वासना के असत्य का शिकार बना समाज

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डॉ. राजेश कपूर

आधुनिक समाज, चिकित्सकोंऔर वैज्ञानिकों में यह विचार गहरी जड़ें जमा चुका है कि शुक्र रक्षा या ब्रह्मचर्य का पालन करना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। उनका कहना है कि वीर्य रक्षा तथा ब्रह्मचर्य अज्ञानता है, धार्मिक अंधविश्वास है और पिछड़ेपन की बात है। आधुनिकता से इस पिछड़े अंधकार युग के विचारों का कोई वास्ता नहीं।

कुछ तथाकथित यौन रोग व सेक्स विशेषज्ञों ने इस विचार का दुरुपयोग अपने व्यापारिक स्वार्थों के लिये करना शुरू कर दिया तथा शुक्र रक्षा और ब्रह्मचर्य के बारे में झूठी धारणाओं को खूब प्रचारित किया है। वीर्य रक्षा या ब्रह्मचर्य से मानसिक तनाव, अनेक मानसिक रोग होते हैं और कई शारिरिक रोग भी होते ही हैं; यह झूठ सारे संसार में फैला दिया गया। चिकित्सक और मनोवैज्ञानिक झूठी मान्यताओं के कारण युवाओं को यहां तक सलाह दे देते हैं कि कामवासना से पैदा मानासिक व शारीरिक रोगों से बचना है तो वीर्य स्खलन करो, चाहे वेश्यालय में जाओ। वहाँ से मिलने वाले यौन रोगों से अधिक खतरनाक वे रोग हैं जो कामवासना को शान्त न करने के कारण होते हैं, ऐसा जीवन नष्ट करने वाला रास्ता भ्दिग्भ्रमित चिकित्सकों द्वारा बतलाया जाता है.

करोड़ों युवा इस सलाह को मानकर अपना जीवन अंधकारमय बना रहे हैं।

वास्तविकता यह है कि वासना का व्यापार या बाजार अरबों-खरबों रुपये का है। विश्व स्तर के वासना बाजार के व्यापरियों ने ब्रह्मचर्य तथा वीर्य रक्षा के विचारों को बदनाम कर के अपने रास्ते की रुकावटों को दूर करने का काम किया है।

सबसे बड़ी कमाल की बात यह है कि उनके झूठ के पक्ष में वैज्ञानिक प्रमाण हैं ही नहीं। फिर भी वे बड़ी कुशलता व सफलता से असत्य को प्रचारित कर रहे हैं।

काम-वासना का प्रचार करने वाले यौन पवित्रता और सच्चरित्रता को ‘पिछडा़ और पोंगापंथी’ कह कर नकार देते हैं।

एक और कमाल यह है कि मीडिया भी इस झूठ को  उजागर नहीं कर रहा.  समाज में तेजी से बढ़ रहे व्यभिचार का एक बड़ा कारण यह झूठ भी है।

ब्रह्मचर्य और शुक्र रक्षा के अनगिनत लाभों पर विश्व स्तर के अनेक शोध चिकित्सा-विज्ञान जगत में हो चुके हैं।

पर वे शोध मीडिया के माध्यम से कभी सामने नहीं लाए जाते?

केवल भारत ही नहीं सारे संसार को एक बहुत बड़े असत्य के अंधेरे में बड़ी चालाकी और निर्ममता पूर्वक धकेल दिया गया है।

करोड़ो लोगों, विशेष कर युवाओं का जीवन इस असत्य के कारण अंधकारमय बन चुका और आगे भी बन रहा है। इसीलिये इस विषय को उजागर करना, सत्य को सामने लाना आधुनिक युवाओं की बहुत बड़ी जरूरत है।

एक और कमाल की बात यह है कि सारे संसार के स्वास्थ्य की जिम्मेवारी लेने का दम भरने वाले ‘विश्व स्वास्थ्य संगठ’ जैसे अंन्तर्राष्ट्रीय संगठन इस विषय पर रहस्यपूर्ण मौन साधे हुए हैं. इन संगठनो के ऐसे व्यवहार से स्वाभाविक सन्देह होता है कि वे भी अनैतिकता फैलने व वासना का बाजार चलाने वाली शक्तियों के सहायक बने हुए हैं। भारतीय शासन तंत्र विदेशी शक्तियों के इशारों पर, उनके हित में, उनके लिये कार्य करता रहा है; यह अनेकों बार हम अनुभव कर चुके हैं। अतः ऐसी सरकारों से कुछ सही किये जाने की आशा कैसे करें ?

