शिवरात्रि को हुई दैवीय प्रेरणा से मूलशंकर महर्षि दयानन्द बने

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-मनमोहन कुमार आर्य-   dayanand

महर्षि दयानन्द का जन्म-काल का नाम मूलशंकर था। उनके पिता श्री करषनजी तिवारी पौराणिक ईश्वर शिव के कट्टर भक्त थे। सन् १८३८ की शिवरात्रि के दिन उन्होंने गुजरात प्रान्त में राजकोट के निकट टंकारा स्थान के अपने पैतृक जन्म गृह में पिता की प्रेरणा व आदेशं पर शिवरात्रि का व्रतोपवास किया था। पिता ने उन्हें व्रत के बारे में जो-जो कहा था, उसका उन्होंने पूरी सत्यनिष्टा से पालन किया। उन दिनों वहां की परम्परा के अनुसार लोग शिवालय में जाकर रात्रि जागरण करते थे। बालक मूलशंकर अपने पिता के साथ मन्दिर गये और वहां जागरण, भजन, कीर्तन व पूजा-पाठ में सम्मिलित हुए। देर रात्रि में सभी भक्त निन्द्रा के आगोशं में आकर सो गये। स्वाभाविक रूप से निद्रा तो मूलशंकर को भी आई ही होगी और हमें लगता है कि बालक होने के कारण औरों से अधिक आई होगी। रात्रि जागरण का पूर्व का अभ्यास भी उन्हें नहीं था। बौद्धिक दृष्टि से भी वह एक तकशील बालक तो थे परन्तु अधिक आयु में जो प्रौढ़ता, समझदारी, अनुभवीय ज्ञान होता है, वह कम आयु होने से उनमें नहीं था। कथा का जो महात्म्य पिता ने सुनाया था, उस पर पूरा-पूरा विश्वास रखते हुए उन्होंने निद्रा पर विजय प्राप्त की थी। आलस्य आने पर आंखों पर जल के छींटें मारकर व पुराणों की कथा के शिव को अपने मानस में उपस्थित कर वह जागृत अवस्था में पूरी तरह से सावधान बैठे शिव की पिण्डी पर अपने नेत्र जमाये हुए थे। देर रात्रि जब अन्य सभी लोग प्राय: निद्राधीन व निद्राग्रस्त हो चुके थे, तब मन्दिर में एक सामान्य घटना घटी परन्तु उस छोटी सी घटना का परिणाम बहुत बड़ा था। वह क्या देखते हैं कि मन्दिर के बिलों में से कुछ चूहे निकले और शिव की पिण्डी पर चढ़ कर उछल-कूद करने लगे। वहां जो अन्न आदि पदार्थ भक्तों की ओर चढ़ाये गये थे, उसे खाने लगे। सम्भव है वहां उन्होंने मल-विसर्जन भी किया हो। महर्षि दयानन्द ने जब यह दृश्य देखा तो उनके विश्वास को गहरी ठेस लगी। उन्हें बताया गया था कि शिव बलवान व सर्वशक्तिमान देवता वा ईश्वर हैं। वह साधुओं की रक्षा व दुष्टों का संहार करते हैं। वह भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूरा करते हैं व उनके भक्तों व उपासकों को सुख व शान्ति प्राप्त होती है। शिव से बड़े-बड़े बलवान राक्षस व शत्रु भी डरते व कम्पायमान होते हैं। ऐसे स्वरूपवाला शिव उन क्षुद्र चूहों को अपने मस्तक पर क्यों उछल-कूद करने दे रहा है? क्या वह वास्तव में उन्हें भगाने में सक्षम है भी या नहीं। यदि है तो भगा क्यों नहीं रहा है? क्या वह शिव-लिंग सच्चा शिव है या नहीं? यदि वह चूहों को भगा ही नहीं सकता तो फिर कथा के अनुसार जो लाभ भक्तों को प्राप्त होने की बात कही जाती है वह भी क्योंकर पूरी हो सकती है? इस प्रकार के ऊहापोह से वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह वह शिव नहीं है जिसका वर्णन पिता ने शिव पुराण की कथा सुनाते हुए किया था। यह निश्चय हो जाने पर उन्होंने सो रहे अपने पिता को जगाया और उन्हें चूहों का वह दृश्य दिखाकर कई प्रश्न किये? पिता इस बात से मूलशंकर को सन्तुष्ट नहीं कर सके कि वह शिव अपने ऊपर से उन क्षुद्र चूहों को भगा क्यों नहीं रहे हैं? इस घटना से मूलशंकर का शिव-पूजा से विश्वास समाप्त हो गया। अपनी आशा व अपेक्षाओं के खण्डित होने से निराशं मूलशंकर पिता की आज्ञा लेकर देर रात्रि को शिवालय से घर पहुंचें और पिता की आज्ञा कि व्रत न तोड़ना, को विस्मृत कर माता से भोजन लेकर अपनी क्षुधा शान्त की और सो गये। इस दिन की घटना से सच्चे शिव को जानने व उसकी प्राप्ति के लिए उनके मन में जिज्ञासा व संकल्प ने जन्म लिया। इसके कुछ काल बाद उनकी एक बहिन व चाचा की मृत्यु हुई जिससे उन्हें संसार दु:खमय व निस्सार लगने लगा। शिवरात्रि की घटना का ही प्रभाव था कि वह लगभग चार वर्षों बाद कि जब कुछ ही दिन में उनका विवाह होना था, वह अपने माता-पिता, भाई-बन्धु, परिवारजन, सखा-मित्र, घर व स्थान को छोड़कर सच्चे शिव को जानने व प्राप्त करने के लिए गृह-त्याग कर निकल पड़ें।

