‘महर्षि दयानन्द की विश्व को सर्वोत्तम देनःवेदों का पुनरूद्धार’

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ओ३म्

मनमोहन कुमार आर्य

दयानन्द ने अपने जीवनकाल में देश को जो कुछ दिया है वह महाभारत काल के सभी उत्तरवर्ती एवं उनके समकालीन किसी महापुरूष ने नहीं दिया है। मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है? मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान है। सृष्टि के आदि काल में जब ईश्वर ने मनुष्यों को उत्पन्न किया तो, भोजन से पहले भी उन्हें जिस किसी वस्तु की आवश्यकता पड़ी थी, वह ज्ञान व भाषा थी। इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तब न किसी का कोई माता-पिता, न गुरू, न आचार्य और न कोई और था। ऐसे समय में केवल एक ईश्वर ही था जिसने इस जंगम संसार को बनाया था और उसी ने सभी प्राणियों को भी बनाया था। अतः ज्ञान देने का सारा भार भी उसी पर था। यदि वह ज्ञान न देता तो हमारे आदि कालीन पूर्वज बोल नहीं सकते थे और न अपनी आवश्यकताओं — भूख व प्यास आदि को जान व समझ ही सकते थे। इन दोनों व अन्य अनेक कार्यों के लिए हमें भाषा सहित ज्ञान की आवश्यकता थी जिसे ईश्वर ने सबको भाषा देकर व चार ऋषियों को चार वेदों का शब्द, अर्थ व सम्बन्ध सहित ज्ञान देकर पूरा किया। इन चार ऋषियों के नाम थे अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा जिन्हें क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान ईश्वर से इन ऋषियों की अन्तरात्मा में अपने जीवस्थ, सर्वान्तर्यामी व सर्वव्यापक स्वरूप से प्राप्त हुआ था। इन चार ऋषियों को ज्ञान मिल जाने के बाद काम आसान हो गया और अब आवश्यकता अन्य मनुष्यों को ज्ञान कराने की थी। प्राचीन वैदिक साहित्य में एतद् विषयक सभी प्रमाण उपलब्घ हैं।

ईश्वर की प्रेरणा से इन चार ऋषियों ने एक अन्य ऋषि ‘श्री ब्रह्मा जी’को एक-एक करके चारों वेदों का ज्ञान कराया और स्वयं भी अन्य-अन्य वेदों का ज्ञान प्राप्त करते रहे। यह ऐसा ही हुआ था जैसे कि किसी कक्षा में गुरू व शिष्य सहित 5 लोग हों। एक चार को पढ़ाता है जिससे चारों को उस विषय का ज्ञान हो जाता है। अग्नि को ईश्वर से ऋग्वेद का ज्ञान प्राप्त हुआ था, अतः उन्होंने अन्य चार ऋषियों को ऋग्वेद पढ़ाया जिससे अन्य चार ऋषियों को भी ऋग्वेद का ज्ञान हो गया। इसके बाद एक-एक करके वायु, आदित्य व अंगिरा ने अन्य चार को यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान कराया और इस प्रकार यह पांचों ऋषि चारों वेदों के विद्वान बन गये। अब इस प्रकार से इन 5 ऋषियों वा शिक्षकों ने वेदों का अन्य युवा स्त्री-पुरूषों को शिष्यवत् ज्ञान कराने का उपक्रम किया। सृष्टि के आदिकाल में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी मनुष्यों का स्वास्थ्य व उनकी स्मरण-शक्ति-स्मृति अतीव तीव्र व उत्कृष्ट अवस्था में थी। वह ऋषियों के बोलने पर उसे समझ कर स्मरण कर लेते थे। इस कारण यह क्रम कुछ ही दिनों व महीनों में पूरा हो गया। वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः सभी स्त्री व पुरूषों को सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान हो गया। ज्ञान होने व शारीरिक सामर्थ्य में किसी प्रकार की कमी न होने के कारण उन्होंने अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति शीघ्र ही कर ली थी। कारण यह था कि उन्हें सभी प्रकार का ज्ञान था और उनकी आवश्यकता की सभी सामग्री भी प्रकृति में उपलब्ध थी। हम यह भी कहना चाहते हैं कि आदि सभी मनुष्य पूर्णतः शाकाहारी थे। सृष्टि में प्रचुर मात्रा में सभी प्रकार के फल, ओषधियां, गोदुग्ध, वनस्पतियां आदि विद्यमान थी जिनका ज्ञान इन लोगों को ईश्वर एवं पांच ऋषियों द्वारा कराया गया था। अतः इन्हें सामिष भोजन की कोई आवश्यकता नहीं थी। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध है और ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मनुष्यों के आहार करने के लिए नहीं बनाया है, यह भी सिद्ध है। यदि पशु व अन्य प्राणी आदि मनुष्यों के आहार के लिए बनाये होते तो ईश्वर वनस्पतियों, फल, मूल, अन्न, दुग्ध आदि कदापि न बनाता। सृष्टि के आरम्भ से दिन, सप्ताह, माह व वर्ष आदि की गणना भी आरम्भ हो गई थी। जो अद्यावधि 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्ण होकर 6 महीने व 15 दिवस (दिनांक 24 सितम्बर, 2014 को) व्यतीत हुए है। महाभारत का युद्ध जो अब से 5,239 वर्ष पूर्व हुआ था, इतनी अवधि तक वेदों के ज्ञान के आधार पर ही सारा संसार सुचारू रूप से चलता रहा है और यह सारा समय ज्ञान व विज्ञान से युक्त रहा है।

