पुरुष से ऊंचा स्‍थान है नारी का हिंदू परंपरा में ? – दीपा शर्मा

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दीपा शर्मा जी का यह आलेख प्रवक्ता.कॉम ने उनके “पुरुष से ऊंचा स्‍थान है नारी का हिंदू परंपरा में” URL : https://www.pravakta.com/?p=12298 में किये गए कमेन्ट से संपादित कर प्रकाशित किया है, प्रवक्ता.कॉम का इस लेख को प्रकाशित करने का उद्देश्य बस एक स्वस्थ बहस को मंच देना मात्र है

जिस ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ का डंका पीटकर हिन्दू धर्म और संस्कृति पर गर्व करने वाले घोषणा करते हैं कि हमारे धर्म-शास्त्रों में स्त्री को देवी का रूप मानकर उसकी पूजा करने का प्रावधान है, वह इसी मनुस्मृति के तीसरे अध्याय के छप्पनवें श्लोक की पहली पंक्ति हैं। किसी ने भी यह सोचने की जरूरत नहीं समझा कि जिस मनु स्मृति ने स्त्रियों की अस्मिता को लांछित करने में कोई कोर-कसर बाक़ी न रखा हो उसमें यह श्लोक आया ही क्यों? लेकिन करें क्या, इस श्लोकार्द्ध का अर्थ ऊपर से देखने में इतना सीधा और सरल है कि इसको किसी के मन में कोई संशय ही नहीं पैदा होता। इसके अतिरिक्त यह कारण भी हो सकता है कि अधिकांश लोगों को यह पता ही न हो कि यह किस ग्रन्थ में है वास्तविक अर्थ तक कैसे पहुँचेगे। इस श्लोक को यदि श्लोक संख्या ५४ और ५५ के साथ पढ़ा जाये तो स्पष्ट होगा कि ‘पूजा’ का आशय विवाह में दिया जाने वाला स्त्री धन है और मनु ने इससे दहेज प्रथा की शुरुआत की थी। स्त्री-विमर्श के पैरोकारों को चाहिये कि वे इस दुष्टाचार का पर्दाफ़ाश करें।

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ के द्वारा स्मृतिकार कहीं से भी यह नहीं कहना चाहता कि स्त्री पूज्यनीय है। यदि बहुप्रचारित (यद्यपि दुष्प्रचारित कहना ज्यादा सटीक है) अर्थ ही लिया जाए तो भी यह सिद्ध नहीं होता कि स्त्रियों के बारे में इससे भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व रेखांकित होता है। यह श्लोक हाईपोथीसिस की बात करता है किसी प्रकार का आदेश नहीं देता। ज्वाला प्रसाद चतुर्वेदी ने इस श्लोक का अनुवाद इस प्रकार किया है, ‘‘जिस कुल में स्त्रियाँ पूजित (सम्मानित) होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं।” इस अनुवाद से भी यही सिद्ध होता है कि यह एक अन्योन्याश्रित स्थिति है अर्थात्‌ स्त्रियों को पूज्य घोषित करने का कोई बाध्यकारी आदेश नहीं दिया। मनु ने, जैसा कि उन्हें प्रताड़ित अपमानित करने के लिए आदेशित किया है। यही कारण है कि स्त्रियों के बारे में पुरुषों में अच्छी धारणा अंकुरित ही नहीं हो पायी।

मनुस्मृति ने स्त्रियों की अस्मिता और स्वाभिमान पर कितने तरीक़े से हमला किया है, उसकी बानगी देखिये-शूद्र की शूद्रा ही पत्नी होती है। वैश्य को वैश्य और शूद्र दोनों वर्ण की कन्यायों से, क्षत्रिय को क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तीनों वर्ण की कन्याओं से तथा ब्राह्मण को चारों वर्णों की कन्याओं से विवाह करने का अधिकार है। (३.१३)

लेकिन इसके तुरन्त बाद वाला श्लोक आदेश देता है-ब्राह्मण और क्षत्रिाय को स्वर्णा स्त्री न मिलने पर भी शूद्रा को स्त्री बनाने का किसी भी इतिहास में आदेश नहीं पाया जाता। (३.१४)

इसके आगे के श्लोकों में भी शूद्र वर्ण की स्त्री के लिये तमाम घिनौनी बातें कही गई हैं लेकिन निम्न श्लोक में तो सारी सीमाओं को तोड़कर रख दिया- जो शूद्रा के अधर रस का पान करता है उसके निःश्वास से अपने प्राण-वायु को दूषित करता है और जो उनमें सन्तान उत्पन्न करता है उसके निस्तार का कोई उपाय नहीं है। (३.१९)

किन्तु जैसे ही याद आया कि इससे स्त्रियों को अबाध भोगने के अधिकार से सवर्ण पुरुष वंचित हो जायेंगे तो कह दिय-स्त्रियों का मुख सदा शुद्ध होता है….(५.१३०)

अब स्त्रियों पर कुछ सामान्य टिप्पणियाँ भी देखिये-

मदिरा पीना, दुष्टों की संगति, पति का वियोग, इधर-उधर घूमना, कुसमय में सोना और दूसरों के घरों में रहना ये छः स्त्रियों के दोष है। (२.१३)

स्त्रियाँ रूप की परीक्षा नहीं करतीं, न तो अवस्था का ध्यान रखती हैं, सुन्दर हो या कुरूप हों, पुरुष होने से ही वे उसके साथ संभोग करती हैं। (९.१४)

पुंश्चल (पराये पुरुष से भोग की इच्छा) दोष से, चंचलता से और स्वभाव से ही स्नेह न होने के कारण घर में यत्नपूर्वक रखने पर भी स्त्रियाँ पति के विरुद्ध काम करती हैं। (९.१५)

ब्रह्मा जी ने स्वभाव से ही स्त्रियों का ऐसा स्वभाव बनाया है, इसलिये पुरुष को हमेशा स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए। (९.१६)

मनु जी ने सृष्ट्यादि में शय्या, आसन, आभूषण, काम, क्रोध, कुटिलता, द्रोह और दुराचार स्त्रियों के लिए ही कल्पना की थी। (९.१७)

ऐसे न जाने कितने श्लोक पूरी मनु स्मृति में फैले पड़े हैं।

ऋग्वेद के मंत्र १०।८५।३७ हो या मनु स्मृति के नवें अध्याय के श्लोक ३३ से लेकर ५२ तक स्त्रियों को पुरुषों की खेती कहा गया है। इस्लाम भी कुरान की आयत १.२.१२३ के द्वारा इसी प्रकार की व्यवस्था करता है

ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी (सुं.कां. ६२-३) का उद्घोष करने वाले तुलसीदास ने भी स्त्री-निंदा में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा। ‘सरिता’ फरवरी १९५६(सरिता मुक्ता रिप्रिंट भाग-१) के अंक में ‘रामचरितमानस में नारी’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में इसका विस्तृत ब्यौरा दिया गया है। ऐसा करने में उन्होंने भी मनु की शूद्र स्त्री को अलग खाने में रखा है। संदर्भित लेख से ही कुछ उद्धरणों को देकर इसे स्पष्ट किया जा रहा है- करै विचार कुबुद्धि कुजाती। होई अकाजु कवनि विधि राती।/देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गंव तकै लेऊँ केहि भाँति॥/भरत मातु पहि गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी॥/उतरू देहि नहिं लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।

खोटी बुद्धि वाली और खोटी-नीच जाति वाली मंथरा विचार करने लगी कि रात ही रात में यह काम कैसे बिगाड़ा जाए? जिस तरह कुटिल भीलनी शहद के छत्ते को लगा देखकर अपना मौका ताकती है कि इसको किस तरह लूँ। वह बिलखती हुई भरत की माता कैकेई के पास गई। उसको देखकर कैकेई ने कहा कि आज तू उदास क्यों है? मंथरा कुछ जवाब नहीं देती और लंबी साँस खींचती है और स्त्री चरित्रकरके आँखों से पानी टपकाती है।

मंथरा कैकेई के लिए ही मरती रहती है लेकिन तुलसीदास ने कैकेई के ही मुँह से उसके लिए यह कहलवाया – काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि। तिय विसेखि मुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि।

काने, लंगड़े, लूले – ये बड़े कुटिल और कुचाली होते हैं और उनमें भी स्त्री और विशेष रूप से दासी-ऐसा कहके भरत मातु मुसकाई।

इतने विशेषणों से उसे तब अलंकृत किया गया जबकि स्वयं सरस्वती ने उसकी मति फेरी थी, अर्थात्‌ सरस्वती भी स्त्री होने के कारण लपेटे में। सीता और पार्वती को भी क्रमशः राम और शिव की किंकरी ही घोषित कराया है। तुलसीदास ने और वह भी उनकी माता के ही मुँह से। सीता की माँ सीता की विदाई के समय राम से कहती है – तुलसी सुसील सनेहु लखि निज किंकरी कर मानिबी।

इसके सुशील स्वभाव और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी मानियेगा। बिल्कुल यही बात पार्वती की माँ भी बेटी को विदा करते समय शिव से कहती है – नाथ उमा मम प्रान सम गृह किंकरी करेहु/छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु।

हे नाथ, यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान है। अब इसे अपने घर की दासी बनाइये और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए-करेहु सदा संकर पद पूजा। नारि धरम पति देव न दूजा॥

पार्वती को उपदेश देते हुए कहती हैं कि हे पुत्री, तू सदा शिव के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि जब ईश्वर या उसके अवतार द्वारा स्वयं ही पत्नी को अपने चरण में जगह दी जाती है तो पुरुष क्यों नहीं करेगा अथवा उसे क्यों नहीं करना चाहिए?

गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित रामचरित मानस के एक सौ छठवें संस्करण में निम्न दृष्टांत उद्धृत किए जा रहे हैं – माता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥/होई विकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबि मनि द्रव रबिहि विलोकी॥ (पृष्ठ ६२६)

स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकांत मणि ‘सूर्य’ को देखकर द्रवित हो जाती है।

सती अनसूया द्वारा सीता को उपदेश देते समय उनके मुँह से स्त्रियों के बारे में जो कहलवाया गया है, वह पृष्ठ संख्या ६०९ और ६१० पर अंकित है। देखिए – धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥/वृद्ध रोग सब जड़ धन हीना।/ अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥/ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।/नारि पाव जमपुर दुखनाना॥/एकइ धर्म एक व्रत नेमा।/कायॅ वचन मन पति पद प्रेमा॥

धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री – इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है-जग पतिव्रता चारि विधि अहहीं। वेद पुरान संत सब कहहीं॥/उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहु आन पुरुष जग नाहीं॥

जगत्‌ में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद पुराण और संत सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत्‌ में(मेरे पति को छोड़कर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है-मध्यम परपति देखइ कैसे। भ्राता पिता पुत्र निज जैसे॥/धर्म विचारी समुझि कुल रहईं।/सा निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहईं॥

मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराये पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो(अर्थात्‌ समान अवस्था वाले वह भाई के रूप में देखती है, बड़े को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म के विचार कर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है वह निकृष्ट स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं- बिन अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥/पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥

जो स्त्री मौका न मिलने से या भयावश पतिव्रता बनी रहती है, जगत्‌ में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराये पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पड़ी रहती है-छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥/बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥

क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड़ (असंख्य) जन्मों के दुख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोड़कर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है – पति पतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥

किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है – सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।/जसु गावति श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिंहि प्रिय॥

स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके यह अनायास ही शुभगति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण) आज भी ‘तुलसी जी’ भगवान को प्रिय है और चारों वेद उनका यश गाते हैं।

तुलसीदास जी को पुरुषों में कोई दोष नहीं दिखाई देता तो इसके पीछे पुरुष की वही स्त्री विरोधी मानसिकता है जिसे बड़े करीने से धर्मशास्त्र की सान पर परवान चढ़ाकर विकसित किया गया है और जो आज भी क़ायम है।

(मूलचंद जी के लेख से …….)

कबीर तुलसी के समकालीन माने जाते हैं : परन्तु दोनों का रचना-संसार समान नहीं है। आज कबीर को सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, शोषितों, पीड़ितों के प्रबल पक्षकार के रूप में देखा जाता है लेकिन स्त्रियों की निंदा करने में वह भी किसी से पीछे नहीं है। डॉ. युगेश्वर द्वारा सम्पादित और हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘कबीर समग्र’ के प्रथम संस्करण १९९४ से कुछ साखियाँ यहाँ उद्धृत की जा रही हैं :-

कामणि काली नागणीं तीन्यूँ लोक मंझारि।

राम सनेही ऊबरे, विषई खाये झारि॥

(पृष्ठ २८४)

एक कनक अरु कॉमिनी, विष फल कीएउ पाइ।

देखै ही थै विष चढै+, खॉयै सूँ मरि जाइ॥

(पृष्ठ २८६)

नारी कुंड नरक का, बिरला थंभै बाग।

कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥

(पृष्ठ २८६)

जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच।

उत्थम ते अलग रहैं, निकट रहें तें नीच॥

(पृष्ठ २८६)

सुंदरि थै सूली भली, बिरला बंचै कोय।

लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय॥

(पृष्ठ २८६)

इक नारी इक नागिनी, अपना जाया खाय।

कबहूँ सरपटि नीकसे, उपजै नाग बलाय॥

(पृष्ठ ४३७)

सर्व सोनाकी सुन्दरी, आवै बास सुबास।

जो जननी ह्नै आपनी, तौहु न बैठे पास॥

(पृष्ठ ४३७)

गाय भैंस घोड़ी गधी, नारी नाम है तास।

जा मंदिर में ये बसें, तहाँ न कीजै बास॥

(पृष्ठ ४३८)

छोटी मोटी कामिनी, सब ही विष की बेल।

बैरी सारे दाब दै, यह मारै हँसि खेल॥

(पृष्ठ ४४०)

नागिन के तो दोय फन, नारी के फन बीस।

जाको डस्यो न फिरि जिये, मरि है बिस्वा बीस॥

(पृष्ठ ४४०)

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्त्री निंदा में कोई किसी से कम नहीं है।

आर्ष समाज से लेकर अर्वाचीन समाज तक स्त्रियों की छवि को एक विशेष खाँचे में फिट किया गया है, मातृ-सत्तात्मक समाज रहा हो या पितृ-सत्तात्मक स्त्री को देह की भाषा में ही व्यक्त करने और होने का खेल चलता रहा। इस खेल में स्त्री भी बराबर की हिस्सेदार रही। उसने इस आरोपण को सच की तरह अंगीकृत कर लिया कि वह एक देह है और इस देह की एक मात्र आवश्यकता है यौन-तृप्ति। यह मानते हुए भी कि यौन-सम्बन्ध द्विपक्षीय अवधारणा है जिसके प्रति पुरुष भी उतना ही लालायित रहता है। विकास के किसी भी मोड़ पर पुरुषों की काम-प्रवृत्ति का उस तरह से मनोविश्लेषण नहीं किया गया जैसा कि स्त्रियों का। इसका परिणाम यह हुआ कि सारी वर्जनाएँ स्त्रियों पर ही थोप दी गईं और पुरुषों को स्वच्छंद छोड़ दिया गया और वे स्त्रियों के साथ निर्द्वन्द्व होकर मनमानी करते रहे। स्त्रियाँ भोग्या बनने और वर्जनाओं के उल्लंघन के नाम पर लांछित होने को अभिशप्त होती रहीं। यही उनकी नियति बन गयी और उन्हीं के मुँह से इसे स्वीकार भी कराया गया। यह पुरुष-सत्तात्मक समाज के नीति-नियामकों की जीत और स्त्रियों की सबसे बड़ी हार थी, जिस पर ईश्वर की सहमति का ठप्पा भी लगवा लिया गया।