ईश्वर को जानने के संकल्प की पूर्ति के लिए किये गये केे कार्य

स्वामी दयानन्द जब घर से निकले तो रास्ते में उन्हें एक ग्रामवासी के मिलने और उसे अपने भावी कार्यक्रम के बारे में बता देने से उनके पिता को उस स्थान का ज्ञान हो गया जहां वह उस समय पहुंचे थे। पिता ने वहां जाकर उनको पकड़ लिया और वापस ले आये। अभी कुछ ही समय हुआ था कि रात्रि में पहरेदारों को चकमा देकर वह दूसरी बार फिर परिवार से सदा-सदा के लिए दूर पहुंच गये। इस बार वह अपने परिवार व जानकार किसी व्यक्ति की दृष्टि में नहीं आये। उन्होंने अपना नाम व परिधान बदल लिया। पहले वह शुद्ध चैतन्य नाम के ब्रह्मचारी बने और कुछ समयान्तर पर संन्यास लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती कहलाये। यहां से उन्होंने ईश्वर की खोज आरम्भ की। वह विद्वानों, ज्ञानियों, संन्यासियों, धर्म-प्रेमियों, महन्तों, योगियों आदि के सम्पर्क में आये। इसके लिए उन्होंने देशं के बहुत बड़े भाग का पैदल ही भ्रमण किया। मन्दिरों व मठों में जो भी कोई विद्वान, संन्यासी, योगी या महन्त मिलता था उसकी संगति व सत्संग प्राप्त कर वह उनसे वार्तालाप, उपदेश श्रवण व शंका-समाधान करते थे और योग सीखते थे। उनसे अन्य ज्ञानियों, विद्वानों, संन्यासियों व योगियों का पता पूछते थे जो उनकी बची हुई जिज्ञासों का समाधान कर सके। इस कार्य को करते हुए उनका अध्ययन भी जारी रहता था। कहीं कोई ग्रन्थ मिलता तो वह उसे प्राप्त कर उसका अध्ययन करते थे। इस प्रकार से वह सभी तीर्थो व मठों आदि में जा-जाकर वहां से जो भी ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते थे। उन दिनों में यह आम धारणा थी कि हिमालय व उत्तराखण्ड के पर्वतों में जो मठ-मन्दिर आदि स्थापित हैं, इनमें व गुफाओं आदि में अनेक तपस्वी व योगी निवास करते हैं जिन्होंने अनेक सिद्धियां व ईश्वर साक्षात्कार का लाभ प्राप्त कर रखा है। उन सबकी गहन खोज भी स्वामी दयानन्द ने प्रत्येक मठ-मन्दिर-गुफा में जाकर की। उन्होंने प्राप्त हुए अनेक ग्रन्थों का अध्ययन व मनन किया, परन्तु उनकी तृप्ति न होने से वह सन्तोष प्राप्त न कर सके। पहाड़ों में नदियों के उद्गम तक वह जा पहुंचें और उसमें बहने वाले हिम के नोकिले टुकड़ों व हिम-सम शीतल जल में प्रविष्ट होकर उन नदियों को पार कर आगे योगियों व तपस्वियों की खोज की। यहां तक कि उनके पैर बर्फ के टुकड़ों से घायल हो गए और उनमें रक्तस्राव तक होने लगा। बर्फीले जल से उनके पैर व शंरीर सुन्न हो गये। उनके शंरीर पर कोई वस्त्र तो था ही नहीं। प्राणों के शंरीर के निकलने तक की स्थिति बन गई। परन्तु इस घोर विषम स्थिति मे भी उन्होंने अपनी खोज जारी रखी। सन् १८५७ की क्रान्ति से कुछ समय पूर्व उन्हें मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द जी का पता मिला जो संस्कृत भाषा के विद्वान होने के साथ वैदिक साहित्य के अपूर्व विद्वान थे। प्रथम स्वातन्य समर की समाप्ति के पर्याप्त काल बाद सन् १८६० मे वह मथुरा पहुंचे। निवेदन करने पर गुरूजी ने उनके शिष्यत्व को स्वीकार किया। गुरू विरजानन्द की पाठशाला में उन्होंने लगभग ३ वर्ष तक अध्ययन किया। यहां प्राप्त हुई शिक्षा से ईश्वर की खोज करने का उनके जीवन का वास्तविक उद्देश्य व लक्ष्य पूरा हुआ। ईश्वर का