मार्कण्डेय : जीवन के बदलते यथार्थ के संवेगों का साधक

-अरुण माहेश्वरी

‘निर्मल वर्मा की कहानियों में लेखकीय कथनों की एक कतार लगी हुई है। जहां जरा-सा गर्मी-सर्दी लगी कि कमजोर बच्चों को छींक आने लगती है। यदि और सफाई से कहें, तो जैसे रह-रह कर बैलगाड़ी के पहिये की हाल उतर जाती है, ठीक वैसे ही, पात्र जरा-सा संवेदनात्मक संकट पड़ते ही खिड़की के बाहर देखने लगते हैं – जहां कोई रेलिंग होती है और जिस पर उदास अंधेरा चुपचाप बैठा होता है। कोई बालकनी या छज्जा होता है, जहां सूखने के लिए कपड़े टंगे रहते है। और लेखक अपनी कोई उक्ति कोई काव्यात्मक प्रसंग या कोई चमत्कार-पूर्ण वाक्य डाल कर ही आगे बढ़ता है।… अपने समय के सच्चे प्रतीकों की बात करना आसान है, पर उन सच्चे प्रतीकों की ट्रू कापी (सच्ची अनुकृतियों) से अपने प्रतीकों को अलगाना जरा टेढ़ी खीर है। उन्हें प्रचारित करने वाले शक्तिशाली और समझदार लोग हैं, जो सत्य की सारी शक्ति चुरा लेने की ताकत रखते हैं। जीवन की वास्तविकताओं के बल पर ही युग के सच्चे प्रतीकों का निर्माण और उनकी मान्यता संभव है। विश्वास और रचना में मूल अंतर जीवन के साथ गहराई से लगाव न होने के कारण ही पैदा होता है और यही अंतर धीरे-धीरे एक स्थायी अन्तराल बन जाता है।’(निर्मल वर्मा: अतीत और भविष्य से मुक्त निरे वर्तमान में)

‘वैसे ही जैसे कोई आदर्शों का भौतिक रूप नहीं जानता, महज कल्पना करता है या कर सकता है और यहीं नयी कहानी की एक विशेष प्रकृति सहसा अनावृत हो आती है, जिसे आदर्शोन्मुख यथार्थ कहना एक भारी भूल होगी। वस्तुत: यह स्थिति शुद्ध रोमानी है, जिसमें ठोस वास्तविकताओं के लिए प्रतिबद्ध लोगों के मुंह से जबान गायब हो जाती है। … शेखर जोशी ने इस युगीन समस्या को अपनी संपूर्ण चेतना और अनुभूति में उतारा है, इसमें संदेह नहीं। परिवर्तन की इस तीखी प्रतिक्रिया के कारण ही वे ‘दाज्यू’, ‘कविप्रिया’, ‘कोसी के घटवार’ और ‘बदबू’ जैसी श्रेष्ठ कहानियां लिख सके हैं लेकिन अब लगता है जैसे चेतना की सहज प्रकृति रचनाकार के लिए सब कुछ नहीं होती। उसके सयाने होने का अर्थ ही यह है कि वह अपनी रचनात्मक चेतना को एक स्तर पर पहुंचा कर विश्लेषित कर ले। व्यथा और विरक्ति को सामाजिक संदर्भों में निरंतर पहचानते रहने के लिए भी यह जरूरी है।’(शेखर जोशी : विछोह या विरक्ति की कथा)

‘अमरकांत विचित्र चरित्रों की रचना छोड़ कर अपनी कहानियों में समय के अंतराल को भर सकें, तो नये भाव-बोध के ग्रहण की समस्या खुद ही हल हो सकती है। लेकिन फिलहाल तो समय नये सवालों के उठाने का है, न कि उन सवालों के नये उत्तर देने का जो आज की जिंदगी से पीछे छूट गये हैं।’ (अमरकांत : समय नये सवालों के उठाने का)

‘जानना लेखक के लिए एक आंतरिक संघर्ष है और यह संघर्ष भाषा द्वारा वास्तविकतओं के समीप पंहुचने की चुनौती के कारण निरंतर चलता रहता है। संभवत: आंतरिक संघर्ष की इस प्रक्रिया का नाम ही रचना है। जिस दिन उसे इसका बोध हो जाता है कि वह पूरा जान गया, उसी दिन उसका रचनाकार स्वर्ग सिधार जाता है और वह बहुत-सी बातें जानने वालों की कतार में एक सामान्य मनुष्य के रूप में जा खड़ा होता है अन्यथा रचनाकार एक अधूरा आदमी है, निरंतर पूरे होने की प्रक्रिया में संलग्न। …वस्तुत: मानवीय संवेदना और अनुभूतियों का सचेत परित्याग ही व्यावसायिक-लेखन की सबसे बड़ी पहचान है। …इस तरह एक ओर जहां राजेन्द्र यादव इस महाजनी युग की मूल वृत्ति के प्रभाव में नयी कहानियों की वस्तुवादी, जीवनोन्मुख धारा से किनारा कस चुके हैं, वहीं दूसरी ओर रचना-शिल्प के आन्तरिक गठन और निरंतर विकास के लिए उस छटपटाहट और बेचैनी को, जो उनकी प्रारंभिक कहानियों की सबसे बड़ी संम्भावना थी, खो चुके है।’(राजेन्द्र यादव : सूचनाधर्मी परिवेश में वास्तविकताओं की बुझौवल)