किन्हीं विदेशी शक्तियों की मुठ्ठी में होने के कारण मीडिया का भारत विरोधी व्यवहार होने की चर्चाएं अनेकों बार होती रही हैं.

अतः अपने खुद के प्रयासों से यह जानना जरूरी है कि वीर्य रक्षा और ब्रह्मचर्य के पालन के अदभुत परिणामो के बारे में आधुनिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक क्या कहते हैं।

आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों और खोजकर्ताओं के अनुसार वीर्यनाश के कारण अनेकों शारीरिक और मानसिक रोग पैदा होते हैं। संयम व ब्रह्मचर्य का पालन करने से रोग होने के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिले हैं।

हमारे मानसिक कोषों का निर्माण जिन तत्वों से होता है वे तत्त्व यथा फास्फोरस, लेसीथिन, कॉलेस्ट्राल आदि वीर्य में निकल जाने पर अनेक प्रकार के मानसिक रोग होना स्वाभाविक है। वीर्य स्राव से मानसिक तनाव कम होने की बात पूरी तरह से नीराधार और अवैज्ञानिक है।

प्रजनन तंत्र से सम्बंधित अन्तःस्रावी ग्रंथियों (ग्लैण्ड्‍ज) द्वारा निर्माण किये जैने वाले रस या हार्मोन स्वास्थ्य रक्षा में बहुमूल्य योगदान करते हैं। वीर्य सुरक्षित रखने से इन हार्मोनों में उपस्थित लाभकारी तत्त्वों का अद्भुत लाभ  शरीर पर होता है।

वीर्य रक्षा का सीधा अर्थ है सैक्स हार्मोनों की रक्षा और वीर्यनाश का साफ अर्थ है हार्मोन, बल तथा जीवनी शक्ति का विनाश।

इन हार्मोनो की कमी से बुढ़ापा आने लगता है और इनके संरक्षण से उत्साह, शक्ति, स्वास्थ्य, प्रसन्नता की प्राप्ती होती है.

वीर्य की रक्षा से मानसिक व शारीरीक क्षमता बहुत बढ़ जाती है और अधिक समय तक बनी रहती है। अतः रक्त में इन हार्मोनो की मात्रा अधिक रहे, इसके लिये जरूरी है कि वीर्य रक्षा हो। वीर्य क्षारीय (एल्कलाईन) तथा चिपचिपा एल्बूमिन तरल है। इसमे उत्तम प्रकार का पर्याप्त कैल्शियम, एल्बूमिन, अॉयरन, विटामिन-ई, न्युक्लियो प्रोटीन होते हैं।

१० मि. ली. वीर्य स्खलन में एक बार में लगभग बाईस करोड़ (22,00,00000) से अधिक स्पर्मैटोजोआ निकल जाते हैं।

सैक्स हार्मोन-निर्माण का मूल आधार कॉलेस्ट्राल, लेसिथिन (फास्फोराईज्ड़ फैट्स), न्युक्लियो प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम हैं जो

वीर्य स्थलन के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं।

अनुमान है कि 1.8 ली. रक्त से 30 मि.ली. वीर्य बनता है. अर्थात् एक बार के वीर्य स्राव में 600 मि.ली.रक्त की हानि होती है।

वैज्ञानिकों के कथन

डॉ. फ्रेडरिक के अनुसार पूर्वजों का यह विश्वास बिल्कुल सही है कि वीर्य में शक्ति निहित है.

वीर्य में ऐसे अनेको तत्त्व हैं जो शरीर को बलवान बनाते हैं। मस्तिक और स्नायु कोषों (ब्रेन) की महत्वपूर्ण खुराक (न्युट्रिशन) इसमें है.

स्त्री शरीर के प्रजनन अंगों की भीतरी परतें वीर्य को चूस कर, स्त्रियों के शरीर को बलवान और उर्जावान बनाती हैं। इसी प्रकार पुरुष के शरीर में सुरक्षित रहने पर यह वीर्य पुरुषों को तेजस्वी, बलवान, सुन्दर, स्वस्थ बनाता है।

अधिक भोग-विलास करने वालों की दुर्बलता, निराशा, मानसिक अवसाद (डिप्रेशन), थकावट के इलाज के लिए चिकित्सा जगत में लेसिथिन का बहुत सफल प्रयोग होता है। प्राकृतिक लेसिथिन ‘वीर्य’ का महत्वपूर्ण घटक है। लेसिथिन के महत्व, शरीर व मन पर होने वाले इसके गहन प्रभाव का अनुमान लगाया जा सकता है.

