महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन

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महर्षि दयानन्द वैदिक विचारधारा के ऋषि, विद्वान, आप्तपुरुष, सन्त, महात्मा सहित देश व समाज के हितैषी अपूर्व महापुरुष थे। उनका जीवन सारी मनुष्य जाति के लिए आदर्श, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। आज के लेख में हम उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण प्रेरणादायक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इनके अध्ययन व अनुकरण से सभी को लाभ होगा।

 

पहली घटना हम बरेली में उनके व्याख्यान की ले रहे हैं जिसका वर्णन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग के पथिक’ में किया है। बरेली में एक दिन स्वामी जी व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान में नगर के गणमान्य पुरुष और बड़े-बड़े राज-अधिकारी, कमिश्नर आदि सभी उपस्थित थे। व्याख्यान में ईसाई मत की मिथ्या मान्यताओं का खूब खण्डन किया गया। दूसरे दिन व्याख्यान से पूर्व उनसे कहा गया कि आप इतना खण्डन न करें, इससे उच्च अंग्रेज अधिकारी अप्रसन्न होंगे। दूसरे दिन का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान में कमिश्नर आदि सभी उच्च राज्याधिकारी उपस्थित थे। स्वामीजी ने गरज कर कहा-‘‘लोग कहते हैं कि असत्य का खण्डन न कीजिए, पर चाहे चक्रवर्ती राजा भी अप्रसन्न क्यों न हो जाए, परिणाम कुछ भी हो, हम तो सत्य ही कहेंगे।” अभय से पूर्ण मनुष्य के ऐसे जीवन को ही कहते है ईश्वर की सत्ता और सत्य पर अटल विश्वास।

 

दूसरी घटना कर्णवास में महर्षि दयानन्द के प्रवास की ले रहे हैं। जब स्वामीजी यहां आये थे तो अनूपशहर का एक अच्छा संस्कृतज्ञ विद्वान् पं. हीरावल्लभ अपने कुछ साथियों के साथ शास्त्रार्थ के लिए स्वामीजी के पास आया। सभा संगठित हुई। पं. हीरावल्लभ ने बीच में ठाकुरजी का सिंहासन, जिस पर शालिग्रामादि की मूर्तियां थी, रखकर सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं स्वामीजी से इन्हें भोग लगवाकर ही उठूंगा। छह दिन तक बराबर धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्ररार्थ होता रहा। सातवें दिन पण्डित हीरावल्लभ ने सभा में प्रकट कर दिया कि जो कुछ स्वामीजी कहते हैं वही ठीक है और सिंहासन पर वेद की स्थापना की। महर्षि दयानन्द के सभी उपलब्ध शास्त्रार्थ और प्रवचन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के ग्रन्थ ‘महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन’ में उपलब्ध हैं। पाठक इस ग्रन्थ का अध्ययन कर इस ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं।

 

कर्णवास की ही एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक दिन स्वामीजी गंगा तट पर उपदेश कर रहे थे। बरौली के राव कर्णसिंह अपने कुछ हथियार-बन्द साथियों सहित वहां आए और बातचीत करते-करते बड़े क्रोध में आकर उन्होंने तलवार खींच कर स्वामीजी पर आक्रमण किया। स्वामीजी ने तलवार छीनकर दो टुकड़े कर दिए और राव को पकड़कर कहा कि ‘मैं तुम्हारे साथ इस समय वही सलूक कर सकता हूं जो किसी ‘‘आततायी” (आतंकवादी) के साथ किया जा सकता है। परन्तु मैं संन्यासी हूं, इसलिए छोड़ता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें सुमति देवे।’

 

स्वामी दयानन्द जी का जीवन महान था। उनकी महानता एक उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपनी हत्या का प्रयास करने वाले को न केवल क्षमा कर दिया अपितु वैधानिक दण्ड से भी बचाया। यह घटना अनूपशहर की है। वहां स्वामी जी के सच्चे और स्पष्ट उपदेश से अप्रसन्न होकर एक दुष्ट पुरुष ने स्वामीजी के पास आकर नम्रता प्रदर्शित करते हुए एक पान का बीड़ा उनको भेंट किया। स्वामीजी ने लेकर उसे मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही उन्हें मालूम हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। योग सम्बन्धी बस्ती और न्यौली-क्रियाओं को करके उन्होंने उसके प्रभाव को नष्ट कर दिया। जब यह हाल वहां के मजिस्ट्रेट सैयद मुहम्मद को मालूम हुआ तो उसने उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़कर हवालात में डाल दिया और स्वामीजी के पास आकर अपनी कारगुजारी प्रकट करने आया तो स्वामीजी ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट करके उसे छुड़वा दिया और कहा कि ‘‘मैं दुनिया को कैद कराने नहीं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।”

 