‘गरज यह कि सोबती की रचना-दृष्टि में विघटन के प्रति जीवनोन्मुखी माध्यम प्रमुख नहीं हैं जो नये लेखन की खास उपलब्धि है लेकिन ऐसा भी नहीं कि वे आदर्शवादियों की तरह उड़ानें भरें और झूठ को प्रश्रय दें। तनिक रुककर देखें तो लगता है कि वे यथार्थ के आभास की लेखिका हैं। इससे तनिक और नीचे उतरने पर नुस्खों का रचनाकार बनते देर नहीं लगती। लेकिन वे वहां तक नहीं जा पायी हैं – शायद अपनी रुचियों और ईमानदारी के कारण।…चरित्रांकन की दिशा में सोबती की यह कमजोरी कुछ वैसी ही है, जैसी रोमानी लेखकों में होती है लेकिन नतीजों में वे उनसे भिन्न एक नितांत भौतिक सत्य के साथ बंधी रहती है। कभी-कभी तो उनकी निर्ममता इस हद तक पहुंच जाती है कि पाठक को उसकी स्वाभाविकता में संदेह होने लगता है।’(कृष्णा सोबती : अनोखी रीति इस देह तन की)

‘रामकुमार की सीमा एकदम दूसरी है। मूलत: उनका शिल्प-बोध दृष्टि की परिसीमा में आबद्ध है। वे उतना ही दिखा पाते हैं, जितना दृष्टि-परिधि में आता है। इसलिए वह अनदेखा संसार भूलकर भी पाठक के सामने नहीं आ पाता, जो इन पात्रों की सही आधार-भूमि है। …दुनिया से इतनी दूरी का आभास देने वाला पात्र दुनिया की शर्तों की उपज कैसे हो सकता है?…आत्मनिमग्नता की इस खास लाचारी के कारण रामकुमार रूमानी लेखकों के पूर्वनियोजित चरित्रांकन की प्रणाली से छुटकारा नहीं पा सकते। …शायद ही कोई मुख्य-पात्र इन कहानियों में ऐसा मिलेगा, जो जीवन की गति में कोई परिवर्तन स्वीकार करे। इसी कारण ये सारे पात्र वास्तविकता की मर्यादा से गिर कर काल्पनिक और गढ़े हुए लगते हैं, उनकी उदासी और विकलता उनकी अपनी ही परिसीमा में संकुचित होकर छोटी हो जाती है।’ (रामकुमार : हर एक की अपनी ही आवाज)

‘समस्याओं के साथ वैयक्तिक हस्तक्षेप के कारण ही राकेश जहां भी जीवन के यथार्थ प्रसंग छूते हैं, समस्याएं अपने सार्वजनिक स्वरूप को छोड़ कर व्यक्तिगत बन जाती है और उनकी सीमा सिकुड़कर बहुत छोटी हो जाती है। …जीवन की परिवर्तित दिशा में जहां नये अनुभवों से कटे रह जाने के कारण पुराने लेखक अपनी सामाजिक दृष्टि में रचनात्मक परिवर्तन न लाकर स्थिर बने रहे, वहीं राकेश नये जीवनानुभवों के अनुरूप एक सहज, भौतिक-दृष्टि का विकास नहीं कर सके। इसीलिये जहां नयों के सामने ‘एक और जिन्दगी’ – जैसी कहानी एक निहायत भावुकतापूर्ण रोमानी कहानी बन कर रह गयी, वहीं पुराने भाव-बोध के अनुसार इसे एक असंतुलित आदमी की अस्वाभाविक काव्य-कथा का विशेषण प्राप्त हुआ। …समझ में नहीं आता कि राकेश किन अर्थों में प्रगतिशील और नये हैं जबकि उनकी कहानियां साधारण सामाजिक व्यवस्था के सामने प्रश्न-चिन्ह लगाकर भावुकता भरे काव्यमय अनुभवाभास में खो जाती है।’( मोहन राकेश : सामाजिक भाष्य के सामने प्रश्न-चि)