महाभारत के युद्ध में देश विदेश के क्षत्रिय व ब्राह्मण बड़ी संख्या में मारे गये जिससे राज्य व सामाजिक व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई थी। यद्यपि महाभारत काल के बाद महाराज युधिष्ठिर व उनके वंशजों ने लम्बी अवधि तक राज्य किया परन्तु महाभारत युद्ध का ऐसा प्रभाव हुआ कि हमारा पण्डित व ज्ञानी वर्ग आलस्य व प्रमाद में फंस गया और वेदों का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार व प्रसार अवरूद्ध हो गया जिससे सारा देश व विश्व अज्ञान के अन्धकार में डूब गया। महाभारत के उत्तर काल में हम देखते हैं कि पूर्णतः अहिंसक यज्ञों में हिंसा की जाने लगी, स्त्री व शूद्रों को वेदों के अध्ययन के अधिकार से वंचित कर दिया गया, क्षत्रिय व वैश्य भी बहुत कम ही वेदों का अध्ययन करते थे और पण्डित व ब्राह्मण वर्ग के भी कम ही लोग भली प्रकार से वेदों व अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन करते थे जिसका परिणाम मध्यकाल का ऐसा समय आया जिसमें ईश्वर का सत्य स्वरूप भुलाकर एक काल्पनिक स्वरूप स्वीकार किया गया जिसकी परिणति अवतारवाद, काल्पनिक गाथाओं से युक्त पुराण आदि ग्रन्थों की रचना, मूर्तिपूजा, तीर्थ स्थानों की कल्पना व उसे प्रचारित करने के लिए उसका कल्पित महात्म्य, अस्पर्शयता, छुआछूत, बेमेल विवाह, चारित्रिक पतन, अनेक मत-पन्थों का आविर्भाव जिसमें शैव, वैष्णव, शाक्त आदि प्रमुख थे, इनमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। जैसा भारत में हो रहा था, ऐसा ही कुछ-कुछ विदेशों में भी हो रहा था। वहां पहले पारसी मत अस्तित्व में आया, उसके बाद अन्य मत उत्पन्न हुए, कालान्तर में ईसाई मत व इस्लाम मत का प्रादूर्भाव हुआ। यह सभी मत अपने अपने काल के अनुसार ज्ञान व अज्ञान दोनों से प्रभावित थे व वेदों की भांति सर्वागीण नहीं थे। वेदों के आधार पर ईश्वर का जो सत्य स्वरूप महर्षि दयानन्द ने प्रस्तुत किया व जिसकी चर्चा व उल्लेख हमारे दर्शनों, उपनिषदों, मनुस्मृति, महाभारत व रामायण आदि ग्रन्थों में मिलती है, वह सर्वथा विलुप्त होकर सारे संसार में अज्ञानान्धकार फैल गया। इस मध्यकाल में सभी मत अपने अपने असत्य मतों को ही सबसे अधिक सत्य व सबके लिए ग्राह्य बताने लगे। ऐसी परिस्थितियों के देश में विद्यमान हो जाने के कारण देश गुलाम हो गया। जनता का उत्पीड़न हुआ और 19हवीं शताब्दी में सुधार की नींव पड़ी।