कैसे फिर बने सम्यक क्रान्ति का मंथन पर्व ?

मकर सक्रान्ति पर विशेषMakara-Sankranti
आइये, मकर संक्रान्ति को फिर बनायें
सम्यक क्रान्ति का मंथन पर्व
या
कैसे फिर बने सम्यक क्रान्ति का मंथन पर्व ?
संक्रान्ति यानी सम्यक क्रान्ति  – इस नामकरण के नाते तो मकर संक्रान्ति सम्यक का्रंति का दिन है; एक तरह से सकारात्मक बदलाव के लिए संकल्पित होने का दिन। ज्योतिष व नक्षत्र विज्ञान के गणित के मुताबिक कहेें, तो मकर संक्रान्ति ही वह दिन है, जब सूर्य उत्तरायण होना शुरु करता है और एक महीने, मकर राशि में रहता है; तत्पश्चात् सूर्य, अगले पांच माह कुंभ, मीन, मेष, वृष और मिथुन राशि में रहता है। इसी कारण, मकर संक्रान्ति पर्व का एक नाम ’उत्तरायणी’ भी है। दक्षिण में इसे पोंगल के रूप में मनाया जाता है। पहले दिन-भोगी पोंगल, दूसरे दिन-सूर्य पोंगल, तीसरे दिन-मट्टू पोंगल  और चैथे तथा आखिरी दिन-कन्या पोंगल। मट्टू पोंगल को केनू पोंगल भी कहते हैं। भोगी पोंगल पर साफ-सफाई कर कूङे का दहन, सूर्य पोंगल को लक्ष्मी पूजा व सूर्य को नैवैद्य अर्पण, मट्टू पोंगल को पशुधन पूजा, कन्या पोंगल को बेटी और दामाद का विशेष स्वागत-सत्कार। 13 जनवरी का दिन पंजाब-हरियाणा के कथानक पर आधारित लोहङी पर्व के लिए तय है ही।
सूर्य पर्व
एक दिन का हेरफेर हो जाये, तो अलग बात है, अन्यथा मकर संक्रान्ति का यह शुभ दिन, हर वर्ष अंग्रेजी कैलेण्डर के हिसाब से 14 जनवरी को आता है। इसका कारण यह है कि मकर संक्रान्ति एक ऐसा त्योहार है, जिसकी तिथि का निर्धारण सूर्य की गति के अनुसार होता है, जबकि भारतीय पंचाग की अन्य समस्त तिथियां, चन्द्रमा की गति के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। पंचाग के मुताबिक, इस वर्ष सूर्य 14 जनवरी की आधी रात के बाद प्रातः एक बजकर, 26 मिनट पर मकर राशि में प्रवेश करेगा। अब चूंकि मकर राशि में प्रवेश के बाद का कुछ समय संक्रमण काल माना जाता है; अतः सूर्योदय के सात घंटे, 21 मिनट के बाद यानी दिन में एक बजकर, 45 मिनट से संक्रान्ति का पुण्यदायी समय शुरु होगा। इस नाते, इस वर्ष मकर संक्रान्ति स्नान 15 जनवरी को होगा। स्पष्ट है कि मकर संक्रान्ति, सूर्य पर्व है।
दिशा-दशा बदलाव सूचक पर्व
इससे पूर्व 16 जुलाई को सूर्य, कर्क राशि में प्रवेश करने के बाद करीब छह माह के दौरान सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक और धनु राशि में रहता है। छह माह की यह अवस्था, सूर्य की दक्षिणायण अवस्था कहलाती है। दक्षिणायण अवस्था में सूर्य का तेज कम और चन्द्र का प्रभाव अधिक रहता है। दक्षिणायण में दिन छोटे होने लगते हैं और रातंे लंबी। यह अवस्था, वनस्पतियों की उत्पत्ति में सहायक मानी गई है। उत्तरायण होते ही, सूर्य का तेज बढ़ने लगता है। दिन, लंबे होने लगते हैं और रातें, छोटी। इस तरह मकर संक्रान्ति एक तरह से सूर्य की दिशा और मौसम की दशा बदलने का सूचक पर्व भी है। शिशिर ऋतु की विदाई और बसंत के आगमन का प्रतीक पर्व!
इससे पूर्व 14 दिसंबर से 13 जनवरी तक का समय एक ऐसे महीने के तौर पर माना गया है, जिसमें शुभ कार्य न किए जायें; एक तरह से शादी-ब्याह के उत्सवों के बाद संयम की अवधि। इस अवधि को ’खरमास’ भी कहा गया है।
’’पौष-माघ की बादरी और कुवारा घाम, ये दोनो जो सह सके, सिद्ध करे सब काम।’’
हम सभी जानते हैं कि पौष के महीने में माघ की तुलना में ज्यादा कठिन बदली होती है। श्रावण-भादों की तरह इस अवधि में भी सूर्य से पूर्ण संपर्क नहीं होता। जठराग्नि मंद पङ जाती है। भोजन में संयंम जरूरी हो जाता है। संभवतः इसलिए भी उक्त अवधि को ’खरमास’ के तौर पर शुभ कार्यों हेतु वर्जित किया गया हो। इसी तरह उत्तरायण में शरीर छूटे, तो दक्षिणायण की तुलना में उत्तम माना गया है। अब इन मान्यताओं का विज्ञान क्या है ? कभी जानना चाहिए।