‘ भीष्म साहनी की कहानियां पढ़ते हुए बार-बार हवा में उड़ते उस दामन की याद आती है जो एक नन्हें से कांटे में फंस गया है। न वह खुलकर उड़ ही पाता है, न बदन में चिपक कर रह पाता है। हवा होने पर वह फड़फड़ाता जरूरी है लेकिन द्रष्टव्य तो यह है कि हवा न रहने पर वह कांटे में टंगकर कितना अजीब दृश्य-चित्र उपस्थित करने लगता है। यह विचारणीय है कि मिस्टर शामनाथ जैसे मध्यवर्गीय चरित्र की चीफ को खुश करने और तरक्की पाने की इतनी दयनीय मंशा है कि वह जीवन के अत्यंत मार्मिक मूल्यों तक के प्रति अमानवीय हो उठता है। लेकिन भीष्म का दामन मां के उसी परम्परागत रूप में अटका रह जाता है कि कुछ भी हो मां, मां ही है। लाख अपमानित हो, वह अपने बच्चे की तरक्की के लिए अंधी आंखों से भी फुलियारी बनायेगी ही। और भीष्म अपनी अधिकांश कहानियों में खुद मां का वही रोल अदा करते हुए देखे जाते हैं। जीवन की स्थापित मान्यताओं से टूक-टूक होकर भी उसके प्रति आन्तरिक मोह छोड़ न पाने की प्रक्रिया ही भीष्म की रचना-प्रक्रिया है। …भीष्म साहनी की कहानियां पढ़ते हुए यह बातें मन में इसलिए उठती हैं कि समूची नयी कहानी में सामाजिक चेतना के प्रति उन जैसा सहज और सम्पूर्ण लगाव शायद ही किसी का है – जैसे वे अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को अपनी रचना में नियोजित कर देते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में कहानी की विधा का एक सरल बहाव और सादगी है, काश वे परम्परागत बोध के पठार से आगे बढ़कर बोधहीनता की नयी सच्चाई को भी देखते।’ (भीष्म साहनी : बोधहीनता एक नयी सच्चाई)

‘असल में जीवन के प्रति वैयक्तिक मान्यताओं के कारण यथार्थ तक पहुंचने में जो बाधाएं उपस्थित होती है – वही बाधाएं आदर्शों की ओट लेेने पर भी होने लगती है। सही माने में भावुकता के यही दो छोर है, जहां रचनाकार किन्हीं ऐसे प्रभावों में आकर अपनी आंख पर परदा डाल लेता है और फिर ऐसे दृष्टि-प्रक्षेप करने लगता है, जिससे या तो उसकी व्यक्तिगत मान्यताएं आलोकित होती है या वे आरोपित आदर्श, जिनका वह पक्षधर है और रचना का मूलाधार जीवन धीरे-धीरे उसकी दृष्टि से ओझल होने लगता है। भैरवजी की प्रारम्भिक कहानियों में हमें दृष्टि की यही ओझलता लक्षित होती है। ऊपर से सच्चाइयों की तरह दिखने पर भी रचना-प्रक्रिया के दौरान इन कहानियों का संस्पर्श यथार्थ से नहीं होता।’ (भैरवप्रसाद गुप्त : आंख की पी)

‘मुझे बार-बार लगता है जैसे अपने वैयक्तिक अनुभवों के लिए ही आपका रचनाकार पूर्णत: समर्पित है और अपने पर इस कदर लुभाये रहने के कारण आपकी सहानुभूति के चरित्र मशीनी हो उठते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके जीवनानुभव ही असामान्य हैं? ’(उपेन्द्रनाथ अश्क : अश्क के नाम एक औरत का खत)

‘यशपाल ने मान्यताएं बदल दीं। सामाजिक यथार्थ के ऊपर पड़ी परत को काटने के लिए उन्होंने ऐसे प्रतीक निर्मित किए, जिनमें अर्थवत्ता तो थी, लेकिन देह और प्राण-शक्ति पर कल्पना हावी होती गयी। पात्र और परिस्थितियां मानी हुई और नकली होने लगी, क्योंकि यशपाल की दृष्टि जीवन के बदलते हुए यथार्थ से नहीं, वरन् उस पठार से ही टकराती रही, जिसे उन्होंने मनुष्य के यथार्थवादी बोध के मार्ग में बाधक के रूप में स्वीकार कर लिया था। तनिक ध्यान से देखें, तो साफ लगेगा कि यशपाल जीवन के प्रति नहीं, उन बाधाओं के प्रति प्रतिश्रुत है, जो जीवन के विकास के मार्ग में आ पड़ी हैं।’(यशपाल : कहानी जीवन के लिए)