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के टंकारा नामक ग्राम में हुआ। उनके जन्म के समय से 1.960 अरब वर्ष पहले सृष्टि की आदि में उत्पन्न ईश्वरीय ज्ञान के ग्रन्थ वेद लुप्त प्रायः हो चुके थे। इसका मुख्य कारण यह था कि उन दिनों ज्ञान व विज्ञान सारे विश्व में अत्यन्त अवनत अवस्था में था। उन दिनों न तो वैज्ञानिक विधि से कागज बनाने की तकनीकि का ज्ञान था और न हि मुद्रणालय उपलब्ध थे। महाभारत काल के बाद से लोग हाथों से कागज बनाते थे जो कि अत्यन्त निम्न कोटि का हुआ करता था। उन दिनों लिखने के लिए भी आजकल की तरह लेखनी अथवा पैन आदि उपलब्ध नहीं थे। सभी ग्रन्थों को धीरे-धीरे हाथ से लिखा जाता था या मूल ग्रन्थ से प्रतिलिपि या अनुकृति की जाती थी। इस कार्य में एक समय में एक ही प्रति लिखी जा सकती थी। हमारा अनुमान है कि वेदों की एक प्रति तैयार करने में एक व्यक्ति को महीनों व वर्षों लगते थे। वह व्यक्ति यदि कहीं असावधानी करता था तो वह अशुद्धि भविष्य की सभी प्रतियों में हुआ करती रही होगी। यदि लेखक कुछ चंचल स्वभाव का हो तो वह स्वयं भी कुछ श्लोक आदि उसके द्वारा की जा रही प्रतिलिपि में मिला सकता था। ऐसा करना कुछ लोगो का स्वभाव हुआ करता है। एक प्रति में जब इतना श्रम करना पड़ता था तो यह ग्रन्थ दूसरों को आसानी से सुलभ होने की सम्भावना भी नहीं थी। अतः उन दिनों अध्ययन व अध्यापन आज कल की तरह सरल नही था। उन दिनों लोगों की प्रवृत्ति वेदों से छूट कर कुछ चालाक व चतुर लोगों द्वारा कल्पित कहानी किस्सों के आधार पर पुराणों की रचना कर देने से उनकी ओर हो गई। इस कारण वेदों में लोगों की रूचि समाप्त हो गई। ऐसे समय में कोई विरला ही वेदों के महत्व को जानता था और उनकी रक्षा व अध्ययन में प्रवृत्त होता था। वेदों का अध्ययन कराने वाले योग्य शिक्षकों व अध्यापकों की उपलब्धता अपवाद स्वरूप ही होती थी। उन दिनों पुराण, रामचरित मानस, गीता आदि ग्रन्थ तो आसानी से उपलब्ध हो जाते रहे होंगे परन्तु वेदों की अप्रवृत्ति होने के कारण उनका उपलब्ध होना कठिन व कठिनतम् था। इससे पूर्व की वेद धरती से पूरी तरह से विलुप्त हो जाते, दैवीय कृपा से महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव होता है और उन्हें गुरू के रूप में स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी मिल गए जिनकी पूरी श्रद्धा वेदों एवं आर्ष साहित्य में थी। उन्होंने नेत्रों से वंचित होने पर भी संस्कृत की आर्ष व्याकरण, अष्टाध्यायी-महाभाष्य व निरूक्त पद्धति का सतर्क रहकर अध्ययन किया था और भारत के इतिहास व आर्ष व अनार्ष ज्ञान के भेद को वह भली प्रकार से समझते थे। भारत में ऐसे एकमात्र गुरू से स्वामी दयानन्द ने संस्कृत व्याकरण व वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन किया।

