तस्लीमा नसरीन मुस्लिम कट्टरपंथ के विरूद्घ आवाज उठाने के लिए प्रसिद्घ रही हैं। उन्होंने इस्लाम के कथित भ्रातृत्व के कितने ही मिथकों को तोडक़र लोगों के सामने नंगा करने का साहस किया है। वह नारी के बराबरी के अधिकारों के लिए इस्लाम के भीतर भी और बाहर भी संघर्ष करने के लिए जानी जाती रही हैं। उन्होंने अपने साथ वह सब कुछ सहा है जो नारी होने के कारण उन्हें इस्लाम की चारदीवारियों के भीतर सहने को मिल ही जाना चाहिए था।
अब उन्होंने समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर अपने विचार प्रकट किये हैं। उनका कहना है कि समान नागरिक संहिता लागू होनी ही चाहिए। इसे वह नारी के शोषण से आरंभ करती हैं और स्पष्ट करती हैं कि नारी को यदि शोषण मुक्त समाज की कल्पना करने और उसमें जीने का अधिकार है तो उसके लिए आवश्यक है कि उसे समान नागरिक संहिता के अंतर्गत सभी अधिकार मिलें। कहने का अभिप्राय है कि नारी को उपभोगों की एक ‘बाजारू वस्तु’ से ऊपर उठाकर वह देखना चाहती हंै और बताना चाहती हैं कि नारी वर्तमान में किसी भी राज्य या राष्ट्र की एक नागरिक के अतिरिक्त और कुछ नही है और लोकतंत्र में नागरिकों को समान रूप से मौलिक अधिकार बिना किसी भेदभाव के प्राप्त होते हैं। उन्हें किसी भी बाहरी आवरण से लौकिक विभिन्नता के आधार पर विभाजित करके नही देखा जा सकता।
श्रीमती नसरीन का कहना है कि जो देश मजहब के आधार पर बनता है उसके कट्टरपंथी बन जाने की अधिक संभावना होती है। उनका यह संकेत सीधे-सीधे पाकिस्तान की ओर था। साथ ही इसका अभिप्राय बांग्लादेश से भी है जहां कुछ लोगों ने अभी पिछले दिनों बांग्लादेश को एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाने के लिए वहां के सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाये थे, परंतु ऐसे लोगों को वहां के न्यायालय से निराशा ही हाथ लगी थी। इस प्रकार बांग्लादेश के सर्वोच्च न्यायालय से निराश होकर लौटे इन लोगों के इस प्रयास के पश्चात यह स्पष्ट हो गया है कि बांग्लादेश भी एक मजहबी राष्ट्र बना रहेगा। जिसका अभिप्राय है कि वहां भी लोगों के मध्य लौकिक और मजहबी आधार पर पक्षपात जारी रहेगा। जिसके लिए तस्लीमा का मानना है कि एक साम्प्रदायिक या मजहबी देश में मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति की कल्पना भी नही की जा सकती।
तस्लीमा की यह मान्यता उचित ही है। जो देश साम्प्रदायिक आधार पर अपने देश में लोकतंत्र चला रहे हैं वे वास्तव में लोकतंत्र का नाटक कर रहे हैं। वास्तव में लोकतंत्र उनके यहां नही है। पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों तब तक स्वस्थ लोकतांत्रिक देश नही हो सकते जब तक वे मजहब को शासन की नीतियों का आधार बनाये रखेंगे। इसलिए इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों को वे सारे मौलिक अधिकार नही मिल सकते जो आज के लोकतांत्रिक विश्व समाज के लिए आवश्यक हैं। यह बड़ा ही दु:ख का विषय है कि संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के होते हुए भी विश्व में दर्जनों देश मानवाधिकारों को कुचलकर अपने आपको मजहबी देश घोषित किये रहते हैं। इन देशों में मजहबी अल्पसंख्यकों पर कठोर और अमानवीय अत्याचार होते हैं और विश्व समाज के सारे मानवाधिकारवादी संगठन मौन रहकर उन अत्याचारों को देखते रहते हैं। इनका यह मौन मानवता के प्रति अपराध है और इनके इस मौन के कारण जहां-जहां लोग किसी साम्प्रदायिक देश के कानूनों का शिकार होकर उत्पीडि़त हो रहे हैं या मर रहे हैं, उन सबकी बददुआएं इस नंगी और बेढंगी मानवता को डुबाने के लिए पर्याप्त हैं। इनकी ये ‘बददुआएं’ एक साथ कही एकत्र हो रही हैं जो ‘कयामत’ के दिन मानवता के कथित रखवालों से अपना हिसाब जब साफ करने की जिद करेगी तो जो लोग आज इनके साथ हो रहे अन्याय को तटस्थ होकर देख रहे हैं वे सबसे पहले ‘फना’ किये जाएंगे। अच्छा हो कि विश्व में मानवाधिकारों के रखवाले समय पर बोलें क्योंकि :-
