मनुष्य मरने से क्यों डरता है?

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मनमोहन कुमार आर्य

मनुष्य मरने से डरता क्यों है? यह प्रश्न इस लिए विचारणीय है कि हम सभी इस दुःख से यदा-कदा त्रस्त होते रहते हैं। कई बार मनुष्य को कोई रोग हो जाता है तो उसके मन में भय उत्पन्न होता है कि हो न हो, मैं जीवित रहूंगा या मर जाउगां? जब तक चिकित्सक व जांच रिपोर्ट से पुष्टि न हो जाये कि यह रोग ठीक हो सकता है, रोगी की सन्तुष्टि नहीं होती। यदि मनुष्य को कोई भयंकर रोग होता है तो चिकित्सक व परिवार जन उसे बताते ही नहीं कि कहीं भय के कारण यह जल्दी न मर जाये? वृद्धावस्था आने पर मृत्यु की तिथि पास आने लगती है। सभी यह कहते सुने जाते हैं कि एक दिन सभी को जाना है परन्तु अपने बारे में विचार करने पर डर लगता है। अपने बारे में इस प्रश्न को सभी टाले रहते हैं। मृत्यु का यह डर सभी को लगता है। इसका कारण क्या है, यह विचारणीय है। हम सांप से अधिक डरते हैं क्योंकि हमने सुन रखा है कि सांप के काटने से मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। यदि हमें कोई चींटी व अन्य क्षुद्र जीव काट ले जिससे हमें खतरा न हो, तो हमें डर नहीं लगता। अनेक मामलों में मनुष्य की मृत्यु का कारण डर ही होता है। हमने एक घटना प्रवचनों में सुनी थी जो शायद सत्य घटना पर आधारित है। इसके अनुसार एक बार एक निर्धन व्यक्ति अपनी झोपड़ी का छप्पर ठीक कर रहा था। उसने अनुभव किया कि उसके पैर में जैसे किसी चींटी आदि ने काट लिया हो। बात स्थान विशेष पर खुजली कर आई-गई हो गई। एक दो वर्ष बाद फिर वही व्यक्ति पुराने छप्पर को हटा कर नया लगा रहा था तो उसने देखा कि छप्पर में एक मरे हुए सांप की खाल पड़ी है। उस व्यक्ति को पुरानी घटना याद हो आई कि उसे किसी चींटी आदि ने काटा था, परन्तु सांप की उस खाल को देख कर उसे निश्चय हुआ कि इसी सांप ने उसे काटा होगा। यह विचार कर वह व्यक्ति इतना डरा कि इस डर से ही उसकी मृत्यु हो गई। अतः हमें अपने परिवार व परिचितों आदि की मृत्यु को देखकर व रोगादि होने पर यदा-कदा अपनी मृत्यु का डर सताता रहता है। किसी भी मनुष्य की मृत्यु के कई कारण हो सकते हैं परन्तु किन्हीं अज्ञात भय के कारण भी बहुधा मृत्यु हो जाया करती हैं। अतः ज्ञान को प्राप्त कर मनुष्य को मृत्यु के डर से निजात पानी चाहिये। मृत्यु के भय को दूर कर उसे अपनी वास्तविक व सामान्य मृत्यु तक भयमुक्त जीवन व्यतीत करना चाहिये।

