब यह बताया, तो उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। पंडित जी और पंडिताइन ने सोचा कि विवाह के बाद प्रेम का यह खुमार उतर जाएगा। इसलिए वे विवाह की तैयारी में लग गये। रूपा की सहेलियां जब उससे उसकी ससुराल सुरखेत के बारे में हंसी-मजाक करतीं, तो रूपा का हर बार एक ही उत्तर होता था, ‘‘जिन्दा रहते तो दूर, मैं तो मर कर भी सुरखेत नहीं जाऊंगी।’’ सहेलियां हंसी में इस बात का टाल देतीं; पर उन्हें पता नहीं था कि रूपा के मन में क्या अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है ?
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उधर कुंदन अपने घोड़े पर सवार होकर तेजी से जमुनगांव की ओर बढ़ रहा था। देवप्रयाग में अपने गांव जाने के बाद से उसने दाढ़ी और बाल बढ़ाने शुरू कर दिये थे। हरिद्वार में उसने कुछ भगवा कपड़े ले लिये। बालों पर राख लगाकर जटाएं बना लीं। पहाड़ में सावन-भादों की भारी वर्षा से भूस्खलन होता है। प्रायः रास्ते भी रुक जाते हैं; पर कुंदन सब बाधाएं पार करता हुआ दीवाली वाले दिन जमुनगांव पहुंच गया। धर्मशाला में भीड़ के बावजूद उसे रुकने की जगह मिल गयी। बार-बार भीगने से उसके बाल और कपड़े खिचड़ी जैसे हो गये। वह बिल्कुल विरक्त संन्यासी जैसा लग रहा था। अतः गांव वाले उसे पहचान नहीं सके; पर रूपा.. ? वह तो उसके जाने वाले दिन से ही उसकी प्रतीक्षा में थी। उसे पूरा विश्वास था कि चाहे जो हो; पर वह आएगा जरूर। धर्मशाला में यात्री आते-जाते रहते थे। अतः रूपा दिन में एक-दो बार वहां जाकर झांक जरूर लेती थी।

जैसे-जैसे कपाट बंद होने के दिन पास आ रहे थे, रूपा के दिल की धड़कनें बढ़ रहीं थीं। कुंदन ने कपाट बंद होने से पहले आने का वचन दिया था, फिर वह अब तक क्यों नहीं आया ? दो दिन बाद गांव में यमुना मैया की मूर्तियों का स्वागत और भंडारा होना था। अतः सब ओर काफी हलचल थी। रूपा आज धर्मशाला की तरफ गयी, तो उसने देखा कि एक युवा संन्यासी अपने कपड़े सुखा रहा है। दोनों की आंखें मिलीं और बस…; रूपा ने पहचान लिया कि जिसकी प्रतीक्षा वह पिछले चार महीने से कर रही थी, वह आ गया है। उसके हृदय के स्पंदन बढ़ गये। चेहरे पर लाली छा गयी। कुंदन ने उसे चुप रहने का इशारा किया। आंखों ही आंखों में दोनों ने शाम को यमुना के पास वहीं मिलने का निश्चय किया, जहां उनकी अंतिम भेंट हुई थी।

लेकिन इस बार उनका दुर्भाग्य भी उनके साथ था। जब वे बातों में व्यस्त थे, तभी गांव के प्रधान जी उधर से निकल रहे थे। रूपा और कुंदन का किस्सा पूरे गांव को पता था। प्रधान जी ने रात को ही पंडित जी सब बता दिया। परिणाम यह हुआ कि गांव वालों ने कुंदन को पकड़कर बुरी तरह मारा। उसके हाथ-पैर बांधे और मुंह में कपड़ा ठूंसकर मंदिर की चौथी मंजिल पर बंद कर दिया।

उन दिनों आज की तरह पुलिस या न्यायालय तो थे नहीं। ऐसे मामलों में गांव की पंचायत का निर्णय ही अंतिम होता था। दो दिन तक तो किसी को फुर्सत नहीं थी। भंडारे और मूर्तियों की डोली जाने के बाद अगले दिन पंचायत बैठी। उन दिनों गंगा और यमुना घाटी के लोगों में विवाह नहीं होते थे। कुछ कारण तो शायद दूरी का रहा होगा; पर कुछ बात मान-सम्मान की भी थी।

यों तो गंगा और यमुना दोनों ही हिमालय की पुत्री होने के नाते सगी बहिनें हैं; पर विश्व की सर्वाधिक पूज्य नदी के आसपास रहने के कारण गंगा घाटी वाले स्वयं को उच्च मानते थे। दूसरी ओर यमुना घाटी वाले उसे नदी के बदले नहर कहते थे, जिसे भगीरथ जी और उनके वंशजों ने सैकड़ों साल में खोदा था। उनका कहना था कि यमुना नदी प्राकृतिक एवं देवनिर्मित होने के कारण अधिक पवित्र और पूज्य है, जबकि मानव निर्मित होने के कारण गंगा का वह स्थान नहीं है।