दान पर्व
सामान्यतया स्नान, दान, तप, श्राद्ध और तर्पण आदि मकर संका्रन्ति के महत्वपूर्ण कार्य माने गये हैं। चूङा, दही, उङद, तिल, गुङ, गो आदि मकर संका्रन्ति के दिन दान के भी पदार्थ और स्वयं ग्रहण करने के भी। महाराष्ट्र में विवाहिता द्वारा अपने पश्चात् पहली संका्रन्ति पर अन्य सुहागिनों को कपास, तेल और नमक दान की प्रथा है। तिल-गुङ बांटना और मीठे बोल का आग्रह करने का सामान्य चलन तो है ही। स्नान करें, पर्व कर्म करें और सूर्य का आशीष लें; किंतु जयपुर, राजस्थान में आप मकर संक्रन्ति को पंतंग उङाने की उमंग के पर्व के रूप में पायंेगे। आकाश, पंतंगों और डोर के संजाल से पटा होगा और छतें, हर उम्र के लोगों से। जैसे रंग-बिरंगी छतरी बनाकर सभी सूर्य का स्वागत करने निकल आये हों। यूं राजस्थान में मकर संक्रान्ति का दूसरा रूप सुहागिनों द्वारा सुहाग सूचक 14 वस्तुओं का पूजन तथा उनका ब्राह्मणों को दान के रूप में देख सकते हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस दिन खिचङी का भोजन करने तथा उङद-चावल, नमक, खटाई आदि दान करने का प्रावधान है। इस नाते, वहां इस पर्व को ’खिचङी’ कहकर पुकारा जाता है। असम में मकर संक्रान्ति को ’माघ बिहू’ व ’भोगाली बिहू’ के नाम से जानते हैं।
संगम स्नान पर्व
’’माघ मकर गति जब रवि होई। तीरथपति आवहू सब कोई।।’’
अर्थात माघ के महीने मंे जब सूर्य मकर राशि में प्रवेश करे, तो सभी लोग तीर्थों के राजा यानी तीर्थराज प्रयाग में पधारिए। प्रयाग यानी संगम। संगम सिर्फ नदियों का ही नहीं, विज्ञान और धर्म, विचार और कर्म, सन्यासी और गृहस्थ तथा धर्मसत्ता, राजसत्ता और समाजसत्ता का संगम। कभी ऐसा ही संगम पर्व रहा है, मकर संक्रान्ति। कोई न्योता देने की जरूरत नहीं; सभी को पता है कि हर वर्ष, मकर संका्रन्ति को प्रयाग किनारे जुटना है। सभी आते हैं, बिना बुलाये।
प्रयाग किनारे ही क्यों ?
इस प्रश्न के उत्तर में जानकार कहते हैं कि खासकर, इलाहाबाद प्रयाग की एक विशेष भौगोलिक स्थिति है। मकर संक्रान्ति को प्रयाग, आकाशीय नक्षत्रों से निकलने वाली तरंगों का विशेष प्रभाव केन्द्र होता है। जिन-जिन तिथियों में ऐसा होता है, उन-उन तिथियों में प्रयाग में विशेष स्नान की तिथि होती है। इन तिथियों को मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष महत्व है। बहुत संभव है कि इसी तरह ऊपर उत्तराखण्ड में स्थित पंच प्रयागों की भी कोई खास स्थिति हो; कभी अध्ययन करें।
गंगासागर एक बार
जहां गंगा, समुद्र से संगम करती है, वह स्थान ’गंगासागर’ के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर कपिल मुनि द्वारा राजा सगर के 60 हजार पुत्रों के भस्म करने की कथा है। राजा भगीरथ के तप से धरा पर आई मां गंगा द्वारा इसी स्थान पर सगर पुत्रों के उद्धार का कथानक है। संभवतः इसीलिए मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगासागर में जैसा स्नान पर्व होता है, कहीं नहीं होता। क्या उत्तर, क्या दक्षिण और क्या पूर्व, क्या पश्चिम… पूरे भारतवर्ष से लोग गंगासागर पहुंचते हैं कहते हुए – ’’सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार।’’ कपिल मुनि का आश्रम, आज भी गंगासागर के तीर्थ यात्रियों के लिए विशेष आकर्षण का पूज्य स्थान है। आखिरकार, कपिल मुनि का दिया शाप न होता, तो भगीरथ प्रयास क्यों होता और गंगा, गंगासागर तक क्यों आती ?