पर दवा के रूप लिये जाने वाले कृत्रिम. लेसिथिन के दुष्प्रभाव भी सम्भव हैं।

स्नायुतंत्र की रासायनिक संरचना और वीर्य की संरचना में अद्भूत समानता है। दोनो में स्मृद्ध लेसिथिन, कॉलेस्ट्रीन तथा फॉसफोरस कम्पाऊंड हैं।

जो धटक वीर्य में बाहर निकल जाते हैं, स्नायु कोषों व तन्तुओं (ब्रेन) के निर्माण के लिये उनकी जरूरत होती है। अतः जितना वीर्य शरीर से बाहर जाता है उतना अधिक शरीर और बुद्धि दुर्बल होती है।

वीर्यनाश होते ही दुर्बलता आती है।  लगातार और बार-बार वीर्यनाश होने (बाहर निकलने) पर मानसिक व शारीरिक दुर्बलता बहुत बढ़ जाती है। परिणाम स्वरूप अनेकों शारीरिक और मानसिक रोग सरलता से होने लगते हैं। ‘सैक्सुअल न्युरेस्थीनिया’ नामक स्नायु तंत्र दुर्बलता  जैसे रोग हो जाते हैं.

विशेषज्ञों के अनुसार ‘वीर्यरक्षा’ दिमाग के लिये सर्वोत्तम टॉनिक या खुराक है।

वीर्य के तत्त्वों के विश्लेषण और शरीर व बुद्धी पर होने वाले लाभदायक प्रभावों पर प्रो. ब्राऊन सिकवार्ड तथा प्रो. स्टीनैच ने बहुत काम किया है।

प्रो. स्टीनेच के अनुसार अंडकोष नाड़ी को बांधकर, वीर्य बाहर जाने के रास्ते को रोकर वीर्य रक्षा के स्वास्थ्य- वर्धक प्रभावों पर उन्होने अध्ययन किया।

प्रो. स्टीनेच के अलावा विश्व के अनेक चिकित्सा विज्ञानियों ने इस विषय पर शोध किये हैं। शरीर विज्ञान, मूत्र रोग, विशेषज्ञ, यौन रोग व प्रजनन अंगो के विद्वान, मनोवैज्ञानिक, स्त्रिरोग विशेषज्ञों,

एण्डोक्राईनोलोजिस्ट आदि अनेक विशेषज्ञोंके ने वीर्य रक्षा के महत्व को स्वीकार किया है।

टॉल्मी, मार्शल, क्रेपेलिन आदि अनेक प्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी इस पर सहमत हैं।

डॉ. जैकोबसन ने लगभग 200 चिकित्सा विज्ञानियों को पत्र लिखकर वीर्यरक्षा के प्रभावों पर उनकी सम्मति मांगी। चन्द अपवादों को छोड़कर सबने वीर रक्षा के लाभदायक प्रभावों को स्वीकार किया है।

कुछ विद्वानो ने दावा किया कि मानसिक अवसाद उनमे अधिक है जो अविवाहित हैं। अतःयह गलत है कि वीर्य के शरीर से बाहर जाने पर शरीर व बुद्धि रोगी बनते है। इस दावे की जाँच करने पर पाया गया कि ऐसे अविवाहितों के न्यूरैस्थीनिया जैसे मानसिक व शारीरिक रोगों का कारण वीर्यनाश था। वे अप्राकृतिक क्रियाओं से अपने शुक्र (वीर्य) को बाहर निकाल रहे थे। अतः उनके रोगों का कारण अविवाहित होना नहीं, वीर्य का शरीर से बार-बार बाहर निकलना था।

लोवेनफील्ड नामक गयनाकॉलोजिस्ट का कहना है कि आजीवन वीर्य रक्षा करने पर कोई बुरे प्रभावों की आशंका नहीं है. इल्लीनोस विश्वविद्यालय के प्रो. एफ.जी.लीडस्टोन एण्डोक्राईन तथा रति विशेषज्ञ हैं। उनका कहना है कि वीर्य रक्षा किसी प्रकार भी हानिकारक नहीं हो सकती। उल्टा यह परम बल व बौद्धिक क्षमता को बढ़ाने वाला है।