महर्षि दयानन्द सन् 1860 में गुरू विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थिति संस्कृत पाठशाला में पहुंचें थे। उन्होंने वहां रहकर सन् 1863 तक लगभग 3 वर्षों में अपना अध्ययन पूरा किया। इसके बाद वह गुरू से पृथक हुए। प्रस्थान से पूर्व, गुरू दक्षिणा के अवसर पर, गुरू व शिष्य का वार्तालाप हुआ। गुरू ने स्वामी दयानन्द को बताया कि उन दिनों विश्व भर में सत्य धर्म कहीं भी अस्तित्व में नहीं है। सभी मत-मतान्तर सत्य व असत्य मान्यताओं, कथानकों, मिथ्या कर्मकाण्डों व क्रिया-कलापों, आचरणों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों-नीतियों, अनावश्यक अनुष्ठानों आदि से भरे हुए हैं। सत्य केवल वेदों एवं ऋषि कृत आर्ष ग्रन्थों में ही विद्यमान हैं। इतर ग्रन्थ अनार्ष ग्रन्थ हैं जिनमें हमारे सत्पुरूषों की निन्दा, असत्य व काल्पनिक कथाओं का चित्रण व मिश्रण हैं। इनमें अनेक मान्यताये तो ऐसी हैं जिनका निर्वाह अनावश्यक एवं जीवन के लिए अनुपयोगी है। अतः स्वामी दयानन्द को मानवता के कल्याण के लिए सत्य की स्थापना करने व वेदों व वैदिक ग्रन्थों को आधार बनाना आवश्यक प्रतीत हुआ। उन्होंने इस सत्य व तथ्य को जान कर वेदों की ओर चलों, का नारा लगाया। उन्होंने घोषणा की कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसलिये वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब ईश्वरपुत्र आर्यों व मानवमात्र का धर्म ही नहीं अपतिु परम धर्म है। महर्षि दयानन्द की इन घोषणाओं को सुनकर लोग आश्चर्य में पड़ गये कि यह व्यक्ति कौन है, जो वेदों की बात करता है। ऐसी बात तो न स्वामी शंकराचार्य ने की थी, न आचार्य चाणक्य ने और न भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने ही। यूरोप व अरब से भी कभी इस प्रकार की आवाज सुनाई नहीं दी। वेद क्या हैं व उनमें क्या कुछ है, कोई नहीं जानता था। बहुत से व अधिकांश धर्माचार्यों ने तो वेद कभी व कहीं देखे भी नहीं थे। भारत के सनातन धर्म नामी पुराणों के अनुयायी धर्माचार्य तो वेदों के सर्वथा विरूद्ध व असत्य, पुराणों को ही वेद से भी अधिक मूल्यवान, प्रासंगिक व जीवनोपयोगी मानते थे। स्वामी दयानन्द की इस घोषणा से सभी धर्माचार्य अचम्भित व भयभीत हो गये। अब से 2,500 वर्ष भगवान बुद्ध व भगवान महावीर ने वेदों के नाम पर किये जाने वाले हिंसात्मक यज्ञ यथा, गोमेध, अश्वमेध, अजामेध यज्ञों को चुनौती दी थी और अब यह वेदों का अपूर्व पण्डित व विद्वान दयानन्द पहला व्यक्ति आया था, जिसने न केवल पौराणिक मत वालों को ही ललकारा अपितु संसार के सभी मतवालों को चुनौती दी की वह अपने मत की मान्यताओं को सत्य सिद्ध करें या उनसे शास्त्रार्थ कर स्वयं को विजयी व स्वामी दयानन्द को पराजित करें। कोई सामने न आ सका और यदि आया तो पराजित हुआ। बार बार चुनौती से विवश होकर सन् 1869 में काशी नरेश के आदेश से काशी के 30 से अधिक शिखरस्थ कहे जाने वाले विद्वान व पण्डितों को वेदों से मूर्तिपूजा सिद्ध करने की चुनौती स्वीकार करनी पड़ी, वह सामने आये लेकिन शास्त्रार्थ के विषय पर कोई ठोस व युक्ति की बात न कहकर वितण्डा वा लड़ाई-झगड़ा किया और अपने झूठे मान-सम्मान को बचाने का असफल प्रयास किया। आज तक भी कोई पौराणिक व अन्य मतावलम्बी अथवा धर्माचार्य ईश्वर उपासना और मूर्ति पूजा को युक्तियुक्त व वेदों से सिद्ध नहीं कर सका। सभी अपने घरों में शेर की भूमिका निभा रहे हैं और आम जनता को धोखा दे रहे हैं।

