अमर शहीद डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी

विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’

भारत माता के जिन सपूतों ने माँ के चरणों पर अपने प्राण तक न्यौछावर करके भारतवासियों को प्रेरित और अनुप्राणित किया, उनमें अमर हुतात्मा डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम अत्यन्त आदर और प्रमुखता से लिया जाता है। उनके पिता सर आशुतोष मुखोपाध्याय (या मुखर्जी) अपने समय के प्रतिष्ठित शिक्षाविद् और तेजस्वी राष्ट्रभक्त थे। कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहते हुए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किये थे।

उन्हीं सर आशुतोष के यहाँ जुलाई 1901 में श्यामा प्रसाद का जन्म हुआ था। अपने पिता से प्राप्त संस्कारों ने श्यामा प्रसाद के व्यक्तित्व को गढ़ा था। अद्वितीय प्रतिभाशाली श्यामा प्रसाद ने सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थीं और प्रथमों में भी प्रथम रहते हुए एम.ए. किया था। उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा भी कम उम्र में ही उत्तीर्ण कर ली थी। फिर मात्र 28 साल की उम्र में वे बंगाल विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए थे। इतना ही नहीं केवल 33 साल की उम्र में वे उसी कोलकाता वि.वि. के उपकुलपति बनाये गये, जिस पद को उनके पिताश्री सुशोभित कर चुके थे।

वे अपने कार्य से देश भर में भ्रमण करते रहते थे। वे तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन करके यह समझ गये कि कांग्रेस जिस रास्ते पर चल रही है, उससे अंततः देश की हानि ही होगी। उनका विचार था कि हिन्दुत्व आधारित राजनीति से ही देश का भला होगा। इसलिए वे कांग्रेस से दूर रहे और हिन्दू महासभा में सक्रिय रहते हुए उसके अध्यक्ष चुने गये। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में भी आये और संघ के बारे में उनका विचार था कि यही भारत के लिए आशा की एकमात्र किरण है।

डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश विभाजन के घोर विरोधी थे और इस बारे में उन्होंने मो.क. गाँधी से भी भेंट की थी। परन्तु सत्ता के लोभ में कांगे्रस विभाजन को स्वीकार करती जा रही थी और गाँधी की बात कोई नहीं सुनता था। गाँधी के नाम पर नेहरू कांग्रेस में मनमानी करते थे। इसलिए कांग्रेस ने न केवल विभाजन को स्वीकार कर लिया, बल्कि यहाँ तक सहमत हो गयी कि सभी मुस्लिम बहुल राज्य पाकिस्तान में जा सकते हैं।

कांग्रेस से निराश और क्षुब्ध होकर डा. मुखर्जी का पूरा ध्यान अब इस ओर लग गया कि पूरे का पूरे पंजाब और बंगाल ये दोनों प्रान्त पाकिस्तान को न दे दिये जायें। इस हेतु वे देश भर में जनजागरण करने लगे। जब मुस्लिम लीग ने अपनी योजना में यह अडंगा लगते देखा, तो वे डायरेक्ट एक्शन के नाम पर गुंडागिर्दी करने लगे। मुस्लिम लीग के आतंक का मुकाबला करने के लिए डा. मुखर्जी ने हिन्दुस्तान नेशनल गार्ड नामक संगठन खड़ा किया और दंगा ग्रस्त क्षेत्रों में हिन्दुओं की रक्षा की। इसके साथ ही उन्होंने पंजाब और बंगाल के विभाजन की माँग उठाई। कांग्रेस के विरोध के बावजूद जनसमर्थन के दबाब में अंग्रेज सरकार 3 जून 1946 को दोनों प्रान्तों का विभाजन करने को तैयार हो गयी। इस प्रकार ये दोनों प्रान्त पूरे के पूरे पाकिस्तान में जाने से बच गये। आधे पंजाब और आधे बंगाल को बचाने का श्रेय निश्चित रूप से डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिया गया। वे बंगाल विधानसभा की ओर से भारतीय संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये थे।

1946 में जब जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार बनी, तो डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनके मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री बनाया गया। अपने ढाई वर्ष के मंत्रित्वकाल में डा. मुखर्जी ने छोटे-बड़े उद्योगों क��� जाल बिछा दिया और चितरंजन लोको फैक्टरी, सिन्दरी खाद कारखाना, हिन्दुस्तान एयरक्राफ्ट फैक्टरी जैसे विशाल कारखाने खड़े करके देश के औद्योगिक विकास का श्रीगणेश किया। नेहरू मंत्रिमंडल के सदस्य होने के बावजूद वे नेहरू की देश विरोधी और शेख अब्दुल्ला परस्त कश्मीर नीति के घोर विरोधी थे।