रूगल्ज़ नामक विद्वान का मत है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पूर्ण स्वास्थ्य का साधन है।

डॉ. पेरिएट का कहना है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन से हानि होने की बात निराधार व काल्पनिक है। वीर्य रक्षा से तो भुजाओं का बल और बुद्धि बढ़ती है, उनकी रक्षा होती है।

चैसाईग्नेक (Chassignac) नामक चिकित्सा विज्ञानी एक और रोचक तथ्य बतला रहे हैं। उनका कहना हैकि युवा अवस्था में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अपेक्षाकृत सरल है। वे यह भी कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन करना उन्ही को कठिन लगता है जो मानसिक रूप से विकार ग्रस्त और रोगी हैं।

रॉयल कॉलेज – लंदन के प्रो. बीले (Beale) का कहना है ‘काम-संयम’ से किसी हानि होने की जानकारी आजतक किसी भी अध्ययन में नहीं मिली है।

इसका अर्थ तो यह हुआ कि अनेक चिकित्सक, रति विशेषज्ञ, मनोवैज्ञानिक, गायनाकॉलोजिस्ट लोगों को जानबूझकर या मूर्खतावश गलत मार्गदर्शन दे रहे हैं कि वे ‘वीर्यपात’ किसी भी उपाय से करते रहें तो मानसिक तनाव नहीं होगा।

वासनापूर्ण जीवन को बढ़ावा देने वाले कई झूठे, तोड़मरोड़कर बनाए शोध भी छापे जाते हैं। एक बार एक शोध छपा कि वृद्धावस्था में ‘कामक्रीड़ा’  या अप्राकृतिक उपायों से ‘वीर्यस्खलन’ करने से प्रोस्टेट कैंसर से बचाव होता। जबकि शोध और जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव बतलाते हैं कि जो संयम से रहते हैं, वे स्वस्थ, प्रसन्न और लम्बे समय तक जीते हैं। इसके विपरीत जो बूढ़े वासनापूर्ण जीवन जीते हैं, वे रोगी, निस्तेज और दुःखी रहकर कम आयु में अनेक रोगों का शिकार होकर मरते हैं।

‘एक्टॅन’ नामक विश्वप्रसिद्ध चिकित्सा वैज्ञानिक का कहना है कि संयमपूर्ण जीवन जीने से नपुसंकता और जननांग के अविकसित होने की बात भी तथ्यों पर आधारित नहीं, एक भ्रम है।

गायनाकोलोजिस्ट ‘हीगर’ सैक्स को जरूरी मानने की धरणा को गलतफहमी बतलाते हैं।

एक और प्रसिद्ध गायनाकॉलोजिस्ट ‘रिबिंग’ (Ribbing) ब्रह्मचर्य की उपयोगिता व लाभ की प्रशंसा करते हैं।

जाने-माने विद्वान चिकित्सक ‘मार्शल’ अपनी पुस्तक ‘इंट्रोडक्शन टू द फिजियोलॉजी’ में लिखते हैं कि प्रजनन अंगों के संयम से काम शक्ति की सुरक्षा द्वारा अनेक प्रसिद्ध प्रतिभाओं ने महान उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। इन लोगों की अभूतपूर्व उपलब्धियों का कारण संयमपूर्ण जीवन था।

अमेरीका के एक जाने-माने न्यूरोलोजिस्ट डॉ. एल रोबीनोविच कहते है कि ‘काम-संयम’ हानि रहित व लाभकारी भी है।

सन् 1906 में अमेरीका मैडिकल ऐसोसिएशन ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया कि संयम करना स्वास्थ्य के लिए बुरा नहीं है।

इंटरनेशनल ब्रूसेल्ज काँग्रेस ने भी प्रस्ताव किया कि संयम (या ब्रह्मचर्य)  स्वास्थ्य विरोधी नहीं है. संयम संक्रमण से सुरक्षा देने वाला है। अपने शरीर को साफ शुद्ध रखने का उपाय है।

क्रिस्टीनिया पुनिवर्सिटी की मैडिकल फैकल्टी ने भी वक्तव्य जारी किया कि संयम से हानि होने के पूर्वाग्रही विचार का कोई आधार नहीं। अनेक अध्ययनो से पता चलता है कि संयम व पवित्र जीवन से हानी नही हो सकती।