यह यथार्थ स्वरूप वेद व आर्ष ग्रन्थों में उल्लिखित स्वरूप के समान था। अनार्ष ग्रन्थों व मूर्ति पूजा, मृतक श्राद्ध, जन्म जाति व्यवस्था, सती प्रथा आदि अवैदिक कृत्यों का भी ज्ञान हुआ। यहां अध्ययन व योगाभ्यास से प्राप्त यथार्थ ज्ञान को प्राप्त होकर वह गुरू दक्षिणा के लिए गुरू के पास आये। गुरू ने दक्षिणा में वह चीज मांगी जो पहले कभी किसी गुरू ने अपने शिष्य से नहीं मांगी थी। देश परतन्त्र होकर विदेशियों के पदाक्रान्त था। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से प्राप्त वेदों के ज्ञान का सूर्य लुप्त प्राय: हो चुका था। वेदों के मिथ्या भाष्य धार्मिक जगत में प्रतिष्ठित थे। सामाजिक व्यवस्था विकृत व विषम थी। स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन के अधिकार से वंचित किया हुआ था। समाज में बेमेल विवाह होते थे। विधवाओं को न तो पुनर्विवाह का अधिकार था और न सामान्य मानवीय जीवन व्यतीत करने का अधिकार था। उन पर अनेक प्रकार के सामाजिक प्रतिबन्ध थे। वह किसी आनन्दोत्सव में भाग नहीं ले सकतीं थीं। उनका हर प्रकार का शोषण होता था। समाज व धर्मगुरू यह सब अनर्थ व पाप देख कर मौन थे। उनकी आत्मा में दया व करूणा जैसे भाव ऐसा लगता है कि समाप्त हो गये थे। अत: गुरू विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द से दक्षिणा के अवसर पर कहा कि उन्हें किसी भौतिक पदार्थ व धन की आवश्यकता नहीं है। यदि वह गुरू को दक्षिणा से सन्तुष्ट करना ही चाहते हैं तो फिर वह आज्ञा देते हैं कि संसार से अनार्ष, अवैदिक, मिथ्या, अन्धविश्वास, कुरीतियां व अज्ञान को हटाने का काम कर वेदाध्ययन की प्रवृत्ति, आर्ष ज्ञान के अनुरूप देशं, समाज व विश्व का निर्माण, उसका प्रचार-प्रसार व स्थापना, सभी प्रकार के पक्षपातों को हटाकर न्याय को प्रतिष्ठित करना, सच्ची ईश्वरोपासना का प्रचार व उसका सर्वत्र आचरण आदि कार्यों को करने की प्रतिज्ञा करें। स्वामी दयानन्द गुरू विरजानन्द के साथ विगत लगभग ३ वर्षों से अध्ययनरत थे, उनके अन्तेवासी शिष्य थे, वह गुरूजी की भावनाओं को भली प्रकार समझते थे व समझ गये। उन्होंने गुरू की इच्छा, भावना व आदेशं को स्वीकार कर शिरोधार्य किया और उसे पूरा करने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने गुरूजी को कहा कि वह गुरूजी की आज्ञा के अनुरूप प्राणपण से कार्य करेगें और अपना वचन निभायेंगे। गुरूजी भी दयानन्द के मनोभावों व इरादों से भलीभांति परिचित व सन्तुष्ट थे। उन्होंने सच्चे हृदय से शिष्य दयानन्द को “सफल भव” का आशीर्वाद दिया। हमेंं लगता है कि स्वामी दयानन्द जी को गुरूजी ने जो कहा व उन्होंने उसके पालन में जो-जो कार्य किये, उनके लिए उससे बढ़कर व अच्छा कार्य कोई हो ही नहीं सकता था। हम गुरू विरजानन्द जैसा गुरू व स्वामी दयानन्द जैसा शिष्य संसार के इतिहास में दूसरा नहीं पाते हैं। यह दोनों गुरू व शिष्य आज भले ही भौतिक शंरीर से हमारे बीच में विद्यमान न हों, परन्तु अपने यशं:शंरीर से यह आज भी हमारे मध्य में हैं। इनके ग्रन्थों को पढ़कर हम आज भी इनकी आत्मा से अपनी आत्मा का सम्बन्ध स्थापित कर पाते हैं। हममें आज जो भी ज्ञान व अच्छा आचरण, यदि कुछ भी है, तो उसका सारा श्रेय स्वामी दयानन्द सरस्वती व उनके गुरू जी को है।

