मनुष्य का परम कर्तव्य ईश्वर के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान व उसकी उपासना

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प्रत्येक व्यक्ति के मन में इस सृष्टि को देखकर इसके बनाने वाले कर्त्ता का ध्यान आता है परन्तु वह ज्ञान की अल्पता में निर्णय नहीं कर पाता कि इसका बनाने वाला वस्तुतः कौन है? सृष्टि को देखकर शिक्षित व विवेकवान मनुष्य की बुद्धि कहती है कि वह एक महान, चेतन, सर्वव्यापक,  निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, अदृश्य, सर्वज्ञ, अनादि, नित्य, अमर व आनन्द से पूर्ण सत्ता है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि जड़ लोकों एवं समस्त प्राणी जगत की उत्पत्ति, उनका  जन्मदाता व कर्म फल प्रदाता भी वही एकमात्र सृष्टि का कत्र्ता ईश्वर है। इस ईश्वर से इतर किसी अन्य सत्ता से यह सृष्टि बन ही नहीं सकती। वेद, दर्शन तथा उपनिषदों में भी ईश्वर के ऐसे ही स्वरूप वाले कर्त्ता का वर्णन है। वेद ज्ञानी ऋषियों के अभाव, वेदों के अप्रचार, भिन्न-भिन्न उपासना पद्धतियों, अज्ञान एवं अन्धविश्वासों के कारण ईश्वर के यथार्थ व सत्य स्वरूप के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों सहित सारे विश्व में फैला हुआ है। प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर ने यह विशाल सृष्टि क्यों व किसके लिये बनाई है? क्यों का सीधा उत्तर है कि उसने अपनी शक्ति, सामथ्र्य तथा जीवात्माओं के पाप-पुण्यों के सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिए यह सृष्टि बनाई है।

 

ish  जिज्ञासा की जा सकती है कि यह चेतन, सूक्ष्म व अल्पज्ञ जीवात्मा कौन तथा कहां से आये हैं? वेदों का अध्ययन, विचार व चिन्तन करने पर ज्ञान होता है कि जीवात्मा अनादि, नित्य, अजन्मा, अमर, चेतन, ज्ञान व कर्म स्वभाववाली तथा जन्म व मरण में फंसी हुई एक सूक्ष्म सत्ता है। अजन्मा व नित्य होने से ईश्वर की ही तरह जीवात्मा भी हमेशा से इस ब्रह्माण्ड का निवासी है। जीवात्मा व ईश्वर का सनातन-शाश्वत-नित्य सम्बन्ध है और ईश्वर सदा से जीवात्मा का मित्र, भ्राता, सुखदाता व आनन्ददाता है। ईश्वर व जीवात्मा का सम्बन्ध पिता-पुत्र तथा व्यापक-व्याप्य का मुख्य है। यह जीवात्मा के अस्तित्व व उत्पत्ति का उत्तर एवं समाधान है। यह विज्ञान के इस सिद्धान्त के अनुरूप है कि संसार में कोई नया पदार्थ न तो बनाया जा सकता है न बने हुए किसी पदार्थ को नष्ट ही किया जा सकता है। गीता में कहा गया है कि अभाव से भाव अस्तित्व में नहीं आ सकता और न ही भाव का अभाव हो सकता है।

 

संसार किस से उत्पन्न हुआ? इसका उत्तर है कि निमित्त कारण ईश्वर तथा उपादान कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति से। यह प्रकृति इससे भी सूक्ष्म ईश्वर के पूर्ण नियंत्रण व वश में सदा से है। सृष्टि वा कल्प के आरम्भ में ईश्वर ही इसे अपने ज्ञान व सामर्थ्य से स्थूल रूप देकर वर्तमान स्वरूप प्रदान करते हैं। सृष्टि बन जाने पर ईश्वर कल्प के आरम्भ में अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा नाम वाले चार ऋषियों को अन्तर्यामी स्वरूप से चार वेदों का अर्थ सहित ज्ञान भी देते हैं। यह ईश्वर का कर्तव्य है कि वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी व युवावस्था में उत्पन्न स्त्री वा पुरूषों को अज्ञानी न रहने दें। यदि वह ऐसा न करता तो वह सर्वशक्तिमान नहीं कहला सकता था। सृष्टि को बनाने, मनुष्यों को उत्पन्न कर उन्हें वेद ज्ञान से अलंकृत करने तथा जीवों के पाप-व पुण्यों के फल देने से ही वह सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। वेद ज्ञान से युक्त होकर सभी मनुष्य, जीवन के रहस्य, कर्तव्य व कर्म-फल सिद्धान्त को जान जाते हैं। जन्म-मरण को यथार्थतः दुःखमय जानकर विवेकी मनुष्य ईश्वराज्ञा के अनुसार ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ध्यान व उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हैं जिसके सफल होने से मनुष्य अभ्युदय सहित जीवनमुक्त होकर मोक्ष के अधिकारी बन जाते हैं। मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का प्रयोजन, अन्तिम व प्रमुख लक्ष्य है। अतः ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् का जप व स्तुति-प्रार्थना-उपासना ही सब मनुष्यों का मुख्य कर्तव्य है। जो मनुष्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने के लिये वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन एवं ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर यथाविधि स्तुति, प्रार्थना व उपासना नहीं करता वह कृतघ्न होता है। कृतघ्नता पाप व महापाप है जिससे मनुष्य का परजन्म उन्नत होने के स्थान पर अवनत होता है और भारी दुःखों का भागी होता है। अतः सभी व प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर के ऋण से उऋण होने के लिए उसके सत्यस्वरूप को जानकर पुत्रवत माता-पिता की स्तुति-प्रार्थना-उपासना के अनुरूप ध्यानपूर्वक सेवा व भक्ति करनी चाहिये।

 

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