वेद, पुराण और महाभारत से उदाहरण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि आज के परिप्रेक्ष्य में किस प्रकार इन ग्रन्थों में स्त्रियों की अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया गया है। वेदों में वर्णित कुछ कामुक दृष्टांत हरिमोहन झा की पुस्तक ‘खट्टर काका’ से साभार लेकर यहाँ पर उद्धृत किए जा रहे हैं – मर्य इव युवतिभिः समर्षति सोमः/कलशे शतयाम्ना पथा (ऋ. ९/८६/१६)

कलश में अनेक धारों से रस का फुहारा छूट रहा है। जैसे, युवतियों में… (पृष्ठ १९४)

को वा शयुत्र विधवेव देवरं मर्यं न योषा वृणुते (ऋ. ७/४०/२)

‘‘जैसे विधवा स्त्री शयनकाल में अपने देवर को बुला लेती है, उसी प्रकार मैं भी यज्ञ में आपको सादर बुला रही हूँ। (पृष्ठ १९५)

यत्र द्वाविव जघनाधिषवरण्या/उलूखल सुतानामवेद्विन्दुजल्गुलः (ऋ. १/२८/२)

‘‘जैसे कोई विवृत-जघना युवती अपनी दोनों जंघाओं को फैलाये हुई हो और उसमें..(पृष्ठ १९३)

अभित्वा योषणो दश, जारं न कन्यानूषत/मृज्यसे सोम सातये (ऋ. ९/५६/३)

‘‘कामातुरा कन्या अपने जार (यार ) को बुलाने के लिये इसी प्रकार अंगुलियों से इशारा करती हैं। (पृष्ठ १९३ )

वृषभो न तिग्मश्रृंगोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्‌! (ऋ. १०/८६/१५)

अर्थात्‌ ‘जिस प्रकार टेढ़ी सींग वाला साँड़ मस्त होकर डकरता हुआ रमण करता है, उसी प्रकार तुम भी मुझसे करो। (पृष्ठ १९६)

डॉ. तुलसीराम ने अपने लेख ‘बौद्ध धर्म तथा वर्ण व्यवस्था’ (‘हंस’, अगस्त २००४) में ऋग्वेद के प्रथम मंडल के छठवें मंत्र का अनुवाद इस तरह किया है, ‘‘यह संभोग्य युवती (यानी जिसके गुप्तांग पर बाल उग आए हों) अच्छी तरह आलिंगन (बद्ध) होकर सूतवत्सा नकुली (यानी एक रथ हाँकने वाले की बेटी, जिसका नाम नकुली था) की तरह लम्बे समय तक रमण करती है। वह बहु-वीर्य सम्पन्न युवती मुझे अनेक बार भोग प्रदान करती हैं।” इसी लेख में यह भी कहा गया है कि ऋग्वेद के अंग्रेजी अनुवाद राल्फ टी ग्रीफिथ को दसवें मंडल के ८६ वें सूक्त के मंत्र १६ और १७ इतने वीभत्स लगे कि उन्होंने इनका अनुवाद ही नहीं किया।

ऋग्वेद के दसवें मंडल के दसवें सूक्त में सहोदर भाई-बहन यम और यमी का संवाद है जिसमें यमी यम से संभोग याचना करती है। इसी मंडल के ६१ वें सूक्त के पाँचवें-सातवें तथा अथर्ववेद (९/१०/१२) में प्रजापति का अपनी पुत्री के साथ संभोग वर्णन है। यम और यमी के प्रकरण का विवरण अथर्ववेद के अठारहवें कांड में भी मिलता है। (भारतीय विवाह संस्था का इतिहास – वि.का. राजवाडे, पृष्ठ ९७) इसी पुस्तक के पृष्ठ ७८-७९ पर पिता-पुत्री के सम्बन्धों पर चर्चा करते हुए वशिष्ठ प्रजापति की कन्या शतरूपा, मनु की कन्या इला, जन्हू की कन्या जान्हवी (गंगा) सूर्य की पुत्राी उषा अथवा सरण्यू का अपने-अपने पिता के साथ पत्नी भाव से समागन होना बताया गया है। ‘स्त्री-पुरुष समागम सम्बन्धी कई अति प्राचीन आर्ष प्रथाएँ नामक यह अध्याय सगे-सम्बन्धियों के मध्य संभोग-चर्चा पर आधारित है। इस प्रकार के सम्बन्धों की चर्चा महाभारत के ‘शांतिपूर्व’ के २०७ वें अध्याय के श्लोक संख्या ३८ से ४८ तक में भीष्म द्वारा की गई है। राजवाडे ने अपनी उक्त संदर्भित पुस्तक के पृष्ठ ११५-११६ पर (श्लोक का क्रम ३७ से ३९ अंकित है।) इन श्लोकों का अर्थ निम्नवत्‌ किया है- कृतयुग (संभवतः सतयुग) में स्त्री-पुरुषों के बीच, जब मन हुआ तब, समागम हो जाता था। माँ, पिता, भाई, बहन का भेद नहीं था। वह यूथावस्था थी। (श्लोक सं. ३८) त्रेता युग में स्त्री-पुरुषों द्वारा एक-दूसरे को स्पर्श करने पर समाज उन्हें उस समय के लिए संभोग करने की अनुमति देता था। यह पसन्द-नापसन्द या प्रिय-अप्रिय का चुनाव करने की व्यवस्था थी। (श्लोक सं. ३९) द्वापर युग में मैथुन धर्म शुरू हुआ। इस पद्धति के अनुसार, स्त्री-पुरुष अपनी टोली में जोड़ियों में रहने लगे, किन्तु अभी भी इन जोड़ियों को स्थिर अवस्था प्राप्त नहीं हुई थी और कलियुग में द्वंद्वावस्था की परिणति हुई, अर्थात्‌ जिसे हम विवाह संस्था कहते हैं उसका उदय हुआ। (श्लोक सं. ४०)

‘खट्टर काका’ के पृष्ठ ६४ पर भविष्य पुराण के प्रतिसर्ग खंड के हवाले से उद्धृत निम्न श्लोक की मानें तो ईश्वरीय सत्ता के तीनों शीर्ष प्रतीक भी इस स्वच्छन्द सम्बन्ध से मुक्त नहीं हैं-स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्‌/भगनीं भगवान्‌ शंभुः गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्‌!

स्त्री के मुँह से ही स्त्रियों की बुराई सिद्ध करने के आख्यान मिलते हैं। स्त्रियों का यह चरित्र- चित्राण उनकी विश्व-विख्यात ईर्ष्या-भावना की छवि को उद्घाटित करता है। इस प्रकार का एक दृष्टांत महाभारत से यहाँ पर उद्धृत है। आगे, सम्बन्धित खंड में रामरचितमानस से भी ऐसा ही दृष्टांत उद्धृत किया गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत ‘दानधर्म’ पर्व में पंचचूड़ा, अप्सरा और नारद के मध्य एक लम्बा संवाद है, जिसमें पंचचूड़ा स्त्रियों के दोष गिनती है। इसमें से कुछ श्लोकार्थ यहाँ दिये जा रहे हैं-नारद जी! कुलीन, रूपवती और सनाथ युवतियाँ भी मर्यादा के भीतर नहीं रहतीं। यह स्त्रियों का दोष है॥११॥ प्रभो! हम स्त्रियों में यह सबसे बड़ा पातक है कि हम पापी पुरुषों को भी लाज छोड़कर स्वीकार कर लेती हैं॥१४॥ इनके लिये कोई भी पुरुष ऐसा नहीं है, जो अगम्य हो। इनका किसी अवस्था-विशेष पर भी निश्चय नहीं रहता। कोई रूपवान हो या कुरूप; पुरुष है- इतना ही समझकर स्त्रियाँ उसका उपभोग करती हैं॥१७॥ जो बहुत सम्मानित और पति की प्यारी स्त्रियाँ हैं; जिनकी सदा अच्छी तरह रखवाली की जाती है, वे भी घर में आने-जाने वाले कुबड़ों, अन्धों, गूँगों और बौनों के साथ भी फँस जाती है॥२०॥ महामुनि देवर्षे! जो पंगु हैं अथवा जो अत्यन्त घृणित मनुष्य (पुरुष) हैं, उनमें भी स्त्रियों की आसक्ति हो जाती है। इस संसार में कोई भी पुरुष स्त्रियों के लिये अगम्य नहीं हैं॥२१॥ ब्रह्मन! यदि स्त्रियों को पुरुष की प्राप्ति किसी प्रकार भी सम्भव न हो और पति भी दूर गये हों तो वे आपस में ही कृत्रिम उपायों से ही मैथुन में प्रवृत्त हो जाती हैं॥२२॥ देवर्षे! सम्पूर्ण रमणियों के सम्बन्ध में दूसरी भी रहस्य की बात यह है कि मनोरम पुरुष को देखते ही स्त्री की योनि गीली हो जाती है॥२६॥ यमराज, वायु, मृत्यू, पाताल, बड़वानल, छुरे की धार, विष, सर्प और अग्नि – ये सब विनाश हेतु एक तरफ और स्त्रियाँ अकेली एक तरफ बराबर हैं॥२९॥ नारद! जहाँ से पाँचों महाभूत उत्पन्न हुए हैं, जहाँ से विधाता ने सम्पूर्ण लोकों की सृष्टि की है तथा जहाँ से पुरुषों और स्त्रियों का निर्माण हुआ है, वही से स्त्रियों में ये दोष भी रचे गये हैं (अर्थात्‌ ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।)॥३०॥

इस आख्यान से दो बातें स्पष्ट सिद्ध होती है। पहली एक ही स्रोत से रची गई चीजों में विधाता ने मात्र स्त्रियों के लिये ही दोषों की रचना करके पक्षपात किया और दूसरी यह कि स्वयं विधाता ही पुरुष-वर्चस्व का पोषक है।

मूलचंद जी के लेख से आगे जारी रखते हुए …….

हमारे शास्त्र कन्या-संभोग और बलात्कार के लिये भी प्रेरित करते हैं। मनुस्मृति के अध्याय ९ के श्लोक ९४ में आठ वर्ष की कन्या के साथ चौबीस वर्ष के पुरुष के विवाह का प्रावधान है। ‘भारतीय विवाह का इतिहास’(वि.का. राजवाडे) के पृष्ठ ९१ पर उद्धृत वाक्य ‘‘चौबीस वर्ष का पुरुष, आठ वर्ष की लड़की से विवाह करे, इस अर्थ में स्मृति प्रसिद्ध है। विवाह की रात्रिा में समागम किया जाय, इस प्रकार के भी स्मृति वचन हैं। अतः आठ वर्ष की लड़कियाँ समागमेय हैं, यह मानने की रूढ़ि इस देश में थी, इसमें शक नहीं।” इसी पुस्तक के पृष्ठ ८६-८७ तथा ९० के नीचे से चार पंक्तियों को पढ़ा जाय तो ज्ञात होता है कि कन्या के जन्म से लेकर छः वर्ष तक दो-दो वर्ष की अवधि के लिये उस पर किसी न किसी देवता का अधिकार होता था। अतः उसके विवाह की आयु का निर्धारण आठ वर्ष किया गया। क्या इससे यह संदेश नहीं जाता कि कन्या जन्म से ही समागमेय समझी जाती थी क्योंकि छः वर्ष बाद उस पर से देवताओं का अधिकार समाप्त हो जाता था। यम संहिता और पराशर स्मृति दोनों ही रजस्वला होने से पूर्व कन्या के विवाह की आज्ञा देते हैं (खट्टर काका पृष्ठ १०१) निम्न श्लोक देखें-प्राप्ते तु द्वादशे वर्षे यः कन्यां न प्रयच्छति/मासि मासि रजस्तयाः पिब्रन्ति पितरोऽनिशम्‌। (यम संहिता)

यदि कन्या का विवाह नहीं होता और यह बारह वर्ष की होकर रजस्वला हो जाती है तो उसके पितरों को हर माह रज पीना पड़ेगा-रोमकाले तु संप्राप्ते सोमो सुंजीथ कन्यकाम/रजः काले तुः गंधर्वो वद्दिस्तु कुचदर्शने।

रोम देखकर सोम देवता, पुष्प देखकर गंधर्व देवता और कुच देखकर अग्नि देवता कन्या का भोग लगाने पहुँच जायेंगे।

जिस धर्म के देवता इतने बलात्कारी, उस धर्म के अनुयायी तो उनका अनुसरण करेंगे ही। कुंती के साथ सूर्य के समागम का विवरण राजवाडे के शब्दों में इस प्रकार है,-’वनपर्व’ के ३०७वें अध्याय में सूर्य कहता है- ‘‘हे कुंती, कन्या शब्द की उत्पत्ति, कम्‌ धातु से हुई और इसका अर्थ है- चाहे जिस पुरुष की इच्छा कर सकने वाली। कन्या स्वतंत्र है, स्त्रियों और पुरुषों में किसी प्रकार का परदा या मर्यादा न होना- यही लोगों की स्वाभाविक स्थिति है, विवाहादि संस्कार सब कृत्रिम हैं, अतः तुम मेरे साथ समागम करो, समागम करने के बाद तुम पुनरपि कुमारी ही, अर्थात्‌ अक्षत योनि ही रहोगी।” (वही, पृष्ठ ८९-९०) और देवराज इन्द्र द्वार बलात्कार के किस्से तो थोक के भाव मौजूद है।

यह रहा, तथाकथित पूज्य वेदों, पुराणों, महाभारत इत्यादि का स्त्रियों के प्रति रवैये की छोटी-सी बानगी। संस्कृत वाङ्मय के ग्रन्थ अथवा साहित्यिक रचनायें अथवा उनसे प्रेरित श्रृंगारिक कवियों की श्रृंगारिक भाषायी रचनाओं से लेकर आधुनिकता का लिबास ओढ़े चोली के पीछे क्या है…. ‘अथवा’ मैं चीज बड़ी हूँ मस्त-मस्त….. तक के उद्घोष में स्त्री-पुरुष बराबर के साझीदार हैं। इन कृतियों में से होकर एक भी रास्ता ऐसा नहीं जाता जिस पर चलकर स्त्री सकुशल निकल जाये, फिर भी वह इनके प्रति सशंकित नहीं है तो इस पर गहन, गम्भीर विमर्श होना चाहिये। सबसे बड़ी विडम्बना तो स्त्रियों का कृष्ण के प्रति अनुराग है जबकि स्त्रियों के साथ कृष्ण-लीला इनके चरित्र का सबसे कमजोर पहलू है। ब्रह्म वैवर्त में कृष्ण का राधा या अन्य गोपियों के साथ संभोग का जैसा वर्णन है, उसको पढ़कर उनके आचरण को अध्यात्म की भट्ठी में चाहे जितना तपाया जाये, उसे नैतिकता के मापदण्ड पर खरा नहीं ठहराया जा सकता।