इस प्रकार के प्रस्तावों को पास करने की जरूरत क्यों पड़ी? स्पष्ट है कि अमेरीकी समाज में भी स्वार्थी या भ्रमित चिकित्सकों ने यह झूठा प्रचार  फैलाया हुआ है कि काम क्रिडाएं व भोग करते रहने से मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य में लाभ होता है और संयम से रोग लगते हैं।

हैवलॉक ऐलिस ने ‘स्टडीज़ इन दि फिज़ियोलॉजी ऑफ सैक्स’ नामक पुस्तक लिखी है। वे इस पुस्तक में डॉ. एफ. बी. फ्रेडरिक’ को उधृत करके कहते हैं कि-

जब घोड़ा पहली बार समागम करता है तो मृतक जैसा बेहोश होकर गिर पड़ता है। इसे ब्रेन ऐनीमिया की अवस्था बतलाया गया है।

एक और घटना का वर्णन वे करते हैं। साँड गाय के साथ समागम के बाद सुस्त होकर कोने में कई घण्टे पड़ा रहता है। ( भारतीय साँडो में तो  ऐसा प्रभाव होता नजर नहीं आता। अध्यय करने योग्य है।)

इसमे अपवाद केवल कुत्ते हैं। शायद लम्बे संसर्ग के कारण ऐसा होता हो ? पर कई प्रजातियों के प्राणी तो समागम के बाद मर ही जाते हैं।

डॉ. राबिनसन व ऐलिस लिखते है कि हम जानते है कि काम-क्रिड़ा में शरीर में अनेक प्रकार की जैविक, रासायनिक क्रियाएं होती हैं। हमारी मांसपेशियाँ व शरीर के सभी अंग अत्यधिक उत्तेजित हो जाते हैं। इससे हम समझ सकते है कि काम-क्रिया के शरीर पर कितने गम्भीर प्रभाव होते हैं। धोड़े व सांड निस्तेज होकर पड़े रहते हैं, mare मरजाते हैं।

ब्रायन रॉबिन्सन ने इस विषय पर गहन अध्ययन किया है। काम-क्रीड़ा तथा वीर्य स्राव से होने वाले गम्भीर प्रभावों का वर्णन उनके द्वारा किया गया है।

पहली बार समागम करने के बाद अनेकों युवा अचेत, निस्तेज, बार-बार मूत्र त्याग आदि कष्ट पाते देखे गए। कुछ लोगों में सहवास के बाद मृगी के दौरे पडते भी देखे गए हैं।

वृद्धों पर प्रभाव

अधिक आयु के लोगों में समागम के बाद अधरंग (Paralysis) होने की अनेक धटनाएं सामने आई हैं। वृद्धों में उत्तेजना के कारण रक्त प्रवाह तेज होने को नाडियो सहन न कर पाएं तो रक्तचाप बढ़ने और अधरंग होने जैसी दुर्धटनाएं घटती हैं।

अपरिचित या नई महिलाओं के साथ समागम के बाद अनेक लोगों के मरने की घटनाएं भी आम बात है। नई साथी होने के कारण उत्तेजना सामान्य से अधिक बढ़जाना इसका कारण है। अनेक नौजवान और वृद्ध पत्नी या वेश्याओं की बाहों में समागम के बाद मर गए।

रूसी जनरल एक बदनाम लड़की के साथ समागम करते हुए मर गया था। डॉ. रॉबिन्सन ने एक न्यायधिश का वर्णन किया है जो एक वेश्या से संसर्ग करने के कुछ ही देर बाद मर गया। एक 70 साल के वृद्ध के बारे में वे लिखते हैं जो एक वेश्यालय में समागम करने के कुछ देर बाद मर गया। शिकागो के एक होटल में एक 48 साल का व्यक्ति एक विधवा के साथ सोया और मर गया। इसका वर्णन भी डॉ. रॉबिन्सन ने किया है। एक 60 साल के बूढ़े की घटना का वर्णन है जो एक अपरिचित औरत के साथ सोया और उठकर दरवाजे से बाहर निकलते समय मर गया।

ऐसी दुर्घटनाएं अधिकतर अधिक आयु के पुरुषों के साथ होती हैं। विशेषकर जब वे अपनी पत्नी के स्थान पर किसी अपरिचित या नई महिला के साथ सम्बन्ध बनाते हैं। अपरिचित या नई स्त्री के लिये उत्तेजना अधिक होने से और उस औरत की अधिक उत्तेजना के कारण ऐसी घटनाएं घटती हैं।