पंचायत में एक विषय तो गंगा और यमुना घाटी के भेद का था; पर इसके भी अधिक बड़ा भेद पंडित और सेवक जाति के बीच का भी था। कुंदन ने पंडित जी की बेटी से प्रेम करने की गलती की थी, अतः पंचायत ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि चार दिन बाद, सोमवार की रात में कुंदन के हाथ-पैर बांधकर उसे यमुना में डाल दिया जाए।

अब बेचारी रूपा क्या करे ? उसकी जान आफत में थी। वह कुछ बोले, तो उसके चरित्र पर लांछन लगे; और चुप रहे, तो कुंदन की जान जाती थी। ऐसे में उसने साहस और बुद्धिमत्ता से काम लिया। उसे पता था कि कुंदन मंदिर की चौथी मंजिल पर भूखा-प्यासा बंधा है। वह गोशाला से ढेर सा गोबर लेकर मंदिर के पिछवाड़े डालने लगी। इस प्रकार दूसरा दिन बीता और फिर तीसरा। गोबर का काफी ऊंचा ढेर लग गया। यह करते हुए वह हल्के स्वर में कुछ गाती भी रहती थी। इस गुनगुनाहट के द्वारा उसने कुंदन को बता दिया कि सोमवार की रात तुम्हारे जीवन की अंतिम रात है। यदि जान बचानी है और रूपा को पाना है, तो उससे पहले ही इस गोबर के ढेर पर कूद जाओ।

रूपा के संकेतों को कुंदन ने समझ लिया। खुद को हिला-डुलाकर वह उस कमरे में रखे बड़े बर्तनों के पास पहुंच गया। उसने भगोने के किनारों से घिस-घिसकर अपनी रस्सियां काट लीं। उस कमरे की खिड़की को भी कुंदन ने खोल लिया। उसने रूपा को यह सब बता भी दिया। अंततः प्राणदंड से एक दिन पहले, रविवार को ही दोनों ने यहां से भागने का निश्चय कर लिया।

आज तीसरा दिन था। कल सोमवार को कुंदन को प्राणदंड दिया जाना था। इधर रूपा और कुंदन की योजना कुछ और बन चुकी थी। अतः शाम होते ही रूपा मंदिर के पीछे आ गयी। कुंदन ने खिड़की खोली और गोबर के ढेर पर कूद गया। उसका पूरा शरीर से गोबर से लंद-फंद गया। कुछ चोट भी आयी; पर इस ओर ध्यान दिये बिना दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर भाग चले। वे लकड़ी के लट्ठों से बने उस कामचलाऊ पुल से होकर हमेशा के लिए यमुना के उस पार निकल जाना चाहते थे।

पर इस बार भाग्य सचमुच उनके विपरीत था। जैसे ही वे पुल पर पहुंचे, उन्होंने देखा कि सामने से पंडित जी चले आ रहे हैं। वे यमुनापार के किसी गांव में पूजा के लिए गये थे। दोनों की समझ में नहीं आया कि वे क्या करें ? अचानक रूपा ने अपनी चुनरी उतारी। दोनों ने अपना एक-एक हाथ उसमें कसकर बांधा और फिर बिना देरी किये यमुना में कूद गये।

पहाड़ में नदियों की गति काफी तेज होती है। जब तक पंडित जी कुछ समझें, तब तक तो वे दोनों आंखों से ओझल हो गये। एक साथ जीना संभव नहीं हुआ, तो उन्होंने एक साथ मरने का व्रत ले लिया। सारे गांव में हाहाकार मच गया। सब लोग धर्मशाला में आ गये; पर भीषण वर्षा और अंधेरे में उन्हें ढूंढना संभव नहीं था। अगले दिन भी वर्षा बहुत तेज थी। फिर भी लोग निकले। कुछ यमुना के इधर, तो कुछ उधर; पर दोनों का कहीं पता नहीं था। यह तो निश्चित था कि अब वे जीवित नहीं मिलेंगे। कई घंटे तक ढूंढने के बाद लोग निराश होकर लौट आये। अगले दो-तीन दिन फिर ऐसे ही प्रयत्न हुए; पर सफलता हाथ नहीं लगी। अतः सब लोग चुप होकर अपने काम-धंधे में लग गये।
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धीरे-धीरे कई महीने बीत गये। उन दोनों की लाश नहीं मिली। पंडित जी के घर में स्थायी उदासी ने डेरा डाल दिया था। मंदिर में पूजा तो वे अब भी नित्य करते थे; पर बाहर जाना अब उन्होंने बहुत कम कर दिया। जैसे-जैसे फागुन संक्रांति निकट आ रही थी, उनके दिल का हाहाकार बढ़ता जा रहा था। इस दिन उन्हें अपनी बेटी का विदा करना था; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। उनके समधी जी ने पूरी घटना जानकर अपने बेटे का विवाह कहीं और तय कर दिया।

