मनु और वत्र्तमान राजनीति की विश्वसनीयता भाग-3

politicsराकेश कुमार आर्य

भारत में कानूनी सुधार की मांग रह रहकर उठायी जाती रही है। कानून के समक्ष समानता की बात भी कही गयीं हैं, या कही जाती रहती हैं, पर कभी कानूनी सुधार को राजनीतिक संरक्षण नही मिला। इसका कारण यह है कि यदि कानूनी सुधार की पहल की गयी तो उसकी पकड़ में सर्वप्रथम राजनीतिज्ञ ही आएंगे। देश को अपनी मौलिक भाषा संस्कृत से भी देशवासियों की इसीलिए काटा गया कि यदि ये अपनी भाषा में पढऩा लिखना सीख गये तो इसका परिचय मनु आदि विधि निर्माताओं से हो सकता है। जिन्हें पढक़र ये वर्तमान राज्यव्यवस्था से विद्रोह कर सकते हैं, और ‘राजाओं’ को कानून की पकड़ में लाने के लिए क्रांति का सूत्रपात कर सकते हैं। हमारे संविधान निर्माता मनु का कहना है कि सब समाज और राज्य की सुरक्षा के लिए प्रभु ने ‘राजा’ पद को बनाया है और वर्तमान कानूनी व्यवस्था कह रही है कि अपनी चमड़ी को बचाये रखने के लिए ‘राजा’ जैसे चाहे वैसे कानून का दुरूपयोग कर सकता है। ऐसी व्यवस्था कर सकता है

, जिससे ‘राजा’ तक कोई हाथ बढऩे न पावे।
राजा के आठ विशिष्ट गुण

मनु और मनुवाद के विरोधी लोगों को और भी अधिक विरोधी बनाने का प्रयास कुछ लोगों द्वारा इस देश में किया जाता रहता है। जिससे लोगों को मनु को समझने का अवसर ही नही मिल पा रहा। जबकि इस समय मनु को समझने की सबसे अधिक आवश्यकता है। मनु विरोधी बंधु तनिक विचारें कि मनु राजा के जिन विशिष्ट आठ गुणों की चर्चा करते हैं, यदि वे गुण वर्तमान शासकों में आ जाएं तो उनके अपने लिए कितना लाभदायक रहेगा? मनुजी कहते हैं :-”यह सभेश अर्थात राजा (जो कि परमविद्वान और न्यायकारी है) इंद्र अर्थात विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्ता, वायु के समान सबको प्राणवत प्रिय और हृदय की बात जानने हारा, यम=पक्षपाक्षरहित न्यायाधीश के समान वत्र्तने वाला, सूर्य के समान न्याय धर्म विद्या का प्रकाशक अंधकार अर्थात अविद्या अन्याय का निरोधक, अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला, वरूण अर्थात बांधने वाला के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला, चंद्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरूषों को आनंददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे।” (सत्यार्थ प्रकाश 140)

इतिहास में ऐसे बहुत सत्ताधीश, मठाधीश, न्यायाधीश और मायाधीश पैदा हो गये हैं जिन्होंने राजसत्ता को दूसरे लोगों से छीना और छीनकर जनता पर क्रूरतापूर्वक शासन किया। ऐसे शासक जनता का विश्वास नही जीत सके। यही कारण रहा कि ऐसे लोगों की क्रूर सत्ता को जनता की चुनौती मिलती रही। चाटुकार इतिहासकारों ने ऐसे शासकों को चाहे जितना महिमामंडित कर दिया हो पर एक प्रश्न का उत्तर वह नही दे सके और वह प्रश्न यह कि जिस राजा की अपनी ही प्रजा उसके अमंगल की कामना करती हो और उससे यथाशीघ्र मुक्ति प्राप्त करना चाहती हो, उसे राजा माना भी जाये या नही? राजा की परिभाषा को भुनाना राजनीति और राष्ट्रनीति दोनों के साथ अपघात करना है। ‘हर माल मिलेगा ढाई आने’ यह बात सब्जी मंडी की चकर मकर में तो समझ में आती है पर यह बात इतिहास जैसे गंभीर विषय पर लागू नही होती। यहां तो ‘राजा’ की परिभाषा को, उसके गुणों को और उससे की गयी अपेक्षाओं को ध्यान में रखकर ही यह निश्चय किया जाना चाहिए कि वह ‘राजा’ की कितनी अर्हताओं को पूर्ण करता है? आप आश्चर्य करेंगे कि यदि मनु महाराज के राज्य धर्म के अनुसार राष्ट्रनीति और राज्यव्यवस्था का संचालन होने लगे तो पिछले लगभग दो हजार वर्षों के कालखण्ड में जिन राजाओं ने संप्रदाय या मजहब के नाम पर विश्व में लोगों पर अत्याचार किये हैं और करोड़ों लोगों की हत्याएं की हैं वे सबके सब ‘राजपद’ के लिए अयोग्य घोषित हो जाएंगे। तब हम देखेंगे कि पिछले लगभग दो हजार वर्ष से शेष विश्व में अराजकता व्याप्त है। इस बात को आप भारत पर लागू करने में हिचकेंगे क्योंकि यहां तो बहुत देर तक राजधर्म को समझने और मानने वाले राजाओं की परम्परा बनी रही, और इतना ही नही यहां के राजा तो अराजकता की विदेशी आंधी से देर तक लड़ते भी रहे।

राजा के आठ गुणों की व्याख्या

अब राजा के उपरोक्त विशिष्ट आठ गुणों की मनु की भावना के अनुसार व्याख्या पर विचार करते हैं। महर्षि मनु ने 9/303 से 311 श्लोकों में स्वयं इन गुणों की व्याख्या की है। वह कहते हैं-(1) इंद्र-(परमेश्वर की वृष्किारक शक्ति का नाम है इंद्र) इसी को ध्यान में रखकर महर्षि मनु कहते हैं कि जैसे इंद्र भरपूर जल बरसाकर जगत को तृप्त करता है वैसे ही राजा अपनी प्रजाओं को सुख सुविधाएं और ऐश्वर्य प्रदान करे। उनकी कामनाओं को पूर्ण कर संतुष्ट रखे। राजा के इस इंद्ररूप का गुणगान भारत के कितने ही लोकगीतों में भी मिलता है। लोग राजा इंद्र की कहानियां सुनाते सुनते आज भी गांवों की चौपालों पर मिल जाएंगे। राजा इंद्र कौन थे और कहां के थे उनका अस्तित्व कभी रहा भी या नही, हम इस पर चर्चा नही कर रहे हैं, जो आज तक जनता में किसी दैवीय शक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त है, और जिसे लोग श्रद्घा से स्मरण करते हैं।

लोगों की इंद्र के प्रति यह श्रद्घा केवल इसलिए है कि वह अपनी प्रजाओं की सुख सुविधाओं और ऐश्वर्यों की वृद्घि के लिए सचेष्ट रहता है। यदि हमारे वर्तमान ‘राजा’ भी ऐसे ही लोककल्याण के कार्यों में रत रहने वाले बन जाएं तो लोग उन्हें भी ‘राजा’ इंद्र बना देंगे। परंतु इसके लिए हमें अपने संविधान में ‘राजा इंद्र’ का उल्लेख करना पड़ेगा। जब तक हमारे राजतंत्रीय लोकतंत्र को हांकने वाली आदर्श पुस्तक में लोककल्याणकारी शासकों की प्रशस्ति नही होगी तब तक हम ये कैसे कह सकते हैं कि हम लोककल्याण को अपना आदर्श बनाकर चल रहे हैं?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here