ऐक्टॉन नामक प्रसिद्ध चिकित्सक ने ऐसी अनेक घटनाओं का वर्णन किया है जब पुरुष किसी स्त्री, वेश्या या अपनी पत्नी के साथ सैक्स करने के बाद मर गए। शरीर की शक्ति का भारी ह्रास वीर्यपात से होना इसका कारण है।

‘दि ऐवोल्यूशन ऑफ सेक्स’ नामक पुस्तक में थॉमसन और गीडेस ने वर्णन किया है कि मकड़ियों की कई जातियाँ ऐसी हैं जिनमें मकड़ा समागम के बाद मर जाता है। पतंगों में भी ऐसी कई प्रजातियाँ हैं।

वास्तव में प्रकृति ने अपने सृष्टीेक्रम को चलाने के लिये विपरीत लिंगी आकर्षण बनाया है। इससे प्रजनन- क्रम प्राणियों और वनस्पतियों में चलता है। प्राणियों में यह प्रक्रिया समय, ऋतु, आयु के नियंत्रित होती है। हार्मोन स्राव इस प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं। मनुष्यों के इलावा सभी प्राणि प्रकृति की व्यवस्था के अधीन व्यवहार करते हैं। बौद्धिक क्षमता के कारण मनुष्य इसका अपवाद है। केवल हार्मोन स्रावों से मनुृष्यों का व्यवहार व आचरण नियंत्रित नहीं होता। वह अपनी बुद्धि का प्रयोग करके अधिक भोग करने में या भोगों को संयमित करने, नियंत्रित करने अथवा उनपर विजय पाने में सक्षम है।

मनुष्य की विडम्बना यह है कि आधुनिक मानव  अधिक भोगों को भोगना ही विकास तथा आधुनिकता की पहचान मानने लगा है। जीवन का उद्देश्य ही भोगों को भोगना बन गया है। परिणाम कैसे भयावह हैं, यह हम देख ही रहे हैं। बीमारियाँ, अपराध, नशे, व्यभिचार, अत्याचर, असुरक्षा, भय, अतंक, निर्धनता, अमानवीय व्यवस्थाएं, अमानविय शोषण आदि सभी का मूल कारण यह भोगोन्माद और कामोन्माद नहीं तो और क्या है?

हमारे सामने एक और आदर्श भी है जिसे हम भोगों की अंधी दौड़ में देख नहीं रहे। आजीवन संयम का पालन करने वाले विनोबा भावे, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, श्रीमाँ, महर्षि अरविन्द जैसे अनेकों आदर्श जीवन हमारे सामने हैं जिन्होने संयम और मानवीय संवेदनाओं से अपने और दूसरों के जीवन को अविस्मरणीय योगदान दिए, अद्भुत क्षमताओं, प्रतिभा व शक्तियों को प्राप्त किया।

स्वामी दयानन्द ने घोडों की बघी को भुजाओं के बल से रोक दिया था.यह भी संयम व ब्रह्मचर्य से सम्भव हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो में संसार के सारे विद्वानो को सम्मोहित कर दिया, तो यह भी तो संयम, साधना व ब्रह्मचर्य का कमाल था.

महाभारत काल में भीष्मपितामह जैसे अनेक महापुरुष हुए हैं।

विदेशियों में अरिस्टोटल, न्युटन, पाईथागोरस, प्लेटो, लियोनार्द द विन्सी, कैण्ट, हरबर्ट स्पैंसर आदि हैं जिन्होन ब्रह्मचर्य से प्रतिभा का जागरण किया.

गृहस्थ जीवन में रहकर भी संयम से अनेक प्रकार की प्रतिभाओं व आनन्द की प्राप्ति करने वाले आदर्श हमारे सामने है।

आचार्य श्री राम शर्मा, गांधी, पटेल, तिलक, लाल बहादुर शास्त्री आदि अनेक हैं जो विवाहित होकर भी संयमपूर्ण जीवन जीए और प्रतिभाओं के धनी बने।

इनमें गांधी जी का जीवन आज के युवाओं को विशेष प्रेरणा देनेवाला है। गांधी कभी अत्यधिक कामवासना में लिप्त थे। बाद में उन्होने अपनी वासना को जीतकर कठोर साधना व संयम से इतनी शक्ति प्राप्त की कि भारत के सभी नेताओं और अत्याचारी अंग्रेज सरकार को भी उनके आगे झुकना पड़ा।