भय का यदि कारण ढूंढा जाये तो अन्य कारणों में हमारे अन्दर यह पूर्वजन्मों का संस्कार प्रतीत होता है। मनुष्य को जब तक जिस चीज का संस्कार=संयोग व पूर्व अनुभव न हुआ हो, उसको उसके लाभ-हानि व सुख-दुःख का ज्ञान नहीं होता। मान लीजिए कि मेरे सामने खाने का एक नया पदार्थ या फल रख दिया गया है। मैं इस वस्तु को जीवन में पहली बार देख रहा हूं। मुझे नहीं पता कि यह स्वादिष्ट है, मीठा है, खट्टा या अन्य किसी स्वाद का है। इसको जब पहली बार जिह्वा पर रखता हूं तो मुझे उसके स्वाद का ज्ञान होता है, उससे पूर्व नहीं। शरीर पर उसके प्रभाव के लिए विज्ञान की शरण लेनी पड़ती है। इसके बाद मैं जब उस वस्तु व पदार्थ को देखता हूं तो मुझे पूर्व का वह अनुभव स्मरण हो आता है और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार मैं उसे ग्रहण करता-कराता हूं। हमें मृत्यु का भय सताता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमें इसका पुराना अनुभव है। यह अनुभव इस जन्म का तो निश्चय ही नहीं है, अतः यह अनुभव पूर्वजन्म जन्मों का सिद्ध होता है। इस आधार पर जीवात्मा वा मनुष्य का पूर्वजन्म भी सिद्ध होता है। योगदर्शन में इसे अभिनिवेश क्लेश का नाम दिया है। यदि मनुष्य योगदर्शन के पांच प्रकार के क्लेशों का अध्ययन कर ले तो उसे इन पांच क्लेशों अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश क्लेशों को जानने से मृत्यु व अन्य भयों से सामान्यतः मुक्ति मिल सकती है। भय को पूरी तरह से दूर करना योग साधना का निरन्तर अभ्यास करते हुए समाधि को सिद्ध करने पर होता है। इसके लिये अष्टांग योग की शरण ही एक मात्र उपाय है। मृत्यु के भय को दूर करने और बारबार के जन्म मरण के दुःखों से मुक्ति के लिए ही मनुष्य ईश्वरोपासना आदि करते हुए योगाभ्यास करता है। यह योगाभ्यास ही मृत्यु की यथार्थ औषधि है।

 

यह मृत्यु रूपी दुःख, भय आदि पांच क्लेशों में प्रधान अविद्या क्लेश के कारण होता है। इस भय का कारण क्योंकि अविद्या है, अतः अविद्या दूर होने पर मृत्यु का भय दूर होना सम्भव है। अतः प्रत्येक मनुष्य को अपनी अविद्या दूर करनी चाहिये। अविद्या दूर करने के उपाय व साधन का नाम ही वेदाध्ययन, स्वाध्याय व योगाभ्यास है। केवल विषय को पढ़ लेने से पूरा लाभ नहीं मिलता, इसके लिये औषधि के रूप में साधन व उपाय भी करने होते हैं जो कि योगाभ्यास व यौगिक जीवन ही है। इसी लिए सृष्टि के आरम्भ से विवेकयुक्त लोग योग की शरण में जाकर जीवन को सफल व उन्नत करते रहे हैं। योगदर्शन में मृत्यु के क्लेश को अभिनिवेश क्लेश नाम दिया गया है। इसको बताते हुए योगदर्शनकार महर्षि पतंजलि ने कहा है कि स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढ़ोऽभिनिवेशः। अर्थात् मनुष्यों पर संस्कारों के वशीभूत जो नैसर्गिकरूप से प्रवाहित होने वाला मत्युभय है, जो विद्वानों एवं मूर्खों के ऊपर समानरूप से सवार रहता है, उसे अभिनिवेश नामक क्लेश कहा जाता है। महर्षि पंतजलि के इस सूत्र की व्याख्या करते हुए प्रसिद्ध दर्शनकार आचार्य उदयवीर शास्त्री लिखते हैं कि संसार में आजाने पर प्रत्येक प्राणी की यह भावना रहती है कि वह सदा ऐसा ही बना रहे। ऐसा कभी न हो, कि वह न रहे। यह भावना प्राणी के मृत्युभय को प्रकट करती है। सर्वसाधारण अपढ़ मूर्ख पामर व्यक्ति जो वास्तविकता को नहीं जानता व समझाता, उसकी ऐसी भावना बने, तो कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु जो विद्वान् हैं, शास्त्र के पारदर्शी हैं, जानते हैं कि जो जन्म लेता है वह मरता अवश्य है, वे भी मूर्खो के समान मृत्युभय से घबराते हैं। यह भय न केवल मानव में, अपितु कृमि कीट पतंग आदि क्षुद्र पाणियों तक में विद्यमान रहता है। जैसे ही किसी के सन्मुख प्राणसंकट आये, वह उससे बचने का तत्काल उपाय करता है और ऐसे संकट के प्रति सदा सतर्क व सावधान रहता है।

 