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात स्वामीजी के कार्य

अब स्वामी दयानन्द सरस्वती को अपना वचन निभाना है। यह केवल गुरू को दिया हुआ वचन ही नहीं है अपितु उनकी अपनी आत्मा की भी यही आवाज है। गुरूजी ने तो केवल उन्हें उनके कर्तव्य का बोध कराया था। गुरू दक्षिणा के बाद स्वामी दयानन्द आगरा में लगभग डेढ़ वर्ष तक रहे। वहां रहते हुए वह प्रवचन आदि करते रहे। यहां उन्होंने ईश्वरोपासना पर सन्ध्या की एक पुस्तक लिख कर प्रकाशित कराई और उसका बहुत बड़ी संख्या में वितरण हुआ। इसके अतिरिक्त यहां रहकर उन्होंने प्रमुख कार्य यह किया कि अपने भावी जीवन की कार्य योजना तैयार की और उसे अन्तिम रूप दिया। उन्हें धार्मिक जगत में मिथ्या अज्ञान व अन्ध-विश्वास को हटा कर आर्ष ज्ञान को स्थापित करना था। इसके लिए उन्होंने मौखिक प्रचार, प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान, वार्तालाप, शंका समाधान, शास्त्रार्थ, आर्य समाज की स्थापना, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद संस्कृत-हिन्दी भाष्य आदि ग्रन्थों का प्रणयन व लेखन, शुद्धि, संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना, गोरक्षा के कार्य, हिन्दी को राजकीय भाषा बनाने के प्रयास, आर्यावर्तीय राजाओं व रिसायतों में वेद धर्म प्रचार, ब्रह्मचर्य व योग को प्रतिष्ठा किया, स्त्री व शूद्रों को शिक्षा, वेदाध्ययन में सबका समानाधिकार, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार कुलीन परिवारों में विवाह, हिन्दी को धर्म प्रचार कार्य में अपनाने का अभूतपूर्व निर्णय, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, बाल विवाह, मृतक श्राद्ध, जन्मजति व्यवस्था का विरोध तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था तथा विधवा विवाह का विधान जैसे अनेक कार्य किए। उन्होंने यह भी बताया कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक भारत के आर्यो का सारे संसार में एकमात्र चक्रवर्ती राज्य रहा है। हम समझते हैं कि चक्रवर्ती राज्य का उल्लेख वेद या संस्कृत के ग्रन्थों में ही हुआ है, अन्यत्र विश्व साहित्य में कहीं नहीं है। उन्होने अपने ग्रन्थों पर पराधीनता को अभि’ााप बताया व स्वदेशीय, स्वराज्य को सर्वोपरि राज्य को उत्तम बताया। उनके कार्यो का देशं पर गहरा प्रभाव पड़ा और आज का आधुनिक भारत उनके विचारों व कार्यो से नानाविध लाभान्वित है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का विश्व को परिचय कराया और सच्ची ईश्वर उपासना संसार को बताई। वेद को उन्होंने ईश्वर से उत्पन्न बताया और वेद को सर्व-ज्ञानमय ग्रन्थ सिद्ध किया। उनके अनुसार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं जिसे पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सब आर्यों, यह शब्द मानवमात्र