भारत का मानचित्र

-बी एन गोयल

कभी-कभी मन में विचार आता है कि १५ अगस्त १९४७ से पहले कैसा था भारत का मानचित्र और उस के बाद यह मानचित्र कैसा बन गया. हम बाहरी मान चित्र के साथ साथ आंतरिक मानचित्र की भी बात कर रहे हैं। इस में भी महत्वपूर्ण प्रश्न है वर्तमान वातावरण में नए राज्यों की मांगो और राजनेताओं के बदलते तेवरों को देखते हुए कैसा होगा आनेवाले कल का आंतरिक और बाहरी मानचित्र।

हमारे कुछ मित्र प्रायः कहते हैं कि

“पूरा भारत कभी भी एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में नहीं था. इस में अलग अलग राज्य थे, रियासतें थी, राजे महाराजे थे, यह केवल ब्रिटिश राज्य में ही एक इकाई के रूप में बना. इस से पहले तो अलग अलग हिस्सों में बंटा हुआ था”

ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि भारत शब्द स्वयं में ही सम्पूर्ण है. सम्राट अशोक को महान अशोक कहा जाता है।उस समय इस का मानचित्र सम्पूर्ण एक था।

१५ अगस्त १९४७ से पहले इस के विभिन्न प्रान्त (राज्य) थे. जैसे सरहद (फ्रंटियर) प्रान्त, ब्रिटिश बलूचिस्तान, सिंध, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, संयुक्त प्रान्त अर्थात यू पी (यूनाईटेड प्रोविन्सस आफ आगरा एंड अवध), बिहार, बंगाल, असम, उड़ीसा, सी पी (सेन्ट्रल प्रोविन्सस आफ बरार) अर्थात विदर्भ सहित आज का मध्य प्रदेश, हैदराबाद, राजपुताना, बम्बई, मद्रास, मैसूर, मालाबार कोस्ट आदि। इस में एक ब्रिटिश इंडिया था जहाँ ब्रिटिश सरकार का सीधा दखल था, एक प्रिंसली स्टेटस इंडिया था।जिस में कुल ५६२ देसी रियासतें थी. इन के अपने अपने राजे महाराजे थे. ये रियासते अलग अलग होते हुए भी भारत की ही रियासतें थी। इन का क्षेत्र काफी अधिक था। इन में पूरे उपमहाद्वीप की लगभग २/५ हिस्सा था और पूरे देश की २५% आबादी। इन ५६२ रियासतों में ३९६ मात्र गुजरात में थी।इन में भी २५० अकेले काठियावाड़ में थी।अपने अपने आकार के अनुसार इस रियासतों की भी श्रेणियां थी – सौराष्ट्र में सात प्रकार की रियासते थीं। गुजरात में प्रसिद्ध रियासते थी- बड़ोदा (वड़ोदरा), जूनागढ़, भाव नगर, राजकोट, पोरबंदर, ध्रांगधरा, लिम्बडी आदि। पंजाब में पटियाला, कपूरथला, फरीदकोट आदि।दक्षिण भारत में मैसूर, ट्रावन्कोर, कोचीन, आदि थी। गुजरात में कच्छ की स्थिति अलग तरह की थी. इसी तरह राजपूताना (आज का राजस्थान) में भी काफी रियासते थी।इन में प्रसिद्ध थी- जयपुर, उदयपुर, जोधपुर।

कच्छ में भारतीय मानक समय – Indian Standard Time – १९४२ में लागू हुआ।कच्छ में भारतीय रुपया १९४९ में लागू हुआ।उत्तरपूर्व में त्रिपुरा १९४९ में भारत में शामिल हुआ। भारत के तीन नगर पुडुचेरी, चंद्रनगर और माहे फ्रेंच कालोनी थे।ये भारत के गणराज्य बन जाने पर १९५० में भारत में मिले। गोवा, दमन और दीव पुर्तगाल के कब्ज़े में थे।इन्हें १९६१ तक भारत का भाग बनने के लिया लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ी। सिक्किम को तो और अधिक इंतज़ार करना पड़ा।जूनागढ़ और हेदराबाद के जुड़ने की कहानी अलग है और उसे सभी जानते हैं।