‘पर जाने क्यों दिन-पर-दिन अज्ञेय का रचनाकार जीवन और जगत् की ओर से उदास होता चला गया और ‘कलाकार की मुक्ति’ तक पहुंचते-पहुंचते उसमें इतनी असमर्थता आ गई कि वह किंवदन्तियों और पौराणिक कथाओं के शिल्प पर उतर आया। संभव है, जीवन की सहज गति से रचनाकार का व्यक्तित्व किनारे पड़ गया हो, अथवा विचारों के दुरूह, अस्वाभाविक प्रतिमानों के कारण मन की वे परतें ही सूख गई हों, जिन पर सच्चाइयों के अक्स आकर नक्श होते हैं अथवा वैयक्तिक कुण्ठाओं ने अपने चारों ओर एक ऐसा खोल आढ़ लिया हो कि सब-कुछ में उसे अपने ही आरोपणों की तस्वीरें दिखने लगी हों; …हैरत की बात है कि अज्ञेय ने जहां भी एक राजनीति का विरोध किया है, वहीं एक दूसरी कमजोर राजनीति ने जन्म लेकर उनकी रचना को पंगु और प्रचारात्मक बना दिया है। ’(अज्ञेय : शेखूपुरे के शरणार्थी)

‘जैनेन्द्र, आत्मप्रक्षेपण द्वारा अगर बाल्टी को कुआं कहते तो भी उसके परीक्षण की गुंजाइश होती । वे तो आंख में धूल झोंकते हैं और गम्भीर मुद्रा में कहते हैं कि, ‘जो आप देख रहे हैं, वह है भी, और नहीं भी है और फिर वही ‘सप्तभंगी नय’! फलत: सामने आता है एक भ्रम और वह भी कल्पना के पंखों पर चढ़ा हुआ और सारी रचना-प्रक्रिया को अवास्तविक और कोरी गढ़ी हुई बनाकर कहानी को वहां की बना देता है, जहां ‘शायद’ है, और हम दुनिया में रहने वालों के लिए यह ‘शायद’ भ्रम का सगा बेटा है।’(जैनेन्द्र : कहानी वहां की)

‘इन कहानियों में पात्रों के निर्माण का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। उग्र हमेशा बने-बनाए पात्रों की ही खोज में रहे हैं। वे जीवन की भूसी में से दाना चुनने का तकलीफदेह काम नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे दृष्टि को भी काम में लाने की आवश्यकता पड़ती है, इसलिए मात्र संस्कारों के सहारे वे पात्रों की चुटिया पकड़ते फिरते हैं।’ (पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र : अम्मा का नाम गुलाबो)

प्रेमचंद के बाद जिन प्रमुख रचनाकारों से आधुनिक हिंदी कहानी का पूरा परिदृश्य निर्मित हुआ था, वैसे 14 कहानीकारों पर मार्कण्डेय की ये मर्म-भेदी टिप्पणियां उनके लेखों के संकलन ‘कहानी की बात’ के 14 लेखों से ली गयी है। कहानी या रचनाशीलता से तात्पर्य क्या है, बड़े-बड़े लेखकों में वह कहां और कैसे चुकती हुई दिखाई देती है और उनकी कलम की स्याही के सूखने का कारण बनती है, मार्कण्डेय की नजर उस पर थी। कुल मिला कर निष्कर्ष यह कि कहानी में जीवन का कोई विकल्प नहीं हो सकता है। जिंदगी और उसमें चल रहा प्रतिक्षण परिवर्तन ही रचना के सौन्दर्य और शक्ति का मूल स्रोत है। जो रचनाकार बदलाव के इस निरंतर प्रवाह को साधता चला जाता है, वही लिखता है – सार्थक लिखता है। अन्यथा, एक जगह आकर सिर्फ कर्मकांडी रह जाता है। जिंदगी के बनिस्बत खुद के खास-खास विचारधारात्मक या कलात्मक आग्रहों के चलते कैसे और कहां उनसे जिंदगी के यथार्थ की डोर छूट जाती है, रचनाशीलता का प्रवाह रुक जाता है, मार्कण्डेय ने इन टिप्पणियों में बड़ी बारीकी से इसे बताया है।