फागुन संक्रांति वाले दिन पंडित जी सुरखेत की ओर चले। वे वहां जाकर अपने समधी से क्षमा मांगना चाहते थे। प्रधान जी भी उनके साथ थे। सुरखेत से कुछ पहले वे थकान मिटाने के लिए यमुना के किनारे एक पत्थर पर बैठ गये। अचानक एक बड़ी लहर आयी और तट पर दो सड़ी-गली लाशें छोड़कर लौट गयी। पंडित जी ने आंखें मलकर देखा और पछाड़ खाकर गिर पड़े। प्रधान जी भी भौंचक रहे गये। ये शव रूपा और कुंदन के ही थे। उनका अधिकांश शरीर मछलियां खा चुकी थीं। फिर भी वे उन्हें पहचान गये। उनके हाथ उस चुनरी से जैसे के तैसे बंधे थे।

पंडित जी की हालत अच्छी नहीं थी। अतः प्रधान जी उठे और आसपास से कुछ लोगों को बुला लाये। सुरखेत से भी लोग आ गये। रूपा ने अपनी सहेलियों से कहा था कि वह जिन्दा तो क्या, मुर्दा भी सुरखेत नहीं जाएगी। उसने अपना वचन पूरा कर दिया।

पहाड़ी नदियों में बड़े-बड़े पत्थर पड़े रहते हैं। हुआ यों कि जब रूपा और कुंदन नदी में कूदे, तो ऐसे ही किसी पत्थर में फंसकर उनका प्राणांत हो गया। दीवाली के बाद ऊंचे पहाड़ों पर भीषण हिमपात होता है। नदियां भी ऊपर से जम जाती हैं। तीन महीने तक ऐसे ही हिमपात के बीच उनकी लाशें पड़ी रहीं। फिर किसी दूसरी शिला से टकराकर वह पत्थर हिल गया। इससे वे मुक्त हो गये और बहते हुए सुरखेत के पास नदी के तट पर आ गये।

अब कुछ सोचने का समय नहीं था। यमुना के तट पर लकड़ियां एकत्र कर एक ही चिता में उन दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। पंडित जी की हालत लोगों से देखी नहीं जा रही थी। जिस दिन उन्हें अपनी बेटी की डोली में कंधा लगाना था, उस दिन उन्हें उसकी चिता में आग लगानी पड़ रही थी। किसी पिता के लिए इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है ? चिता में अग्नि प्रज्वलित होते ही सूरज देवता भी पूरी प्रखरता से प्रकट हो गये। शायद वे भी उन सच्चे प्रेमियों को श्रद्धांजलि देना चाहते थे।
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लेकिन रूपा और कुंदन की कहानी अभी बाकी है। कुछ दिन बाद लोगों ने देखा कि चिता वाले स्थान पर एक गहरा गड्ढा बन गया है। पहाड़ में ऐसा होता ही रहता है; पर कुछ लोगों ने गौर से देखा, तो ध्यान में आया कि उस गड्ढे में यमुना का नहीं, बल्कि गंगा का जल है। कुछ जिज्ञासुओं ने इसकी जांच की, तो वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे। यदि कभी गंगाघाटी में वर्षा होती, तो दो घंटे बाद ये जल गंदला हो जाता था; पर यमुनाघाटी में वर्षा के बावजूद यह साफ बना रहता था। फिर क्या था, चारों ओर इसकी चर्चा होने लगी। गांव वालों ने उस गड्ढे को पक्का कर एक सुंदर कुंड तथा पास में ही एक छोटा मंदिर बना दिया। यह कुंड रूपा और कुंदन के प्रेम की निशानी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।

अगले वर्ष फागुन संक्रांति पर एक चमत्कार हुआ। यों तो उस कुंड में सैकड़ों छोटी मछलियां तैरती रहती थीं; पर उस दिन लोगों ने देखा कि दो बड़ी मछलियां भी वहां है। उनमें से गाढ़े रंग वाली मछली नर थी और सुनहरे रंग वाली मादा। दोनों दिन भर कुंड में इधर से उधर फुदकती रहीं; पर अगले दिन वे दिखायी नहीं दीं। सबको विश्वास हो गया ये दोनों रूपा और कुंदन ही हैं।

धीरे-धीरे उस कुंड का नाम ‘गंगाकुंड’ तथा गांव का नाम ‘गंगनानी’ पड़ गया। फागुन संक्रांति वाले दिन ही रूपा और कुंदन का दाह संस्कार हुआ था। अतः हर फागुन संक्रांति पर यहां मेला भरने लगा। लोकगीतों में रूपा और कुंदन के प्रेम की चर्चा होने लगी। नाटकों में उनकी प्रेमकथा प्रदर्शित की जाने लगी।

