महागठबंधन का सगूफा : अवसरवादी व अनिश्चितता को बढ़ावा

डा. राधेश्याम द्विवेदी
महागठबंधन भारत का विलक्षण अवसरवादी प्रयोगः-राष्ट्रीय राजनीति में महागठबंधन एक विलक्षण प्रयोग है। भारत में मुख्यतः पक्ष और विपक्ष की दो ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियां होती हैं। अन्य दल इन्हीं दोनों का समर्थन अपने नीतियों और विचारों के आधार पर देने लगते हैं। जब दो प्रधान दलों की शक्तियां क्षीर्ण होती हैं तो समय-समय पर बाकी दल इकट्ठे होकरएक तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश करते दिखते हैं। कई बार ये सफल हो जाते हैं और कई बार असफल। सफल इसलिए कि इतिहास में कई बार तीसरे मोर्चे की सरकार बन भी गई है, असफल इसलिए कि ये मोर्चा कभी भी लंबे समय तक नहीं चल सके हैं। अभी तक हर बार अस्थायी ही साबित हुआ। बिना किसी स्पष्ट विजन के दो बार संसदीय राजनीति में तीसरे मोर्चा की सरकार तो बनी लेकिन स्वहित व जोड़ तोड़ की राजनीति से आपस में राजनीतिक वर्चस्व की टकराहट हुई। जिससे कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। तीसरे मोर्चे के सभी राजनेता राजनीतिक जगत में समान अस्तित्व रखते हैं। ये पहले कहेंगे कि गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपावाद गैर-साम्प्रदायिक, सेकुलर सरकार के नाम पर चुनाव लड़ेंगे, फिर चुनाव के बाद सांप्रदायिकता के विरोध के नाम पर कांग्रेस के पक्ष या विपक्ष में खड़े हो जाते रहे हैं। आशय यह है कि यह तीसरा मोर्चा कुल मिलाकर अवसरवादी गठजोड़ ही है। मोर्चे के इन नेताओं में से एक भी एसा नहीं है, जो समय की जनभावना को स्वर दे सके। चुनाव की सुगबुगाहट होते ही कुछ दल ‘तीसरा मोर्चा’ को जगाने लगते हैं। तीसरा मोर्चा ऊंघते-ऊंघते फिर सो जाता है। यह जिस मिट्टी से गढ़ा जाता है वह मिट्टी ही रेत मिली होती है। इसलिए तीसरा मोर्चा बनने से पहले भरभरा कर गिर पड़ता है। हमारी राजनीति में भी तीसरा मोर्चा के गठन पर इतना विवाद होने लगता है कि मोर्चा बनने से पहले ही राजनीति की सद्गति को प्राप्त हो जाता है। इस ‘तीसरा मोर्चा’ की जरूरत सब दल महसूस करते हैं और वर्तमान समय में उसे जरूरी भी मानते हैं। लेकिन राजनीति के वशीभूत होकर अपनी सोच में ही मस्त रहते हैं। ’मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना’ को तो सहा जा सकता है लेकिन राजनीतिक स्वार्थ साधने वालों को साधना बड़ा कठिन होता है। जिन्हें केवल पद चाहिए, उन्हें एक मंच पर कैसे लाया जा सकता है। ’एक ही धर्म, एक व्रत नेमा’की तरह एसे नेताओं का एक ही राजनीतिक धर्म है कि वे सी एम,पी.एम.या डिप्टी बनें’। तीसरा मोर्चा उन्हें सी एम,पी.एम.या डिप्टी बनाने के लिए गठित होता है। इसके लिए कामन प्रोग्राम, नीति आदि तो बना लेना आसान है। इसका निदान आसान नही बहुत कठिन होता है। शायद कोई अपनी अदम्य महत्वाकांक्षा त्यागने तैयार हों। महत्वाकांक्षी, विभिन्न आरोपों में घिरे, घोर स्वार्थी पदलोलुप, सत्तामोह से ग्रस्त लोगों को लेकर तीसरा मोर्चा किस काम का ? इनका क्या भरोसा ? कभी किसी बड़े ने लालच दिया तो उधर ही चल देते हैं।