मनु स्मृति संभवतः ऐसा अकेला ग्रन्थ है जिनसे भारतीय मेधा को न केवल सबसे अधिक आकर्षित किया अपितु व्यवहार-जगत्‌ में उसकी मानसिकता को ठोस एवं स्थूल स्वरूप भी प्रदान किया। भारतीय मेधा अर्थात्‌ भारतीय राज्य-सत्ता और उसके द्वारा पोषित सामंती प्रवृत्तियों का गंठजोड़, जिसके हाथ में मनु ने मनुस्मृति के रूप में, ‘करणीय और अकरणीय’ का औचित्य-विहीन संहिताकरण करके एक क्रूर और अमानवीय हथियार पकड़ा दिया और उसे धर्म-सम्मत मनमानी करने का निर्णायक अवसर प्रदान कर दिया। सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मनुस्मृति का सबसे घातक दुष्परिणाम यह हुआ कि इसने पहले से ही क्षीण होती जा रही संतुलन-शक्तियों का समूल विनाश कर दिया। शूद्र (वर्तमान दलित) और स्त्री के लिये दंड-विधान के रूप में ऐसे-ऐसे प्रावधान किये गये कि इनका जीवन नारकीय हो गया।

विषय-वस्तु के बेहतर प्रतिपादन के लिये थोड़ा विषयान्तर समीचीन दिखता है। मनु-स्मृति में हमें तीन बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। पहला, वर्ण-व्यवस्था का पूर्ण विकसित और अपरिवर्तनीय स्वरूप (मनु १०.४) दूसरा, राक्षस या असुर जाति का विलोपीकरण और तीसरा देवताओं के अनैतिक आचरण को विस्थापित करके उनकी कल्याणकारी इतर शक्तियों के रूप में स्थापना। वर्ण-व्यवस्था का सिद्धान्त आर्यों की देन है जो ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से प्रारम्भ होता है और सभी अनुवर्ती ग्रन्थों में जगह पाता है। स्त्रियों की भाँति राक्षसों की भी उत्पत्ति वर्ण-व्यवस्था से नहीं होती। सुर और असुर के मध्य लड़े गये तमाम युद्धों का वर्णन वैदिक साहित्य में भरे पड़े हैं। रामायण काल तक राक्षस मिलते हैं, महाभारत काल में विलुप्त हो जाते हैं। महाभारत काल में कृष्ण के रूप में ईश्वर अवतार लेते हैं। गीता में अपने अवतार का कारण अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करना बताते हैं। प्रत्यक्ष विनाश वे अपने मामा कंस का करते है। महाभारत युद्ध की विनाश-लीला के नायक होते हुए भी इस युद्ध में उनकी भूमिका राम की तरह नहीं है। कृष्ण का मामा होने के कारण कंस को राक्षस कहा जाय तो सबसे बड़ी अड़चन यह आयेगी कि कृष्ण को भी राक्षस कहना पड़ेगा लेकिन थोड़ा-सा ध्यान दें तो इस गुत्थी को सुलझाना बहुत आसान है। राम और रावण के बीच लड़ा गया युद्ध निश्चित रूप से आर्यों के बीच लड़ा गया अन्तिम महायुद्ध था जिसमें आर्यों की सबसे बड़ी कूटनीतिक विजय यह थी कि आर्य राम की सेना अनार्य योद्धाओं की थी और रावण की पारिवारिक कलह चरम पर थी। इसका प्रत्यक्ष लाभ राम को यह मिला कि उन्हें घर का भेदी ही मिल गया और लंका ढह गयी। आर्य संस्कृति की विजय हुई लेकिन वर्चस्व स्थापित नहीं हो सका होगा। क्योंकि विभीषण चाहे जितना बड़ा राम भक्त राह हो, तो अनार्य ही न और फिर रावण की पटरानी मंदोदरी ही उसकी पटरानी बनी। क्या विभीषण कभी उससे आँख मिला पाया होगा? क्या कभी मंदोदरी यह भुला सकी होगी कि वह जिस कायर की पत्नी है उसी के विश्वासघात ने उसके प्रतापी पति की हत्या करवाई थी।

इस कड़ी को कृष्ण द्वारा कंस के संहार से जोड़कर देखें तो स्थिति यह बनती है कि अनार्यों की बची-खुची शक्ति के सम्पूर्ण विनाश के लिये इस बार घर से ही नायक को उठाया गया। यह इस बात से सिद्ध है कि कृष्ण के नायकत्व या संयोजकत्व में जितने भी युद्ध लड़े गये सभी पारिवारिक थे। अतः यह कहा जा सकता है कि अनार्य आपस में लड़कर विनाश को प्राप्त हुए और वर्ण से बाहर की दलित जातियाँ उन्हीं की ध्वंसावशेष हैं। इस सम्पूर्ण विजय के बाद आचरण हीन देवता स्वयं को कल्याणकारी इतर शक्ति के रूप में स्थापित कराने में सफल हो गये तो क्या आश्चर्य।

मनु स्मृति शांति काल की रचना प्रतीत होती है जिसमें शासन-व्यवस्था के संचालन और समाज को नियंत्रित करने का प्रावधान है। स्पष्ट है कि इसका डंडा वर्णेतर जातियों पर पड़ना था और पड़ा भी। दलित और स्त्री उन सभी सुविधाओं और अवसरों से वंचित कर दिये गये जो उनके बौद्धिक-क्षमता के विकास में सहायक थे। इस प्रकार मनु स्मृति से भी यह सिद्ध होता है कि दलित और स्त्री वर्ण-व्यवस्था के बाहर का समुदाय है।

मूलचंद जी के लेख से कुछ आगे जारी रखते हुए …….

अभी तो मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि स्त्री मर जाती है, स्त्री पैदा होती है लेकिन उसके दुर्गति की शाश्वतता बनी रहती है। इंतजार है नई स्त्री के पैदा होने की जो विद्रोह कर सके। ब्रह्मा, विष्णु और शिव हिन्दू धर्म में ईश्वर की तीन सर्वोच्च प्रतीक हैं। ब्रह्मा उत्पत्ति, विष्णु पालन और शिव संहार के देवता माने गये हैं। इस रूप में ये एक-दूसरे के पूरक दिखते हैं लेकिन वैष्णवों के मध्य हुए संघर्षों से यह सिद्ध होता है कि प्रारम्भ के किसी काल-खंड में शिव और विष्णु एक-दूसरे के विरोधी विचारधारा के पोषक और संवाहक थे। पालक होते हुए भी तथाकथित अधर्मियों का विनाश करने के लिए विष्णु ही बार-बार अवतार लेते हैं। सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती इनकी पत्नियों के नाम हैं। आइये देखें कि यौन-विज्ञान के महारथियों ने इनका किस प्रकार चित्रण किया है। ब्रह्मा, विष्णु और शिव का सरस्वती, लक्ष्मी और पर्वती के साथ पत्नी के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध का उल्लेख इस लेख के दूसरे खंड में किया जा चुका है। आगे बढ़ने से पूर्व स्त्रियों के प्रति इस वीभत्स काम-कुंठा की अभद्र मानसिकता की एक बानगी देखिये जो ‘खट्टर काका’ के अन्तिम पृष्ठ पर अथर्ववेद के हवाले से उद्धृत किया गया है-यावर्दैीनं पारस्वतं हास्तिनं गार्दभं च यत्‌/यावदश्वस्य वाजिनस्तावत्‌ से वर्धतां पसः। (अथर्व ६/७२/३)

अर्थात्‌ ‘‘कामदंड बढ़कर वैसा स्थूल हो जाय जैसा हाथी, घोड़े या गधे का…।”

इस लम्पट और उद्दंड कामुकता के वेग का प्रभाव ऐसा पड़ा यहाँ के यौनाचार्यों पर कि देवी तक की वंदना करते समय उनके कामांगों का स्मरण करना नहीं भूलते। उदाहरण-वामकुचनिहित वीणाम/वरदां संगीत मातृकां वंदे।

बायें स्तन पर वीणा टिकाये हुए संगीत की देवी की वंदना करते है। (खट्टर काका, पृष्ठ १६६)

स्मरेत्‌ प्रथम पुष्पणीम्‌/रुधिर बिंदु नीलम्बराम्‌/घनस्तन भरोन्नताम्‌/त्रिपुर सुन्दरी माश्रये (खट्टर काका, पृष्ठ १६५)

‘प्रथम पुष्पिता होने के कारण जिनका वस्त्र रक्तरंजित हो गया है, वैसी पीनोन्नतस्तनी त्रिापुर सुन्दरी का आश्रय मैं ग्रहण करता हूँ।

कालतंत्र में काली का ध्यान-घोरदंष्ट्रा करालास्या पीनोन्नतपयोधरा/महाकालेन च समं विपरीतरतातुरा। (वही, पृष्ठ १६६)

कच कुचचिबुकाग्रे पाणिषु व्यापितेषु/प्रथम जलाधि-पुत्री-संगमेऽनंग धाग्नि/ग्रथित निविडनीवी ग्रन्थिनिर्मोंचनार्थं चतुरधिक कराशः पातु न श्चक्रमाणि। (वही, पृष्ठ १६७)

लक्ष्मी के साथ चतुर्भुज भगवान्‌ का प्रथम संगम हो रहा है। उनके चारों हाथ फंसे हुए हैं। दो लक्ष्मी के स्तनों में, एक केश में, एक ठोढ़ी में। अब नीवी (साड़ी की गाँठ खोलें तो कैसे? इस काम के लिये एडीशनल हैंड (अतिरिक्त हाथ) चाहने वाले विष्णु भगवान्‌ हम लोगों की रक्षा करें-पद्मायाः स्तनहेमसद्मनि मणिश्रेणी समाकर्षके/किंचित कंचुक-संधि-सन्निधिगते शौरेः करे तस्करे/सद्यो जागृहि जागृहीति बलयध्यानै र्ध्रुवं गर्जता/कामेन प्रतिबोधिताः प्रहरिकाः रोमांकुरः पान्तु नः।अर्थात्‌ लक्ष्मी की कंचुकी में भगवान का हाथ घुस रहा है। यह देखकर कामदेव अपने प्रहरियों को जगा रहे हैं- उठो, उठो घर में चोर घुस रहा है। प्रहरी गण जागकर खड़े हो गये हैं। वे ही खड़े रोमांकुर हम लोगों की रक्षा करें। पार्वती की वंदना-गिरिजायाः स्तनौ वंदे भवभूति सिताननौ, तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव,….अंकनिलीनगजानन शंकाकुल बाहुलेयहृतवसनौ/समिस्तहरकरकलितौ हिमगिरितनयास्तनौ जयतः।(वही, पृष्ठ १६८)तो यह कामांध मस्तिष्क की वीभत्स परिणति जो देवी-देवताओं तक को नहीं छोड़ती लेकिन प्रचार किया जाता है कि देश की महान्‌ संस्कृति स्त्रियों को पूज्य घोषित करती है

मूलचंद जी के लेख से कुछ आगे जारी रखते हुए …….

लेख के दूसरे भाग में वि.का. राजवाडे की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ के पृष्ठ १२८ से उद्धृत वाक्य को आपने देखा। इसी वाक्य के तारतम्य में ही आगे लिखा है, ‘‘यह नाटक होने के बाद रानी कहती है – महिलाओं, मुझसे कोई भी संभोग नहीं करता। अतएव यह घोड़ा मेरे पास सोता है।….घोड़ा मुझसे संभोग करता है, इसका कारण इतना ही है अन्य कोई भी मुझसे संभोग नहीं करता।….मुझसे कोई पुरुष संभोग नहीं कर रहा है इसलिए मैं घोड़े के पास जाती हूँ।” इस पर एक तीसरी कहती है – ‘‘तू यह अपना नसीब मान कि तुझे घोड़ा तो मिल गया। तेरी माँ को तो वह भी नहीं मिला।”

ऐसा है संभोग-इच्छा के संताप में जलती एक स्त्री का उद्गार, जिसे राज-पत्नी के मुँह से कहलवाया गया है। इसी पुस्तक के पृष्ठ १२६ पर अंकित यह वाक्य स्त्रियों की कामुक मनोदशा का कितना स्पष्ट विश्लेषण करता है, ‘‘बाद में प्रगति हासिल करके जब लोगों को अग्नि तैयार करने की प्रक्रिया का ज्ञान हुआ तब वे वन्य लोग अग्नि के आस-पास रतिक्रिया करते थे। किसी भी स्त्री को किसी भी पुरुष द्वारा रतिक्रिया के लिए पकड़कर ले जाना, उस काल में धर्म माना जाता था। यदि किसी स्त्री को, कोई पुरुष पकड़कर न ले जाए, तो वह स्त्री बहुत उदास होकर रोया करती थी कि उसे कोई पकड़कर नहीं ले जाता और रति सुख नहीं देता। इस प्रकार की स्त्री को पशु आदि प्राणियों से अभिगमन करने की स्वतंत्रता थी। वन्य ऋषि-पूर्वजों में स्त्री-पुरुष में समागम की ऐसी ही पद्धति रूढ़ थी।” यह कथन निर्विवाद रूप से स्त्रियों की उसी मानसिकता का उद्घाटन करता है कि वे संभोग के लिए न केवल प्रस्तुत रहती हैं, बल्कि उनका एकमात्र अभिप्रेत यौन-तृप्ति के लिए पुरुषों को प्रेरित करना है।

इस तरह के दृष्टांत वेद-पुराण इत्यादि में भी बहुततायत से उपलब्ध हैं। यहाँ ऋग्वेद के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं –

मेरे पास आकर मुझे अच्छी तरह स्पर्श करो। ऐसा मत समझना कि मैं कम रोयें वाली संभोग योग्य नहीं हूँ(यानी बालिग नहीं हूँ)। मैं गाँधारी भेड़ की तरह लोमपूर्णा (यानी गुप्तांगों पर घने रोंगटे वाली) तथा पूर्णावयवा अर्थात्‌ पूर्ण (विकसित अधिक सटीक लगता है) अंगों वाली हूँ।(ऋ. १।१२६।७) (डॉ. तुलसीराम का लेख-बौद्ध धर्म तथा वर्ण-व्यवस्था-हँस, अगस्त २००४)

कोई भी स्त्री मेरे समान सौभाग्यशालिनी एवं उत्तम पुत्र वाली नहीं है। मेरे समान कोई भी स्त्री न तो पुरुष को अपना शरीर अर्पित करने वाली है और न संभोग के समय जाँघों को फैलाने वाली है।(ऋ. १०/८६/६) ऋग्वेद-डॉ. गंगा सहाय शर्मा, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा संस्करण १९८५)

हे इन्द्र! तीखे सींगों वाला बैल जिस प्रकार गर्जना करता हुआ गायों में रमण करता है, उसी प्रकार तुम मेरे साथ रमण करो।(ऋ. १०/८६/१५) (वही)

ब्रह्म वैवर्त पुराण में मोहिनी नामक वेश्या का आख्यान है जो ब्रह्मा से संभोग की याचना करती है और ठुकराए जाने पर उन्हें धिक्कारते हुए कहती है, ‘‘उत्तम पुरुष वह है जो बिना कहे ही, नारी की इच्छा जान, उसे खींचकर संभोग कर ले। मध्यम पुरुष वह है जो नारी के कहने पर संभोग करे और जो बार-बार कामातुर नारी के उकसाने पर भी संभोग नहीं करे, वह पुरुष नहीं, नपुंसक है।(खट्टर काका, पृ. १८८, सं. छठाँ)

