रस्मों और आस्था का महापर्व छठ

       chatha  ये सत्य ही कहा जाता है कि भारत पर्वों, व्रतों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों का देश है ! यहाँ शायद ही ऐसा कोई महीना बीतता हो जिसमे कोई व्रत या पर्व न पड़ता हो ! हमारे पर्वों में सबसे अलग बात ये होती है कि इन सब में हमारा उत्साह किसी न किसी आस्था से प्रेरित होता है ! कारण कि भारत के अधिकाधिक पर्व अपने साथ किसी न किसी व्रत अथवा पूजा का संयोजन किए हुए हैं ! ऐसे ही त्योहारों की कड़ी में पूर्वी भारत में सुप्रसिद्ध छठ पूजा का नाम भी प्रमुख रूप से आता है ! शुरूआती समय में छठ अधिकाधिक रूप से सिर्फ बिहार तक सीमित था, पर समय के साथ मुख्यतः लोगों के भौगोलिक परिवर्तनों के कारण इस पर्व का प्रसार बिहार से सटे प्रदेशों में भी हुआ और होता गया ! भौगोलिक परिवर्तनों से मुख्य आशय ये है कि बिहार की लड़कियां विवाहित होकर यूपी तथा अन्य जिन प्रदेशों व स्थानों में गईं, वहाँ वो अपने साथ अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को भी लेते गईं ! उन्होंने अपनी इस परम्परा को न सिर्फ पूरी संलग्नता से कायम रखा बल्कि इसके महत्व-प्रभाव के वर्णन द्वारा और लोगों तक भी इसका प्रचार-प्रसार किया ! इस प्रकार बिहार के बाहर इस पर्व का प्रचार-प्रसार होता गया और आज यह पर्व पूर्वी भारत में बिहार समेत यूपी, झारखंड व नेपाल के तराई क्षेत्रों तक में भी बड़े धूम-धाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है ! इसके अतिरिक्त छिटपुट रूप से तो इसका आयोजन समूचे भारत में और विदेशों में भी देखने को मिलता है ! इसी क्रम में इस पर्व के नाम पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि इस पर्व के तिथिसूचक के अपभ्रंस रूप को ही इस पर्व की संज्ञा के रूप में अपनाया गया है ! जैसे कि इस पर्व को मुख्य रूप से इसकी षष्ठी तिथि को होने वाली सूर्यदेव की  अर्घ्य के लिए  जाना जाता है ! इस प्रकार षष्ठी तिथि के विशेष महत्व के कारण उसका अपभ्रंस छठ के रूप में हमारे सामने आता है ! यूँ तो इस पर्व में देवता के रूप में सूर्यदेव की ही प्रतिष्ठा है, पर तिथि के कारण ये छठ नाम से प्रसिद्ध हो गया है ! वैसे तो यह पर्व वर्ष में दो बार चैत्र और कार्तिक मास में मनाया जाता है ! पर इनमे तुलनात्मक रूप से अधिक प्रसिद्धि कार्तिक मास के छठ की ही है ! हिंदू कैलेण्डर के अनुसार कार्तिक मास में दीपावली बीतने के बाद ही इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ हो जाता है ! कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरू होकर ये पर्व कार्तिक शुक्ल सप्तमी को भोर की अर्घ्य देने के साथ समाप्त होता है ! इस चार दिवसीय पर्व का आगाज़ ‘नहाय खाय’ नामक एक रस्म से होता है ! इसके बाद खरना, फिर सांझ की अर्घ्य व अंततः भोर की अर्घ्य के साथ इस पर्व का समापन होता है ! यूँ तो ये पर्व चार दिवसीय होता है, पर मुख्यतः षष्ठी और सप्तमी की अर्घ्य का ही विशेष महत्व माना जाता है ! व्रती व्यक्ति द्वारा पानी में खड़े होकर सूर्य देव को ये अर्घ्य दिए जाते हैं ! इसी क्रम में उल्लेखनीय होगा कि संभवतः ये अपने आप में ऐसा पहला पर्व है जिसमे कि डूबते और उगते दोनों ही सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है; उनकी वंदना की जाती है ! सांझ-सुबह की इन दोनों अर्घ्यों के पीछे हमारे समाज में एक आस्था काम करती है ! वो आस्था ये है कि सूर्यदेव की दो पत्नियाँ हैं – ऊषा और प्रत्युषा ! सूर्य के भोर की किरण ऊषा होती है और सांझ की प्रत्युषा, अतः सांझ-सुबह दोनों समय अर्घ्य देने का उद्देश्य सूर्य की इन दोनों पत्नियों की अर्चना-वंदना होता है !

  जनसामान्य की मान्यता है कि ये सिर्फ स्त्रियों का पर्व है और काफी हद तक ये मान्यता सही भी है ! पर इसके साथ ही ये भी एक सत्य है कि पुरुष के बिना इस पर्व की कई रस्मे अधूरी ही रह जाएंगी ! उदाहरणार्थ इस पर्व की एक अत्यंत महत्वपूर्ण रस्म जिसमे कि घर के पुरुष द्वारा पूजन सामग्री का डाल सिर पर उठाकर छठ के घाट तक ले जाया जाता है ! पुरुष के होने की स्थिति में ये रस्म पुरुष द्वारा ही किया जाना आवश्यक और उचित माना गया है ! लिहाजा इसे सिर्फ स्त्रियों का पर्व कहना किसी लिहाज से सही नही लगता !

भारत के अधिकाधिक पर्वो की एक विशेषता ये भी है कि वो किसी न किसी पौराणिक मान्यता से प्रभावित होते हैं ! छठ के विषय में भी ऐसा ही है ! इसके विषय में पौराणिक मान्यताएं तो ऐसी हैं कि अब से काफी पहले रामायण अथवा महाभारत काल में ही छठ पूजा का आरम्भ हो चुका था ! कोई कहता है कि सीता ने तो कोई कहता है कि द्रोपदी ने सर्वप्रथम ये छठ व्रत और पूजा की थी ! अब जो भी हो, पर इतना अवश्य है कि अगर आपको भारतीय शृंगार, परम्परा, शालीनता, सद्भाव और आस्था समेत सांस्कृतिक समन्वय की छटा एकसाथ देखनी हो तो अर्घ्य के दिन किसी छठ घाट पर चले जाइए ! आप वो देखेंगे जो आपके मन को प्रफुल्लित कर देगा !

-पीयूष द्विवेदी  

2 COMMENTS

  1. This is a nice article ,many thanks Shri Piyush jee for enlightening the readers.
    This is mainly celebrated in Bihar and Nepal and has nicely spread in many other parts of Hindusthan which is wonderful to know.

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