इतिहास के पृष्ठ बताते हैं जब लन्दन के वकील सर सिरिल रेडक्लिफ को केवल पांच सप्ताह के लिए दिल्ली में ठहर कर भारत और पाकिस्तान की सीमायें तय करने और देश का विभाजन करने के लिए कहा गया तो एक बार को वह भी सकते में आ गया।क्यूंकि यह उस के लिए एक नया ही काम था और मुश्किल काम था। इतने बड़े देश का विभाजन करना जहाँ जाति, धर्म, आदि के अनेक और विरोधाभासी घटक मौजूद हों. फिर भी उसे यह काम करना था, उस ने किया और घटनाओं ने सिद्ध किया कि उसे यह कितना महंगा पड़ा था।विभाजन की रूप रेखा सर सिरिल रेडक्लिफ ने अपने कार्यालय में बैठ कर बना दी। सबसे बड़ी त्रासदी यह है की रेडक्लिफ लन्दन में वकालत करते थे, उन्हें भारत की परम्परा, संस्कृति, इतिहास, भूगोल आदि की कोई जानकारी नहीं थी। यह सब समझने या जानने का उन के पास समय भी नहीं था।

इस रिपोर्ट को सर रेडक्लिफ अवार्ड कहा जाता है। जिन्ना ने भारत के छः राज्यों में पाकिस्तान की मांग करी थी। उन को बंगाल का हिस्सा (पहले से विभाजित पूर्वी बंगाल), असम का सिलहट जिला, पंजाब का हिस्सा, सिंध, ब्रिटिश बलूचिस्तान और सरहद प्रान्त मिला।इन में एक पूर्वी पाकिस्तान और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान कहलाये। यह एक अलग बात है की १९७१ के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान एक नया देश – बंगलादेश – कहलाया।

लार्ड माऊंटबैटन ने स्वयं कुछ ही दिन पहले यानी १८ मार्च १९४७ को भारत के वायसराय का पद भार सम्हाला था। उन्हें जल्दी थी की किसी तरह भारत के इतिहास में अपना नाम कर जाऊं, यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जून १९४८ तक का समय दिया था। मार्च में पद भार सम्हालते ही उन्होंने भारत की स्वतंत्रता की पांच महीने बाद की तारीख यानी १५ अगस्त की तारीख पक्की कर दी।यह किसी को मालूम नहीं की इस तारीख का उन के जीवन में एक अलग महत्व या संयोग है।

लार्ड माऊंट बैटन ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुई पेसिफिक लड़ाई में साऊथ ईस्ट एशिया कमांड के सुप्रीम कमांडर के नाते १५ अगस्त १९४५ के दिन जापान का औपचारिक समर्पण स्वीकार किया था। वे इस दिन को अपने लिए शुभ या विजय का दिन मानते थे।इसी जल्दी में उन्होंने सर रेडक्लिफ को भी जून के पहले हफ्ते में भारत बुला लिया। उन्होंने विभाजन की जो रूप रेखा तैयार की उस से कोई भी भारतीय नेता सहमत नहीं हो सकता था।सर रेडक्लिफ ने इस काम को किया ज़रूर लेकिन उन के मन में भी एक अलग तरह का भय था। आने से पहले उन्हें इस काम की गंभीरता या विशालता का कोई अनुमान नहीं था। आने के बाद काम की जटिलता को देख कर वे इस भार से जल्दी से जल्दी मुक्ति चाहते थे।इस से पहले उन ने कभी भारत को देखा भी नहीं था। इस लिए जैसा उन की समझ में आया, वैसा नक्शों के आधार पर विभाजन उन्होंने कर के रख दिया।अपनी रिपोर्ट उन ने १४ अगस्त को शाम के समय लार्ड माऊंटबैटन को सौपी और १५ अगस्त की सुबह सुबह वे हवाई जहाज़ पकड़ कर लन्दन चले गए। उन ने स्वतंत्रता समारोह में भी भाग लेना ठीक नहीं समझा।वकील होने के नाते वे यह जानते थे और इस बात को उन ने कहा भी है की यदि मैं १५ अगस्त की सुबह दिल्ली में रुक गया तो मुझे चारों तरफ से जूते पड़ेंगे।जिन्ना को जब रेडक्लिफ की सिफारिशों का पता चला तो वे बहुत दुखी हुए।उन ने कहा की – इस तरह के खंडित पाकिस्तान की मैंने कल्पना भी नहीं की थी. I never expected such a truncated Pakistan.