इस घटना को सैकड़ों साल हो गये। गंगनानी में आज भी हर फागुन संक्रांति (मध्य फरवरी) पर मेला लगता है। पूरी घाटी से लोग वहां उमड़ पड़ते हैं। वर्षा हो या धूप; पर उस दिन युवा प्रेमी और नवविवाहित युगल बड़ी संख्या में वहां आते हैं। वे अपने हाथ में चुनरी बांध कर गंगाकुंड की परिक्रमा करते हैं और फिर अपने सफल, सुखद और दीर्घ वैवाहिक जीवन की प्रार्थना करते हुए उसे मंदिर के पास स्थित पेड़ की किसी डाली से बांध देते हैं। ऐसी हजारों चुनरियां उस पेड़ की शोभा बढ़ा रही हैं।

जनमान्यता है कि मछली के रूप में रूपा और कुंदन आज भी वहां हैं। यद्यपि वे मुख्यतः फागुन संक्रांति को ही दिखते हैं। फिर भी लोग कुंड के पास खड़े होकर उन्हें आवाज लगाते हैं। कुछ भाग्यशाली लोगों को वे ऊपर आकर दर्शन देते भी हैं; पर प्रायः वे नीचे ही रहना पसंद करते हैं। शायद वे डरते हैं कि प्रधान जी या पंडित जी जैसा कोई प्रेम विरोधी उन्हें फिर न देख ले।
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उधर गंगांव वालों को इस दुर्घटना का समाचार बहुत समय बाद मिला। जब साल भर बाद भी कुंदन घर नहीं लौटा, तो उसके पिता हरिद्वार आये। वहां कुछ घोड़े वालों ने उसके अकेले यमुनोत्री जाने की बात बतायी। वे उसे ढूंढते हुए गंगनानी तक पहुंच गये। वहां उन्हें पूरी बात मालूम हुई। उन्हें गुस्सा तो बहुत आया; पर वे कुछ कर नहीं सकते थे। एक तो गरीब, फिर सेवक की जाति; मानो कोढ़ में खाज हो गयी हो। वे कुंदन की याद में काफी देर तक उस कुंड के पास बैठकर रोते रहे। दोनों मछलियां उस समय लगातार ऊपर ही बनीं रहीं। मानो वे उन्हें सांत्वना दे रही हों। शाम होने पर उन्होंने कुंड की परिक्रमा की, मंदिर में सिर झुकाया और अपने गांव लौट गये।

इस घटना से गंगाव और जमुनगांव के बीच स्थायी द्वेष की दीवार खड़ी हो गयी। समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है; पर गंगाव और जमुनगांव के बीच द्वेष नहीं मिटा। गंगा और यमुना बड़े से बड़े पाप को धो देती हैं; पर इन गांवों के बीच का बैर नहीं धुल सका। अतः इन गांवों में आज भी रिश्ते नहीं होते। जमुनगांव की धर्मशाला अब बहुत बड़ी बन चुकी है; पर गंगाव वाले यमुनोत्री जाते समय वहां नहीं रुकते। जमुनगांव के लोग भी गंगोत्री जाते समय गंगाव की ओर देखते तक नहीं।

किसी ने कहा है – प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय। हजारों साल से ऐसा ही होता आया है। गंगांव और जमुनगांव के बीच की प्रेमगली में भी दो प्रेमी एक साथ नहीं समा सके। जातिभेद और क्षेत्रवाद ने उनका रास्ता रोक लिया; लेकिन रूपा और कुंदन ने बता दिया कि जीते जी भले ही उस गली को पार न किया जा सके; पर मरने का निश्चय कर लेने के बाद कोई भी दीवार प्रेमियों को नहीं रोक सकती।

मेरा आप से निवेदन है कि यदि आप कभी यमुनोत्री जाएं, तो थोड़ी देर के लिए गंगनानी जरूर रुकें। गंगाकुंड की परिक्रमा कर रूपा और कुंदन को आवाज दें। हो सकता है वे ऊपर आ जाएं। यदि आप उनकी भाषा समझ सकें, तो वे पूछेंगे कि क्या प्रेम करना पाप है; क्या आज भी जाति, बिरादरी और क्षेत्र के नाम पर प्रेमियों को मार दिया जाता है; यदि हां, तो यह बर्बर अमानवीय प्रथा कब समाप्त होगी ?

कुछ लोग कहते हैं कि रूपा और कुंदन के प्रेम से दो गांवों के बीच जन्मा बैर एक और बलिदान पाकर ही मिटेगा; पर वह अगला बलिदान कब और किसका होगा, कौन जाने.. ?

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