22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो सरदार पटेल और डा. मुखर्जी के जोर डालने पर नेहरू को कश्मीर में फौजें भेजनी पड़ीं। इससे कश्मीर तो बच गया, परन्तु नकली देशभक्त नेहरू की शेख परस्ती के कारण देश में कश्मीर की समस्या सदा के लिए उत्पन्न हो गयी। आगे चलकर नेहरू-लियाकत अली समझौते से क्षुब्ध होकर उन्होंने नेहरू के मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। 21 मई 1951 को उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे महान् चिंतक और प्रखर देशभक्त के साथ मिलकर देश को कांग्रेस का एक सशक्त राजनैतिक विकल्प देने के लिए भारतीय जनसंघ की स्थापना की। 21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में इसका प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ, जिसमें डा. मुखर्जी को अध्यक्ष चुना गया और पं. दीन दयाल उपाध्याय महामंत्री बने। प्रथम आमचुनाव में भारतीय जनसंघ को दो स्थानों पर सफलता मिली, जिनमें डा. मुखर्जी एक थे। वे संसद में विरोधी पक्ष के सबसे प्रभावशाली नेता थे। उनके तर्कों से नेहरू अपना संतुलन खो देते थे।

भारतीय जनसंघ और डा. मुखर्जी को अपने ही देश के एक राज्य जम्मू-कश्मीर का अलग विधान, अलग निशान और अलग प्रधान अखरता था। इस राज्य में प्रवेश के लिए अन्य भारतवासियों को अनुमति-पत्र लेना पड़ता था। इस व्यवस्था के विरोध में डा. मुखर्जी ने बिना अनुमति के ही जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने का निश्चय किया। वे 8 मई 1953 को सायंकाल जम्मू के लिए रवाना हुए। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, श्री टेकचन्द, डा. बर्मन और अटल बिहारी वाजपेयी आदि भी थे। 13 मई 1953 को रावी पुल पर पहुँचते ही शेख अब्दुल्ला की सरकार ने डा. मुखर्जी, वैद्य गुरुदत्त, पं. प्रेमनाथ डोगरा और श्री टेकचन्द को बंदी बना लिया। शेष लोग वापस लौट आये।

डा. मुखर्जी ने 40 दिन तक जेल जीवन की यातनायें सहन कीं। वहीं वे अस्वस्थ हो गये या कर दिये गये। 22 जून को प्रातः 4 बजे उनको दिल का दौरा पड़ा। उन्हें उचित समय पर उचित चिकित्सा नहीं दी गयी। इसके परिणामस्वरूप अगले ही दिन 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में प्रातः 3.40 पर डा. मुखर्जी का देहान्त हो गया। वे नेहरू के शेख अब्दुल्ला प्रेम पर बलिदान हो गये, लेकिन इसके बाद जो तूफान उठा, उससे देश में से दो निशान, दो विधान और दो प्रधान समाप्त हो गये, जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की अनुमति लेने की व्यवस्था भी समाप्त हुई और जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया गया, हालांकि नेहरू की मूर्खतापूर्ण नीतियों के कारण कश्मीर आज भी भारत की समस्या बना हुआ है। (नवभारत टाइम्‍स से साभार)

(लेखक परिचय : मथुरा जिले के एक गांव में जन्म. आगरा वि.वि. से बी.एससी. और एम.स्टेट. (सांख्यिकी में स्नातकोत्तर) उपाधि. तत्पश्चात् जवाहरलाल नेहरू वि.वि. नई दिल्ली से कंप्यूटर विज्ञान में एम.फिल. उपाधि प्राप्त की. पहले एच.ए.एल. लखनऊ में सेवा. वर्तमान में इलाहाबाद बैंक में मुख्य प्रबंधक कंप्यूटर के रूप में सेवारत. बचपन से लेखन और समाजसेवा में गहरी रूचि. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और महामना मालवीय मिशन का सक्रिय कार्यकर्ता. कंप्यूटर विषयक 60 पुस्तकें प्रकाशित. अनेक लेख, कविताएं, कहानियां, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित. तीन भागों में आत्मकथा लिखी है. एक विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर जापान का भ्रमण, जहां स्वर्ण-कप से सम्मानित. अनेक स्मारिकाओं और पत्रिकाओं का संपादन.)

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