महर्षि दयानन्द और हमारा संसार

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ओ३म्
‘ईश्वर के सच्चे अद्वितीय पुत्र और सन्देशवाहक वेदज्ञ
और धर्मज्ञ महर्षि दयानन्द और हमारा संसार’

ईश्वर ने यह सारा संसार जीवों के कल्याण के लिए और पूर्व जन्मों में उनके द्वारा किये गये शुभ व अशुभ कर्मों के फल प्रदान करने के लिए बनाया है। सभी मनुष्य अपना जीवन सत्य ज्ञान, कर्म व उपासना के द्वारा व्यतीत करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकें, इसके लिए उस दयालु परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम के चार ऋषियों के द्वारा अपना सत्य, कल्याणकारी व मनुष्य का परम हितकारी ज्ञान “वेद” दिया और उसे हम तक पहुंचाया है। इस ज्ञान को प्राप्त कर सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक व उसके बाद भी कुछ मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करते रहे हैं। महाभारत काल के बाद वेदों का ज्ञान विलुप्त हो गया जिससे सर्वत्र अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, अनुचित कर्म काण्ड, यज्ञों में पशु हिंसा, स्त्री व शूद्रों को वेदाध्ययन से वंचित किया जाना, छुआछुत, जन्माधारित जाति प्रथा, आलस्य व प्रमाद आदि हानिकर मान्यतायें समाज में प्रविष्ट हो गईं। मानव जीवन का इतना अधिक पतन हुआ कि इसका वर्णन करना कठिन है। अज्ञान के कारण हमारे देश में व विदेशों में भी अनेकानेक मत-मतान्तर व पन्थ-सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये जो स्वयं को ही सच्चा धर्म मानने लगे। उन्होंने अपने मत में निहित असत्य व अज्ञान पर विचार करना ही छोड़ दिया। आज भी यही स्थिति दिखाई देती है। इसके विपरीत यह भी देखा जा रहा है कि आज के मत-मतान्तरारों में अपने असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों को छुपाने व उनका पोषण करने की प्रवृत्ति है और इसके लिए कुछ लोग सच्चे मानवों का खून बहाने के लिए भी तत्पर हैं। यह सिलसिला आज के वैज्ञानिक युग में भी बदस्तूर जारी है।

आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म एक ब्राह्मण कुल में 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के राजकोट जनपद के टंकारा नामक कस्बे में श्री करसनजी तिवारी के यहां हुआ। 14 वर्ष की आयु में पिता की प्रेरणा से उन्होंने शिवरात्रि का व्रतोपवास किया। रात्रि एक मन्दिर में जागरण करते हुए शिव की मूर्ति अर्थात् शिवलिंग पर चूहों की उछल-कूद देखकर उन्हें मूर्ति के साक्षात ईश्वर व ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न होने में सन्देह हुआ। पिता अपने किशोर पुत्र की शंकाओं का समाधान नहीं कर सके। कालान्तर में उनकी एक बहिन और चाचा की मृत्यु हो गई। अब इन दो मौतों ने बालक व युवक मूलशंकर (स्वामी दयानन्द जी का बचपन का नाम) में वैराग्य की भावना को उत्पन्न कर दिया। वह सच्चे ईश्वर व मृत्यु से बचने के उपायों की खोज के लिए घर से भाग निकले और उस समय के साधु-सन्तों-योगियों-ज्ञानियों-धर्माचार्यों की संगति कर उनसे इनके उपाय पूछने लगे। अध्ययन में बाधा आने के कारण उन्होंने संन्यास लेकर स्वामी दयानन्द नाम पाया। उनकी खोज नवम्बर, सन् 1860 में मथुरा के दण्डी गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती की कुटिया में अध्ययनार्थ पहुंचने तक जारी थी। इस बीच उन्होंने देश का भ्रमण किया और उन्हें जो भी विद्वान, साधु, सन्त, ज्ञानी, यति, योगी, धर्म प्रचारक, महन्त आदि मिले, उनसे उपदेश व शंका-समाधान के साथ योग विद्या का अध्ययन व अभ्यास करते रहे। वह योग व ईश्वर की प्राप्ति में सफल भी हो गये थे परन्तु विद्याव्यसनी होने के कारण वह और अधिक ज्ञान प्राप्ति के इच्छुक थे जिसने उन्हें मथुरा पहुंचा दिया। गुरू विरजानन्द जी के यहां लगभग 3 वर्ष रहकर उन्होंने व्याकरण एवं वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन समाप्त किया और गुरू की आज्ञा से वेद वा धर्म प्रचार के क्षेत्र में पदार्पण किया। यह अदभुत संयोग है कि एक गुजराती जिज्ञासु दक्षिण भारतीय संन्यासी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से सन्यास लेता है और पंजाब के विद्वान गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती से वेद व आर्ष ज्ञान से परिपूर्ण होता है। देश भर में प्रचार करता है और राजस्थान में अपनी जीवन लीला समाप्त करता है और जगदगुरू के आसन पर विराजमान होता है। सारे विश्व के करोड़ों लोग उसके आज अनुयायी हैं। हम अनुभव करते हैं कि उनके समान विश्व का उपकार व कल्याण करने वाला अन्य कोई महापुरूष नहीं हुआ।