इतना कहने पर भी जब ब्रह्मा उत्तेजित नहीं हुए तो मोहिनी ने उन्हें अपूज्य होने का शाप दे दिया। शाप से घबराए हुए ब्रह्मा जब विष्णु भगवान से फ़रियाद करने पहुँचे तो उन्होंने डाँटते हुए नसीहत दिया, ‘‘यदि संयोगवश कोई कामातुर एकांत में आकर स्वयं उपस्थित हो जाए तो उसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जो कामार्त्ता स्त्री का ऐसा अपमान करता है, वह निश्चय ही अपराधी है। (खट्टर काका, पृष्ठ १८९) लक्ष्मी भी बरस पड़ीं, ‘‘जब वेश्या ने स्वयं मुँह खोलकर संभोग की याचना की तब ब्रह्मा ने क्यों नहीं उसकी इच्छा पूरी की? यह नारी का महान्‌ अपमान हुआ।” ऐसा कहते हुए लक्ष्मी ने भी वेश्या के शाप की पुष्टि कर दी।(वही, पृष्ठ १८९)

विष्णु के कृष्णावतार के रूप में स्त्री-भोग का अटूट रिकार्ड स्थापित करके अपनी नसीहत को पूरा करके दिखा दिया। ब्रह्म वैवर्त में राधा-कृष्ण संभोग का जो वीभत्स दृश्य है उसका वर्णन डॉ. गंगासहाय ‘प्रेमी’ ने अपने लेख ‘कृष्ण और राधा’ में करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में व्यक्त किया है, ‘‘पता नहीं, राधा कृष्ण संभोग करते थे या लड़ाई लड़ते थे कि एक संभोग के बाद बेचारी राधा लहूलुहान हो जाती थी। उसके नितंब, स्तन और अधर बुरी तरह घायल हो जाते। राधा मरहम पट्टी का सामान साथ रखती होगी। राधा इतनी घायल होने पर प्रति रात कैसे संभोग कराती थी, इसे बेचारी वही जाने। (सरिता, मुक्ता रिप्रिंट भाग-२) इस प्रतिक्रिया में जो बात कहने को छूट गयी वह यह है कि इस हिंसक संभोग, जिसे बलात्कार कहना ज्यादा उचित है, से राधा प्रसन्न होती थी जिससे यही लगता है कि स्त्रियाँ बलात्कृत होना चाहती हैं।

History of prostitution in india के पृष्ठ १४७ पर पद्म पुराण के उद्धृत यह आख्यान प्रश्नगत प्रसंग में संदर्भित करने योग्य है। एक विधवा क्षत्राणी जो कि पूर्व रानी होती है, किसी वेद-पारंगत ब्राह्मण पर आसक्त होकर समर्पण करने के उद्देश्य से एकांत में उसके पास जाती है लेकिन ब्राह्मण इनकार कर देता है। इस पर विधवा यह सोचती है कि यदि वह उस ब्राह्मण के द्वारा बेहोशी का नाटक करे तो वह उसको ज+रूर अपनी बाँहों में उठा लेगा और तब वह उसे गले में हाथ डालकर और अपने अंगों को प्रदर्शित व स्पर्श कराकर उसे उत्तेजित कर देगी और अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगी। निम्न श्लोक उसकी सोच को उद्घाटित करते हैं – सुस्निग्ध रोम रहितं पक्वाश्वत्थदलाकृति।/दर्शयिष्यामितद्स्थानम्‌ कामगेहो सुगन्धि च॥

मैं उसको पूर्ण विकसित पीपल के पत्ते की आकार की रोम रहित मृदुल और सुगंधित काम गेह(योनि) को (किसी न किसी तरह से) दिखा दूँगी क्योंकि – बाहूमूल कूचद्वंन्दू योनिस्पर्शन दर्शनात्‌।/कस्य न स्ख़लते चिन्तं रेतः स्कन्नच नो भवेत्‌॥

यह निश्चित है कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसका वीर्य किसी के बाहु-युगल, स्तन-द्वय और योनि को छूने और देखने से स्खलित न होता हो।

इससे ज्ञात होता है की आर्ष समाज से लेकर अर्वाचीन समाज तक स्त्रियों की छवि को एक विशेष खाँचे में फिट किया गया है, मातृ-सत्तात्मक समाज रहा हो या पितृ-सत्तात्मक स्त्री को देह की भाषा में ही व्यक्त करने और होने का खेल चलता रहा। और स्त्री को पूजा जाता है ये बकवास की जाती रही है ………………………..

परन्तु अब ये sambhav nahi reh gaya है

मूलचन्द सोनकर ji ke lekh ke ansh

पा.ना. सुब्रमणियन द्वारा लिखा एक लेख है जिसके कुछ अंश इस दिशा में सहायक सिद्ध होंगे की नारी का कितना सम्मान किया जाता रहा है ………………..

कदम्ब वंशीय राजा मयूर शर्मन के समय सर्वप्रथम केरल में ब्राह्मणों का आगमन हुआ. उसके पहले वहां बौद्ध एवं जैन धर्म का बोलबाला रहा. कुछ ब्राह्मण पंडितों ने शास्त्रार्थ कर वहां के बौद्ध भिक्षुओं को परास्त कर दिया. शंकराचार्य (७८८-८२०) के नेतृत्व में हिंदू/सनातन धर्म के पुनरूत्थान के प्रयास स्वरुप शनै शनै बौद्ध तथा जैन धर्म के अनुयायी कम होते चले गए. चेर वंश के कुलशेखर राजाओं (८०० – ११००) ने भी ब्राह्मणों को प्राश्रय और प्रोत्साहन दिया. कहते हैं कि जो ब्राह्मण उत्तर दिशा से आए उन्हें केरल के ३२ और कर्णाटक के तुलुनाडु के ३२ गांवों में बसाया गया था. यही वहां के नम्बूतिरी ब्राह्मण कहलाते हैं जो अपने आपको स्थानीय कहते हैं. कालांतर में इन्हीं ब्राह्मणों में उपलब्ध भूमि आबंटित कर दी गई थी और एक तरह से वे ही वहां के जमींदार बन बैठे. वे जमीन पट्टे पर दूसरों को खेती या अन्य प्रयोजन के लिए दे दिया करते और एवज में उन्हें वार्षिक भू राजस्व की प्राप्ति होती थी. (कृषि उत्पाद या तरल मुद्रा के रूप में)

नम्बूतिरी ब्राह्मणों के निवास को “मना” और कुछ जगह “इल्लम” कह कर पुकारते है. ये साधारणतया एक बड़े भूभाग पर आलीशान बने होते हैं. इसी के अन्दर सेवकों आदि के निवास की भी व्यवस्था होती थी. नाम्पूतिरी लोग भी उत्तर भारतीय पंडितों की तरह चुटैय्या धारण करते थे लेकिन इनकी चोटी पीछे न होकर माथे के ऊपर कोने में हुआ करती थी. इष्ट देव की आराधना में मन्त्र के अतिरिक्त तंत्र की प्रधानता होती है. पारिवारिक संपत्ति का उत्तराधिकारी केवल ज्येष्ठ पुत्र ही हुआ करता था और वही एक मात्र व्यक्ति विवाह करने का भी अधिकारी होता था. पत्नियों की संख्या चार तक हो सकती थी (Polygamy). परिवार के सभी सदस्य एक साथ “मना” में ही निवास करते थे. इस व्यवस्था से संपत्ति विघटित न होकर यथावत बनी रहती थी. अब परिवार के जो दूसरे युवा हैं उन्हें इस बात की स्वतंत्रता दी गई थी कि वे चाहें तो बाहर किसी अन्य ज़ाति (क्षत्रिय अथवा शूद्र) की महिलाओं, अधिकतम चार से “सम्बन्ध” बना सकते थे. ऐसे सम्बन्ध अधिकतर अस्थायी ही होते थे. “सम्बन्ध” बनने के लिए पसंदीदा स्त्री को भेंट स्वरुप वस्त्र (केवल एक गमछे से काम चल जाता था) दिए जाने की परम्परा थी. वस्त्र स्वीकार करना “सम्बन्ध” की स्वीकारोक्ति हो जाया करती थी. जिस महिला से “सम्बन्ध” बनता था, उसके घर रहने के लिए रात में जाया करते और सुबह उठते ही वापस अपने घर “मना” आ जाते. रात अंधेरे में सम्बन्धम के लिए जाते समय अपने साथ एक लटकने वाला दीप भी ले जाते, जिसकी बनावट अलग प्रकार की होती थी और इसे “सम्बन्धम विलक्कू” के नाम से जाना जाता था.

नम्बूतिरी ब्राह्मणों की इस सामाजिक व्यवस्था के परिणाम स्वरुप जहाँ उनकी आबादी कम होती चली गई, वहीं दूसरी तरफ़ योग्य वर के न मिल पाने के कारण कई नम्बूतिरी कन्यायें अविवाहित ही रह जाती. अंततोगत्वा भारत में हिन्दुओं के लिए समान/सार्वजनिक विवाह और उत्तराधिकार नियम बन जाने से उनकी रुढिवादी परम्पराओं का अंत हुआ. केरल में १९६५-७० में भूमि सुधार कानूनों के लागू होने से नम्बूतिरी घरानों की सम्पन्नता भी जाती रही.

केरल के समाज में एक बहुत बड़ा वर्ग नायरों (इसमे पिल्लई, मेनोन, पणिक्कर, मारार, नम्बियार, कुरूप आदि लोग भी शामिल हैं) का था. तकनीकी दृष्टि से ये शूद्र थे परन्तु योद्धा हुआ करते थे. सेना में ये कार्यरत होते थे अतः क्षत्रिय सदृश माना जा सकता है. इनके समाज में अधिकार स्त्रियों के हाथों हुआ करता था. उत्तराधिकार के नियम आदि स्त्रियों पर केंद्रित थे. इस व्यवस्था को “मरुमक्कतायम” कहा जाता था. इन लोगों में विवाह नामकी कोई संस्था नहीं थी. घर की लड़कियां अपने अपने घरों (जिन्हें “तरवाड़” कहा जाता है) में ही रहतीं. सभी भाई बहन इकट्ठे अपनी माँ के साथ. घर के मुखिया के रूप में मामा(मुजुर्ग महिला का भाई) नाम के लिए प्रतिनिधित्व करता था. किसी कन्या के रजस्वला होने पर किसी उपयुक्त पुरूष की तलाश होती जिस के साथ “सम्बन्धम” किया जा सके. यहीं नम्बूतिरी ब्राहमणों का काम बन जाता था क्योंकि कई विवाह से वंचित युवक किसी सुंदर कन्या से संसर्ग के लिए लालायित रहते थे . नायर परिवार में “सम्बन्धम” के लिए नम्बूतिरी या अन्य ब्राह्मण पहली पसंद होती थी क्योंकि उन्हें बुद्धिमान समझा जाता था. जैसे नम्बूतिरी घरों के युवकों को चार स्त्रियों से सम्बन्धम की अनुमति थी वैसे ही यहाँ नायर समुदाय की स्त्रियों के लिए भी आवश्यक नहीं था कि वे केवल एक से ही सम्बन्ध बनाये रखें. एक से अधिक (Polyandry) भी हो सकते थे. अंशकालिक!. सम्बन्धम, जैसा पूर्व में ही कहा जा चुका है, साधारणतया अस्थायी पाया गया है. लेकिन स्थायी सम्बन्धम भी होते थे, किसी दूसरे संपन्न तरवाड़ के नायर युवक से. कभी कभी एक स्थाई और कुछ दूसरे अस्थायी/ अंशकालिक. एक से अधिक पुरुषों से सम्बन्ध होने की स्थिति में समय का बटवारा भी होता था. पुरूष रात्रि विश्राम के लिए स्त्री के घर आता और सुबह उठते ही अपने घर चला जाता. संतानोत्पत्ति के बाद बच्चों की परवरिश का कोई उत्तरदायित्व पुरूष का नहीं रहता था. सब “तरवाड़” के जिम्मे. परिवार की कन्याओं का सम्बन्ध धनी नम्पुतिरियों से रहने के कारण धन “मना” से “तरवाड़” की और प्रवाहित होने लगा और “तरवाड़” धनी होकर प्रतिष्ठित हो गए. कुछ तरवाडों की प्रतिष्ठा इतनी रही कि वहां की कन्याओं से सम्बन्ध बनना सामाजिक प्रतिष्ठा का भी द्योतक रहा.

नायरों जैसी ही स्थिति राज परिवारों की भी रही. उनकी कन्याओं का सम्बन्ध किसी दूसरे राज परिवार के पुरूष या किसी ब्राह्मण से हो सकता था और राज परिवार के युवकों का सम्बन्ध नायर परिवार की कन्याओं के साथ.

यहाँ यह बताना उचित होगा कि इस पूरी व्यवस्था को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी और किसी भी दृष्टिकोण से इसे हेय नहीं समझा जाता था.

52 COMMENTS

  1. लम्बा इतिहास होने के कारण आपने वह चुना जो आपके लेख के विषय को मजबुती दे हिन्दु एक धर्म न होकर जीवन पदती है जिसने सब को लिखने बोलने की अनुमति देता है उस जीवन पद्धति कि आप उस जीवन पद्धति से तुलना करती है जो किसी को लिखने बोलने का कोई अधिकार नहीं देती है तो उसमें महिलाओं का स्थान किस प्रकार सुरक्षित रह जाता है स्पष्ट करें।

  2. दीपा शर्मा, पागल औरत, इसको कोई पागल खाने छोड़ कर आओ। वर्ना अपनी गिरी हुई सोच का कीचड़ सब पर उछाले गी। अगर स्त्री का इतना बुरा हाल होता न इस धर्म मे, तो कभी भी राम जी सँग सीता जी, शिव जी सँग पार्वती जी आदि जोड़ो में पूजा न होती।
    जब आपको किसी श्लोक का भावार्थ करना नही आता तो स्वयं से क्यो अपनी मन्द बुद्धि का उपयोग कर उसे और कम कर रही हो। सत्य में आप प्रताड़ित प्रतीत हो रही है। मेरी संवेदना आपके साथ है। भगवान आपका भला करें।

    • जिसका नैरेटिव ही इस्लाम की अच्छाइयों को बताना और हिन्दू धर्म की विकृतियो को बताना हो उससे आप और क्या आशा कर सकते हैं। उसे मारने की बाद जन्नत में 72 चाहिए

  3. Deepa ji aapne shashtronme varnit shlokon ka galat- sahi aarth nikal kar likh diya hai. sahi pripekshya me unka arth ankit karen to aapka vichar bhi nishchit rup se badal jayega . snatan dharm jine ki ek padhati matra hai . Samajik jivan ko sucharu rup se chalane ki paddhati matra hai . Aage jaisi jiski mansa hoti hai ye shlok bhi unko vaisa hi najar aata hai.
    Sunil Kumar
    Retired chief Manager
    DBGB Patna

    • कृपया हिंदी भाषा को केवल देवनागरी में ही लिखें | धन्यवाद |

  4. Bahut dhyan se padha aap ka lekh aur sahi samajh baitha tha lekin jaise hi niche dekha ye likha
    दीपा शर्मा
    हिन्दू धर्म में विद्यमान विकृतियों और इस्लाम की अच्छाइयों पर बेबाक लेखन करने का जज्बा.
    Phir laga aap, ghinaune kisim ke aurat ho burai har dharm me hai aur acchai bhi aur aap ko eslam me sirf acchai dikhta hai…

  5. इतने पावन पुराणों में बिना समझे दोष लगाकर और जिस धर्म मे पुत्री से विवाह करने का खुले आम लेख है उसकी सराहना करके क्या दिखाना चाहती हो देवी।
    इससे यह प्रतीत होता है कि आपने शास्त्र ज्ञान किसी गुरु द्वारा अपनी सद्बुध्दि रख कर अर्जित नही किया,अपितु धर्म के प्रति हीन भावना रखकर उसमे दोष देखकर और दूसरे अधर्म में बुद्धि लगाकर किया है।
    इन तुम्हारे द्वारा दिये गए कथनों से स्पष्ट होता है कि तुम अपना शील खो कर भ्रष्ट हो चुकी हो।इसलिए तुम्हे अपने आचरण के जैसे धर्म की आवश्यकता है।,तो अआप स्वच्छंद तो हो ही आपको रोकेगा कौन।
    परंतु अपना ये कुकृत्य का विष संसार मे तो मत फैलाओ।

  6. Aapki baate utni hi vishwasniya hai jitni islam ki ye baat ki prithvi chapti hai lol hindu dharm ki vikritiya or islam ki acchahi ..ye line aapki soch or aapki honesty ka accha example hai…shukra kijiye ki hinduwo par itni bebak ghatiya likhne k baad bhi aapko ..aap kaha ja rha hai yahi baat islam k against likhi hoti toh kuch alag nazara hota ….. illogical article by a so call law student

  7. सत्यवचन! परंतु चंद्र जो कि रात में चमकता है ने कभी भी सूर्य से लड़ाई नहीं कि की मुझे(चंद्र) को भी बराबरी का दर्जा चाहिए। मैं रात में चमकने का ठेका ले रखा हूँ क्या? इसी प्रकार नदी ने भी समुद्र से कभी झगड़ा नहीं किया की ऐ समुद्र मैं ही तुझमें आकर क्यों मिलूं? मैं ही गतिमान क्यों रहूँ? क्या मैंने ठेका ले रखा है कि जब चलकर आऊं तो मैं ही आऊं? जरा विचार करो कि अगर चंद्र – सूर्य। नदी – समुद्र आपस में लडे़ तो = क्या होगा??