वेदों का महत्व क्या है कि जिसके लिए महर्षि दयानन्द को इतना पुरूषार्थ करना पड़ा, अपना सारा जीवन ही इस कार्य में लगा दिया, अपने सारे सुखों को तिलांजलि दी। उनके इसी जज्बे के पीछे छिपी भावनाओं से प्रभावित होकर हमने इसके सब पहलुओं का अनुभव कर यह लेख लिखा। इस सम्बन्ध में हम कहना चाहते हैं कि संसार की सभी, वस्तुयें, पदार्थ व धन दौलत नाशवान हैं। व्यक्ति अनावश्यक ही अपना सारा बहुमूल्य समय इन नाशवान पदार्थों की प्राप्ति में लगा रहा है। ऐसा करते हुए वह यह भूल जाता है कि एक दिन हमारे शरीर का भी नाश होना है। यह दिन हमारी मृत्यु का दिन होगा। यह दिन हमारे जीवन में अवश्य आयेगा और आज या कालान्तर में बिना दस्तक दिए आ सकता है। हममें से किसी का शरीर जला दिया जायेगा और किसी का दफना दिया जायेगा व किसी की कुछ भिन्न तरीके से अन्त्येष्टि की जायेगी। परन्तु सबका शरीर नाश को प्राप्त होगा, यह घ्रुव सत्य है, अटल है, निश्चित है। यहां तक की यह ज्ञान विज्ञान भी कालान्तर में प्रलय होने पर कारण सृष्टि व ईश्वर में विलीन हो जायेगा और अस्तित्वहीन हो जायेगा। हमारा धन व वैभव तो हमारी मृत्यु के दिन ही हमसे पृथक व दूर हो जायेगा। जो बचेगा वह हमारे परिवार वालों का होगा। वह इसका उपयोग करेंगे या दुरूपयोग, किसी को पता नहीं। परन्तु यह सत्य है कि हमने इस धन व साधनों को कमाने व अर्जित करने में जो अच्छे वा बुरे काम किये हैं वह हमें सुख-दुःखादि के रूप में भोग कर चुकाने ही होंगे। उससे हम बच नहीं सकेंगे। यह धन आदि पदार्थ सब यहीं छूट जायेगें और हमें अकेले ही यहां से जाना होगा। कहां जाना है, किसी को पता नहीं, भेजने वाला ईश्वर है, वह जहां भेजेगा, वहीं सबको जाना है। हमारी पत्नी व सन्तानें कुछ ही दिनों में हमें भूल जायेंगे जिनके लिए हम यह सब कुछ करते रहे हैं। तब उन्हें हमारी मृत्यु का कोई दुःख या पश्चाताप नहीं होगा। यह इसी प्रकार होगा जैसा कि हमने अपने माता-पिता-बन्धुओं व सखाओं के प्रति किया है। यदि कुछ भी हमारे पास व साथ रहेगा तो वह वेदों का ज्ञान, वेदों की शिक्षा व संस्कार बचेंगे, वह हमेशा साथ रहेंगे, मरने पर भी यह हमसे छूटेगें नहीं, अपितु अगले जन्म में भी साथ जायेंगे। इस परमोपयोगी वेद ज्ञान को प्राप्त न करना और अपना सारा समय नाशवान धन व भौतिक पदार्थों में जो बाद में हमारे लिये दुःख का कारण बनेंगे, कोई बुद्धिमत्ता का कार्य नहीं है। आप उपनिषद व दर्शन पढ़े और साथ में सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थ भी पढ़े तो आपको सब कुछ समझ में आ जायेगा। वेदों का ज्ञान व अभ्यास, मोक्ष प्राप्त करने अर्थात् भवसागर से तैर कर पार करने वाली एक नौका है। यदि यह पास होगी तो हम तैरेंगे और यदि वेद ज्ञान नहीं होगा तो हम डूब जायेंगे अर्थात् नीच योनियों में, जहां दुख ही दुख होगा, पहुंचा दिये जायेंगे। वेदों को प्राप्त कर क्या होगा, यह महर्षि दयानन्द के जीवन, उनके साहित्य व ग्रन्थों के अध्ययन से जाना जा सकता है। वेदों को धारण कर मनुष्य महर्षि दयानन्द जैसा बन कर मोक्ष का अधिकारी होता है और सत्कर्म व ईश्वरोपासना से शून्य तथा अन्य ज्ञान-विज्ञान, भौतिक पदार्थ व धन आदि की प्राप्ती में सारा जीवन व्यतीत करने से नरक व अधोगति की प्राप्ति होगी। चुनाव हमें और आपको करना है, जिसे जो पसन्द है, वह उसे चुन ले, लाभ व हानि हमारी ही होगी।