स्वामी दयानन्द ने देशी व विदेशी सभी मत-पन्थों के ग्रन्थों का अध्ययन किया और पाया कि सभी मतों में असत्य, अज्ञान, कुरीतियां, अन्धविश्वास, पाखण्ड, एक-दूसरे मत का विरोघ आदि स्वभाव व व्यवहार विद्यमान है और इसके साथ सभी मत अपने अनुयायियों को उनके जीवन का सत्य व यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधन बताने में असमर्थ हैं। उन्होंने सबसे पहले मूर्तिपूजा को लिया और इस पर धर्म और विद्या की नगरी काशी के 30 से अधिक शीर्षस्थ विद्वान पण्डितों से शास्त्रार्थ किया। मूर्ति पूजा वेदों से, युक्ति और प्रमाणों से सिद्ध न की जा सकी और आज तक भी नहीं की जा सकी है। इससे महर्षि दयानन्द देश और देशान्तर में भी प्रसिद्ध हो गये। अब उनका सारा समय उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शंका-समाधान, भेंट-वार्ता, शास्त्रार्थ व ग्रन्थ लेखन के साथ देश भर व राजे-रजवाड़ों में घूम-घूम कर प्रचार व जन-सम्पर्क में व्यतीत होने लगा। उन्होंने सत्य धर्म व मत के निर्णयार्थ सत्यार्थ प्रकाश जैसा कालजयी ग्रन्थ लिखा जिसकी तुलना में संसार में कोई दूसरा ग्रन्थ आज तक भी नहीं लिखा गया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद व यजुर्वेद का भाष्य, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि अनेक बहुमूल्य ग्रन्थ लिखें। उन्होंने तर्क, प्रमाणों, युक्तियों, विवेचना, समीक्षाओं, उद्धरणों से सभी मतों व उनके धर्म ग्रन्थों की समीक्षा कर पाया कि पूर्ण सत्य केवल और केवल वेदों में ही विद्यमान है। यह वेद ईश्वर प्रणीत ग्रन्थ हैं जिनका सृष्टि की आदि में ईश्वर द्वारा प्रकाश किया गया था। उन्होंने वेदों को स्वतः प्रमाण पाया और सबको बताया तथा अन्य सभी ग्रन्थों को परतः प्रमाण बताया यदि वह वेदानुकूल हों। इस प्रकार से संसार को सत्य धर्म का ज्ञान हुआ और वह “सत्य-धर्म का ज्ञान” सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों सहित वेद व वेदानुकूल ग्रन्थ मनुस्मुति, 11 उपनिषद, 6 दर्शन आदि के रूप में आज भी हमें प्राप्त है। महर्षि दयानन्द ने यह कार्य करके ईश्वर का सच्चा, महान, अद्वितीय, युगपुरूष होने के साथ ईश्वर का सच्चा सन्देशवाहक होने का प्रमाण दिया। हमारे अध्ययन के अनुसार महाभारत काल के बाद सारी दुनियां में उनके समान कोई वेदज्ञ, धर्मज्ञ, योगी, समाज सुधारक व सामाजिक नेता, राजधर्म वेत्ता, ज्ञान-विज्ञानविद् महापुरूष दूसरा कहीं कोई नहीं हुआ है। महर्षि दयानन्द का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह सर्वगुण सम्पन्न अद्वितीय पूर्ण पुरूष थे। यद्यपि आज भी उन जैसे महापुरूषों की देश व विश्व को आवश्यकता है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह “भूतो न भविष्यति” की उपमा वाले अपनी तरह के एक ही पुरूष संसार के इतिहास में हुए हैं।

