जानां ;
तुम्हारा मिलना एक ऐसे ख्वाब की तरह है ,
जिसके लिए मन कहता है कि ,
कभी भी ख़त्म नहीं होना चाहिए …
तुम जब भी मिलो ,
तो मैं तुम्हे कुछ देना चाहूँगा ,
जो कि तुम्हारे लिए बचा कर रखा है …………..
एक दिन जब तुम ;
मुझसे मिलने आओंगी प्रिये,
मेरे मन का श्रंगार किये हुये,
तुम मुझसे मिलने आना !!
तब मैं वो सब कुछ तुम्हे अर्पण कर दूँगा ..
जो मैंने तुम्हारे लिए बचा कर रखा है …..
कुछ बारिश की बूँदें …
जिसमे हम दोनों ने अक्सर भीगना चाहा था
कुछ ओस की नमी ..
जिनके नर्म अहसास हमने अपने बदन पर ओड़ना चाहा था
और इस सब के साथ रखा है …
कुछ छोटी चिडिया का चहचहाना ,
कुछ सांझ की बेला की रौशनी ,
कुछ फूलों की मदमाती खुशबु ,
कुछ मन्दिर की घंटियों की खनक,
कुछ संगीत की आधी अधूरी धुनें,
कुछ सिसकती हुई सी आवाजे,
कुछ ठहरे हुए से कदम,
कुछ आंसुओं की बूंदे,
कुछ उखड़ी हुई साँसे,
कुछ अधूरे शब्द,
कुछ अहसास,
कुछ खामोशी,
कुछ दर्द !
ये सब कुछ बचाकर रखा है मैंने
सिर्फ़ तुम्हारे लिये प्रिये !
मुझे पता है ,
एक दिन तुम मुझसे मिलने आओंगी ;
लेकिन जब तुम मेरे घर आओंगी
तो ;
एक अजनबी खामोशी के साथ आना ,
थोड़ा , अपनी जुल्फों को खुला रखना ,
अपनी आँखों में थोड़ी नमी रखना ,
लेकिन मेरा नाम न लेना !!!
मैं तुम्हे ये सब कुछ दे दूँगा ,प्रिये
और तुम्हे भीगी आँखों से विदा कर दूँगा
लेकिन जब तुम मुझे छोड़ कर जाओंगी
तो अपनी आत्मा को मेरे पास छोड़ जाना
किसी और जनम के लिये
किसी और प्यार के लिये
हाँ ;
शायद मेरे लिये
हाँ मेरे लिये !!!
तुम्हारा ही
मैं ………..!!!!
विजय कुमार सप्पाती जी की सुंदर कविता, प्रेमपत्र नंबर : १४०९, में उन्होंने जैसे आदि से अनादि तक सम्पूर्ण दम्पति जीवन ही रच दिया है| श्रेष्ठ भाव युक्त कविता के लिए उन्हें मेरा साधुवाद|
आपकी कविता बहुत अच्छी लगी.
सुरेश माहेश्वरी
बहुत sundar