स्वामीजी जब उदयपुर में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात न माननी चाहिए।” इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि -‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है।” इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व उच्चतम अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को न मानना चाहिये भले ही इससे उनकी कितनी भी हानि क्यों न हो।

 

उदयपुर की ही एक अन्य घटना है। वहां एक दिन एकान्त में स्वामीजी से महाराजा सज्जनसिंह जी ने कहा कि महाराज ! आप मुर्तिपूजा का खण्डन करना छोड़ दें। यदि आप इसे स्वीकार कर लें तो एक लिंग महादेव के मन्दिर, जिसके साथ लाखों रुपये की जायदाद लगी हुई है, आपकी होगी, और आप सारे राज्य के गुरु माने जाऐंगे। स्वामीजी ने उत्तर दिया–‘‘आपके सारे राज्य से मैं एक दौड़ लगाकर कुछ समय में बाहर जा सकता हूं परन्तु ईश्वर के संसार से दूर नहीं जा सकता, फिर मैं किस प्रकार इस धर्मविरुद्ध तुच्छ प्रलोभन में आकर ईश्वर की आज्ञा भंग करूं।” यह है ईश्वर, उसकी व्यवस्था व धर्म में पूर्ण विश्वास और स्वार्थ से रहित सच्चे त्याग का उदाहरण।

 

प्रयाग की एक घटना है। एक दिन स्वामीजी एक सभा में उपस्थित थे। पं. सुन्दरलालजी आदि कुछ सभ्य पुरुष भी उपस्थित थे। स्वामीजी यकायक हंस पड़े। कारण पूछने पर बतलाया कि एक पुरुष मेरे पास आ रहा है, उसके आने पर एक कौतुक दिखाई देगा। थोड़़ी देर बाद एक व्यक्ति स्वामीजी के लिए कुछ विष मिश्रित मिठाई लाकर कहने लगा कि महाराज इसमें से कुछ भोग लगाएं। स्वामीजी ने थोड़ी सी मिठाई उठाकर लानेवाले को दी, उसे कहा कि इसे तुम खाओ, परन्तु उसने मिठाने लेने और खाने से इन्कार कर दिया। स्वामीजी इस पर हंस पड़े और पं. सुन्दरलालजी आदि पुरुषों से कहा कि देखों यह अपने पाप के कारण स्वयं कांप रहा है और लज्जित है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया है अब और दण्ड की आवश्यकता नहीं। यह थी स्वामी दयानन्द जी की योग व ईश्वरोपासना की शक्ति और दयालुता।

 

स्वामीजी की मृत्यु जोधपुर में उन्हें विष दिये जाने के कारण हुई थी। स्वामीजी जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह व महाराजा के निमंत्रण पर पधारे थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में राजाओं के दुव्र्यसनों मुख्यतः राजाओं की वेश्याओं में आसक्ति वा वैश्याचारिता का तीव्र खण्डन किया था। अपनी शिक्षाओं में उन्होने वैश्याओं की उपमा कुतिया से और राजाओं की उपमा शेर से दी थी। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन तो वह करते ही थे। अतः एक षडयन्त्र के अंतर्गत उनके विरोधियों ने उनके पाचक को अपने वश में करके उसके द्वारा स्वामीजी को सितम्बर, 1883 के अन्तिम सप्ताह की एक रात्रि को दूध में जहर डलवाकर पिलवा दिया था। स्वामीजी को इसका पता देर रात्रि तब चला जब उन्हें उदरशूल, दस्त होने के साथ वमन आदि की शिकायत हुई। स्वामीजी को सारी स्थिति का पता चल जाने पर उन्होंने अपने पाचक को पास बुलाकर उसे कुछ रूपये देते हुए कहा कि इन्हें लेकर नेपाल के राज्य आदि किसी ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां तुझे पकड़ा न जा सके और तुझे अपने प्राण न खोने पड़ें। अपने प्राणहंता की इस प्रकार रक्षा कर उन्होंने इतिहास में एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 

स्वामीजी ने पूना में अपने जीवन की घटनाओं विषयक एक उपदेश दिया था। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के निवेदन पर अपनी संक्षिप्त आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनेक खोजपुर जीवन चरित्र प्रकाश में आये जिनमें पं. लेखराम, पं. गोपालराव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, मास्टर लक्ष्मण आर्य, श्री हरविलास सारदा, श्री रामविलास शारदा आदि प्रमुख हैं। यह सभी जीवनचरित रामायण एवं महाभारत की ही भांति आदर्श, प्रेरणादायक तथा पाठक में धर्म के प्रति अनुराग व बोध उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इन्हें पढ़कर एक दस्यु वृत्ति का मनुष्य भी साधू बन सकता है और सच्चा मानव जीवन व्यतीत कर सकता है। पाठकों को इन जीवन चरितों से लाभ उठाना चाहिये। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

 

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