  8. नारी विषयक अवधारणा : वैदिक काल से आज तक

    भारतीय नारी हमेशा कुलदेवी समझी जाती है। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सभी प्रकार से अच्छी थी। उनको एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। लड़कियाँ ब्रह्मचर्य का पालन करती थीं। आश्रम में शिक्षा प्राप्त करती थीं। सह शिक्षा का प्रचलन था।
    चारों वेदों में नारी विषयक सैकड़ों मंत्र दिये गये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि वैदिक काल में समाज में नारी को एक ऊँचा स्थान प्राप्त था। ऋग्वेद में 24 और यजुर्वेद में 5 विदुषियों का उल्लेख है।
    ऋग्वेद में नारी विषयक 422 मंत्र हैं। वेदों में कहा गया है कि गृहिणी गृहदेवी है। सुशील पत्नी गृहलक्ष्मी है। नारी कुलपालक है। नारी कुटुम्ब का चिराग है। स्त्री अबला नहीं, सबला है। स्त्री सरस्वती तुल्य प्रतिष्ठित है। शतपथ ब्राह्मण में नारी का गौरव-गाथा गाया गया है। ब्राह्मण ग्रंथों में भी नारी को सावित्री कहा गया है। पत्नी के बिना जीवन अधूरा रहता है। पत्नी साक्षत् श्री है।
    यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
    यत्र नार्यस्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त जा फल क्रिया।
    जो अपने परिवार का कल्याण चाहते हैं, वे स्त्रियों का आदर-सम्मान करें। अथर्ववेद में पत्नी को ‘रथ की धुरी’ कहकर गृहस्थ का आधार माना गया है।
    दक्षस्मृति में पत्नी को घर का मूल माना गया है। यदि भार्या वश में हो तो गृहस्थाश्रम के तुल्य और कुछ नहीं।
    पत्नी के द्वारा ही धर्म, अर्थ, काम आदि त्रिवर्ग का फल प्राप्त होता है। गृह का निवास, सुख के लिए होता है और घर के सुख का मूल पत्नी ही है। स्त्री के अर्धांकिनी रूप की स्वीकृति उपनिषद और ब्राह्मण ग्रंथों में उल्लेखित है। यजुर्वेद के अनुसार वैदिक काल में कन्या का उपनयन संस्कार होता था। उसे सन्ध्यावन्दन करने का अधिकार था।
    पी.एन. प्रभु ने लिखा है कि जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध था, स्त्री-पुरुष की स्थिति सामान्यतः समान थी। स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। इस काल में अनेक विदुषी स्त्रियाँ होती थीं। स्त्रियाँ चाहतीं तो अपना जीवन बिना विवाह किये व्यतीत कर सकती थीं। लड़कियाँ अपना जीवन-साथी चुनने के लिए स्वतंत्र थीं।
    महाभारत के अनुसार, ‘वह घर, घर नहीं जिसमें में पत्नी नहीं।’ गृहिणीहीन घर ‘जंगल’ है।
    स्त्रियाँ सामाजिक संबंध स्थापित करने के लिए स्वतन्त्र थीं। पर्दा-प्रथा नहीं थी। पुरुषों द्वारा स्त्रियों की रक्षा करना परम कर्त्तव्य माना जाता था। विधवा स्त्री पुनर्विवाह कर सकती थी। स्त्री-पुरुष समान रूप से धार्मिक कृत्यों को करते थे। किसी भी यज्ञ आदि में पति-पत्नी दोनों का होना आवश्यक था।
    अतः इससे यह स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान अच्छी थी।
    उत्तर वैदिक काल
    ईसा से पूर्व 600 वर्ष से लेकर ईसा के 300 वर्ष बाद तक का काल उत्तर वैदिक काल कहलाता है। वैदिक काल में तो स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। परन्तु बाद में उनकी स्थिति में परिवर्तन होने लगा।
    उत्तर वैदिक काल के प्रारंभिक वर्षों में स्त्रियों की स्थिति ठीक थी। वे इस काल में भी वेदों का अध्ययन कर सकती थीं। वे अपने वर को स्वयं चुन सकती थीं। उनके धार्मिक और सामाजिक अधिकार यथावत् थे। परन्तु इस काल में जैन और बौद्ध धर्म का प्रचार व्यापक रूप से हो रहा था। अनेक स्त्रियों ने इन धर्मों के प्रचार का कार्य किया।
    बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने भी स्त्री का समर्थन किया है। स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है कि वे ही देश उन्नति कर सकते हैं, जहाँ स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त होता है। पुराने ज़माने में स्त्री के बिना कोई भी मंगल कार्य नहीं किया जाता था। उदाहरण में सीता की अनुपस्थिति में श्रीराम ने सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम भाग में बिठाकर ही यज्ञ किया था। बाद में जब इन धर्मों का पतन हुआ तो उसके साथ ही स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन आने लगा।
    पुरुष वर्ग की सुविधा के अनुसार नारियों की स्वतंत्रता पर अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये गये। यज्ञ करना तथा वेदों का अध्ययन प्रतिबन्धित हो गये। विधवा पुनर्विवाह पर रोक लगा दी गयी। शिक्षा प्राप्त करना कठिन हो गया।
    स्मृति युग में स्त्रियों के समस्त अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। स्मृतिकारों ने स्त्री को प्रत्येक अवस्था में परतंत्र बना दिया। उसे बचपन में पिता के संरक्षण में, युवास्था में पति के और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहने के आदेश दिये गये।
    पिता रक्षति कौमारे
    भर्ता रक्षति यौवने
    पुत्रो रक्षति वार्द्धक्ये
    न स्त्री स्वतंत्रग्यमर्हति
    स्त्री के लिए एक मात्र कर्त्तव्य पति की सेवा करना रह गया। विधवा – पुनर्विवाह बन्द कर दिये गये तथा सति का प्रावधान निश्चित कर दिया गया। इस प्रकार स्त्रियों की स्थिति दयनीय और शोचनीय हो गयी।

    • agr yahi baate muslims ke baare mein likhi hoti tih aap sb ji iski alochna kar rhe hi bina pramaan k maan lete qki woh dusro ke baare mein likha hota jo sunna chahte hau woh likha hota iske khilaaf sb khade ho gye lekin aap jaise sb log muslim ko bura kehne waalo k saath hamesha khade hote isi baat se samjho ki jaise yeh galat tareeke se felaaya gaya h aise he muslims ke customs ko kharab krke dikhaya jaata h

      • प्रस्तुत लेख के सन्दर्भ में पाठकों द्वारा की गईं अन्य ढेरों टिप्पणियों में स्वयं लेखक के अस्तित्व पर प्रवक्ता ब्यूरो व दो पाठकों के बीच निम्नलिखित महत्वपूर्ण टिप्पणी व प्रतिक्रिया को लगभग खो जाते देख यहाँ फिर से पाठकों की सूचना हेतु दुहरा रहा हूँ|

        “प्रवक्‍ता ब्यूरो

        हमे लगता है आपको आपके ही बारे मे, हमें बहुत कुछ बताना होगा. आप एक साथ इन नामोन से एक ही IP से जो देल्ही के Tata ke GSM Internet से इन – इन नामो से कोम्मेंट करती हैं, जो technically सम्भव नहीं है, और तो और कैई बार तो आप दुसरे- दुसरे देशो के IP बदल कर एक घंटे मे 3 अलग-अलग IP से कोमेंट किये हैं जो technically सम्भव नहीं है, और तो और कैई बार तो आपने अपने ही कोमेंट को खुद से नाम बदल कर् वाह-वाही भी दी हैं जो कन्हे तो IP सहित मैं डीटेल् मे दे सकता हु. कुच्छ डीटेल यह रहा…..
        deepa sharma
        mahi1deepa@gmail.com
        182.156.180.239
        anuj kumar
        anuj.kumar5279@gmail.com
        182.156.180.239
        vinita raga
        vinny.raga@gmail.com
        182.156.180.239
        प्रवक्ता.कॅम का अपने सभी पाठको से अनुरोध है की इन नामोँ से किए गये कोमेंट को एक ही व्यक्ति के कोमेंट समझे
        Agyani Thakur

        माननीय सम्पादक महोदय, लेख को पढ़ते/देखते वक्त सोच रहा था की क्यूँ नहीं आपने इस जाली लेख को प्रवक्ता से समाप्त कर दिया ! लेकिन आपकी टिप्पणी पढ़कर अब यह महसूस हुआ की आप की मंशा क्या थी/है! मेरा सुझाव ये है की इस तरह के विरोधाभासी लेखों के लेखकों को बेनकाब करने का बेहतरीन तरीका यही है की आपके द्वारा की गयी टिप्पणी हमेशा सबसे ऊपर दिखे जिससे लोगों को बिना वजह खून खौलाने की आवश्यकता ही न पड़े! निश्चय ही प्रवक्ता के नियमित पाठकों को इस लेख को पढ़कर दुःख तो पहुंचा ही होगा? जो लोग टिप्पणी पूरी नहीं पढ़ देख पाते हैं वो तो शायद सच के बारे में भी नहीं जान पायेंगे!

        abhishek purohit

        सम्पादक जि अगर आपको पता है की ये अलग-अलग नामों से पोस्ट करने वाली बहन जी या भैय्या जी जो भी है,तो आप क्यों एनको छापते है??विचार अलग होना कोयी गलत बात नही होती है लेकिन झुठे विचारों को दुसरों पर थोपना और पुरे के पुरे हिन्दु धर्म को गालिया बकना ना केवल गलत ह वर्न “देश्द्रोही” क्रित्य भी है,जैसा मेनें पहले भी लिखा है ये सारे तर्क किसि को भी क्रिशन मिशिनरियो की किताबॊं और उनकि साईट्स पर मिल जायेंगे,फ़िर क्यों नही ये माना जाये कि ये लोग गलत नाम और गलत पहचान से प्रवक्ता के मंच का दुरुपयोग कर रहे है???
        सब कुछ जानते हुवे भी भिन्न विचारों और आलचनाओं को भी छाप कर आप महान भारतिय पर्म्परा का निर्वाह कर रहे है जो अपने शत्रु से भी प्रेम करना सिखाती है,एसके लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद,साधुवाद और नमन।“

  9. ठीक ही कहा है तुलसी दास जी ने कि ढोल, गवार शुद्र, पशु नारी ये सब ताडन के आधिकारि
    1.ढोल को पीटना ही पढता है तभी काम करेगा
    2.ग्वार शुद्र =सभी नही जो ग्वार हो उनको
    3.पशु नारी =पशुओ के समान व्यवहार करने वाली
    ये ताडन की आधिकारि है और आप भी उसी श्रेणी की प्रतीत होती है क्योंकि जिस तरह का अर्थ का अनर्थ कर बलात्कार किया है आप इसकी अधिकारी है और ईश्वर आपको निश्चय ही दंड देगा ।
    आपकी ही तरह बुद्धिजीवियों की जमात है जिनको हर जगह टट्टी करने की आदत होती है और आपने भी वही किया है
    अधजल गघरी छलकत जाय
    का अच्छा उदाहरण साबित होगा आपका ब्लॉग

  10. main Ateet Gupta ki comment par puri tarah se vishwast hoon..

    yaha 1 baat aur jodana chahata ki iss lekh me jitne bhi sandarbh\reference diye gaye hai wo sabhi ke sabhi aise agyat lekhko\lekho se liye gaye hai jinko koi janta nahi ya inki vidwata ka praman bhi kahi nahi milta aur majedar baat hai ye upnaamo se hi likhte hai asal naam se nahi aur to aur isme jyadatar JNU jo ki communisto (haiaramkhoro) ki janani hai waha se lekhak paida hue hai.. jo toilet se lekar khane tak aur vigyan se lekar kala tak sabme apne साम्यवाद ko ghuser dete hai iska matlab ye hai ki vista ko bhi bhojan se samyata ke aadhar par grahan karte hai…(This can be better definition of communism)

    jab ye JNU me mahisa sur ko dalit maankar uski jayanti mana sakte hai aur Maa Durga ko forward caste ki naari mankar uski hatyari maan sakte hai to aap soch sakte hai ki inki kya mansikata hai…

    yaha jitne bhi reference\translation ya lekh isne yaha add kiye hai wo sab farji\fake hai mislead karne ke liye hai aur apne hisab se jaise ye sabhi vishayo ko samyawad se jodkar dekhte hai waise hi lekh me bhi apne hisab se translation ya assumption kar liya hai bina gyan ke…

    maine kayi reference ko swayam janchane ki koishish ki likin aur nishkarsh pe gaya ki ye sab galat dhang ke vyakhya kiya hua inki mansik bimari ko hi pradarshit karta hai

    ab isase jyada kya kahna ap bhai bahan samajhdaar hai sywam satyata ki janch kar samajh jayiye…

    jai hindi…
    Pratap Mishra.

    अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च

  11. ये मिशनरी और तथकथित सेकुलर बुद्धिजीवी जिनके दिमाग मानसिक रूप से बिमार हैं और कुतर्को द्वारा अपनी निकृष्ट मानसिकता हिंदूओ के विरूद्ध षणयंत्र मे प्रयोग करते है. कन्तु ईनको पता है कि इन जैसे गटर की सडा़ँध से उत्पन्न कीड़े वास्तव मे अपनी औकात का ही परिचय देते हैं.अभी हाल ही में हाँग काँग की 1 संस्था ने शोध करके 1 लेख प्रकाशित किया शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ सम्प्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया। और 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर ये यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुँचे।

    कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को ‘रौजाबल’ के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।

    निकोलस नोतोविच का शोध : एक रूसी अन्वेषक निकोलस नोतोविच ने भारत में कुछ वर्ष रहकर प्राचीन हेमिस बौद्घ आश्रम में रखी पुस्तक ‘द लाइफ ऑफ संत ईसा’ पर आधारित फ्रेंच भाषा में ‘द अननोन लाइफ ऑफ जीजस क्राइस्ट’ नामक पुस्तक लिखी है।

    हेमिस बौद्घ आश्रम लद्दाख के लेह मार्ग पर स्थि‍त है। किताब अनुसार ईसा मसीह सिल्क रूट से भारत आए थे और यह आश्रम इसी तरह के सिल्क रूट पर था। उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र तक यहाँ रहकर बौद्घ धर्म की शिक्षा ली और निर्वाण के महत्व को समझा। यहाँ से शिक्षा लेकर वे जेरूसलम पहुँचे और वहाँ वे धर्मगुरु तथा इसराइल के मसीहा या रक्षक बन गए।

    ईसा का नामकरण : यीशु पर लिखी किताब के लेखक स्वामी परमहंस योगानंद ने दावा किया गया है कि यीशु के जन्म के बाद उन्हें देखने बेथलेहेम पहुँचे तीन विद्वान भारतीय ही थे, जो बौद्ध थे। भारत से पहुँचे इन्हीं तीन विद्वानों ने यीशु का नाम ‘ईसा’ रखा था। जिसका संस्कृत में अर्थ ‘भगवान’ होता है।

    एक दूसरी मान्यता अनुसार बौद्ध मठ में उन्हें ‘ईशा’ नाम मिला जिसका अर्थ है, मालिक या स्वामी। हालाँकि ईशा शब्द ईश्वर के लिए उपयोग में लाया जाता है। वेदों के एक उपनिषद का नाम ‘ईश उपनिषद’ है। ‘ईश’ या ‘ईशान’ शब्द का इस्तेमाल भगवान शंकर के लिए भी किया जाता है।

    ईसा मसीह का भारत भ्रमण!
    फिफ्त गॉस्पल : ये फिदा हसनैन और देहन लैबी द्वारा लिखी गई एक किताब है जिसका जिक्र अमृता प्रीतम ने अपनी किताब ‘अक्षरों की रासलीला’ में विस्तार से किया है। ये किताब जीसस की जिन्दगी के उन पहलुओं की खोज करती है जिसको ईसाई जगत मानने से इन्कार कर सकता है, मसलन कुँवारी माँ से जन्म और मृत्यु के बाद पुनर्जीवित हो जाने वाले चमत्कारी मसले। किताब का भी यही मानना है कि 13 से 29 वर्ष की उम्र तक ईसा भारत भ्रमण करते रहे।

    ऐसी मान्यता है कि उन्होंने नाथ सम्प्रदाय में भी दीक्षा ली थी। सूली के समय ईशा नाथ ने अपने प्राण समाधि में लगा दिए थे। वे समाधि में चले गए थे जिससे लोगों ने समझा कि वे मर गए। उन्हें मुर्दा समझकर कब्र में दफना दिया गया।

    महाचेतना नाथ यहूदियों से बहुत नाराज थे क्योंकि ईशा उनके शिष्य थे। महाचेतना नाथ ने ध्यान द्वारा देखा कि ईशा नाथ को कब्र में बहुत तकलीफ हो रही है तो वे अपनी स्थूल काया को हिमालय में छोड़कर इसराइल पहुँचे और जीसस को कब्र से निकाला। उन्होंने ईशा को समाधि से उठाया और उनके जख्म ठीक किए और उन्हें वापस भारत ले आए। हिमालय के निचले हिस्से में उनका आश्रम था जहाँ ईशा नाथ ने अनेक वर्षों तक जीवित रहने के बाद पहलगाम में समाधि ले ली।

    विशव व्यापी तो मात्र हिन्दू धर्म ही है. और इसकी लोकप्रियता और स्वीकार्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है कि अमेरिका के SATON HALL UNIVERSITY, NEW JURSY ने भगवद गीता का अध्ययन सभी छात्रों क लिऎ अनिवार्य कर दिया है. ये भारतीय वर्ण संकर जो कम्युनिसट सेकुलरिस्म की माला जपते है उनके मॅुह पर बहुत बड़ा थप्पड़ है. एक बात और य़े सब हिऩ्दू ही थे और आज के जयचन्द(दोगले)..

    प्रताप मिश्र

  12. प्रिय mitro येः दीपा नाम की कोई लड़की नहीं है बल्कि यह एक क्रिस्चन लड़का है और मिसिनोरी के लिए कम कम करता है इसे मई अच्छी तरह से जनता हु
    ये पिचले ५ साल से सिविल की तैय्यारी कर रहा है सो इसके बकवास पर मत जाइये

  13. sabkew vichar alag alag होते हे इसमें ज्यदा दिमाग की जरुरत नहीं हे

  14. वकील साहिबा – जब भी किसी पुस्तक का भावार्थ निकला जाता है तो बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है , इसके लिए आपने शायद अपनी क़ानून की किताबों में एक पूरा विषय ही अलग पढ़ा होगा, आपके हर तर्क का जवाब हम दे सकते हैं लेकिन वो उर्जा को व्यर्थ नष्ट करना होगा , कुंती पुत्र …… इक पूरा युग स्त्री को समर्पित रहा है परन्तु आपको उसमे भी कोई पाखण्ड दिखाई देगा, इसके अलावा हिन्दू संस्कृति में स्त्री रूप की पूजा में भी आपको पाखण्ड ही दिखाई देता होगा …. बस इतना ही कहना है कि कुछ गड़बड़ जरूर हुआ है गर्भावस्था के दौरान , तभी … खैर आप ना तो अच्छी बेटी, न ही अच्छी बहन , माँ या सास बन पाओगी , इतना अवश्य तय है … आपके ज्ञान के लिए हमारा एक ही प्रश्न – जो शूद्र और ताड़ना शब्द इस्तेमाल हुआ है उसका वास्तविक अर्थ क्या है , …. यूरोप में स्त्री को पूर्ण आजादी है और परिणाम आपके सामने है और भारत में भी आजादी है परन्तु नियमानुसार और परिणाम आपके सामने है कि भारतीय सभ्यता का डंका पूरे विश्व में बज रहा है स्त्री और पुरुष दोनों के द्वारा…. यश की भूख बहुत ही दुखदाई रोग होता है और जीवन पर्यंत दर्द ही दर्द देता है साध्वी….. आशा है जब भी आप भीषण रोग से पीड़ित होंगी भविष्य में कभी भी इश्वर को याद नहीं करेंगी क्योंकि शायद वो भी पुरुष के रूप में ही होगा…….

  15. लेखिका लेखक जो भी है यह स्लतवाक के आयोजन से निकली निकला है .
    विद्वान तो बहुत देखे है पर दीपा जैसा नहीं लेखिका से निवेदन है की जैसा उन्होंने कहा की वे LLB की स्टुडेंट है .इस लेख का मूल स्रोत कहा है.अगर सचमुच आपने उपरोक्त लिखित सभी ग्रंथो का अध्ययन उसी तरह किया है जैसा की आपने दर्शाया है तो भविष्य में उमाभारती ऋतंभरा मायावती इन सब की छुट्टी

    दीपा जी शर्मा शर्मा के जरूर बताईयेगा .
    बहुत प्रतिभा है आपमें बहुत ऊपर तक जाओगी.

    विमलेश त्रिवेदी
    9619739368

  16. गंदे लोगो को हमेशा गन्दगी ही दिखाई देती है जाकर मैक्समूलर से पूछो मनुस्मृति वेद उपनिषद कहाँ है जिस रामचरित्रमानस की आप बात कर रही ओ भी मूल नहीं है इसाई धर्म इस्लाम धर्म में क्या हालत नारीयों की है इसपे शोध करना है तो पाकिस्तान चली जाओ या तो अमेरिका और ब्रिटेन में बिना बाप के बच्चे पैदा करने वाली माँ से जरुर मिलो पता चल जायेगा आप जैसे लोग पेट और प्रजनन ही अपना धर्म समझे है नारी हमेशा पुरुष से बड़ी है और रहेगी धार्मिक और वैज्ञानिक ये सत्य है आप जैसे लोगो के प्रमाण की जरुरत नहीं देश काल समय के हिसाब से स्थितिता भी अलग होती इतना तो विवेक रखना ही चाहिए उस समय की महिलाओ की भाषा भूषा भेषज भोजन भजन पे भी शोध करो लोगो को शिव कृष्ण विष्णु का काम तो दिखाई देता है उसके पीछे की वैज्ञानिकतादिखाई नहीं देती ऐसे लेखो का जबाब देना ही चाहिए

  17. दीपा जी आप को गाली देने का मन कर रहा है क्या आप को पत्ता भी है या कही से सुन कर इन सब को लिख दिया वेद पढने वाले श्री राम्क्र्रिश्ना परमहंश जी का जब विवाह हुआ था तो उन्होंने एक दिन भी अपने पत्नी के साथ nahi गुजरे वो तो उन्हें माता का रूप मानते थे . मुझे तो लगता है की तुने किसी दुसरे धरम के इन्स्सन से शादी की है है इसलिए ये सब लिख रही है भगवद गीता और वेद को पढ़ तब समझना और लिखना . विवेकनद जी ने वेद पढ़े और वो स्त्रियों का कितना सम्मान करते थे जितने भी लोगो ने वेद पढ़ा हैउनकी बूढी दुनिया ने मणि है और एक तुम जिसको लोग गली देते होंगे

  18. कट्टर हिन्दू वादियों को सच्चाई कडवी लग सकती है , पर सच यह है की मनुस्मृति हिन्दू धर्म के अनुयायियों के मन में अन्दर तक बस गया है , मनुस्मृति में साफ़ साफ़ लिखा है ब्रह्मण सर है और शुद्र पैर . जिसका परिणाम स्वरुप आज हम आरक्षण के रूप में भुगत रहे है .

    मनुस्मृति सारी फसाद की जड़ है . मनुस्मृति के नियम ब्रहमनवाद से ग्रसित है , और सजा का स्तर ब्रह्मण के लिए कम और बाकि के लिए ज्यादा लिखा गया है . verses (IX – 3, 17) में औरतो की दयनीय हालत का ज़िक्र किया गया है , और तो को वेदा पड़ने की मनाही थी , इससे साफ़ साबित होता है , की राम राज्य एक ढोंग था , वास्तव में हिन्दू धर्म भी मुस्लिम धर्म की तरह औरतो को कुचलने का काम करता था . verses (IX – 94) and (IX – 90). में बाल विवाह का भी उल्लेख है .

    मैं कभी कभी हैरान होता हूँ , की क्यों औरतें तो कभी इतनी धार्मिक होती हैं. जबकि उन्हें पता है की लगभग हर धर्म उन्हें इस्तेमाल की चीज़ ही समझा , उनको आदमी से निचे ही रखा .और अब भी कुचलते आ रहे है , हर धर्म में औरतो को हमेशा द्वितीय श्रेणी की प्रजाति ही माना गया है.

    • लेखिका या तो आप सताई हुयी या व्यभिचारिणी स्त्री है , सच कहू तो आप को स्त्री कहने में भी शर्म आ रही है , स्त्री और हिंदू होकर जैसा की नाम से प्रतीत होता है , ऐसे असभ्यतापूर्ण लेख जो की मन गढंत एवं किसी व्यक्ति की अपनी तार्किक शक्ति से किया गया अनुवाद है , के आधार पर इतनी दकियानुसी बाते लिखना आप को सोभा नहीं देता
      आप जैसे ही लोग आने वाली पीढ़ीयों में अपने धर्म के प्रति जहर घोलने का कार्य करते है आप को यह सुझाव है कि ऐसी नीच सोच अपने पुत्र पुत्रियों को मत दीजियेगा वरना वो आप के प्रति आदर न रखते हुए आप को भी सम्भोग कि वस्तु समझने लगेंगे
      मुझे तो आप किसी जेहादी संगठन या हिंदू धर्म को बदनाम करने वाली किसी संस्था कि सदस्या लगती है अगर समय और इच्छा हो तो शुद्ध मन से वेदों का अध्यन करे और किसी विद्वान से उसका अर्थ निकलवाये
      आगे से ऐसे पोस्ट लिखने से पूर्व ध्यान रहे कि किसी धर्म , समुदाय विशेष कि भावनाए आहत न होने पाए अन्यथा आप को कानूनी कारवाही का सामना करना पड़ जायेगा

    • आपको कैसे कह सकते हैं की लेखिका ने बहुत अच्छा लिखा और इतिहास के आधार पर अपने शास्त्रों के आधार पर लिख अगर ऐसा है तो लेखिका को भारत में आए हुए जितने विदेशी विद्वान थे जिन्होंने भारत के ऊपर पुस्तक लिखी मेगास्थनीज से लेकर अलबरूनी तक उनकी पुस्तक को पढ़ लेना चाहिए जिससे उन्हें भारतीय समाज के बारे में जानकारी मिल जाएगी

  19. इस लेख को मैंने पढ़ा. पढ़कर हंसी लग रही है. इस तरह के गंभीर (?) लेख में एक भी उद्धरण नहीं हैं. संस्कृत के मूल श्लोक देना चाहिए. यदि लेखक को इसका ज्ञान नहीं है, तो संहिता ग्रंथों पर लिखना ही बेकार है. यहाँ उद्धरणों को नोचकर वैसे ही रखा गया है, जैसे कोई बन्दर बगीचे से फल और फूल इकठ्ठा करता है. एक एक उद्धरण के आगे पीछे की बातों को बताये बिना बीच से पंक्तियाँ उठा लेने पर कैसा अन्याय होता है, यह तो वही जान पायेंगे जो संस्कृत के ग्रंथों को पढ़ चुके हैं. संस्कृत के ग्रंथों में किसी भी पंक्ति का भाव तभी समझा जा सकता है, जब उसे अपने संदर्भा में कहा जाये. इस परिस्थिति की अनदेखी की गयी है. लेकिन जिनका लक्ष्य ही किसी धर्मं की निंदा करना हो, उसके प्रति आस्था रखनेवाले को उत्तेजित करना हो, उससे हम न्याय बरतने की आशा ही क्यों करे! दीपाजी का भी यही लक्ष्य है कि किसी तरह हिन्दू धर्मं की निंदा की जाये. यदि हिन्दू धर्म के प्रति उनकी ऐसी अवधारणा है तो वे इसकी चर्चा ही क्यों करती हैं? वे आखिर क्या चाहती हैं? ‘प्रथम प्रवक्ता’ के कई अंकों को मैं पढ़ चूका हूँ. उसे मैं नि:पक्ष पत्रिका समझता था लेकिन इस लेख से मेरी धारणा को ठेस पहुंची है

  20. यदि मैं कहू की ये सारे श्लोक नंबर जो भी दीपा जी ने दिये है वो मन गढ़ंत है तो इस पर दीपा जी आपका क्या खयाल है ….. वैसे कम्युनिस्टि मस्तिष्क मे तार्किक क्ष्मता कम होती है अतार्किक ज्यादा ….
    आपके ही कुछ वाक्यो को उदधृत करता हु /// यह श्लोक हाईपोथीसिस की बात करता है किसी प्रकार का आदेश नहीं देता।/// …………… तथा ………….. /// मनु ने, जैसा कि उन्हें प्रताड़ित अपमानित करने के लिए आदेशित किया है/// ये दो विपरितार्थक बाते आरके ही पैरा मे क्या कर रही है भाई ??? अच्छा आपने जीतने भी श्लोक न. दिये है जरा उन श्लोको को भी तो लाइये उन्हे यहा लिखा क्यो नहीं ??? … आखिर झूठ मूठ का लोगो को क्यो भरमा रही है ???…………… मैं आगे भी आऊँगा आपके एक एक बाटो का जवाब देने …. उसके बाद जनता स्वयं निर्णय करेगी की आप आखिर हिन्दू समाज को तोड़ना क्यो चाहती है ???