‘‘वक्त पर काफी है कत्रा अब्रे खुश अंजाम का।
जल चुका जब खेत मेंह बरसा तो फिर किस काम का।।’’
तस्लीमा की संवेदना जब बोलती है तो वह खुलकर बोलती है और वह भारतीय धर्म की वास्तविक मानवतावादी सोच से अत्यंत प्रभावित हंै। वह स्पष्ट कहती हैं कि भारत में धर्मनिरपेक्षता इसलिए जीवित है कि हिन्दुत्व स्वयं में एक ऐसी जीवन शैली है जो मानती है कि :-
‘‘दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोडिय़े जब लगि घट में प्राण।।’’
यह सच भी है कि जब तक व्यक्ति के भीतर दया भावना है तभी तक वह धार्मिक व्यक्ति है और ऐसे धार्मिक व्यक्ति से किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के प्रति असंवेदनशील होने की अपेक्षा नही की जा सकती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो देश स्वयं को साम्प्रदायिक या मजहबी देश घोषित कर देते हैं वे समझो स्वयं को ‘निर्दयी’ घोषित करते हैं। अपनी निर्दयता को छुपाने के लिए वे स्वयं को मजहबी बताते हैं, और मजहब को सारी मानवता का रखवाला मानकर लोगों को भ्रम में डालते हैं। उनके इस ‘सच’ को सारे प्रगतिशील लेखक, चिंतक और विश्वसंगठन भली प्रकार जानते हैं, परंतु उनके मुंह सिले रखने और जो कुछ हो रहा है वह न्यायसंगत है ऐसा बोलने के कड़े निर्देश होते हैं। दुर्भाग्य की बात ये है कि ये लोग या विश्व संगठन वैसा ही बोलते हैं जैसा उनसे कहा जाता है। उनकी कथित प्रगतिशीलता, लोकतांत्रिक स्वस्थ सोच और मानवता एक ओर रखी रह जाती हैं। हम 21वी शताब्दी का प्रारंभ विश्व में प्रचलित उन्हीं विषमताओं ओर विसंगतियों से कर चुके हैं जो मध्यकालीन इतिहास की विरासत के रूप में हमारा पीछा कर रही हैं और जिन्होंने विश्व में रक्तरंजित कहानियों का पूर्व में भी कीत्र्तिमान स्थापित किया है। जहां लोग ऐसी रक्त रंजित विरासत को आज की मानवता की धरोहर मानने के लिए हठ कर रहे हों वहां समान नागरिक संहिता की बात सोचना भी बेमानी है।
ऐसे में तस्लीमा का चिंतन स्वागत योग्य है। विश्व माने या न माने यह अलग बात है पर वह समय पर बोलती हैं और उनके लिए यही पर्याप्त है। क्योंकि वह उनसे तो उत्तम ही हैं जो तटस्थ होकर मौन साधे बैठे हैं और कहे जा रहे हैं कि सभी धर्म समान हैं, सभी मानवता की रक्षा करते हैं, सभी ईश्वर से मिलने के मार्ग हैं। अब उन्हें कौन समझाये कि इन मजहबों की भूल भुलैयां में ईश्वर से न मिलकर कितने करोड़ लोग मौत से मिलते जा रहे हैं या मिला दिये गये हैं, तनिक उनकी भी चिंता कर लो? यदि सारे मजहब और उनकी शिक्षाएं ईश्वर से मिलाती हैं तो सबके लिए मजहब अलग-अलग कानून क्यों बनाता है, क्यों वह मानव मानव के बीच अंतर करता है? सोचना ही पड़ेगा। हमारा मानना है कि पूर्व में भी मजहब के कारण ही विश्व में युद्घ महायुद्घ हुए हैं और तीसरा विश्वयुद्घ भी ‘पानी’ को लेकर नही अपितु मजहब को लेकर ही होगा। पानी बहाना हो सकता है, पर वास्तविकता नही। मजहब एक ऐसा चालाक भेडिय़ा है जो लड़ाई का कारण ‘पानी’ को बता देगा और स्वयं बच जाएगा। तब यदि कोई ‘प्रगतिशील’ लेखक बाद के लिए बच गया तो वह भी मजहबी भाषा बोलकर ‘पानी’ को ही दोषी ठहरा देगा और इस प्रकार एक ‘दानव’ इन प्रगतिशील न्यायाधीशों के न्यायालय से फिर बरी कर दिया जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वह फिर भविष्य के लिए अनिष्टकारी होगा।