बात अभी से लगभग तीन दशक पहले की है। मार्कण्डेय का उपन्यास ‘अग्निबीज’ (1981) छप कर बाजार में आया था। हमारे घर में सबने उसे बड़े चाव से पढ़ा और यह तय हुआ कि क्यों न इस उपन्यास पर एक घरेलू गोष्ठी ही की जाएं! छुट्टी के दिन सुबह-सुबह हम बैठे। मेरे, सरला के अलावा इसराइल साहब, बाबू (रमन माहेश्वरी) और दुर्गा शामिल थे। सबने पूरा उपन्यास एक रात में, जैसे एक सांस में पढ़ा था। उपन्यास का प्रवाह ही ऐसा था। पता नहीं, वह उम्र का कारण था या कुछ और, उपन्यास पढ़ते-पढ़ते किसी के आंसू न गिरे हो, या कम से कम गला न रूंधा हो, ऐसा नहीं हो सकता था। उसी प्रभाव और आवेग की मानसिकता में हम उपन्यास पर चर्चा करने बैठे थे। जब चर्चा करनी थी, तब कोरी भावुकता से काम नहीं चल सकता था। कुछ संयत रहने और साहित्य के कुछ स्थापित, जान-माने ठोस मानदंडों की कसौटी पर उस उपन्यास को रगड़ने की जरूरत थी। इसीलिये पाठक-आस्वादक के बजाय अपने ‘आलोचक’ को ज्यादा ही जागृत करके मैं उस चर्चा में उतरा था और चर्चा के प्रारंभ में ही ग्रामीण जीवन के कहानीकार मार्कण्डेय से हमारी अपेक्षाओं की पूरी फेहरिस्त पेश करते हुए मांग की थी कि गांवों के परिवेश पर कोई उपन्यास लिखा जाएं और उसमें एक सिरे से जमीन का प्रश्न गायब हो, यह अस्वाभाविक, और एक हद तक अवांछित भी है। ‘अग्निबीज’ में भारत के गांवों का प्रमुख अंतर्विरोध, जमीन-केंद्रित अन्तर्विरोध एक सिरे से नदारद क्यों है, समझ में नहीं आता। दूसरों ने भी अपनी बात रखी, उपन्यास में जो नहीं है, उसके बजाय जो है, उसी पर बात करने के लिये भी कहा गया। लेकिन वह 80 के दशक की शुरूआत का जमाना था जब हवा में जमीन की लड़ाई का मसला छाया हुआ था। उपन्यास का काल भी आजादी के ठीक बाद का काल था, जब कांग्रेस सरकार जमींदारी उन्मुलन के कार्यक्रम को अपनाए हुए थी। इसलिये पूरी ताकत और तर्कों से मैंने उपन्यास की इस मूलभूत कमजोरी को उठाते हुए उसके प्रति अपने असंतोष को जाहिर किया। और इसीप्रकार बात खत्म होगयी। मैंने कहा कि इस पर विस्तार से लिखा जायेगा, देखें क्या होता है।

बहरहाल, अग्निबीज पर हमारी घरेलू गोष्ठी तो इसी प्रकार के तर्क-वितर्क के बाद खत्म होगयी, लेकिन हमने उपन्यास पर लिखने का जो बीड़ा उठा लिया था, वह हमारे लिये समस्या बन गया। अब उपन्यास और उसके पात्र हमारे दिमाग से उतरने के लिये तैयार नहीं थे। यह एक अलग ही प्रकार का अनुभव था। क्यों और कैसे हमारे सारे ‘बुनियादी’ प्रश्न और शंकाएं दिमाग के एक कोने में धरे के धरे रह गये और उपन्यास को लेकर जितना सोचता गया, उसके सभी चरित्र, उनका परिवेश और लेखक के संवेदनात्मक उद्देश्य दिलो-दिमाग पर छाते चले गये। सारे पात्रों का इस प्रकार उठ खड़े होना और पूरी ताकत के साथ अपनी अस्मिता की सचाई को जाहिर करना कुछ ऐसा था, कि जिन प्रश्नों के खांचे में हम उपन्यास को उतारना चाहता था, वह समीक्षा में कहीं संदर्भ का विषय भी नहीं बन पाया। ‘अग्निबीज’ के पात्र न किसी संवेदनात्मक संकट की आंच पाते ही बगले झांकते दिखाई दिये, न विचित्र, काल्पनिकता से गढ़े गये वास्तविकता की मर्यादा लांघते हुए जीवन की किन्हीं व्यक्तिगत मान्यताओं या आदर्शों के वाहक या भावुकता भरे काव्यमय अनुभवाभास में खोते हुए नजर आयें। वे देह-प्राण से भरपूर, अति-संवेदनशील और साथ ही बोधहीनता के नये सामाजिक सच को उजागर करने वाले सामान्य जीवनानुभवों के अर्थवान पात्र थे।

उपन्यास के अंत में श्यामा के बेमेल विवाह और हरिजन बालिका विद्यालय में आग लगने का भावभीना और उत्तेजनापूर्ण प्रसंग है। विवाह स्थल पर पूरा गांव ही नहीं, उस क्षेत्र की सारी हस्तियां मौजूद है। हर रंग और विचारों के लोग। लेकिन गौर करने लायक बात यह थी कि श्यामा की बौद्धिक परिपक्वता के कायल, उसके व्यक्तित्व को विराट होते देखने की हार्दिक इच्छा रखने वाले वहां उपस्थित किसी भी विचारवान व्यक्ति के मन को इस बेमेल विवाह की त्रासदी से जुड़े प्रश्न बेचैन नहीं कर रहे थे। इन सबके लिये यह शादी भी हर भारतीय नारी के जीवन में सौभाग्य के उदय के महोत्सव से भिन्न और कुछ नहीं थी। अगर कोई बेचैन थे, तो सिर्फ श्यामा की मित्र-मंडली के समवयसी नौजवान सुनीत, सागर और मुराद। इस पूरे प्रकरण से गांव के एक स्थिर परिवेश में कहां और कैसे जीवन में परिवर्तन के नये सूत्र अनायास ही प्रवेश कर रहे हैं, इसे पकड़ने में कोई भी संवेदनशील पाठक नहीं चूंकेगा।

