मेक इन इंडिया की चुनौतियां

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हिमांशु शेखर
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बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के तकरीबन सभी बड़े काॅरपोरेट घरानों के मालिकों की मौजूदगी में नई दिल्ली में ‘मेक इन इंडिया’ योजना की औपचारिक शुरुआत की। प्रधानमंत्री की इस महत्वकांक्षी योजना को कारोबारी घरानों समेत कई विशेषज्ञ क्रांतिकारी बता रहे हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसकी खामियों की ओर भी इशारा कर रहे हैं। ऐसे में इस योजना को सही संदर्भ में समझना जरूरी हो जाता है।
सरकार की मेक इन इंडिया पहल सीधे-सीधे मैन्यूफैक्चरिंग यानी विनिर्माण क्षेत्र से जुड़ी हुई है। इसके तहत पूरा जोर इस बात पर है कि देश में विनिर्माण बढ़ाया जाए। प्रधानमंत्री ने कई मौकों पर इस बारे में जो बातें बोली हैं, उससे लगता है कि वे इस क्षेत्र को देश के आर्थिक विकास को गति देने के साथ बेरोजगारी कम करने के लिए भी जरूरी मानते हैं। मेक इन इंडिया योजना शुरू करते वक्त प्रधानमंत्री ने जो बातें बोलीं, उससे एक बात यह भी निकलती है कि वे किसी भी तरह भारत में निवेश लाना चाहते हैं और इसके लिए कारोबारी घराने जिन जरूरी शर्तों को पूरा करने की बात करते हैं, उन्हें पूरा करने के लिए मोदी सरकार प्रतिबद्ध है।
वैसे इस योजना के तहत निवेश बढ़ाने के मकसद से सरकार ने ऐसे 25 महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान की है जिनमें सरकार के मुताबिक विश्व स्तर पर भारत अग्रणी बन सकता है। इन क्षेत्रों में आॅटोमोबाइल, रसायन, सूचना तकनीक, दवा, कपड़ा, बंदरगाह, उड्डयन, चमड़ा, पर्यटन एवं आवभगत और रेलवे शामिल हैं। इसके अलावा मेक इन इंडिया पहल के तहत उन चुनिंदा घरेलू कंपनियों पर भी सरकार ध्यान केंद्रित कर रही है जो नवाचार और नई तकनीक के मामले में आगे हैं। सरकार इन्हें वैश्विक मंच मुहैया कराने में मदद करना चाहती है।
जिस मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के बूते प्रधानमंत्री देश का आर्थिक कायापलट करने का सपना पाले हुए हैं, उसकी हालत बेहद बुरी है। इस क्षेत्र की सेहत सुधारना ही प्रधानमंत्री की महत्वकांक्षी योजना ‘मेक इन इंडिया’ की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। विश्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2013 में भारत की जीडीपी में इस क्षेत्र का योगदान सिर्फ 13 फीसदी रहा। यह पिछले दस साल में सबसे बुरा प्रदर्शन है। दुनिया में एक दर्जन से अधिक ऐसे देश हैं, जिनका प्रदर्शन इस मामले में भारत से अच्छा रहा है। यहां तक की पाकिस्तान और बांग्लादेश की हालत भी इस मामले में भारत के मुकाबले बेहतर है। इस खराब प्रदर्शन के लिए जानकार उत्पादकता के स्तर पर व्याप्त कमियों को जिम्मेदार मानते हैं। सरकार की राय भी कुछ ऐसी ही लगती है। तब ही आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों के मामलों में भारत अन्य एशियाई देशों के साथ बराबरी पर खड़ा है लेकिन खास उत्पाद तैयार करने वाले उद्योगों में यह हिस्सेदारी काफी कम है। आर्थिक समीक्षा कहती है कि इसका मतलब यह हुआ कि भारत के श्रमिकों की उत्पादकता कम है। वहीं चीन, इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया इस मामले में भारत से आगे निकल गए हैं।