के लिए प्रयुक्त है, का परम धर्म बताया। वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना परमधर्म इस लिए है कि इसके अध्ययन से मनुष्य की पाशंविक, रज व तमों गुण प्रधान प्रवृत्तियों में कमी आती है और मनुष्य सत्य-धर्म से परिचित होकर उसमें प्रवृत्त होता है जिसका अन्तिम परिणाम अभ्युदय व नि:श्रेयस की सिद्धि होता है। संसार में जहां मनुष्य को शिक्षा प्राप्त कर अपनी आजीविका चलानी है वहीं उसे ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य ज्ञान प्राप्त कर ईश्वरोपासना कर, परोपकार, धर्म, सेवा, अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ व बलिवैश्वदेव यज्ञ करके अपने जीवन को सफल करना है। गोरक्षा व गोपालन भी मनुष्य का कर्तव्य है। जो इसे करता है वह प्रशंनीय है। कोई भी ज्ञानी, विद्वान, आस्तिक व ईश्वर को जानने वाला व्यक्ति गाय वइ इतर पशुओं का मांसाहार नहीं कर सकता। जो करते हैं वह मानवीय गुणों से हीन है। महर्षि दयानन्द ने धर्म, जीवन के उद्देश्य व उनकी पूर्ति के जो उपाय बतायें हैं उससे सारा संसार प्रभावित हुआ। उनके कार्यो व प्रयासों से वैदिक-आर्य-धर्म के अनुयायियों का धर्मान्तरण रूका। दूसरे मत के व्यक्ति भी आर्य धर्म की श्रेष्ठता को जानकर अपने विवेक से आर्य धर्म में सम्मिलित हुए। बहुत से बिछड़े हुए बन्धुओं को आर्य धर्म में पुनर्दीक्षित कर उन्हें संसार के सर्वश्रेष्ठ व सत्य वैदिक मत का अनुयायी बनाया। ऐसे अनेकों कार्य महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज व उनके अनुयायियों ने किए हैं जिनका किया जाना सारी मानवता के लिए गौरव की बात है। आर्य समाज ने अपनी मान्यता और सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए छल, प्रलोभन, भय, राजकीय प्रभाव का सहारा नहीं लिया फिर भी जिसने इसे समझा वह इसका भक्त व दीवाना हो गया जिनमें से एक हम भी हैं। धन्य है ऋषि दयानन्द व उनका आर्य समाज। खेद है कि संसार के लोगों ने महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के मूल स्वभाव, मानवता के उपकार व कल्याण की उसकी भावना, अन्याय, अत्याचार, पाप, पक्षपात के विरूद्ध उसके मिशंन को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा। इसका एक कारण ऐसा करने से कुछ लोगों के स्वार्थ को हानि का पहुंचना था। वह अपने स्वार्थों को छोड़ न सकने के कारण आर्य समाज का विरोध करते रहे व कर रहे हैं। हमें लगता है उनका ऐसा करना सत्य को अस्वीकार करना व असत्य को स्वीकार करना है। हमारा अनुरोध है कि सभी विरोधी सच्चे मन से आर्य समाज की मान्यताओं का गहराई से अध्ययन करें व सत्य को अपनायें। अपनी शंकाओं का समाधान भी उन्हें आर्य समाज के विद्वानों से करना चाहिये। महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के कार्यो के कारण सारा विश्व इनका ऋणी है और रहेगा।