आज संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं। सबकी मान्यतायें कुछ समान व कुछ असमान व परस्पर विरूद्ध भी हैं। हमें सभी मतों में एक कमी दृष्टिगोचर होती है कि सभी मतानुयायी अपनी-अपनी धर्म पुस्तकों को ही पढ़ते हैं, अन्य मतों व धर्मों की पुस्तकों को नहीं पढ़ते। हमारा मानना है कि सभी मनुष्यों को सभी मतों की पुस्तकों को निष्पक्ष भाव से पढ़ना चाहिये और सत्य जहां भी है, उसको स्वीकार करना चाहिये। इसके साथ उन्हें प्रेम पूर्वक सत्य धर्म का प्रचार भी सर्वत्र करना चाहिये और सदेच्छापूर्वक प्रचार करने वाले सच्चे धर्म प्रचारकों को सहयोग देना चाहिये। आज का युग विज्ञान का युग है जिसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये। यदि कोई ऐसा करता है तो वह अपने धर्म की दुर्बलता को प्रकट करता है।  किसी भी मत के अनुयायी की हठधर्मिता, स्वभाव व व्यवहार में कठोरता, हिंसात्मक प्रवृत्ति, असहयोगात्मक व्यवहार व प्रवृत्ति, रूढि़वादी विचार व अन्य मतों का पूर्वाग्रह से मुक्त होकर अध्ययन न करना उसके मत की दुर्बलता को प्रकट करता है। सभी मतों का अध्ययन करने पर यह सिद्ध होता है कि इस पूरे ब्रह्माण्ड में केवल एक ही ईश्वर है। उस ईश्वर को अपने कार्यों से प्रसन्न करना ही मनुष्य का धर्म है। वह कैसे प्रसन्न होता है? इसका उत्तर है कि वह सच्ची ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, पितृयज्ञ-अतिथियज्ञ-बलिवैश्वदेवयज्ञ, सेवा, परोपकार, सब प्राणियों के प्रति मित्र की दृष्टि रखना, दुःखियों का दुःख हरण करना, निर्बलों की रक्षा करना, स्त्रियों का सम्मान करना, निर्लोभी होना, काम व क्रोध पर विजय पाना आदि जैसे गुण ही धर्म है और इन्हीं से ईश्वर प्रसन्न होता है। इसके विपरीत जो कार्य व व्यवहार हैं, वह पन्थ व मजहब आदि हो सकते है, धर्म कदापि नहीं। आज के युग में यही सबसे बड़ा सन्देश हो सकता है कि सभी लोग असत्य का त्याग कर सत्य को अपनाये। इसके साथ हमें अपने जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित करना है और उसे प्राप्त करने के साधनों का भी पता लगाना है। दर्शनों में इस विषय पर विस्तार से विचार हुआ है। उनके अनुसार असत्य को छोड़कर सत्य को अपनाना, अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करना, ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानना व उसको ध्यान व चिन्तन द्वारा उपासना से प्राप्त करना अर्थात् उसका साक्षात्कार करना ही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य सिद्ध हुआ है। ऐसा होने पर ही मनुष्य के सभी प्रकार के दुःखों की निवृति होती है।  काम-क्रोध व लोभ से रहित व पूर्ण ज्ञानी होकर सभी प्राणियों की अधिकाधिक सेवा करना आदि ही वह साधन हैं जिनसे मनुष्य जन्म-मरण रूपी दुःख से छूट कर मुक्ति वा मोक्ष को पाता है। इन सब विषयों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए महर्षि दयानन्द के समग्र साहित्य सहित वेद, वैदिक साहित्य को पढ़ाना अनिवार्य है। बिना इनके अध्ययन से जीवन को यथार्थ रूप में जाना नहीं जा सकता और न ही मानव जीवन सफल हो सकता है।

निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती ही संसार में एकमात्र सच्चे ईश्वर पुत्र वा ईश्वर दूत तथा सच्चे सन्देश वाहक थे। उनके ग्रन्थों का अध्ययन करके ही हम व संसार के लोग अपने जीवनों को सफल कर सकते हैं।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवालाः-2
देहरादून-248001
फोनः 09412985121/08476942528

2 COMMENTS

  1. मनमोहनजी ,

    दयानंद सरस्वतीजी को ऋषि तुल्य मानता हूँ ,

    लेकिन उनकी मुर्तिपूजका विरोध का मई विरोधी हूँ <

    मनमोहनजी क्या आकाश का ध्यान कर सकते हो ?

    कभी नहीं मगर आप मूर्ति ,चिन्ह ,खुर्शी आदिका ध्यान कर शक्ति हो !!!

    इस लिए ध्यान के लिए आकार जरुरी है !

    बिना आकार का ध्यान संभव नहीं है !!!

    फिर मूर्ति नहीं ?

    विदेशी भारतीयों की मूर्तिपूजा से इतने दर गए थे की वो भारतीय संस्कृति के विध्वंस के लिए कोई मूर्ति भंजक धुंध रहे थे जो दयानंदजी के रूप में मिल गए वे ज्यादा प्रसिद्धा हो गए !!

    इस देश की मिटटी में हजारो सिद्ध पुरुष हो गए किसीने मूर्ति पूजाका विरोध किया हो तो बताओ सिवाय एक नए पैदा हुवे आर्य समाजियों शिवा <<<<

    मूर्ति पूजा सम्पूर्ण वैज्ञानिक और शांस्कृतिक है !!!

    • नमस्ते बंधू, ईश्वर पूजा/ईश्वर उपासना तथा मूर्ति पूजा दोनों परस्पर भिन्न हैं. ईश्वर की उपसासना ऑंखें बंद करके की जाती है आँखे खोकर नहीं; सूर्य, चन्द्र , पृथ्वी, पहाड़, फूल, नदियां, वृक्ष, माता, पिता एवं आचार्यगण ईश्वर द्वारा बनाई गई मुर्तिया हैं. जिसे आकार चाहिए वह इन साकार मूर्तियों को सामने रख सकता है। इन सभी के भीतर ईश्वर निश्चित रूप से विद्यमान है। मैं ऐसे मूर्ति पूजक की तलाश में हूँ जिसने ईश्वर का साक्षात्कार किया हो? महर्षि दयानंद ने सारे देश में योगियों की तलाश की, योग सीखा और सिद्ध योगी बने. विदेशी विद्वान भी उनकी विद्या का लोहा मानते हैं। वेद सनातनी बन्धुवों के मान्य धर्मग्रन्थ हैं, क्या किसी ने आज तक हिंदी में वेदार्थ किया? वेद सनातन हैं एवं सर्वोपरि धर्म ग्रन्थ हैं तथा रामायण एवं गीता आदि ग्रन्थ ऐतिहाषिक ग्रन्थ हैं जिनकी रचना त्रेता एवं द्वापर युगों में हुई है। यह आर्य समाजियों एवं पौराणिकों सभी के मान्य ग्रन्थ हैं. वेद ईश्वरीय ज्ञान भी है जिसे हमारे पौराणिक भाई भी मानते हैं। ईश्वर की प्राप्ति योग दर्शन के अनुसार उपासना करने से, यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान वा समाधि से ही हुआ करती है अन्यथा नहीं। ईश्वर की प्राप्ति व प्रसन्नता ईश्वर के गुणों के ध्यान वा चिंतन से ही हो सकती है अन्यथा नहीं। महाभारत काल व योगेश्वर श्री कृष्ण जी के बाद महर्षि दयानंद के सामान भारतीय संस्कृति का रक्षक दूसरा कोई नहीं हुआ है। स्वामी शंकराचार्य जी ने भी अपने समय में भारतीय संस्कृति की रक्षा की. उसके लिए सारा देश और वेदो को मानने वाले उनके धन्यवादी एवं आभारी हैं। यह भी महतवपूर्ण है कि पूर्वाग्रह से किसी विषय का सत्य ज्ञान कदापि नहीं हो सकता। प्रतिक्रिया लेखक बंधू का लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद।

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