कुछ दिन पहले कनाडा में मेरे पडोसी, पाकिस्तान के मूल निवासी, ९९ वर्षीय वयोवृद्ध लेकिन स्वस्थ और हंसमुख रशीद खां साब से बात हो रही थी। खां साब एक ऐसे व्यक्ति हैं जो इस उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ हैं। रोज़ पार्क में टहलने आते हैं। मैं इन से पार्क में ही तक़रीबन रोज़ मिलता हूँ। इन के साथ बैठ कर काफी देर तक इनकी पुरानी यादें कुरेदता रहता हूँ। एक जनवरी १९०९ को जन्में खां साब ने ४० वर्ष सरकारी नौकरी – रेलवे में – तथा ३० वर्ष तक प्राइवेट नौकरी की। मैंने उन से भारत और पाकिस्तान की वर्तमान स्थिति के बारे में बात की। उन के अनुसार कायदेआज़म जिन्ना आज़ादी के बाद सिर्फ १३ महीने जीवित रहे। इस के बाद पाकिस्तान के पास कोई पायेदार नेता नहीं था जब की भारत के पास ऐसे एक नहीं अनेक नेता थे। खां साब कहने लगे ‘हमें आप नेहरु जैसा सिर्फ एक नेता दे देते तो शायद पाकिस्तान का कुछ भला हो जाता.’|

मेरी धारणा है यदि लार्ड माऊंटबैटन जल्दी न करते और ब्रिटिश प्रधान मंत्री लार्ड एटली की बात मान कर भारत की आज़ादी की तारीख जून १९४८ ही रखते तो शायद न तो इतना खून खराबा होता और न दो देशों में इतनी रंजिश होती। लेकिन होता वही है जो ईश्वर को मंज़ूर होता है।

बड़े मियां ने हमारे नेतृत्व की प्रशंसा की तो सुनने मैं अच्छा लगा। लेकिन आज की स्थिति देख कर मन परेशान हो जाता है। क्या आज के नेतृत्व के बारे में हम यह कह सकते हैं? यदि आज के नेता कहीं हमारे पास १९४७ में होते तो देश का आंतरिक मानचित्र कैसा होता, देश का क्या हाल होता. यह सोच कर भी सिहरन सी हो जाती है। संभवतः भारत का अधिकांश भाग हमारे इन नेतागणो ने जिन्ना को बेच दिया होता – क्योंकि इन को सबसे ज्यादा पैसे की ज़रुरत है।लाल बहादुर शास्त्री के प्रधान मंत्रित्व के समय पाकिस्तान के तात्कालिक शासक अय्यूब खान ने लाल किले पर पाकिस्तान का झंडा फहराने का स्वप्न देखा था।उस ने चुनौती भी दी थी। उस समय तो वह उस का सपना पूरा नहीं हो सका। लेकिन आज के नेताओं के साथ शायद यह पूरा हो जाता।

शायद यमुना नदी के तट तक पाकिस्तान की सीमा होती। आगरा शहर पाकिस्तान में होता। कच्छ का क्षेत्र, आधा काठियावाड़, अमदाबाद तक का गुजरात पकिस्तान के पास होता। यही तो जिन्ना की मांग थी। जिन्ना ने पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में आने जाने के लिए भारत के बीचो बीच एक गलियारा माँगा था। उसी समय एक अखबार ने मजाक में लिखा था की जिन्ना की पाक एक्सप्रेस कराची से चटगांव तक तो जानी ही चाहिए।यदि आज के शासक उस समय होते तो शायद जिन्ना को गलियारा दे दिए होते। क्योंकि ‘आखिर यह एक ‘मानवीय’ मांग’ है’|