  21. बहन आपने महनत तो बहुत की पर धर्म ग्रंथों के बारे में ऐसा जानकर कुछ अच्छा नहीं लगा !
    दूसरी बात ये है की मै हिन्दू धर्म ग्रंथों के बारे मै तो जानता नहीं हूँ पर आप ने एक हवाला एस मै कुरान का भी दिया है जो की गलत जगह देदिया है उस आएत का मतलब वो नहीं जो आप समझी हैं उसका मतलब कुछ ऐसे है की आप अपनी बीवी के साथ सम्भोग तो करो लेकिन काएदे से करो जेसे खेती काएदे से करते हो, जैसे खेत मे बीज ऊपर से ही बो सकते हो इसी तरह बीवी का भी सिर्फ आगे का हिस्सा हलाल है पीछे से सम्भोग करना हराम है, ये आयत तब नाजिल हुई थी जब किसी ने ये पूछा था की क्या हम बीवी का पीछे का हिस्सा भी इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं ,
    बाकि आप अच्छी ज्ञानी मालूम पड़ती हैं तो आप को पता ही होगा की जो रुतबा इस्लाम ने औरतो को दिया है वो किसी कानून ने आज तक नहीं दिया

  22. अरे मंदबुद्धि सम्पादक नीचे लिखे लिंक पर जाओ और सत्यार्थ प्रकाश पढो! तुम्हारी बुद्धि खुल जाएगी……… दीपा जी आप भी पढना जैसा की इन महाशय जी ने लिखा है वैसा कुछ भी नहीं है! https://www.aryasamajjamnagar.org/satyarthprakash/satyarth_prakash.htm

  23. लेखक का परिचय वही दिया जाना चाहिये जो वह स्वयं उद्धृत करे । दीपाजी के लिये अपनी ओर से यह बात लिखना कि वे इस्लाम की अच्छाइयों पर लेखन करती हैं, उनके प्रति दुराग्रह को दर्शाता है तथा प्रवक्ता की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाता है । हिंदू धर्म की विकृतियों पर प्रहार करना एक सच्चे हिंदू का अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है । हमारी धार्मिक बेड़ियों ने ही हमें शताब्दियों तक दासता की अवस्था में रखा है । दीपाजी के साहस की प्रशंसा करने की जगह उन पर अनुचित प्रहार करके हिंदू धर्म की कुसेवा ही की जा रही है ।

    जितेन्द्र माथुर

  24. नारी का स्थान उचा हैं या निचा इन सभी से कोई फर्क नहीं पड़ता हैं . लेकिन सभी को शांति पूर्वक जीने हक़ मिले . सच बात यह हैं की लोग हमेशा यह बोलते नजर आते हैं आदमी एक इन्सान हैं . जबकि ऐसा नहीं हैं . आदमी एक इन्सान नहीं हैं . आदमी एक जानवर हैं . आदमी केवल एक जानवर होता हैं . यह दुनिया एक जंगल हैं . आप लोग जानते हैं जंगल बहुत प्रकार के जानवर होते हैं . अगर किसी को कुशल पूर्वक रहना हैं तो उसको अपनी रक्षा खुद करनी पड़ेगी . और उसके रिश्तेदारों को करनी पड़ेगी .

  25. -सुनीं पटेल जी आपका संदेह सही है. जब सेमेटिक सम्प्रदायों के हिंसा और अलगाव वाद को बढ़ावा देने वाले उद्धरण हम बतलाते हैं तो ये भारत के निंदक हमें कहते हैं की हम सन्दर्भ से काट कर गलत अर्थ कर रहे हैं और संप्रदाय विशेष को बदनाम करने का अनुचित प्रयास कर रहे हैं.
    – जब भारतीय संस्कृति पर इन्हें प्रहार करना होता है तो पूरी निर्लज्जता व ढिठाई के साथ प्रसंगों से काट कर सामग्री उधृत करते हैं. ज़बरन वे अर्थ निकालते हैं जो कई बार होते नहीं. तभी इनका जवाब देने में मगज खपाई करने की मुझे ज़रूरत नहीं लगी.
    -क्या ज़रूरी है कि इनके द्वारा हमारे घेरेबंदी के लिए जो मुद्दे ये लोग कुटिल योजनाओं के अंतर्गत उछालते हैं, उनमें हम फंसें ? अपने मुद्दे हमको स्वयं तै करने चाहियें, अपनी ज़रूरतों के अनुसार. अतः उपरोक्त लेख की उपेक्षा ही इस निंदनीय प्रयास का सबसे अछा जवाब है.
    – अधिक अछा तो यह होगा कि इनपर एक भी टिप्पणी न की जाए, इनकी दुष्टता पूर्ण योजनायें अपनी मौत स्वयं मर जाएँगी. इन्हीं की तकनीक है जो इनपर आजमानी चाहिए.
    – हमारी संस्कृति में जीवन के हर पक्ष पर गहन ज्ञान उपलब्ध है. काम सूत्र, पाक शास्त्र, आयुर्वेद, अध्यात्म इत्यादी और है ‘भोगों को भोगते-भोगते उनपर विजय प्राप्त कर लेने का अमरत्व प्रदान करने वाला ज्ञान”
    -हमारे जीवन दर्शन में भोग भोगना मना तो नहीं, अपियु उसकी विधियां व वर्जनाएं बतलाई गई हैं. सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि हमारे जीवन का लक्ष्य भोगों को भोगना नहीं, उनपर विजय पाना है. यही वह तत्व है जो हमको संसार में सबसे अलग, सबसे ख़ास पहचान प्रदान करता है.
    – इस बात को पश्चिम की भोगवादी संकुचित सोच व प्रकृती में पले लोग नहीं समझ पाते. अतः वे वासना से बाहर, उससे ऊपर की बात को समझ ही नहीं पाते. उनकी बुधी का विकास हे उस स्तर का नहीं हुआ है. नाली की गन्दगी में पले कीट को आप फूलों की क्यारी में प्रसन्न नहीं रख सकते.
    – बुरा माने बिना इस बात को समझें कि वासना की पतित अवस्था से ऊपर उठने की बात पश्चिम वालों और उनके मानस पुत्रों को लगभग असंभव है.
    -यही कारण है स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परम हंस, चैतन्य, गांधी, बाबा रामदेव जी जैसे सयमीं केवल भारत में ही जन्म लेते हैं.
    – अतः वासना के नर्क कीटों को समझाने में बुराई तो कोई नहीं पर उमें परिवर्तन मुश्किल है. ये हर बात में वासना देखने के स्वभाव या असाध्य बीमारे से मुक्त नहीं हो सकते. अच्छा देखना इन्हें पसंद ही नहीं. अतः इनके प्रहारों से अपने समाज की रक्षा करते हुए इनको इनकी करनियों से प्राप्त होनेवाली दुर्दशा को प्राप्त हने देना चाहिए.

  26. आपको सर्वप्रथम मुस्लिम हो जाने की जरूरत hai ………..
    aap ने कभी सुना या dekha है की कोई मुस्लिम अपने धर्म की बुराई करता हो ….
    आपको शर्म आनी चाहिए ……………
    आप hindu संस्कृति को जानती नहीं तो ऐसी गलत सी टिपण्णी करने का कोई अधिकार नहीं है….आपको धर्मभक्त राष्ट्रभक्त देशप्रेमी जनता सबक सिखाने के लिए कटिबद्ध है…….आपको गीता का अध्यन करना चाहिए जिसमे लिखाहै “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावह ”
    कृपया ऐसी मूर्खतापूर्ण बाते करना बंद करे………..

  27. आदरणीया दीपा जी, लगता है आप हिन्दू धर्म की बुरइयो पर P.hD. कर रही है.

    * करोडो करोडो हिन्दू जो भगवत गीता को मानते है, रामायण, महाभारत और अन्य धार्मिक ग्रन्थ को मानते है वे श्रद्धा से पूजा पाठ करते है, अपने देवी देवताओं को आराध्य मानते है.
    * स्मृति में क्या लिखा है, हिन्दू यह नहीं जानना चाहते है. वे हिन्दू धर्म में आस्था रखते है. धर्म का पालन करते है.
    * आपके लेख के अनुसार बलात्कार, योन सुख ही हिन्दू धर्म का आधार है – वाकई शर्म की बात है.
    * आप लिख रही है की हमारे शास्त्र कन्या-संभोग और बलात्कार के लिये भी प्रेरित करते हैं – आपने हिन्दू धर्म पर इतना बड़ा प्रहार किया है फिर भी आप एक महिला होने के कारन आदर योग्य है. किसी और धर्म पर इतना बड़ा प्रहार किया होता तो आप जानती है की कितना बड़ा विवाद हो जाता.
    * रही बात उन स्लोको की तो – क्या प्रमाण है की यह श्लोक सूक्त भारतीय हिन्दू धर्म ग्रन्थ से ही लिए गए हो. सभी जानते है की छन्द, श्लोक, निश्चित मात्राओ के आधार पर लिखे जाते है, और कोई भी संस्कृत का जानकर इसी तरह के छन्द, स्लोको, सूक्ति बना कर हिन्दू को बदनाम कर सकता है. लालू चालीसा, और अन्य नेताओ पर कई भजन / संस्कृत श्लोक लिख दिए गए है तो क्या वे हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व करते है.
    * पूरी दुनिया जानती है की हिन्दू धर्म की शिक्षा क्या है, हमारा दर्शन क्या है, योग, संयम, चरित्र किस धर्म का मूल है.
    * हिन्दू धर्म को अपमानित / ख़त्म करने का प्रयास सदियों से होते रहे है, फिर भी धर्म जिन्दा है.
    * कालांतर में हिन्दू धर्म में आई कुरितियो पर प्रहार कीजिये, उन बुराईयो को बहार करने का प्रयत्न कीजिये न की हिन्दू धर्म की गलत व्याख्या कीजिये.
    * लेख का विषय “पुरुष से ऊंचा स्‍थान है नारी का हिंदू परंपरा में ?” – मैं फिर कहता हु, नारी पहले भी हिन्दू धर्म में पुजनीये थी, है और रहेगी.

  28. गांधी जी ने कहा है, ” गटर इंस्पेक्टर ऑफ़ इंडिया ”
    केवल और केवल भारत के अँधेरे पक्षों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर उजागर करने की कलुषित मानसिकता वालों से दुखी होकर गांधी जी ने ये पहचान और नाम ऐसे लोगों को दिया था.
    जिस भारत को सारा संसार नमन करता था, वह भारत क्या है ? क्यों था ऐसा हमारा भारत ? कब था हमारा देश ऐसा ? यह जानकर समस्याओं के समाधान व कुरीतियों को दूर करने में हमारी रूचि है, अपनी जननी को अपमानित, लांछित करने वाले कुपूत हाँ क्यों बनेंगे? (कई ताकतें हमें ऐसा बनाना चाहती हैं) अपनी बुराईयों के साथ-साथ हम अपनी महानता के तत्वों को भी जानना चाहते हैं.
    जो कोई भारत की महानता व बुराईयों दोनों पक्षों को संतुलित रूप में हमें बतलाये, हम उसी को अपना मित्र और हितैषी मान सकते हैं. हमें और हमारे देश को पग-पग पर अपमानित करने वालों को हम अपना हित चिन्तक कहें या गुप्त शत्रु …..?

  29. सम्पादक महोदय, मेरा विनम्र निवेदन है की——
    * आपने कुछ लोगों के आग्रह या दबाव पर कुछ टिप्पणियों को अशोभनीय मानकर हटाया है. इसप्रकार शायद आपने अपने सम्पादकीय दायित्व का निर्वाह किया. क्या ‘प्रवक्ता .कॉम’ का एक यह दायित्व नहीं कि झूठी पहचान, झूठे चित्र की धोखाधड़ी करने वालों के पोस्ट या लेख प्रकाशित न करें ?
    * राष्ट्र विरोधी, समाज विरोधी, राष्ट्रीय एकता के सूत्रों को खंडित करने वाले, भारत की संस्कृति व महान परम्पराओं तथा महापुरुषों को अपमानित या लांछित करने वाले पोस्ट छापना उचित है क्या ? मेरे विचार में इसपर अछी तरह विचार होना चाहिए.
    * समाज में विघटन पैदा करने वाली सामग्री और समाज को जोड़ने वाली सकरारात्मक सामग्री को क्या सामान महत्व दिया जाना चाहिए ? ऐसी मांग घुमा-फिरा कर सम्पादक महोदय से की जा रही है. सम्पादक के अधिकार को चनौती दी जा रही है कि वे किस टिप्पणी को महत्व दें और किसे नहीं. कौन नहीं जानता कि राष्ट्र विरोधी मीडिया कितनी बुरी तरह राष्ट्र व संस्कृति के हित के समाचारों की ह्त्या करता है. देश को तोड़ने वाले, हामारे धर्म, संस्कृता, पूर्वजों को अपमानित / बदनाम करने वाले समाचारों को बड़ी निर्लज्जता और बेईमानी के साथ प्रस्तुत करते हैं. इस घुटन व यातना को करोड़ों देशवासियों ने भोगा है और भोग रहे हैं. ”प्रवक्ता.काम” जैसे प्रयासों ने इन घावों पर मरहम लगाने का काम किया है. इन सकारात्मक व कल्याणकारी प्रयासों को भटकाने और कब्जाने के प्रयास अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के एक अंग होने में हमें संदेह नहीं . क्या इनके षड्यंत्रों का शिकार हमें बनाकर हमें इनके दबाव में आकर काम करना चाहिए ? अथवा इनका भेद खोलने व इन्हें निरुत्साहित करने का प्रयास करना चाहिए ?
    * भारत के दुश्मनों के ऐसे प्रयासों की असलियत केवल ‘प्रवक्ता.काम’ ही नहीं, सभी विचारशील लोग समझने लगे हैं.
    * अत्यंत लोकप्रिय बन रही इस पत्रिका की लोकप्रियता केवल इस लिए नहीं है कि इसका संचालन एक योग्य टीम कर रही है. इसने भारत भक्तों के घावों को मरहम लगाने, भारत-भारतीयता को बढ़ावा देने का श्रेष्ठ काम किया है. किया है. भारत को ह्रदय से प्यार करने वालों की प्रिय ये पत्रिका तभी बनी है. अतः किसी भी हाल में देश व संस्कृति के विरोधयों के दबाव में आने का कोई कारण नहीं. देश भक्तों की ताकत आपके साथ है.*
    * यदी केवल योग्यता से इ-पत्रिका लोकप्रिय बनाती होती तो अनेक अन्य पत्रिकाए हैं जिनके पास विदेशी धन और साधनों की कोई कमी नहीं. स्पष्ट है कि आपने देशभक्तों के दिलों को जीता है जो और किसी ने ये नहीं किया.
    ** आज हर मोर्चे पर देशविरोधियों और देशभक्तों में संघर्ष चल रहा है. इंटरनेट के मोर्चे पर भी यह संग्राम जारी है. हम सबकी प्रिय पत्रिका इस संघर्ष में एक मील पत्थर साबित होगी, इसमें कोई संदेह नहीं. इसी की परेशानी हमारे देश व संस्कृति के दुश्मनों को है. ऐसे में कई तरह के वार कई तरह से होने ही हैं. पर आप या आपके साथी कब दबने -डरने वाले हैं. हम सबकी शुभकामनाएं आपके साथ हैं.