वेद ज्ञान रूपी मानव जीवन का यह सर्वस्व महर्षि दयानन्द के जीवन काल में विलुप्त प्रायः हो चुका था जिसे उन्होंने अपने अपूर्व पुरूषार्थ से खोजा, जाना, समझा, स्वयं प्राप्त किया, उस पर आचरण किया और हमें प्रदान किया। न केवल वेदों की मन्त्र संहितायें ही हमें प्रदान कीं अपितु यह भी बताया कि अनेक संहिताओं व शाखाओं में कौन सी संहिता व शाखा ईश्वरकृत व प्रमाणिक है। उसका सरल, सुबोध, हितकारी, लाभकारी, मोक्षपदप्रदायक, ऐसा दैवीय धन जिसकी तुलना में संसार की हर वस्तु, पदार्थ व अक्षय भौतिक धन भी कोई महत्व नहीं रखता, हमें प्रदान किया है। उन्होंने जो वेदार्थ किया वह भी अपूर्व व सर्वोत्तम है। आरम्भ में मन्त्र के ऋषि, देवता, छन्द लिखे, फिर मन्त्र, पदच्छेद, फिर उसका अन्वय किया और इसके बाद प्रत्येक पद का संस्कृत और हिन्दी भाषा में अर्थ किया और अन्त में मन्त्र का भावार्थ दिया। यह भारी श्रम उन्होंने सारे संसार के सुख व कल्याण की भावना से प्रेरित होकर व ईश्वर की आज्ञा के पालन हेतु किया जिसे अज्ञानी, मूर्ख व स्वार्थी लोगों ने न समझ कर एवं स्वयं के स्वार्थ के कारण अपने अनुयायियों को कुटिलता से पूर्ण होकर उससे दूर रखा जिससे वह मानवता के शत्रु सिद्ध होते हैं। सारी मानव जाति उनके पुरूषार्थ से प्राप्त वेद और वेदार्थ की अधिकारी है। हमें यूरोप व अन्य देशों से ऐसे निष्पक्ष, सत्यनिष्ठ, ईश्वर भक्त, सत्यानुरागी, ईश्वर साक्षात्कार के उत्सुक व इच्छुक बन्धुओं की आवश्यकता है जो वेदों को सत्य की कसौटी पर कस कर उनकी परीक्षा व परख करें और सारी दुनिया के सामने इनसे जुड़े इसके सत्य स्वरूप को प्रस्तुत करें जिससे संसार से अज्ञान का अन्धकार, पाखण्ड, अन्ध परम्परा, असमानता आदि दूर हो सके और सभी लोग ईश्वर की इच्छा व भावना के अनुरूप जीवन व्यतीत कर उसकी अमृतमयी गोद, जो कि मोक्ष पद है, में बैठने के सच्चे अधिकारी बन सके। आईये, इसके लिए हम आपका आह्वान करते हैं। दुनियां के लोगों व बन्धुओं, सच्चे वैदिक ईश्वर व वेद की शरण में आओ और अपना जीवन सफल करो। इसी के साथ हम निम्न पंक्तियों से इस लेख को विराम देते हैं।

“महर्षि तेरे अहसां को न भूलेगा जहां बरसो।

तेरी रहमत के गीतों को, ये गायेगी जुबां वरसों।“ और

“बार बार नर जीवन पाऊं, बार बार बलिदान चढ़ाऊ ,

तो भी ऋषिवर ऋण तेरा, जावे नहीं चुकाया।

नादान लोगों ने उस योगी का भेद न पाया।“

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