प्राणीमात्र को किसी से भय अथवा किसी वस्तु के प्रति आकर्षण तभी होता है, जब उसने उस स्थिति अथवा वस्तु का प्रथम अनुभव किया हो। परन्तु एक जीवन में प्रादुर्भूत प्राणी ने अभी तक मृत्यु के दुःख का अनुभव नहीं किया होता। अन्य प्राणियों को मरते-जाते दीखने पर भी व्यक्ति की उस भावना में कोई अन्तर नहीं आता, कि-मैं कभी न मरूं, सदा ऐसा ही बना रहूं। आचार्यों के उपदेश भी प्रायः इस दिशा में कोई कारगर नहीं होते। इससे अनुमान होता है, कि पहले जन्मों में प्राणी ने मृत्यु के तीव्र दुःख का अनुभव किया है। उसी से जनित संस्कार इस जीवन में निमित्तवश उभरने पर प्राणी को भय से बेचैन बनाये रखते हैं। यह अभिनिवेश नाम मृत्युभय का क्लेश प्राणीमात्र में समानरूप से पाया जाता है। चाहे कोई कुशल हो, या अकुशल, मृत्यु का अवसर सबके लिये समानरूप से आता है, और समानरूप से सबको भयत्रस्त करता है। इन क्लेशों को ध्वस्त करने और इनसे बचने के लिये साधक को सदा निर्दिष्ट उपायों के अनुष्ठान में प्रयत्नशील बना रहना चाहिये। इसके बाद के सूत्र में महर्षि पतंजलि ने क्लेशों को दूर करने का उपाय बताते हुए कहा है कि इन पांचों क्लेशों को अपने अपने कारणों जिनसे यह उत्पन्न हुए व होते हैं, उनमें विलय कर देने से मनुष्यादि लोग मृत्यु के भय अभिनिवेश क्लेश से छूट पाते हैं। इस विषय को सुस्पष्ट व विस्तार से जानने के लिए योगदर्शन पर आचार्य उदयवीर शास्त्री की टीका पढ़नी आवश्यक है। इससे न केवल मृत्युभय के क्लेश का निवारण होगा वहीं अन्य अनेक प्रकार के लाभ भी अध्येता को वर्तमान व शेष जीवनकाल में हो सकते हैं।

 

मनुष्य मरने से क्यों डरता है, इसका एक उत्तर हमारे सामने यह आया है कि जन्म जन्मान्तरों के मृत्यु के संस्कार वा अनुभव जीवात्मा पर हैं। उनके कारण ही हमें मृत्यु का डर सताता है। इस भय के मुख्य कारणों में अविद्या नामक क्लेश प्रमुख है जिसे, व अन्य क्लेशों को भी, यदि हटा दिया जाये तो मृत्यु का भय सर्वथा दूर हो सकता है। योगदर्शनकार ने इससे पूर्णरूपेण बचने के लिए लिए अष्टांग योग की रचना की है। समाधि अवस्था को प्राप्त होने पर ही यह अविद्या पूर्णतया दूर होती है जिससे मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द इसका साक्षात उदाहरण हैं। उनके जीवन के उत्तर काल में मृत्यु के भय ने उन्हें कभी त्रस्त नहीं किया। इस मृत्युभय को यदि अधिक सरल शब्दों में कहा जाये तो इस उदाहरण से कह सकते हैं। जब हम किसी सुखकारी वस्तु जो हमसे भिन्न है व हमारा अंग नहीं है, अपनी समझ लेते हैं, तो इसका कारण उस वस्तु से हमारा राग व मोह होना होता है। ऐसी सुखकारी वस्तु के दूर होने, छीनने व छूटने पर मनुष्य को स्वभाविक रूप से दुःख होता है। अपने अपने शरीर से भी इसी प्रकार का मोह व राग हो गया है। यह शरीर मेरा व हमारा अवश्य है परन्तु यह ‘‘मैं नहीं है। मैं व मेरा दो अलग सत्तायें हैं। मैं मैं हूं और मेरा मुझ मैं से भिन्न है। मेरी पुस्तक मैं नहीं अपितु मुझसे पृथक मेरी है। इसी प्रकार मेरा शरीर, मेरा हाथ, आंख, नाम व पैर आदि मेरे अवश्य हैं परन्तु मुझसे व मैं से भिन्न हैं। इस भेद को जान लेने और इस भावना से जीवन व्यतीत करने से भी अभिनिवेश क्लेश कटता वा कम होता है। इस सत्य को जानकर ही मनुष्य यदि जीवन में आचरण करेगा तो उसके मृत्यु के भय में कभी आयेगी। उसके जीवन की उन्नति होगी और जब वह संसार छोड़ेगा तो सामान्य जनों की अपेक्षा वह दुःखी नहीं होगा। उसे यह निश्चय होगा कि मृत्यु के बाद उसे उसके कर्मानुसार उन्नत व अवनत जीवन मिलेगा जहां वह उन्नति करते हुए मोक्ष तक जा सकेगा। इन्हीं शब्दों के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

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