देश में कुपोषण एक राष्ट्रीय शर्म

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बच्चों के कुपोषण

विनायक शर्मा

प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह का देश में कुपोषण की समस्या को राष्ट्रीय शर्म बताना देश में गरीबों की बढती संख्या और उनकी स्थिति का सही आंकलन है. उनका कहना है कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए केवल एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) पर निर्भर नहीं रह सकती. उन्होंने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि देश में 42 प्रतिशत बच्चे अब भी सामान्य से कम वजन वाले हैं. सिटीजंस अलायंस अगेंस्ट मालन्यूट्रीशन के अनुरोध पर नंदी फाउंडेशन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी करते हुए उनका कहना था कि स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल और पोषण जैसे क्षेत्र एक दूसरे से अलग होकर काम नहीं कर सकते. उन्होंने ने कुपोषण से सबसे ज्यादा प्रभावित 200 जिलों में सरकार द्वारा एक बड़ी योजना प्रारम्भ करने की बात भी कही. इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के कुपोषणके मामले में सबसे अधिक प्रभावित 100 जिलों में से 41 अकेले यूपी के ही बताये गए हैं. जहाँ इन जिलों के 50 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं तो 70 फीसदी बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम लंबाई के हैं. अन्य जिलों में बिहार, उड़ीसा, राजस्थान, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति भी अच्छी नहीं है. जनसंख्या नियंत्रण और कुपोषण पर इस रिपोर्ट को तैयार करने में सभी दलों के युवा सांसदों के संसदीय फोरम की सक्रिय भूमिका निभाई है.

विश्व के पटल पर आर्थिक रूप से सशक्त देशों की सूची में अग्रणी देश में शुमार होने को तत्पर इस देश के लिए वास्तव में यह शर्म की बात ही है कि जहाँ हर रोज़ लगभग सवा आठ करोड़ लोग भूखे सोते हैं वहीँ इस देश में हर वर्ष लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है. पिछले वर्ष ही अनाज की इस प्रकार की बर्बादी पर सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त रुख़ अपनाते हुए केंद्र सरकार से कहा था कि गेहूं को सड़ाने से अच्छा है कि उसे गरीबों और ज़रूरतमंद लोगों में बांट दिया जाए. कोर्ट ने इस बात पर भी हैरानी जताई थी कि एक तरफ़ इतनी बड़ी तादाद में अनाज सड़ रहा है, वहीं लगभग 20 करोड़ लोग कुपोषण का शिकार हैं. गौरतलब है कि पिछले काफ़ी अरसे से हर साल लाखों टन गेहूं की बर्बादी हो रही है, जहाँ बहुत सा गेहूं खुले में बारिश में भीगकर सड़ जाता है और वहीं गोदामों में रखे अनाज का भी 15 फ़ीसदी हिस्सा हर साल ख़राब हो जाता है. मौजूदा आंकड़ों के मुताबिक़, भारतीय खाद्य निगम (एफ़सीआई) के गोदामों में वर्ष 1997 से 2007 के दौरान 1.83 लाख टन गेहूं, 6.33 लाख टन चावल, 2.20 लाख टन धान और 111 टन मक्का सड़ चुका है. इतना ही नहीं, कोल्ड स्टोरेज के अभाव में हर साल क़रीब 60 हज़ार करोड़ रुपये की सब्ज़ियां और फल भी ख़राब हो जाते हैं. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक़, पिछले छह वर्षों में देश भर के गोदामों में 10 लाख 37 हज़ार 738 टन अनाज सड़ चुका है. मोटे तौर से प्रतिवर्ष दो लाख टन अनाज ख़राब हो जाता है. क्या यह अनाज गरीबों और जरूरतमंदों को नहीं दिया जा सकता था ? कुपोषण पर प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य से जाहिर होता है कि गरीबी और भुखमरी के मामले में अपना देश पीछे नहीं है. इस मामले में भारत चीन, श्रीलंका और पाकिस्‍तान से भी आगे है और विश्व के शक्तिशाली देशों में तीसरे नंबर पर विराजमान भारत भुखमरी से लड़ने में पूर्णतया नाकाम साबित हो रहा है. अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आईएफपीआरआई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत भुखमरी के मामले में 67वें स्‍थान पर है. इस सूची में चीन पर और पाकिस्‍तान 52वें स्‍थान पर हैं. आईएफपीआरआई और जर्मनी के कंसर्न वर्ल्डवाइड एंड वेल्टहंगरहिल्फे (सीडब्ल्यूडब्ल्यू) के संयुक्‍त तत्‍वावधान में जारी इस रिपोर्ट में 84 देशों की सूची है, जिनमें चीन 9वें, श्रीलंका 39वें और पाकिस्तान को 52वें स्थान पर बताया गया है. इस सूची में देशों में शिशु मृत्यु दर, कुपोषण और भरपेट भोजन न पाने वालों की आबादी को आधार बनाया गया है. भारत में महिलाओं और बच्चो में बढ़ते कुपोषण व भरपेट भोजन न मिलने के कारण ही इस सूची में 67वाँ स्‍थान मिला है. इसी रिपोर्ट के अनुसार विश्‍व भर में पैदा होने वाले कमजोर बच्‍चों में 42 प्रतिशत भारत में पैदा होते हैं.