संसार को उनके कार्यों से लाभ व उनकी देन

संसार के लोगों को महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के कार्यो से जो लाभ पहुंचा है उसका उल्लेख लेख में किया जा चुका है। पराधीन भारत महर्षि दयानन्द के विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर, संघर्ष व आन्दोलन कर तथा सत्य ज्ञान के प्रचार व प्रकाशं से स्वतन्त्र हुआ। विश्व भर में वैज्ञानिक क्रान्ति के मूल में महर्षि दयानन्द व वेदों का यह सिद्धान्त कार्य कर रहा है कि अविद्या का नाशं व विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। सत्य को ग्रहण और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। विज्ञान आज जिस मुकान पर है उसमें वेद और महर्षि दयानन्द के विचारों का सर्वोपरि योगदान है। सच्चे योग की प्रतिष्ठता, स्त्री शिक्षा, जन्म-जाति उन्मूलन, गुण-कर्म-स्वभाव को मान्यता व सबको समान अधिकार, गायत्री मन्त्र को सबके द्वारा स्वीकार करना व सर्वोपरि मानना आदि लाभ संसार भर के लोगों को हुए हैं।

शिवरात्रि कैसे मनायें?

शिवरात्रि का पर्व पाराणिक आख्यानों के आधार पर मनाया जाता है। मूर्ति पूजा आज वेदों से असत्य सिद्ध हो चुकी है जिसका विधान वेदों में नहीं है। तर्क व युक्ति के प्रमाणों से भी यह सारहीन सिद्ध है। इसी प्रकार के फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, सती प्रथा, विधवा विवाह के विरोध से जुड़े हुए विचार व कार्य हैं। शिव ईश्वर का एक गुणवाचक नाम है। सबका कल्याण व मंगल करने के कारण सर्वव्यापक ईश्वर ही शिव कहलाता है। उसकी उपासना व पूजा उसे प्रसन्न करके ही हो सकती है। वह सन्ध्या, अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, परोपकार, देशभक्ति सेवा आदि कार्यों से प्रसन्न होते हैं। शिवरात्रि के दिन वेदों के आधार पर ईश्वर शिव स्वरूप पर सर्वत्र वृहत रूप में सामूहिक प्रवचन व व्याख्यान होने चाहिये। सामाजिक रूप से वृहत अग्निहोत्र यज्ञ किये जायें जिससे सारे देशं व समाज में आरोग्यता का विस्तार हो। निर्धनों व गरीबों के कष्ट दूर करने के उपाय सोचे जायें जो कि वस्तुत: शिव-कार्य है। निर्धनों व अभावग्रस्तों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई न आ रही हो, इस पर ध्यान दिया जाये और अवरोधों को दूर किया जाये जिससे निर्धन व अभावग्रस्त बन्धु भावी श्रेष्ठ नागरिक बने। मांसाहार, मदिरापान, जुआ, शोषण, कदाचार, दुराचार आदि को समाज में न होने देने के लिए योजनायें बने। बुरे काम करने वालों का समाज व देशं के स्तर पर विरोध हो। शिवरात्रि के दिन बुरे विचारों व संकल्पों को दूर रखकर उपवास करें और ईश्वरोपासना व वृहत अग्निहोत्र के पश्चात खीर, फल, मिष्ठान्न व विशेष भोजन बनाकर समूह भोज कर-कराकर शिवरात्रि को मनाना चाहिये।

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