ये सब परिणाम संयम की कठोर साधना से सम्भव हो ते हैं।  आचार्य श्रीराम शर्मा संयम व साधना से इतने प्रतिभावान बने कि सर्वाधिक साहित्य लिखने वाले वे सम्भवतः पहले (शायद अन्तिम भी) विद्वान हैं।

वीर्य की रक्षा द्वारा प्राप्त शक्ति के द्वारा किसीभी कठिन से कठिन संकल्प को प्राप्त किया जा सकता है। इसपर अनेक शोध और प्रयोग भारत तथा विश्व के अनेक देशों में हुए है।

‘दि सीक्रेट’ नामक विश्व प्रसिद्ध पुस्तक तथा वीडियो में भी संकल्प के अनेक चमत्कारों का वर्णन है। पर असली सीक्रेट उसमे भी नहीं बतलाया कि जिन लोगों में संकल्प से चमत्कार किये, उन सबने कठोर ब्रह्मचर्य का पालन किया था।

सफल, सुखी, शक्तिशाली, आनन्द व मस्ती भरे जीवन का रहस्य है संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य। गृहस्थी में भी सीमित भोग से ब्रह्मचर्य के काफी लाभ प्राप्त हो सकते हैं।

विद्यार्थी जीवन में सफलता का एक मात्र सूत्र है ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन। इससे आत्मविश्वास, स्मरण शक्ति, प्रसन्नता, उत्साह, साहस, प्रतिभा, संकल्पशक्ति के विपुल भण्डार प्राप्त होते हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ही सुखी व सफल गृहस्थ जीवन चलाते हैं। जीवन में सफलताएं उनके चरण चूमती हैं। उनके संकल्प पूर्ण होते हैं।

आज भी भारत में अनेकों ऐसे सच्चे साधक हैं जो ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करके अद्भुत शक्तियों के स्वामी बने हैं। लाखों गृहस्थ हैं जो विवाहित जीवन में सयंम से रहते हुए, 50 साल की आयु के बाद ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं।

विश्व में केवल भारत की परम्परा है जिसमें ब्रह्मचर्य की रक्षा के महत्त्व पर बहुत खोज व प्रयोग हुए हैं। ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं कि अनेक कलाओं व ज्ञान के साथ ब्रह्मचर्य के महत्व का ज्ञान भी भारत से विश्व के अनेक देशों तक पहुंचा।

यदि हम अपने जीवन-सार को गंवा चुके हैं, शरीर खोखला, दुर्बल हो चुका है; तो उसका समाधान भी आयुर्वेदिक चिकित्सा व साधना से सम्भव है।

 

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डॉ. राजेश कपूर
लेखक पारम्‍परिक चिकित्‍सक हैं और समसामयिक मुद्दों पर टिप्‍पणी करते रहते हैं। अनेक असाध्य रोगों के सरल स्वदेशी समाधान, अनेक जड़ी-बूटियों पर शोध और प्रयोग, प्रान्त व राष्ट्रिय स्तर पर पत्र पठन-प्रकाशन व वार्ताएं (आयुर्वेद और जैविक खेती), आपात काल में नौ मास की जेल यात्रा, 'गवाक्ष भारती' मासिक का सम्पादन-प्रकाशन, आजकल स्वाध्याय व लेखनएवं चिकित्सालय का संचालन. रूचि के विशेष विषय: पारंपरिक चिकित्सा, जैविक खेती, हमारा सही गौरवशाली अतीत, भारत विरोधी छद्म आक्रमण.