तीन खंडों में लिखे जाने वाले इस उपन्यास का दूसरा खंड कोलकाता के निकटवर्ती चटकलों के क्षेत्र पर केंद्रित होने वाला था, क्योंकि हरिजन लड़की छबिया अपने ब्राह्मण प्रेमी के साथ भाग कर इसी क्षेत्र में जा बसी थी। मार्कण्डेय इसके लिये कुछ दिन कलकत्ता रह कर चटकलों के इलाकों को देखना-जीना चाहते थे। हमलोगों से इसकी इच्छा भी जाहिर की थी। लेकिन आसानी से अपना घर छोड़ कर कहीं भी निकल जाने की मानसिकता न होने के कारण मार्कण्डेय का यह प्रकल्प सिर्फ उनकी एक इच्छा ही रह गया, कभी वास्तविकता नहीं बन पाया।

बहरहाल, ‘अग्निबीज’ के पात्रों की सोहबत और उपन्यास के प्रति-संसार में लगातार कई दिन और रातें गुजारते हुए एक प्रकार की आत्मलीनता से मैं बीमार भी होगया, और जो समीक्षा लिखी गयी, उस पर खुद मार्कण्डेय का पत्र आया कि उपन्यास को लिखते वक्त मैं जिस मानसिकता में रहा, तुम्हारी समीक्षा ने जैसे उसे फिर मेरे सामने जीवित कर दिया है। वह समीक्षा ‘नया पथ’ में छपी थी जिसका शीर्षक हमने लगाया था अग्निबीज : विगत तीन दशकों का एक अन्यतम श्रेष्ठ उपन्यास। तब चंद्रबली सिंह जलेस के महासचिव के नाते ‘नया पथ’ के संपादक थे। डा. नामवर सिंह ने उनकी चुटकी ली – ‘अन्यतम भी, श्रेष्ठ भी’। नामवरजी के कटाक्ष ने परफेक्शनिस्ट चंद्रबली जी को बौखला दिया। तत्काल मुझे फोन करके इस गलत भाषिक प्रयोग के लिये फटकारा। उस लेख को जब मैंने अपनी पुस्तक में शामिल किया तो शीर्षक बदल दिया, लेकिन इस घटना ने आगे के लिये भाषा के मसले पर मुझे काफी सावधान किया।

मार्कण्डेय कहानी में परिवर्तनशील जीवन के यथार्थ के प्रति ईमानदारी और सूक्ष्म दृष्टि के जिस सर्वप्रमुख मानदंड को हिंदी के अन्य कहानीकारों पर लागू कर रहे थे, (जैसा कि ‘कहानी की बात’ से लिये गये उद्धरणों से जाहिर है) उनकी खुद की रचनाएं बताती है कि ये सारे मानदंड उनके रचनाकार व्यक्तित्व की साधना की एक स्वाभाविक उपज थे, किसी अकादमिक ज्ञान का परिणाम नहीं। साहित्य के बारे में माक्र्स का यह कथन कि लेखक के विचार जितने छुपे रहें, कला की कृति उतनी ही अच्छी होती है, मार्कण्डेय की रचनाएं इसी का प्रमाण है। जब ‘अग्निबीज’ उपन्यास आया, उसमें हम उस समय के प्रमुख प्रश्न, जमीन के लिये संघर्ष के प्रश्न को खोज रहे थे। लेकिन जैसा कि पहले ही कह चुके है, उस उपन्यास का काल और समूचा संदर्भ ही अलग था। हमारी आत्मगत जरूरत से उपन्यास का कुछ लेना-देना नहीं था। वह विचारधारा से नहीं, अपने खुद के यथार्थ से गुंथा हुआ था, इसीलिये अपने प्रभाव और संदेश, दोनों दृष्टि से इतना सशक्त साबित हुआ। लेकिन मार्कण्डेय अपने ऐसे सुदूर अतीत में ही मूंह गड़ाये बैठे रहने वाले रचनाकार नहीं थे। अगर ऐसा होता तो वे 70 के दशक से ही हिंदी साहित्य की दुनिया में नये जनवादी उभार के इतने सशक्त व्यक्तित्व नहीं होते। आजादी के बाद के तीन दशकों में गांव का तेजी से बदल रहा परिदृश्य उनकी नजरों के सामने था। अग्निबीज के यदि और खंड लिखे गये होते तो उनमें प्रमुख तौर पर इस नये गांव के सुलगते यथार्थ का आख्यान ही होता। गांव और शहर के इस नये दौर के बदलाव को मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों का विषय बनाया। और, कहना न होगा, 1975 में उनके कहानी संकलन ‘बीच के लोग’ का प्रकाशन उस समय के कथा साहित्य जगत की एक घटना थी।

