मजहब वही, जो बताया जाए

talibanडा. वेद प्रताप वैदिक

बांग्लादेश में प्रो. रिजाउल करीम और पाकिस्तान में सिख नेता सूरनसिंह की हत्या क्या दर्शाती है? क्या यह नहीं कि हमारे दक्षिण एशिया के लगभग सभी प्रमुख देशों में हिंसा का बोलबाला बढ़ता जा रहा है। अफगानिस्तान तो इस मामले में सबसे आगे है। वहां थोक वारदातें होती हैं। दर्जनों लोग मारे जाते हैं और सैकड़ों घायल हो जाते हैं। नेपाल, बर्मा, श्रीलंका और मालदीव भी कमोबेश इसी रोग से ग्रस्त हैं। सबसे ज्यादा आश्चर्य की बात तो यह है कि इन जघन्य हत्याओं की जिम्मेदारी कई संगठन खम ठोक कर लेते हैं और कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर पाता। अभी पाकिस्तान और बांग्लादेश में यही हुआ है। इन दोनों मामलों में हत्या करने वाले संगठनों का दावा है कि इस तरह की हत्याएं तब तक होती रहेंगी, जब तक कि इन देशों में इस्लामी शासन की स्थापना नहीं हो जाती।

यहां असली सवाल यह है कि इस तरह की हत्याएं सदियों से होती चली आ रही हैं लेकिन इनके बावजूद इस्लामी शासन आज तक कहीं भी क्यों नहीं स्थापित हो पाया? शायद इसलिए कि इन हत्याओं से इस्लामी शासन का कुछ लेना-देना नहीं है। ये हत्याएं अगर बड़े पैमाने पर भी होती रहें, जैसे कि धर्म के नाम पर यूरोप और अरब देशों में होती रही हैं, तो भी नतीजा शून्य ही निकलेगा। धर्म कोई बाहर से थोपी हुई चीज़ नहीं होती। वह कमल की तरह अंदर से खिलता है। आध्यात्मिकता के बिना धर्म तो थोथा चना होता है। यह थोथा चना ही आजकल घना बजता है। इसी की वजह से आतंक, युद्ध, अत्याचार और रक्तपात होता रहता है। जितने भी संगठित मजहब हैं, वे प्रायः मनुष्यों को भुलावे में रखते हैं। वे राजनीति से भी घटिया कुकर्मों में अपने अनुयायिओं को फंसाए रखते हैं। आजकल इस्लाम के नाम पर यही हो रहा है।

इस प्रवृत्ति को रोकना हर राज्य का धर्म है, कर्तव्य है, खासतौर से उन मुल्कों का, जो अपने आप को इस्लामी कहते हैं। राज्य के पास दंड की शक्ति होती है लेकिन मजहब के नाम पर होने वाले अपराधों को आप सिर्फ पुलिस और फौज के दम पर नहीं रोक सकते। उनके लिए बंदूक, तोप, तलवार छोटे पड़ रहे हैं। राज्य इनका इस्तेमाल करना चाहे तो जरुर करे लेकिन राज्य और समाज, दोनों को सोचना होगा कि इस्लाम का कौन सा रुप वह नौजवानों के सामने रखे? आम आदमी के लिए मजहब वही होता है, जो उसे समझाया-बताया जाता है। यह सिद्धांत वेदों, त्रिपिटक, बाइबिल, कुरान और गुरु ग्रंथ साहब पर एक समान लागू होता है। यदि मुस्लिम देशों के मुल्ला-मौलवी, आलिम-फाजिल लोग, इमाम और मुफ्ती लोग सही संकल्प कर लें तो वे सारे राष्ट्रों की फौज और पुलिस से ज्यादा शक्तिशाली सिद्ध हो सकते हैं।

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