3 COMMENTS

  1. मै एक युवा हु मैं भी इस भोतिकवाद के जाल मे फंस गया था गलत लोगों की कुछ घंटों कि संगती जीवन पर बहुत भारी पडी। लेकिन मेने किशोर अवस्था से आयुर्वेद व अध्यात्म को पकडे रखा और निरंतर इनका अध्ययन व मनन करता रहा,पुर्ण गुरु पर पुर्ण विश्वास होने के कारण मे आज इस दलदल से उभर चुका हुं ।मेने अपनी इस जीवन उर्जा को अत्यधिक बर्बाद किया इस दोरान मेने आयुर्वेद का ज्ञान अर्जन व कुछ मीनट का ध्यान जारी रखा,मेरे जीवन मे बहुत उथल पुथल हुई 8-10 सालों मे अक्सर मैं बिमार पडता हही रहा ,कई मानसिक विकृतियों से गुजरा कई तरह के रोग हुऐ जीवन नर्क बन गया लेकिन मेरे जीवन एक घटना ने मुझे झकझोर दिया और मे अवसाद कि स्थिति से गुजरा लेकिन,एलोपैथी का शिकार भी बना लेकिन परमात्मा कि दया रही के मेने अपनी चेतना नहीं खोई अब अन्तर आत्मा जोर दिखाने लगी और मेने होम्योपैथी, आयुर्वेदिक नुस्खे नियम संयम और साधना को करने लगा धिरे धिरे जीवन के कई राज खुले,कई आयाम समझ आने लगे ,जीवन के रहस्यों को समझने मे आसानी होने लगी,आयुर्वेद सिखने मे आसान हो गया,जबकि मेरी जीवन शैली मे अभी भी 10-15%.खराबी है लेकिन बाकी को मेने ठिक कर लिया, राजीव दिक्षित जी के व्याख्यानो भी मेरे जीवन पर असर छोडा,अब मे भी अपने आस पास व सम्पर्क वाले लोगों मे जीवन के कई आयामों मे जागरूकता लाने का प्रयास कर रहा हूँ, राजेश कपूर जी मे आपको विर्य स्खलन से होने वाली 35-40 बिमारियों के नाम जो मेने अनुभव किया ओर शोध किया वो और समाधान (वेसे आप समाधान जानते है) ई -मेल से भेज दुंगा।विर्य को इसको संरक्षित रखने के फायदे भी भेज दुंगा, मैं चाहता हुं आप अपने व्याख्यानो मे पुरुषार्थ के बारे मे लोगों को जागरूक करें।सोभाग्य हुआ तो जल्द आपसे मुलाकात करुंगा।

  2. आदरणीय डॉ. कपूर जी ने बहुत महत्वपूर्ण विषय उठाया है. यह बहुत हे गंभीर विषय है. कहना गलत नहीं होगा की सेकड़ो सालो की गुलामी में भी हमारा समाज अडिग रहा है किन्तु मात्र २५-३० साल से बहुत बहुत नुक्सान हुआ है.

    * पिछले ३०-३५ साल पुरानी भारत की लगभग ६०-८०% पिक्चर के के थीम लगभग हीरो, हेरोइन और रोमांस ही होता था.
    * २०-२५ सालो से जितने भी कालेज के सीरियल होते थे उनमे लगभग पढ़ाई की जगह स्कूल कालेज में रोमांस ही मुख्य विषय होता था. बच्चे यही तो देखकर इस तरफ आकर्षित होते है.
    * स्कूल में हर विषय पढाया जाता है (योग, प्रयानाम, धर्य और चिंतन को छोड़कर). सुबह से शाम तक स्कूल होता है, बच्चे खेलेंगे, कब. सुबह योग, प्रयानाम कर नहीं सकते, माँ बाप भी नहीं कर सकते क्योंकि बच्चो को स्कूल भेजना है.
    * ब्रह्मचर्य के बाते पिछले सालो में बताने वाला ही कोई नहीं था, सीखेंगे ही कहाँ से.

    शुक्र है की आज इन्टरनेट, सोशल मीडिया के जमाने में लोगो को ब्रह्मचर्य, योग, प्रयानाम, सच्चा इतिहास के बारे में सुनने, जानने, देखने को मिल रहा है और लोग सच्चाई को जान रहे है. लोग आज आयुर्वेद को अपना रहे है. फिर भी लोगो की सोच बदलने में समय लगेगा.

  3. ”लॉन्ग सेक्सी लाइफ इस अ हेल्थी लाइफ”ऐसा भरम समाज और उच्च समाज में व्याप्त है. यहां तक की भारत के पारम्परिक शब्द”ब्रम्हचर्य”को ही असंभव मान लिया गया है. एक बार उच्चतर माध्यमिक शालाओं में ”किशोर शिक्षा” का प्रचलन शुरुआत करने की नीति बन गयी थी. ढेर सारी पुस्तकें चित्रों सहित छापी. शालाओं में वितरित की गयी. किन्तु समाज की डर से वे बंधी की बंधी ही रह गयी. शालाओं के शिक्षों ने उन किताबों को घर ले जाकर ”टंडन में रख दिया ता की उनके बच्चे न पढ़ लें ,नवयुवक छात्रों खासकर जो अपने परिवार से दूर रहकर पढाई करते हैं ,वे इस सोच के सबसे अधिक शिकार होते हैन्य़ह एक बहुत बड़ा ख़तरा है.

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