‘जरूरत तो ऐसी ही है। अच्छा हो कि दुनिया को जस-की-तस बनाये रहने वाले लोग अगर हमारा साथ नहीं दे सकते तो बीच से हट जाए, नहीं तो सबसे पहले उन्हीं को हटाना होगा, क्योंकि जिस बदलाव के लिए हम रण रोपे हुए हैं, वे उसी को रोके रहना चाहते हैं।- ‘बीच के लोग’ कहानी का यह अंतिम संवाद 70 के दशक के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य को परिभाषित करने वाला संवाद था। इस समय तक उस कहानी के मुख्य पात्र ‘फउदी दादा’ की गांधीवादी और कानूनवादी परंपरा का पाखंड पूरी तरह तार-तार हो चुका था। शहरों में जनवादी चेतना के विस्तार तथा गांवों में भूमिहीनों और दलितों की एक नयी संघर्ष और अधिकार चेतना तथा गोलबंदी का विशेष परिदृश्य साफ तौर पर उभरने लगा था।

इसी संकलन में एक लंबी कहानी थी ‘प्रिया सैनी’। शहर में नये मध्यवर्ग के उदय से जुड़ी ‘स्त्री-स्वातंत्र्य’ की तब यह एक बेहद चर्चित कहानी थी। कलम के संपादक-मंडल में डा.चंद्रभूषण तिवारी अपने ही प्रकार के जुझारू तेवर के व्यक्ति थे। सौन्दर्यशास्त्र में उन्होंने डाक्टरेट किया था और कभी उन्होंने आधुनिक हिंदी कहानी को प्रेमचंद से मुक्त करने की बात भी की थी। चंद्रभूषण जी ने ही बातों-बातों में बताया था कि प्रेमचंद के बारे में उनकी टिप्पणी को देख कर मार्कण्डेय ने उन्हें ‘मानसरोवर’ के सभी खंड भेंट करके उन्हें पढ़ डालने की सलाह दी थी, और इसप्रकार उनकी आंखों पर पड़े आधुनिकता के झूठे पर्दे को हटाया था। वही चंद्रभूषण जी ‘प्रिया सैनी’ को लेकर बेहद उत्तेजित थे। ऐसी ‘लिजलिजी’ रोमानी भावुकता का ‘क्रांतिकारी प्रतिरोध’ साहित्य में क्या काम! बार-बार ‘प्रिया सैनी’ कह-कह कर वे उन्हें चिढ़ाते थे। और हमने देखा था कि मार्कण्डेय, बिना किसी प्रतिवाद के, होठों पर सिर्फ एक बांक मुस्कान के साथ चुप हो जाते थे। बाद में मार्कण्डेय ने कृष्णा सोबती पर ‘कलम’ में जो टिप्पणी लिखी, ‘अनोखी रीति इस देह तन की’, जिसका एक उद्धरण यहां ऊपर दिया गया है, जीवन के नये और कठोर संदर्भों में कहानी के नये मानदंडों की मार्कण्डेय की तलाश का ही एक नतीजा है। कहना मुश्किल है कि ‘कहानी की बात’ की टिप्पणियों के इस समूचे उपक्रम में, जिसे उन्होंने परवर्ती दिनों में अपनी पत्रिका ‘कथा’ के पृष्ठों पर नीलकांत की टिप्पणियों के जरिये कुछ-कुछ जारी रखा था, उन्होंने अपनी रचनाशीलता के लिये कितनी कठिन शर्तें तैयार कर ली होगी! इसराइल की कहानियों में मजदूरों की जिन्दगी का जो धधकता हुआ यथार्थ था, मार्कण्डेय तब उसपर मुग्ध थे। ‘अग्निबीज’ के और खंड नहीं लिखे जा सके, इसमें इस नये और क्रांतिकारी यथार्थ को जानने और साधने के उनके इस कठिन आत्म-संघर्ष की कितनी भूमिका रही होगी, कहा नहीं जा सकता। यथार्थ के बजाय वैचारिक आग्रहों पर बल देने से बचने की जो हिदायतें उन्होंने दूसरों को दी थी, वैसे ही वैचारिक आग्रहों ने खुद उनकी रचनाशीलता के प्रवाह को कितना बाधित किया होगा, यह भी समझना कठिन है। अथवा, क्या यह सब किसी ‘बीच के लोग’ के दृश्य से हट जाने का एक ईमानदार निर्णय था! कुल मिला कर इतना जरूर है कि कालक्रम में वे एक बहुत उच्च-स्तरीय साहित्य संपादक के रूप में भी उभर कर सामने आयें। उनकी मौजूदगी ही कई ऊंची हांक वाले अध्यापक साहित्यकारों को असहज कर देने के लिये काफी हुआ करती थी। दोस्तों ने इस गुरुओं के गुरू के प्रति अपनी भड़ांस निकालने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

