सतीश सिंह
आजकल मनमोहन सिंह विकास और गरीबी उन्मूलन के प्रति प्रतिबद्ध हैं। विगत सप्ताह ही योजना आयोग ने शहरों में प्रति दिन 32 रुपये और गाँवों में प्रति दिन 26 रुपये कमाने वालों को गरीबी से निजात दिलाया है। इसके बरक्स में योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायलय में दाखिल अपने हलफनामें में साफ तौर पर कहा है कि अब शहरों में 32 रुपये और गावों में 26 रुपये प्रति दिन कमाने वाले व्यक्तियों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल सकेगा।
योजना आयोग ने यह भी कहा है कि शहरों में स्वास्थ पर प्रति माह 39.70 रुपये एवं शिक्षा पर 29.60 रुपये खर्च करने वालों को अब गरीबों की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। अगर कोई व्यक्ति प्रति माह कपड़ों पर 61.30 रुपये, जूते एवं चप्पलों पर 9.60 रुपये और अन्यान्य जरुरतों पर 28.60 रुपये खर्च करता है तो उसे भी गरीब नहीं माना जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी मनमोहन सिंह ने अपने इसी मनमोहनी विकास की डुगडुगी बजाई है। संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए मनमोहन सिंह ने दुनिया भर में भूख एवं गरीबी का दंश झेल रहे उन करोड़ों लोगों के उत्थान की वकालत की और साथ ही उन्होंने संयुक्त राष्ट्र से भी आहृ्वान किया कि वह विकास से संबंधित प्राथमिकताओं की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करे। श्री सिंह ने संतुलित, समग्र और स्थायी विकास की जरुरत पर बल दिया और इस संबंध में खाद्य सुरक्षा की भूमिका को अह्म बताया।
अपने पूरे भाषण में श्री सिंह अपनी आत्मप्रशंसा में जुटे रहे। झुठी तारीफों की पुल बांधते हुए उन्होंने कहा कि भारत ने विगत दशक में लाखों लोगों को गरीबी के चंगुल से निकाला है। उन्हें बेहतर भोजन, बेहतर शिक्षा व बेहतर स्वास्थ देने और आर्थिक रुप से उन्हें सक्षम बनाने में उनकी सरकार सफल रही है।
गौरतलब है कि श्री सिंह ने भारत की इस तथाकथित सफलता का श्रेय भी झूठी वाहवाही लूटने के लिए संयुक्त राष्ट्र को देते हुए कहा कि भारत ने इन सकारात्मक कार्यों को संयुक्त राष्ट्र के उच्च आदशोर्ं से प्रेरित होकर अंजाम दिया है।
श्री सिंह ने दुनिया के सभी राष्ट्रों से अपील की कि वे संयुक्त राष्ट्र के मुलभूत सिंद्घातों मसलन अंतरराष्ट्रीयवाद और बहुपक्षीयवाद को अपनायें ताकि विकास को गति मिल सके और साथ ही आपसी रिश्तों के बीच कायम गतिरोध से भी सभी राष्ट्रों को निजात मिल सके।
2008 के वित्तीय संकट की चर्चा करते हुए श्री सिंह ने कहा कि अभी भी विश्व की अर्थव्यवस्था उस संकट से उबर नहीं पाई है। जापान, अमेरिका और यूरोप के कई देश अभी भी आर्थिक मंदी से जूझ रहे हैं।
जाहिर है कि इसतरह की प्रतिकूल स्थिति में समावेशी विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। वैसे भारत अभी भी बहुत हद तक मंदी से अप्रभावित है। बावजूद इसके इसे मुद्रास्फीति का अतिरिक्त दबाव झेलना पड़ रहा है।
पूंजी की कम उपलब्धता, और कर्ज का ब़ता दबाव अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के लिए आज जोखिम का सबब बन चुका है। दरअसल आर्थिक मंदी के कारण ही मूल रुप से गरीबों की संख्या ब़ रही है और उनकी समस्याएँ भी। आज उनका जीना दुर्भर हो चुका है।
नि:संदेह कांग्रेसनीत सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह का यह दोहरा चरित्र है। ये किस तरह के अर्थशास्त्री हैं, इसकी बानगी हम नब्बे के दशक से देख रहे हैं। मंहगाई और गरीबी को तो यह सरकार कभी भी वास्तविकता में कम नहीं कर पाई और अब आंकड़ों के मायाजाल का सहारा लेकर मंहगाई और गरीबों को कम करने की कोशिश यह जरुर कर रही है।
ज्ञातव्य है कि योजना आयोग ने कुछ महीनों पहले कहा था कि शहरों में 20 रुपये और गावों में 15 रुपये प्रति दिन कमाने वालों को गरीब नहीं माना जा सकता है।
इसके पहले योजना आयोग ने कैलोरी के माध्यम से गरीबों की पहचान करने की कोशिश की थी। इस फार्मूले के अनुसार जो व्यक्ति शहरों में 2400 कैलोरी और गांवों में 2100 कैलोरी का उपभोग प्रति दिन करता है, उसे गरीब नहीं माना जा सकता है।
इस मामले में तेंदुलकर समिति के गरीबी मापने के मापदंड को कुछ हद तक तर्कसंगत माना जा सकता है। योजना आयोग की मानें तो वित्तीय वर्ष 20072008 में महज 18 फीसदी गरीब ही भारत में बचे थे।
ध्यातव्य है कि भारत में गरीबों की संख्या के बारे में शुरु से ही आम राय नहीं है। योजना आयोग और तेंदुलकर समिति के अलावा राज्य सरकारों के आंकड़ों में भी कभी एकरुपता नहीं दिखी है। गरीबों की तंगहाली का यह आलम तब है जब कोई भी पैमाना गरीबी को मापने के लिए शिक्षा, स्वास्थ, आवास, परिवहन इत्यादि जैसे मूलभूत जरुरतों को सही तरीके से शामिल नहीं कर रहा है।
बुनियादी कमियों से युक्त होने के बाद भी गरीबी को मापने का पैमाना बनाने वाले योजना आयोग को न तो अपनी करतूत पर शर्म आ रहा है और न ही संयुक्त राष्ट्र में देश की गलत तस्वीर पेश करने वाले मनमोहन सिंह को। सरकार को अच्छी तरह से मालूम है कि सभी समस्याओं की जड़ गरीब और उसकी गरीबी है। इसलिए योजना आयोग ने 32 और 26 रुपये वाले फार्मूले का ईजाद किया है।
यदि गरीब नहीं रहेंगे तो सरकार को कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर करोड़ोंअरबों रुपये भी खर्च नहीं करने पड़ेगें। जबकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहाँ के संविधान में लोककल्याण पर विशोष जोर दिया गया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था और आम इंसान के मिजाज को आज भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार दोनों समझ नहीं पा रहे हैं। अपनी अनेकानेक मौद्रिक कवायदों के बाद भी भारतीय रिजर्व बैंक मंहगाई को रोकने में असफल रहा है।
उल्लेखनीय है कि इस मौद्रिक कवायद को, विकास की गति को कायम रखने के परिप्रेक्ष्य में, सरकार के द्वारा दिया जा रहा कोई भी तर्क संतोषजनक नहीं है।
सरकार आज किस तरह के विकास की बात कर रही है, यह आम आदमी के समझ से परे है। लगता है इंडिया शाइनिंग का सब्जबाग दिखाने वाले राजग के पतन से कांग्रेनीत सरकार कोई सबक नहीं लेना चाहती है।