कुपोषण की समस्या को राष्ट्रीय शर्म बताना जहाँ प्रधानमंत्री की चिंता व्यक्त करता है उससे अधिक इस देश की जनता चिंतित है. देश के लिए चिंता की बात इसलिए भी है मुंबई को शंघाई बनाने का वायदा करनेवाले प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं न केवल कुपोषण पर चिंता जाहिर की है बल्कि एकप्रकार से गरीबों की दयनीय दशा पर सरकार की स्वीकृति भी है. यूपीए-2 के उनके कार्यकाल के पिछले तीन वर्षों में देश की जनता के उस एक बड़े वर्ग को, जिसे जीवन-यापन के लिए सरकार से राहतों की उम्मीद रहती है, महँगाई और भ्रष्टाचार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला. सरकार गरीबों की वास्तविक स्थिति का आंकलन कर उनको राहत पहुँचाने की अपेक्षा शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भोजन पर प्रतिव्यक्ति क्रमशः 32 और 25 रुपये व्यय का एक नया मापदंड स्थापित करने पर तुली हुई है. इसके पीछे सरकार का एक ही मंतव्य है कि गरीबी रेखा के लिये न्यूनतम आय सीमा को निम्न से निम्न रखा जाये जिससे गरीबों की संख्या कम से कम दिखाई दे और सरकारी जन-कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से अधिक से अधिक लोगों को बाहर रखा जा सके. सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या कुल जनसंख्या के 27.5% के बराबर थी, जो 2010 में बढ़कर 37.2% के आस-पास हो गयी. जबकि इसके ठीक विपरीत अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी के रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 70% लोग 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करते हैं. हालाँकि सरकार ने इस रिपोर्ट को मंजूर नहीं किया. वहीँ दूसरी ओर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानक के अनुसार प्रतिदिन 1.25 डालर ( लगभग 62 रुपये ) से कम पर गुजारा करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे माना जाता है. गरीबी की रेखा के इस अनोखे मापदंड के लिए योजना आयोग को सर्वोच्च न्यायालय से फटकार भी मिल चुकी है.

योजना आयोग के जिन प्रबुद्ध-जनों ने गरीबी की इस रेखा का मापदंड तैयार किया है शायद उन्हें पता ही नहीं है कि वास्तव में गरीबी होती क्या है ? गरीबी भूख है, गरीबी उचित आवास के अभाव का दूसरा नाम है. बीमार होने पर उचित स्वास्थ्य सुविधा से वंचित, शिक्षा के लिए विद्यालय न जा पाना और आजीविका के साधनों के आभाव में दो वक्त की रोटी का भी प्रबंध न कर पाने को ही गरीबी कहते हैं. ऐसी स्थिति में गर्भावस्था माता और उसके बच्चों में कुपोषण नहीं होगा तो क्या होगा ? क्या इस देश की सरकारों को इन सब परिस्थितियों में कठिनता से जीवन-यापन कर रही अपनी 70 प्रतिशत से अधिक जनता के विषय में अभी तक कुछ पता नहीं था ? देश के समक्ष कुपोषण की इस जटिल परिस्थिति का निर्माण दो-चार वर्षों में तो हुआ नहीं. भुखमरी की कगार पर पहुंचे छोटे-बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें ही इस देश की गरीबी और गरीबों का सही तस्वीर प्रदर्शित करती है. सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल गरीबी के आंकड़ों को लेकर सरकार के शपथ-पत्र पर उठे विवाद के कारण ही योजना आयोग और ग्रामीण विकास मंत्रालय को गरीबी की रेखा को फिर से परिभाषित करने के लिए गरीबी पर नये सिरे से सर्वेक्षण करने को सहमत होना पड़ा था. कथित शपथ-पत्र पर न केवल देशभर में काफी तीखी प्रतिक्रिया हुई बल्कि योजना आयोग ( जिसके अध्यक्ष स्वयं प्रधान मंत्री है ) और ग्रामीण विकास मंत्रालय के मंत्री जयराम रमेश में भी असहमति जग-जाहिर हुई थी. देश के जनसामान्य ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों और देश के अर्थशास्त्रियों ने भी योजना आयोग के इस मापदंड को अस्वीकार किया कर दिया तथा इसे गरीबों के साथ मजाक बताया था. भुखमरी और कुपोषण झेल रहे इस देश की विडम्बना ही है कि एक ओर देश में अनाज का इतना विशाल भंडार है कि इसे रखने तक की जगह नहीं है, वहीँ दूसरी तरफ़ देश की एक बड़ी आबादी को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो पा रहा है और वह कुपोषण का शिकार हो रही है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स (विश्व भुखमरी सूचकांक) में अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्था (आईएफ़पीआरआई) के 88 देशों के विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत का 66वां स्थान है. भारत में पिछले कुछ सालों में लोगों की खुराक में कमी आई है. ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण करने की औसत दर 1972-1973 में 2266 कैलोरी प्रतिदिन थी, जो अब घटकर 2149 रह गई है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक़, देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. यूनिसेफ़ द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के कुल कुपोषणग्रस्त बच्चों में से एक तिहाई आबादी भारतीय बच्चों की है. भारत में पांच करोड़ 70 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषणग्रस्त हैं. रिपोर्ट में भारत की कुपोषण दर की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहा गया है कि भारत में कुपोषण की दर इथोपिया, नेपाल और बांग्लादेश के बराबर है. इथोपिया में कुपोषण दर 47 फ़ीसदी तथा नेपाल और बांग्लादेश में 48-48 फ़ीसदी है, जो चीन की आठ फ़ीसदी, थाइलैंड की 18 फ़ीसदी और अफ़ग़ानिस्तान की 39 फ़ीसदी के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा है. क्या देश की सरकार और योजना बनाने वाले प्रबुद्ध जन विश्व की इन गणमान्य संस्थाओं द्वारा जारी किये गए आंकड़ों से परिचित नहीं हैं ?