इस वर्ष 23 अप्रैल से सिंहस्थ कुंभ है। हरिद्वार का अर्धकुंभ शुरु हो चुका है। अर्धकुंभ, 22 अप्रैल तक चलेगा। इलाहाबाद में प्रयाग का माघ मेला, वार्षिक आयोजन है। 144 वर्ष बाद आता है, महाकुंभ। वर्ष 2025 में इलाहाबाद का प्रयाग, महाकुंभ का स्थान बनेगा। सभी स्नान, दान और ध्यान के अद्भुत मौके होंगे।
मंथन पर्व
गौर कीजिए कि आज हम मकर संक्रान्ति को माघ मेले और अर्धकुंभ के प्रथम स्नान पर्व के रूप में ज्यादा भले ही जानते हों, किंतु वास्तव में मकर संक्रान्ति, एक मंथन पर्व है; सम्यक क्रान्ति हेतु चिंतन-मनन का पर्व। माघ मेले के दौरान समाज, राज और प्रकृति को लेकर किए अनुसंधानों का प्रदर्शन, उन पर मंथन, नीति निर्माण, रायशुमारी, समस्याओं के समाधान और अगले वर्ष के लिए मार्गदर्शी निर्देश – इन सभी महत्वपूर्ण कार्यों की विमर्श शालाओं का संगम जैसा हो जाता था कभी अपना पौराणिक प्रयाग। ऋषियों के किए अनुसंधानों पर राज और धर्मगुरु चिंतन कर निर्णय करते थे। नदी-प्रकृति के साथ व्यवहार हेतु तय पूर्व नीति का आकलन और तद्नुसार नव नीति का निर्धारण का मौका भी थे, माघ मेले और कुंभ। जो कुछ तय होता था धर्मगुरु, अपने गृहस्थ शिष्यों के जरिए उन अनुसंधानों/नीतियों/प्रावधानांे को समाज तक पहुंचाते थे। माघ मेला और कंुभ में कल्पवास का प्रावधान है ही इसलिए।
कितना महत्वपूर्ण कल्पवास ?
पौष माह के 11 वें दिन से शुरु होकर माघ माह के 12वें दिन तक कल्पवास करने का प्रावधान है। कल्पवासी, प्रयाग मंे आज भी इस अवधि के दौरान जुटते हैं। आमतौर पर कल्पवासी, उम्रदराज होते हैं; एक तरह से परिवार के ऐसे मुखिया, जो अब मार्गदर्शी भूमिका में हैं। ये परिवार प्रमुख, कल्पवास के दौरान अपने परिवार से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संबद्ध गुरु परिवार से मिलते हैं। उनके मिलने के स्थान तय होते हैं। इन स्थानों पर गुरु सानिध्य में कल्पवासी, बेहतर गृहस्थ जीवन का ज्ञान प्राप्त करते थे; यही पंरपरा है। एक कालखण्ड ऐसा भी आया कि जब माघ मेला और कुंभ, कारीगरों की कला-प्रदर्शनी के भी माध्यम बन गये।
यूं बदला स्वरूप
1960 के दशक मंे साधु अखाङों में धन का प्रभाव और धन जुटाने में समर्थ धर्म प्रवचन करने वालों का वर्चस्व बढ़ा। इस वर्चस्व के अखाङों से निकलकर समाज के बीच छा जाने की मंशा ने हमारे माघ मेले और कुंभ मंथन मेलों का स्वरूप बदल कर रख दिया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हमारे स्नान पर्व, धर्मसत्ता के दिखावट और सजावट के पर्व बनकर रह गये हैं।
कैसे फिर बने सम्यक क्रान्ति का मंथन पर्व ?
आइये, मकर संक्रान्ति को फिर से सम्यक क्रान्ति मंथन पर्व बनायें; जिन नदियों के किनारे जुटते हैं, उनकी ही नहीं, राज-समाज और संतों की अविरलता-निर्मलता सुनिश्चित करने का पर्व। यह कैसे हो ? राज, समाज और प्रकृति का प्रतिनिधित्व करने वाले ऋषियों के बीच राष्ट्र और प्रकृति के प्रति जन-जन के कर्म संवाद की अविरलता और निर्मलता सुिनश्चित किए बगैर यह संभव नहीं। आइये, यह सुनिश्चित करें। इसी से भारत, पुनः भारतीय हो सकेगा; मौलिक भारत।

 

 

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