भाजपा की प्रदेश में बढ़ती लोकप्रियता प्रमुख कारण:- भाजपा की उत्तर प्रदेश में बढ़ती लोकप्रियता, सर्जिकल स्ट्राइक, कालेधन को समाप्त करने वाली नोटबन्दी में गलत पैसों से चुनाव लड़ने पर लगते हुए लगाम को देखते हुए और देश के अन्य प्रदेशों की भांति 2017 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनने की आहट से भयभीत कांग्रेस, सपा और बसपा में भगदड़ मची है। सपा नेताओं को अपनी जमीन खिसकती नजर आने लगी है। सपा में कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं है। इसलिए अब पार्टी समाप्ति की ओर बढ़ रही है। 2014 के बाद से जिस तरह से देश में राष्ट्रीय शक्तियां मजबूत हुई हैं, उन्हें देखते हुए तथाकथित गांधीवादी और तथाकथित लोहियावादी दलों का साथ आने की सुगबुवाहट होने लगती है। राजनीति में पहले क्या कहा गया ,अब क्या कह रहे हैं, और आगे क्या करेंगे ? ये ना तो कोई महत्व रखता है और ना ही इसका कोई स्थायित्व ही होता है। समाजवादी पार्टी अब गठबंधन की संभावनाएं इसलिए तलाश रही है क्योंकि वह भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता से डर गयी है और अपने को मजबूत होने का ढ़ोग मात्र कर रही है।
समाजवादी पार्टी की पारिवारिक नौटंकीः- पिछले दो महीने से समाजवादी पार्टी के भीतर चाचा भतीजे तथा कार्यकर्ताओं के बीच जो नौटंकी हुई है उसे लेकर समाजवादी पार्टी में काफी डर है। बिहार के विपरीत यहां कई दल हैं और सभी के अपने अलग-अलग एजेंडे, अपेक्षाएं और विवशताएं हैं। ऐसे में गठबंधन जमीन पर उतरता नहीं दिखता। कुछ समय पहले तक यहाँ की ज्यादातर पार्टियाँ चुनाव पूर्व गठबंधनों की बात करने से बच रही थीं। भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने दावा किया था कि वे अकेले चुनाव में उतरेंगी। पिछले साल बिहार में ही समाजवादी पार्टी ने महागठबंधन की आत्मा को ठेस पहुँचाई थी। अब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी संकट में फँसी है तो महागठबंधन की बातें फिर से होने लगीं हैं।
सर्जिकल स्ट्राइकः- सपा और बसपा के साथ कांग्रेस की तालमेल की बातों की नाटकें होने लगी हैं। इसके पीछे सर्जिकल स्ट्राइक की सफलता भी एक कारण है। उधर कांग्रेस की दिलचस्पी अपनी जीत से ज्यादा बीजेपी को रोकने में है, और सपा की दिलचस्पी अपने को बचाने में है। बसपा की दिलचस्पी अपने को पुनः स्थापित करने की होने लगती है।
दलित और मुस्लिम वोटरों की टैक्टिकल वोटिंग:-कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी सबका ध्यान दलितों, अतिदलितों तथा मुस्लिम वोटरों पर होती है। बीजेपी का भी मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण की रणनीति बनती है। ’बीजेपी को रोकना है। यह नारा मुस्लिम मन को जीतने के लिए गढ़ा गया है। इसमें सारा जोर देने पर हिन्दू वोटों का भी ध्रुवीकरण बीजेपी के पक्ष में होने लगता है। एक अरसे से दलित और मुसलमान टैक्टिकल वोटिंग करते रहते हैं। उत्तर प्रदेश में वे कमोबेश सपा, कांग्रेस और बसपा के साथ यह होता हैं। क्या इस बार उनके रुख में बदलाव आएगा? यानी, जो प्रत्याशी बीजेपी को हराता नजर आए, उसे वोट पड़ेंगे। अगर बसपा प्रत्याशियों का पलड़ा भारी होगा तो मुसलमान वोट उधर जाएंगे? यह मुमकिन हो सकता है। 2017 के चुनाव में कांग्रेस किंगमेकर बनना चाहती है। जब अनुमान होता है कि उत्तर प्रदेश में कोई भी पक्ष पूर्ण बहुमत लाने की स्थिति में नहीं है तो छोटे छोटे राजनीतिक दलों के भाव बेभाव हो जाते हैं।
