माननीयों को उच्‍चतम न्‍यायालय का संदेश

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डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भारतीय परिवेश में तोहफों का अपना एक महत्‍व हैं। भारत में ही क्‍यों दुनिया के किसी भी कोने में चले जाओ, गिफ्ट देने और लेने का अपना आनन्‍द है, लेकिन जिस तरह इन तौहफों के फेर में स्‍वार्थी तत्‍व अपने कार्यों को करवाने में माननीयों से कामयाब हो जाते हैं, तब जरूर यह प्रश्‍न उठता है कि तौहफों को पानेवालों की एक सीमा भी तय होनी चाहिए । वैसे भोग का कोई अंत नहीं, जिसमें कि कोई नि:शुल्‍क आपको कोई तोहफा दे तो कहने ही क्‍या हैं ! इस संदर्भ में यदि भारतीय दर्शन को देखें तो वह सुचिता का बात करता है। ईशावास्‍य उपनिषद का एक श्‍लोक है, ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
जिसका सार है कि जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे । यह तो हुआ श्‍लोक के अर्थ का एक भाव ।

इसे ‘The Ten Upanishads’ नामक पुस्तक में श्री पुरोहित स्वामी एवं डब्ल्यू. बी. यीट्स ने संक्षेप में लिखा है ‘Whatever lives is full of lord. Claim nothing; enjoy, do not covet His property.’। इसके अलावा भी इस श्‍लोक को लेकर कई व्‍याख्‍याएँ सामने हैं। यहाँ हम इस श्‍लोक की इतनी वि‍शद व्‍याख्‍या इसलिए कर रहे हैं कि जिस भोग के त्‍याग की बात हमारी अपनी भारतीय परंपरा में इतने विस्‍तार से की गई है, उसे पाने में मामलें में आज हम कहां खड़ें हैं, इसकी समीक्षा कर सकें। इससे जुड़ा एक प्रश्‍न यह भी है कि सभी कुछ हम ही भोग लेंगे, पृथ्‍वी को संसाधनों से हीन कर देंगे तो हमारी आनेवाली पीढ़ी फिर क्‍या करेगी ?

पुनश्‍च इस मंत्र की व्‍याख्‍या अन्‍य विद्वानों की दृष्‍टि से देखते हैं, श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने उक्त मंत्र का अर्थ दिया है, ‘इस ब्रह्मांड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान् द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है । अतएव मनुष्य को चाहिये कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करे जो उसके लिए आवश्यक हैं और जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गयी हैं । मनुष्य को यह भलीभांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए ।’

इस विषय पर गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याणः उपनिषद् अंक’ में मंत्र का अर्थ इस प्रकार दिया है, ‘अखिल ब्रह्मांड में जड़-चेतन स्वरूप जो भी जगत् है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है । उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्यागपूर्वक (इसे) भोगते रहो, आसक्त मत होओ (क्योंकि) धन – भोग्य पदार्थ – किसका है ? अर्थात् किसी का नहीं है ।’ ईशोपनिषद् की विस्तृत व्याख्या संस्कृत में आदि शंकराचार्य द्वारा भी की गयी है । उनकी व्याख्या के आरंभ में मंत्र के बाद हिन्दी में यह अर्थ दिया गया है कि ‘जगत् में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है (अर्थात् उसे भगवत्स्वरूप अनुभव करना चाहिये) । उसके त्याग भाव से तू अपना पालन कर, किसी के धन की इच्छा न कर ।’ उक्त भाष्य के अनुसार व्यक्ति को आदेश है कि वह प्राकृतिक संपदा का अपने पर निर्भर सभी जनों का पालन करते हुए भोग करे । किंतु यह ध्यान में रखे कि अंततः वह संपदा किसी की नहीं, अतः उसके संग्रह की इच्छा न करे ।( योगेन्द्र जोशी, विचार संकलन)