  30. आदरणीय संपादक जी
    आपको मेरी टिप्पणी मूल लेख से बिना मेरी अनुमति के नहीं हटाना चाहिए था. आपने कहा था कि आप इस साईट पर ४ से ५ घंटे काम करते है और इस हेतु आपको कोई मानदेय नहीं मिलता है, महोदय हम भी इसी अनुक्रम मैं रात में बैठकर टिप्पणी करती हूँ क्योंकि दिन में समय नहीं मिल पाता.महोदय मैंने पिछले डेढ़ साल में नोट किया है कि इस साईट कि जो प्रगति हुई है उसमें आपका योगदान सराहनीय है परन्तु आप ही नहीं हैं जो इसमें प्रयासरत हैं . लेखकों और टिप्पणीकारों के महत्व को नज़रंदाज़ करना सही नहीं है.मैं अन्य सोसिअल नेट्वोर्किंग साईट पर भी हूँ और वहां भी प्रवक्ता. कॉम कि निष्पक्षता के लिए प्रचार करती हूँ. आपको विचार करना चाहिए कि फेसबुक , ऑरकुट, इबीबो, क्वीप, जैसी अन्य साईट पर जो प्रचार करते हैं वो आप महसूस नहीं कर सकते.
    महोदय आपने जो मेरा परिचय दिया है”आप law की छात्रा हैं, हिन्दू धर्म में विद्यमान विकृतियों और इस्लाम की अच्छाइयों पर बेबाक लेखन करने का जज्बा. लेख से ज्यादा कमेन्ट करने में मज़ा आता है ”
    मुझे इस पर कड़ी आपत्ति है. मुझे ऐसा लगता है कि मुझे हतोत्साहित करने के लिए ऐसा किया गया है. मेरा काम केवल सामजिक सरोकार के मुद्दों पर बहस करना और उनको उठाना है ताकि उनका समाधान हो सके. चाहे वो किसी धर्म से जुड़े हो या संस्था से.
    महोदय पिछले कई दिनों से कमेन्ट बार मैं वो टिप्पणियां प्रकाशित की जा रही हैं जहाँ एक विशेष शैली के लेख हैं. आपने मेरी टिप्पणियों को लेख बनाया इसके लिए धन्यवाद , लेकिन इसे नए लेखों के बार में क्यों नहीं दिखाया गया?
    महोदय जब मैंने अपना परिचय और पता मेल कर दिया था तो आपने वो क्यों नहीं लगाया? जब मैंने अपनी टिप्पणी मैं कई जगह अपना पता लिखा तो आपने मेरे परिचय मैं वोह क्यों नहीं लिखा.? आपने मेरा परिचय क्यों नहीं पुछा? मेरे लेख न लिखने का कारण यह नहीं है की मुझे टिप्पणी मैं मज़ा आता है बल्कि लेखक की एक विशेष लेखन शैली होती है उसका ज्ञान भी एक विशेष स्तर का होता है, मैं अपने को इतना नहीं समझती थी. टिप्पणी करना ज्ञान अर्जन के साथ लेखन शैली विकसित करने का भी माध्यम है. मेरे परिचय को धर्म का हवाला देकर आप जानबूझकर लोगों का ध्यान भटकना चाहते हैं? क्या यहाँ पर सिर्फ अतिवादियों के लिए ही जगह है? क्या यहाँ सिर्फ पुरुष वादियों के लिए ही जगह है.
    मैं नहीं जानती की मरी ये टिप्पणी प्रकाशित होगी या नहीं मगर मैं अपनी और से अपने मित्र पाठकों को भेज रही हूँ और संपादक महोदय से आशा करती हूँ की जो गलतियाँ यहाँ हुई हैं वो सुधार दी जाएँगी.

    उत्तर की प्रतीक्षा में
    दीपा शर्मा
    अजबपुर देहरादून

    • दीपा जी,
      एक सुझाव, यदि स्वीकार करें तो, आपके इस लेख को, (टिप्पणियों) के संकलन को पढने में, कुछ सुविधा, एक पाठक के नाते मुझे होगी।(वैसे त्वरित पढना, संभव नहीं है, और प्रकल्पो में व्यस्तता के कारण)
      (१) सारी टिप्पणियों के अलग अलग बिंदू पृथक कर लीजिए।
      (२) फिर हर बिंदु पर लिखी टिप्पणियों के अंश उस क्रमांक के साथ लिख दीजिए।
      (३) चाहे तो शुरु में एक “विषय-परिचयात्मक” परिच्छेद डालिए।
      (४) और अंत में एक सारांश दर्शित परिच्छेद डालिए।
      (५) तटस्थता से यदि लिख सके, तो और भी परिपूर्ण हो पाएगा।
      किसी भी सूचना को स्वीकार/अस्वीकार करने का आपका(लेखिका के नाते ) अधिकार मुझे मान्य है।
      यह एक सरलतम मार्ग आपको सुझाया है।
      कोई उत्तर की अपेक्षा भी नहीं है।

  31. Sampadak ji, aapne jo mera prichay diya hai usse me samajh sakti hun ki aapne wo kis mansikta ke tehat diya hai, aapne janbujhkar mujhe prbhavit karne ke liye islam shabd likha hai. Aapko nahi lagta ki law ki student kafi hoga. Varna apko parichay puchna tha.

    • दीपा जी आपके लम्बे लम्बे कोमेंट से ज्यादातर पेज बहुत समय ले रहा था. अत: हमे काफी दिक्कत आ रही थी . इस लिये आपसे आग्रह की लेख से बडा – बडा कोमेंट लीखने के बजाय आप लेख लिखे, जो उस लेख के साथ हम जोड देंगे,

      दुसरी बात जो आपने कही आपके परिचय के विषय मे तो, आपके किये सारे कोमेंट को कोई भी पढकर यही राय् रखेगा. क्रिपया न्युट्रल् रह कर किसी खास मांसिकता से कोमेंट करना ठीक नही, आप आज तक प्रवक्ता पर कोई लेख नही भेजी जबकी उससे बडी बडी कोमेंट कर रही है, आपके सारे कोमेंट हिन्दू धर्मे के कमियो पर है, और इस्लाम की आपने कई जगह तारिफ की है, यह परिचय ही सिर्फ आपको ठीक से व्यक्त करता है.
      प्रवक्ता.काम मे अपनी Identity और Ideology के साथ ही आये. इससे पहले भी जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जी को हमने वाम्पंथी चिंतक बताया है.

      • मेरा परिचय सिर्फ इतना है
        दीपा शर्मा
        अजबपुर कलां देहरादून
        बी ए, एल एल बी.
        Ideology – स्त्री सशक्तिकरण और संविधान वाद के प्रति समर्पित
        ## चूँकि मैं हिन्दू हूँ इसलिए मेरा दायित्व बनता है के मैं अपने धर्म की बुरे पक्ष को समझकर उसमें सुधार की अपक्षा करूँ. मैं पिछले ५ दिनों से साइड बार मैं सिर्फ ये टिप्पणियां देख रही हूँ जो विशेष प्रकार के लेख लेखन को बढ़ावा देता है. क्या ये लेख किस प्रकार से न्यूट्रल हैं? क्या आप इन लेखकों और टिप्पणीकारों को प्रायोजित कर रहे हैं. और अगर नया लेख है तो प्रवक्ता.कॉम की परंपरा के अनुरूप नए लेख बार में प्रदर्शित क्यों नहीं हुआ?
        * abhishek purohit on कोटि हिन्दु जन का ज्वार, मंदिर के लिए सब तैयार ……
        * abhishek purohit on कोटि हिन्दु जन का ज्वार, मंदिर के लिए सब तैयार ……
        * dr.rajesh kapoor on अब न जागे तो बहुत देर हो जाएगी ….. !
        * पंकज झा. on मैदान में उतरा ‘गांधी’ !
        * abhishek purohit on कोटि हिन्दु जन का ज्वार, मंदिर के लिए सब तैयार ……
        * dr.rajesh kapoor on अब न जागे तो बहुत देर हो जाएगी ….. !
        * abhishek purohit on अब न जागे तो बहुत देर हो जाएगी ….. !
        * dr.rajesh kapoor on कोटि हिन्दु जन का ज्वार, मंदिर के लिए सब तैयार ……
        * डॉ. प्रो. मधुसूदन उवाच on हाय गाय, अब तुम फिर कटोगी…?
        * dr.rajesh kapoor on आतंकवाद तो पहले ही काला है, इसे किसी और रंग में न रंगें

        • हमे लगता है आपको आपके ही बारे मे, हमें बहुत कुछ बताना होगा. आप एक साथ इन नामोन से एक ही IP से जो देल्ही के Tata ke GSM Internet से इन – इन नामो से कोम्मेंट करती हैं, जो technically सम्भव नहीं है, और तो और कैई बार तो आप दुसरे- दुसरे देशो के IP बदल कर एक घंटे मे 3 अलग-अलग IP से कोमेंट किये हैं जो technically सम्भव नहीं है, और तो और कैई बार तो आपने अपने ही कोमेंट को खुद से नाम बदल कर् वाह-वाही भी दी हैं जो कन्हे तो IP सहित मैं डीटेल् मे दे सकता हु. कुच्छ डीटेल यह रहा…..

          deepa sharma
          mahi1deepa@gmail.com
          182.156.180.239

          anuj kumar
          anuj.kumar5279@gmail.com
          182.156.180.239

          vinita raga
          vinny.raga@gmail.com
          182.156.180.239

          प्रवक्ता.कॅम का अपने सभी पाठको से अनुरोध है की इन नामोँ से किए गये कोमेंट को एक ही व्यक्ति के कोमेंट समझे

          • सम्पादक जि अगर आपको पता है की ये अलग-अलग नामों से पोस्ट करने वाली बहन जी या भैय्या जी जो भी है,तो आप क्यों एनको छापते है??विचार अलग होना कोयी गलत बात नही होती है लेकिन झुठे विचारों को दुसरों पर थोपना और पुरे के पुरे हिन्दु धर्म को गालिया बकना ना केवल गलत ह वर्न “देश्द्रोही” क्रित्य भी है,जैसा मेनें पहले भी लिखा है ये सारे तर्क किसि को भी क्रिशन मिशिनरियो की किताबॊं और उनकि साईट्स पर मिल जायेंगे,फ़िर क्यों नही ये माना जाये कि ये लोग गलत नाम और गलत पहचान से प्रवक्ता के मंच का दुरुपयोग कर रहे है???
            सब कुछ जानते हुवे भी भिन्न विचारों और आलचनाओं को भी छाप कर आप महान भारतिय पर्म्परा का निर्वाह कर रहे है जो अपने शत्रु से भी प्रेम करना सिखाती है,एसके लिये आपको बहुत बहुत धन्यवाद,साधुवाद और नमन।

          • माननीय सम्पादक महोदय, लेख को पढ़ते/देखते वक्त सोच रहा था की क्यूँ नहीं आपने इस जाली लेख को प्रवक्ता से समाप्त कर दिया ! लेकिन आपकी टिप्पणी पढ़कर अब यह महसूस हुआ की आप की मंशा क्या थी/है! मेरा सुझाव ये है की इस तरह के विरोधाभासी लेखों के लेखकों को बेनकाब करने का बेहतरीन तरीका यही है की आपके द्वारा की गयी टिप्पणी हमेशा सबसे ऊपर दिखे जिससे लोगों को बिना वजह खून खौलाने की आवश्यकता ही न पड़े! निश्चय ही प्रवक्ता के नियमित पाठकों को इस लेख को पढ़कर दुःख तो पहुंचा ही होगा? जो लोग टिप्पणी पूरी नहीं पढ़ देख पाते हैं वो तो शायद सच के बारे में भी नहीं जान पायेंगे!

        • लेखिका महोदय आपने जो लेख लिखा है उसमें आपको उस शास्त्रों पुराणों और रामचरितमानस का अध्ययन करने की आवश्यकता है मुझे नहीं लगता कि आपने इन सभी ग्रंथों का अध्ययन किया है अगर आपने अध्ययन किया होता तो आप विचारधारा या सोच ऐसी नहीं होती दूसरी सबसे बड़ी बात की आप या तो वामपंथी या अन्य किसी के द्वारा लिखी गई किताब से यह सारी चीजें पढ़कर यहां पर कॉपी पेस्ट कर दिया क्योंकि वेदों के जिस अध्याय से जिन विचारों से आपने जो श्लोक बताए हैं वहां पर ऐसा कोई श्लोक है ही नहीं जिनका प्रश्न संभोग या अन्य चीजों से हो तो मेरा आपको सलाह है कि आपको वेद पुराण उपनिषद को पढ़ना चाहिए और संस्कृत भी सीखनी चाहिए जिससे आपको वास्तविकता के बारे में पता चले आप इस्लाम के बारे में बहुत अच्छा जानती होंगी अभी की हो इस्लाम मैं हदीस बुखारी और हदीस मुस्लिम आप उठाकर पढ़ लीजिएगा नहीं तो आप अपना पता मुझे मेल कर दीजिएगा मैं आपको कोरियर कर दूंगा आपके नंबर पर वीडियो भेज दूंगा आप उठाकर पढ़नी चाहिए पढ़ लीजिएगा और मदद कर सकता हूं कि मैं आपको भेज नंबर और बता सकता हूं अच्छा सबसे बड़ी बात यह है कि उसका अनुवाद भी मैंने नहीं किया बात करने वाले भी देवबंदी बरेली के मुसलमान और आप अपने मनपसंद खरीद कर पढ़ लीजिए मुझे नहीं लगता कि आपके घर के लोगों ने आपको संस्कार दिए अगर आपको संस्कार दिया होता तो आपका लेख इस तरीके का नहीं होता आप की विचारधारा स्त्रियों का समाज में उत्थान करना नहीं है बल्कि सनातन धर्म का गठन करना है या विघटन करना आपने ऐसी बातें लिख दी जो आपको मनुस्मृति में भी नहीं मिलेगा और ना ही वेद पुराण उपनिषद में तो मिलेगा ही नहीं आपने पढ़ाई तो कि नहीं या तो किसी से सुन कर लिख दिया होगा या हो सकता हो कि कोई वामपंथी या किसी मुस्लिम के संपर्क में हूं और आपका उससे विवाह करने का संदर्भ या आपको वह भाग गया और आप मुस्लिम धर्म अपनाने से पहले हिंदू धर्म को बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं ऐसा बहुत से इतिहास में गोल मटोल करने वाले वामपंथी ने किया और ऐसा भी हो सकता है कि आपका या असली नाम ना हो आप किसी दूसरे धर्म से बिलॉन्ग करते हैं और केवल सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए ऐसे लेख लिखते हो

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