इससे पूर्व कि कोई और नई टीम इस राष्ट्रीय शर्म से निजात पाने के लिए अपनी संवेदनशीलता दर्शाते हुए सरकार पर दबाव बनाने के लिए जंतर-मंतर या रामलीला मैदान में अनशन पर उतरे, संसद की सर्वोचता की दुहाई देने वाले राजनैतिक दलों और उनके नेताओं को मिल-बैठ इस पर गहन चिंतन कर इससे निजात पाने के शीघ्र ही कारगर उपाय करने चाहिए ताकि राष्ट्र को और शर्मशार न होना पड़े. सरकार को अब चेतना ही होगा.

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  1. हमारे उन्नति का वास्तविक मापदंड यही है जो दिख रहा है. हमें तब तक अपनी उन्नति या अपने राष्ट्र की महानता पर गर्व करने का कोई अधिकार नहीं है,जब तक हम भारत के इन नौनिहालों को कुपोषण से निजात नहीं दिला पाते.मैं तो यहाँ तक मानता हूँ कि हमारे बच्चों की स्थिति उससे बदतर है जितना ये आंकड़ें दिखा रहे हैं.महात्मा गांधी ने कहा था कि जब तक भारत का एक व्यक्तिभी भूखा सोता है या कोई बच्चा भूख या कुपोषण का शिकार है तब तक आजादी अधूरी है.उस मापदंड से हमारा भारत आज भी स्वतंत्र नहीं हैं.प्रधान मंत्री या उनके कोई सहयोगी योजनायें बनाते रहे ,पर इस अवस्था में परिवर्तन तब तक नहीं आयेगा,जब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश न लगाया जाये.जैसा विनायक शर्मा जी ने आंकड़ों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है,हमारे यहाँ जहां एक तरफ लाखो टन अनाज बर्वाद हो रहा है,,वहीं करोडो बच्चें भूखमरी और कुपोषण के शिकार हैं.अगर इसकी तह में जाइएगा तो पता चलेगा कि इसका सबसे बड़ा कारण इस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार है.भ्रष्टाचारियों के लिए सबसे सुगम मार्ग वह होता है,जहां गरीबों और दबे हुए लोगों के लिए कुछ किया जाता है,क्योंकि वहां जागरूकता और प्रतिवाद की ,विरोध की संभावना सबसे कम होती है.प्रधान मंत्री के इस चिंता का परिणाम भी वही होने वाला है.एक नयी योजना बन जायेगी,एक नए विकास का कार्य क्रम बन जाएगा .करोड़ों रूपयों की मंजूरी भी मिल जायेगी,पर अंत में यही होगा की यार लोग मिल बाँट कर खा जायेंगे और ये कुपोषण के शिकार वहीं के वहीं रहेंगे.हो सकता है कि आंकड़ों में एक आध प्रतिशत की कमी भी आ जाये,पर वास्तविकता में बहुत परिवर्तन नहीं होगा.

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