ओशो कहते हैं कि ईशावास्य उपनिषद की आधारभूत घोषणा, सब कुछ परमात्मा का है। इसीलिए ईशावास्य नाम है, ईश्वर का है सब कुछ। मन करता है मानने का कि हमारा है। पूरे जीवन इसी भ्राँति में हम जीते हैं। कुछ हमारा है-मालकियत, स्वामित्व-मेरा है। ईश्वर का है सब कुछ, तो फिर मेरे मैं को खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती। किंतु क्‍या ऐसा वास्‍तविक जीवन में लोगों के दिखाई देता है, खासकर उनके जो माननीय हैं। यहां माननीयों को नौकरशाह एवं लोकसेवकों जो संविधानिक पदों पर बैठे हैं से लें। हलांकि नौकरशाहों को माननीय कहने पर कुछ लोगों को परहेज हो सकता है, इसके पीछे उनके अपने तर्क भी होंगे ही, किंतु यहां उन्‍हें माननीय कहने का अभिप्राय: इतनाभर है कि वे समझें कि उनका जीवन एक राजनेता की तुलना में पद-प्रतिष्‍ठा पाने में अधिक समय तक वर्तमान रहता है। वे जहां भी जाते हैं, महंगे गिफ्ट उनका इंतजार पहले से ही कर रहे होते हैं। यही हाल राजनेताओं का ज्‍यादातर संविधान पदों पर बैठते ही आरंभ हो जाता है। वस्‍तुत: सुप्रीम कोर्ट का सख्त संदेश आज इसलिए भी आया है कि माननीय और परम आरणीय (नेता और नौकरशाह ) इस बात की गंभीरता को समझें।

जनप्रतिनिधि जयललिता को लेकर आए निर्णय में न्‍यायपालिका की सख्‍त टिप्‍पणी है कि पब्लिक सर्वेंट ‘तोहफों’ को कानूनी तरीके से की गई कमाई के रूप में नहीं दिखा सकते हैं। जस्टिस पिनाकी चंद्र घोसे और अमिताव रॉय का सीधे शब्‍दों में कहना था कि आईपीसी की धारा 161 से 165ए के संदर्भ में जिसे अब ‘प्रिवेंशन ऑफ करप्शन (पीसी) एक्ट में जोड़ दिया गया है, उसके तहत जनप्रतिनिधि जयललिता को मिले तोहफे वैध और कानून सम्मत नहीं हैं। इस आधार पर कोर्ट ने कहा कि जयललिता को मिले तोहफे गैरकानूनी हैं। तोहफों को कानूनी तरीके से हासिल की गई आमदनी के रूप में दिखाने की कोशिश करना गलत है। खंडपीठ ने कहा, ‘प्रिवेंशन ऑफ करप्शन (पीसी) अधिनियम 1988 और पब्लिक सर्वेंट की परिभाषा तय हो जाने के बाद बचाव पक्ष की यह दलील न्यायिक तौर पर स्वीकार्य नहीं है कि जयललिता को उनके जन्मदिन पर मिले तोहफे कानूनी तरीके से हासिल की गई संपत्ति का हिस्सा हैं।

जब पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की ओर से अदालत में पेश हुए वकील ने कोर्ट से कहा था कि अगर कोई सही जानकारी दे और उचित कर चुकाए, तो आयकर विभाग तोहफे लेने को अपराध नहीं मानता है। वकील ने कोर्ट से अपील की कि वह भी जयललिता के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में यही रुख अपनाए। जिस पर न्‍यायालय ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा, कि ‘जयललिता और अन्य लोगों द्वारा अपने आयकर रिटर्न में इन तोहफों का जिक्र करने और उन पर टैक्स चुकाने से ऐसे तोहफों को लेना कानूनी तौर पर स्वीकार्य नहीं बन जाता है। उन पर लगाए गए आरोप इस आधार पर नहीं हटाए जा सकते हैं। वस्‍तुत: यह फैसला आय का एक वैध स्रोत और गैरकानूनी स्रोत में अंतर पैदा करता है। अंत में यही कहना है कि न्‍यायालय के आए इस अहम निर्णय के बाद हमारे समस्‍त माननीयों एवं सम्‍माननीयों को इससे अवश्‍य कुछ सीख लेनी चाहिए, यदि उन्‍हें आज के आधुनिक संवैधानिक नियमों से सबक लेने में परहेज है तो वे अपनी भारतीय पुरातन परंपरा में ज्ञान प्राप्‍त करते हुए तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, त्‍याग का भोग करने की ओर भी अग्रसर हो सकते हैं।

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