अस्तित्व कायम करने के लिए जदोजहादः-कांग्रेस उपाध्यक्ष श्रीराहुल गांधी अपने रणनीतिकार प्रंशान्त किशोर की सलाह से अखिलेश के करीब जाने के लिए प्रेरित किये गये। उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश में पार्टी का अकेले चुनाव में उतरना खतरे से खाली नहीं है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस अखिलेश सरकार का समर्थन कर अपना अस्तित्व कायम कर सकती है। उत्तर प्रदेश सपा अध्यक्ष शिवपाल यादव का नारा है, ‘बीजेपी को रोकना है।‘ उन्होंने कहा है, हम लोहियावादियों, गांधीवादियों, चरणसिंहवादियों और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक जगह ला सके तो बीजेपी को रोक सकते हैं।’ उन्होंने जेडीयू, आरजेडी और रालोद के नेताओं को लखनऊ में पांच नवम्बर को हुए सपा के रजत जयंती समारोह में भी बुलाया था। इस महागठबंधन में बसपा के में शामिल होने की सम्भावना नहीं है। उसकी निगाहें मुस्लिम वोट पर हमेशा रहती हैं। सपा के आसन्न पराभव की स्थिति पैदा हुई तो वह विकल्प के रूप में खड़ी है। उसे दलित और मुसलमान टैक्टिकल वोट को मिलने की उम्मीदें होने लगती है।
वर्तमान महागठबंधन पर एसपी का नया फार्मूला :- यूपी विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी के खिलाफ महागठबंधन बनाने की दिशा में एसपी, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकदल और जेडीयू का अटकी गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ती नजर आ रही है। सूत्रों के अनुसार, एसपी ने कांग्रेस और आरएलडी-जेडीयू को सीटों का ऑफर किया है। सूत्रों के अनुसार एसपी की ओर से कांग्रेस, आरएलडी और जेडीयू को नए सिरे से सीट समझौते का फार्मूला दिया गया था। उस पर कांग्रेस, जेडीयू और आरएलडी नेताओं ने आपस में बात की। एक सीनियर नेता ने बताया कि आपस में पहले सहमत होने के बाद अंतिम मीटिंग मुलायम सिंह यादव के साथ होगी जिसके बाद गठबंधन का औपचारिक एलान किया जा सकता है। यूपी के सीएम अखिलेश यादव बार-बार कह रहे हैं कि अगर कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन हुआ तो उसे 300 से अधिक सीटें मिल सकती हैं।
महागठबंधन के सीटों का समीकरणः-सूत्रों के अनुसार सीटों के नए फार्मूला के तहत कांग्रेस को 72 सीट देने का प्रस्ताव है, जबकि आरएलडी और जेडीयू के लिए लगभग 38 सीटें छोड़ी जा सकती है, जिनमें अधिकांश आरएलडी के पास रहेगी। हालांकि, कांग्रेस बीस सीट और मांग कर रही है वहीं आरएलडी और जेडीयू की मंशा 50 सीट पाने की है लेकिन एसपी ने साफ संकेत दिया है कि अगर अब बात आगे बढ़ानी हो तो सीट शेयर के इस फार्मूला को मानना ही होगा। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस की असली समस्या यह नहीं है कि सीट संख्या नहीं बल्कि यह है कि पार्टी को कौन सी सीटें दी जा रही हैं। सीटों का मामला सुलझाया जा सकता है अगर उन्हें ऐसी सीट दी जाएं जहां वह मजबूत है। शुरुआत में एसपी सिर्फ वही सीटें कांग्रेस को देने को तैयार थी जहां मुकाबला बीएसपी और बीजेपी के बीच था और एसपी खुद को बहुत कमजोर मान रही थी लेकिन कांग्रेस ने गठबंधन होने पर बीच का रास्ता अपनाने का आग्रह किया है। कांग्रेस 72 सीटों पर भी लड़ने को वह तैयार हैं, बशर्ते ये सीटें जीतने के हिसाब से बेहतर संभावना वाली हों। गठबंधन की कोशिश में जुटे एक सीनियर नेता ने बताया कि अजित सिंह का अपना मजबूत इलाका तय है और अगर वहां उन्हें अधिकतर सीटें लड़ने को मिल गईं तो उन्हें परेशानी नहीं होगी। वहीं यूपी में अपना जनाधार बनाने की कोशिश में जुटी जेडीयू को जितनी भी सीट मिले, उसे कबूल होगी क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है। ऐसे में अगर कांग्रेस ने अगले कुछ दिनों में नरमी दिखाई तो चुनाव से ठीक पहले गठबंधन आकार ले सकता है।

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