मार्कण्डेय शायद ही कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे होंगे, लेकिन हम जानते हैं कि पार्टी के किसी भी सदस्य से वे कहीं ज्यादा निष्ठावान और अनुशासित माक्र्सवादी थे। यही वजह है कि वे सांस्कृतिक आंदोलन के बारे में पार्टी के स्तर पर होने वाली सारी बहसों से पूरी तरह वाकिफ, इनके एक स्वाभाविक भागीदार हुआ करते थे। 70 के जमाने में ‘स्वाधीनता’ के बहुचर्चित ‘सांस्कृतिक पृष्ठ’ के लेखकों में एक नाम उनका भी था। ‘कलम’ पत्रिका के प्रकाशन और जनवादी लेखक संघ के निर्माण की पूरी प्रक्रिया में पार्टी के स्तर पर भी वे कुछ इस तरह शामिल थे कि किसी को उनके पार्टी सदस्य होने के बारे में कभी कोई संदेह नहीं हो सकता था। इन विषयों पर कामरेड बी.टी.रणदिवे के साथ कई बैठकों में वे शामिल हुए थे। वे जनवादी लेखक संघ के एक संस्थापक उपाध्यक्ष भर नहीं थे, इस संघ के निर्माताओं में उनका विशेष और बेहद महत्वपूर्ण स्थान था।

जनवादी लेखक संघ ऐसे लेखकों का संगठन है जो साहित्य की वस्तु, रूप और शैलियों के बारे में अपने दृष्टिकोणों और रुचियों की भिन्नता के बावजूद जनवाद को हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक नियति का एक अभिन्न अंग मानते हैं, जो उसे हमारी सभ्यता और संस्कृति के विकास की एक अनिवार्य शर्त मानते हैं, और जो उसकी रक्षा और विकास के संघर्ष को अपना एक आवश्यक लेखकीय कत्र्तव्य समझते हैं।- जलेस के घोषणापत्र में इस तरह के असीम महत्व के सूत्रीकरण में मार्कण्डेय की तरह के एक गैर-अकादमिक, मसीजीवी लेखक की उपस्थिति की भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित करने की जरूरत है। ‘कथा’ में धर्म, उच्च शिक्षा और नवलेखन आदि विषयों पर जमाने पहले जिस प्रकार की परिचर्चाएं चलायी गयी, वे आज भी विचारों की दुनिया में वाद-विवाद-संवाद के भारी महत्व को बताने के लिये काफी है। धर्म संबंधी परिचर्चा में ईएमएस नम्बूदिरिपाद और गुरु गोलवलकर, दोनों शामिल थे, निष्कर्ष पाठकों के विवेक पर था। आज के साहित्य और विचारों की दुनिया में विवादों का अभाव उन्हें कचोटता था। रोजमर्रे की राजनीति के सभी टेढ़े-मेढ़े रास्तों और मोड़ों पर उनकी तीखी नजर थी और इसके बारे में तो जीवन के अंतिम दिनों तक हम उनसे बेधड़क चर्चाएं किया करते थे। फोन की सहूलियत ने पिछले तीस सालों में हमें कभी उनसे दूर नहीं महसूस होने दिया।

मार्कण्डेय भाई से अंतिम मुलाकात उनकी मृत्यु के दो हफ्ते पहले ही दिल्ली में हुई थी। रोहिणी में राजीव गांधी कैंसर अस्पताल के नजदीक ही किराये के एक फ्लैट में वे अपने इलाज के लिये टिके हुए थे। संयोग से उन्हीं दिनों हमारा दिल्ली जाना हुआ और मैं और सरला, किसी तरह रोहिणी पहुंच गये। हम सबकी आंखें छलछला रही थी। मार्कण्डेय भाई को बोलने में कष्ट हो रहा था, लेकिन चुप नहीं रह सकते थे। मानसिक तौर पर पूरी तरह जागृत थे। ‘कथा’ की योजना उनके दिमाग पर छायी हुई थी। हंसते हुए बोले कि नामवरजी ने कूड़े से निकाल कर अपनी जो चार नयी किताबें छपायी है, उनपर लिखवाया जायेगा। हम सभी ठहाका मार कर हंस पड़े। सरला को पूरी तरह से स्वस्थ देख कर बेहद खुश थे। तमाम आशंकाओं के बावजूद, कुल मिला कर तब यही लगा था कि वे जल्द ही स्वस्थ होकर इलाहाबाद लौट जायेंगे। रेडियेशन के सिर्फ पांच-छह सेशन बाकी थे। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। जिस दिन वे लौटने वाले थे, उसके एक दिन पहले ही 5 फरवरी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे।

मार्कण्डेय भाई ने अपने पीछे साहित्य संबंधी चिंतन की जो एक गंभीर, उत्तेजक और समृद्ध विरासत छोड़ी है, वह हर साहित्यकर्मी की एक अमूल्य धरोहर है। उनकी स्मृति को हमारा नमन।

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