तब भारत का मानचित्र कैसा होता यह एक यक्ष प्रश्न है। यह भी सही है की १९४८ के बाद भारत के मानचित्र में कुछ परिवर्तन आये हैं। जैसे १९४८ में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में युद्ध करने का परिणाम था की कश्मीर दो हिस्सों में बंट कर रह गया.।अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ देश भारत के बाहरी मानचित्र के साथ छेड़खानी करते रहते हैं। लेकिन उस के कारण कुछ और हैं। १९४८ के बाद के परिवर्तनों में मुख्यतः १९४९ में पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा का भारत में विलय और फ्रांस और पुर्तगाल के आधीन भारतीय क्षेत्रों का भारत में विलय होना है। १९६२ में चीन ने भारत पर अचानक आक्रमण कर भारत का कुछ भाग हथिया लिया। अब फिर से चीन अरुणाचल में अपनी जोर अजमाइश कर रहा है। उस ने पूरे प्रदेश को चीनी क्षेत्र मानने की मुहिम छेड़ दी है।परेशानी यह है की भारत ने कभी किसी देश के मानचित्र के साथ कभी कोई खिलवाड़ नहीं की और न ही ऐसा कोई इरादा है तब फिर ये अन्य देश क्यों भारत के साथ ऐसा करते हैं।

हमने सम्राट अशोक के समय को अपना आदर्श माना है। अशोक के चिन्हों को हमने अपने राष्ट्रीय प्रतीकों के रूप में स्वीकार किया है। आज चारों तरफ से नए नए राज्यों की मांगे बढती जा रही हैं। हमारे देश के वर्तमान कर्णधारों का एकमात्र ध्येय है – देश की प्रगति हो या न हो – हमारी व्यक्तिगत प्रगति अवश्य होनी चाहिए।

ऐसे में ईश्वर से प्रार्थना है की इन सब को – हम सब को – सदबुद्धि दे।

2 COMMENTS

  1. श्री गोयल जी ने इतिहास का पन्ना नए सिरे सा खोला है. वाकई यह सच्चाई है की इतिहास के स्नात्कोक्त्तर के छात्रों को भी हमारे देश का सच्चे इतिहास का पता नहीं होता है.
    ९९.९ प्रतिशत लोग समझते है की जैसे फिल्मो में होता है वैसे है १५ अगस्त को हमें आजादी मिल गए है. वास्तव में आजादी तो लगभग १ १/२ साल पहले तय हो चुकी थी. तारिख बदलती / बढती रही. सभी इन्तजार कर रहे थे की कब अंग्रेज हमें आजादी का कागज दे देंगे.

    अंग्रजो को हमने उसी सम्मान के साथ हमने विदा किया जैसे कांग्रेस सरकार ने भोपाल गैस त्रासदी के गुनाहगार अमेरिकावासी एंडरसन को विदा किया.

    जैसे हिंदी बोलने वाले का बच्चा हिंदी बोलता है, बंगाली का बच्चा बंगाली बोलता है, वैसे ही जैसा इतिहास हमें पढाया / बताया जायेगा हमें वैसा ही पा होगा.
    बहुत अच्छा लेख. और लेखो के इन्तजार में.

    • श्री सुनील पटेल जी
      धन्यवाद – किसे चिंता है नयी पीढ़ी को सच्चा इतिहास पढ़ाने की | तथाकथित उच्च समाज में देश को लूटने की आपा धापी मची है | नीचला वर्ग दाल रोटी जुटाने के चक्कर में परेशान है | नेता किसी भी दल का हो – हमाम में सब नंगे है | सभी नेता एक सवाल पर एकमत हैं की उन के भत्ते किस तरह बढ़ सकते हैं – वे यदि बीमार हैं, चलने फिरने से मजबूर हैं, जाने के दिन नज़दीक हैं, साल भर तक अपना कार्य नहीं देख पाते हैं, फिर भी वे मंत्री या सांसद – विधायक बने रह सकते हैं, अपनी तनख्वाह – भत्ते ज्यों के त्यों लेने के हकदार हैं – लेकिन एक गरीब आदमी उचित दवा का भी हकदार नहीं हैं- इतिहास पढ़ना तो दूर की बात है……सधन्यवाद ————

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