माखन चखत मोहन रहत !


मधुगीति ब्रज

माखन चखत मोहन रहत, गोपिन के मन गोपन रमत;
दधि के बहाने दग्ध करि, द्रुति इंद्रियन की वे तकत !

हौलें घुसत हृद कुरेदत, बुद्धि विवेकन प्रसारत;
मुस्कान दै उर सहेजत, सुर सहजता कौ प्रस्फुरत !
प्राणन लखत वाणन हनत, हर अहं कौ चूरन करत;
विधि विधानन ते वे वरत, वृत वृत्ति की बाधा हरत !

सूक्षम करत वर्ताव चित, लै सखा भाव विराट गति;
द्युति दै दिखावत निज जगत, जगतौ जगातौ प्रभा युत !
अखिलेश कौ खिलनौ खुलत, क्षण विलक्षण चक्रन लखत;
‘मधु’ परीक्षण ते ह्वै विरत, राधा की चितवन कूँ चहत !

कबहू कुहकि कबहू चहकि !

कबहू कुहकि कबहू चहकि, कान्हा कलेवर नचावत;
पग ठुमक दै एक राग लै, करि कमरि टेड़ी सुहावत !

नैनन शरारत सी करत, देखत हैं को को देखवत;
धुनि में मगन ताकत गगन, वे नित्य नव अभिनव करत !
चाहनी सब की जब लखत, मन सहमि माँ गोदी चढ़त;
पुनि तान आ थिरकत तुरत, भव भाव दिखलावत अच्युत !

मोहन मनोहर उर चहन, तुतला कें वे बोलत रहत;
समझत कछुक कछु ना रहत, आनन्द लै हर कोउ फुरत !
भंगिमा अद्भुत दिखावत, सैनन ते सबकूँ रिझावत;
‘मधु’ कूँ सिखानौ कछु चहत, प्रभु वाल बन विचरत जगत !

: गोपाल बघेल ‘मधु’

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