इससे जो बात निकलकर आती है, वो यह है कि अगर नरेंद्र मोदी को मेक इन इंडिया को सफल बनाना है तो उन्हें भारत के उद्योग जगत में काम करने के लिए जो मानव बल उपलब्ध है, उसके सही प्रशिक्षण का बंदोबस्त करना होगा। योजना आयोग के मुताबिक भारत में जितना मानव कार्य बल है, उसका 70 फीसदी साक्षर नहीं है। विश्व बैंक का एक आंकड़ा यह भी है कि सिर्फ 20 फीसदी भारतीय कंपनियां ही काम के दौरान काम का प्रशिक्षण देती हैं। प्रधानमंत्री इस समस्या से निपटने के लिए स्किल इंडिया का हवाला देते हैं। इस सरकारी योजना के तहत योग्यता और क्षमता विकास का काम हो रहा है। लेकिन यह योजना उतने बड़े स्तर पर कम से कम अभी तो काम करते हुए नहीं दिखती, जितनी इस देश के मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की तस्वीर बदलने के लिए जरूरी है।
जानकारों की मानें तो मेक इन इंडिया को सफल बनाने के लिए सबसे जरूरी है सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यमों यानी एमएसएमई को प्रमुखता से इस योजना के साथ जोड़ना। वैश्विक स्तर पर आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने और सरकार से अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के बावजूद हाल के सालों में इस क्षेत्र की विकास दर दस फीसदी से ऊपर रही है। जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी तकरीबन आठ फीसदी है।
मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के कुल उत्पादन में एमएसएमई की हिस्सेदारी 45 फीसदी है और भारत से होने वाले निर्यात में 40 फीसदी। कृषि के अलावा देश में रोजगार के जितने भी साधन हैं, उनमें मिल रहे रोजगारों में 79 फीसदी हिस्सा एमएसएमई क्षेत्र का है। ये आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि यह क्षेत्र देश के विकास के लिए कितना जरूरी है और बेरोजगारी कम करने में भी इस क्षेत्र की कितनी बड़ी भूमिका हो सकती है।
भारत सरकार की इस पहल की अपनी एक वैश्विक राजनीति भी है। जिस दिन नरेंद्र मोदी दिल्ली में इस योजना की औपचारिक शुरुआत कर रहे थे, उसी दिन चीन ने भी अपने यहां ‘मेड इन चाइना’ अभियान शुरू किया। भले ही मोदी ने मेक इन इंडिया की शुरुआत पर कर राहतों की झड़ी नहीं लगाई लेकिन चीन ने अपने यहां निवेशकों को आकर्षित करने के मकसद से कर राहतों की बरसात कर दी। पहले से ही मैन्युफैक्चरिंग में दुनिया में सबसे आगे चल रहा चीन अपनी इस नई योजना के तहत इस क्षेत्र में अपनी स्थिति को और मजबूत करना चाह रहा है। दरअसल, मैन्युफैक्चरिंग में चीन की बादशाहत की एक बड़ी वजह हांगकांग भी रहा है। खास तौर इलैक्ट्राॅनिक्स उपकरणों के मामले में।
हांगकांग में अभी अशांति चल रही है। वहां के लोग अपने अधिकारों की मांग को लेकर सड़कों पर हैं और छात्रों की अगुवाई में चल रहे आंदोलन ने आक्रामक रूप ले लिया है। चीन सरकार की बातचीत के वादे के बाद हांगकांग का आंदोलन स्थगित हुआ था लेकिन बातचीत से चीन के पीछे हटने के बाद एक बार फिर हांगकांग का आंदोलन जोर पकड़ते दिख रहा है। हांगकांग की अशांति की वजह से वहां के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र पर असर पड़ रहा है। ऐसे में भारत द्वारा मेक इन इंडिया की पहल से चीन का चौकन्ना होना स्वाभाविक है। क्योंकि चीन ने मैन्यूफैक्चरिंग में अपनी बादशाहत कायम करने के लिए जिन संसाधनों का इस्तेमाल किया, वे संसाधन भारत के पास भी हैं।

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