मासमीडिया में अपने-अपने राम

आधुनिक-काल के पहले रामचरित मानस लोकधुन,लोक-मन और लोक-पाठ का हिस्सा था।आधुनिक काल में मुद्रण की तकनीक ने उसे किताब बनाया,रामचरित मानस के किताब बनते ही उसे अंध-लोकवादी रूझानों से मुक्ति मिली।वह धर्मनिरपेक्ष -विमर्श का हिस्सा बना। बहुआयामी उपयोग की संभावनाओं का जन्म हुआ।
किताब में आने के बाद ‘रामचरित मानस’ बाजार का हिस्सा बनता है, उसके पीछे छिपे पूजा-भाव,धार्मिक भाव की विदाई होती है।पहले वह ज्ञानोत्पादन का साधन था,अब अर्थोत्पादन का स्रोत था। हिन्दी के इतिहासकारों और आलोचकों की मुश्किल यह है कि   वे यह देखने में असमर्थ रहे हैं कि छापे की मशीन आने के पहले ”रामचरित मानस” एक पोथी था,चंद लोगों की बपौती था,किंतु किताब के रूप में छप जाने के बाद
अब वह किसी की बपौती नहीं रह गया।
पोथी से किताब बनने के बाद रामचरित मानस को जनप्रियता की नई बुलंदियों को स्पर्श करने का अवसर मिला,पहले वह भक्त और कवियों के लिए उपयोग और प्रेरणा की चीज था,किंतु अब वह सबके लिए उपयोग की चीज था,कहने का तात्पर्य यह कि रामचरित मानस का किताब में आना एक ऐतिहासिक परिघटना है, किताब में आने के बाद ही इसका व्यापक जनप्रिय आधार तैयार होता है।
किताब के पहले का ‘रामचरित मानस’ विमर्श और किताब में आने के बाद का विमर्श एक नहीं है,साथ ही ”रामचरित मानस” भी एक नहीं है। पहले वह मात्र पाठ था,संस्कृति का अंग था,किंतु छापे की मशीन के आने के बाद वह संस्कृति उद्योग का हिस्सा बनता है। संस्कृति से संस्कृति -उद्योग में रूपान्तरण की प्रक्रिया को प्रेस, फिल्म,रेडियो, माइक्रोफोन आदि ने एक नए आयाम में ले जाकर उसे स्थापित कर दिया।
खासकर माइक्रोफ्रोन के इस्तेमाल के कारण ”रामचरित मानस” का एक नया पाठ तैयार हुआ है, नए किस्म के वैचारिक प्रभाव की सृष्टि हुई है।वाचिक परंपरा से लिखित और कालान्तर में इलैक्ट्रोनिक परंपरा में ”रामचरित मानस” के रूपान्तरण ने उसके पाठ को ही नहीं बदला , उसके भाव और इंफेसिस एरिया को भी बदला है,साहित्य के पाठक के लिए जो बिंदु आकर्षण के केन्द्र में हैं,वे बिंदु कथावाचक के लिए
संभवत: आकर्षण नहीं रखते, फिल्म और ऑडियो उद्योग का रामचरित मानस के जिन पक्षों के प्रति आग्रह है ,वह आग्रह सीरियल निर्माताओं के लिए अप्रासंगिक है।विज्ञापन में तुलसीदास का जो रूप प्रचार में है और बाजार के लिए ”रामचरित मानस” कितनी बड़ी ताकत है इसकी ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। तुलसीदास साहित्य की ही शक्ति नहीं है,बल्कि आधुनिक बाजार और राजनीतिकी भी ताकत है।
किताब में ”रामचरित मानस” के रुपान्तरण के बाद सबसे पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि रामचरित मानस के साथ अपने को जोड़ने की, स्वयं की पहचान बनाने,इमेज बनाने,अस्मिता बनाने का रिवाज जोरों से चल निकला, नयी पदावली में कहें तो ”रामचरित मानस” ने आधुनिक हिन्दी समाज को अपनी अस्मिता का अस्त्र दे दिया। हिन्दीभाषी लोग जहां भी गए अथवा देश में जहां भी रहते थे,वहां अखंड रामायण पाठ की नयी
परंपरा अपने साथ लेकर गए,मजदूर बस्तियों से लेकर मध्यवर्गीय बस्तियों में रामायण का अखण्ड पाठ संस्कृति से वंचितों को सांस्कृतिक पहचान देता रहा है।इसी के समानान्तर रामलीला मंडलियों और रामलीला कमेटियों के माध्यम से मध्यवर्गीय लोगों की इमेज चमकाने , साख और दबदबा बढ़ाने का फिनोमिना भी चल निकला। कहने का तात्पर्य यह है कम्युनिकेशन और मीडिया की तकनीकी ने रामचरित मानस को
सीधे अस्मिता की राजनीति के हवाले कर दिया।पहले ”रामचरित मानस” स्मृति का हिस्सा था,किंतु अब अस्मिता का हिस्सा है,माध्यम तकनीक का हिस्सा है।पहले भक्ति का अस्त्र था,आज बाजार को चंगा रखने का औजार है,पहले विचार और सृजन की दुनिया का प्रेरणा स्रोत था,आज अर्थव्यवस्था का हिस्सा है।
विचारणीय सवाल यह है कि रामलीला और अखंड रामायण पाठ के कारण बाजार की अर्थव्यवस्था और स्थानीय अर्थव्यवस्था को कितना लाभ पहुँचा है ?मुद्रण उद्योग ने ”रामचरित मानस” से कितना फायदा उठाया है ? पर्यटन उद्योग को कितना लाभ मिला है ? रामसेवा में लगे संतों के अखाड़ों ने कितनी पूंजी कमायी है ?
आधुनिककाल में ”रामचरित मानस” धार्मिकता की धुरी बनकर आया है,धार्मिकता में जब धर्म या कृति का रूपान्तरण होता है तो उसके अनेक आयाम सामने आते हैं, उसका एक आयाम वैचारिक है जो पाठ में है,जबकि साहित्यकार और गैर साहित्यकार के लिए पाठ के बाहर है,दूसरा आयाम जीवनशैली से जुड़ा है जो बाजार तय कर रहा है,तीसरा आयाम सांस्कृतिक आस्वाद या अभिरूचि से जुड़ा है जिसे संस्कृति उद्योग तय कर
रहा है, चौथा आयाम अर्थव्यवस्था से जुड़ा जिसे बाजार की शक्तियां तय कर रही हैं।पांचवां आयाम संप्रेषण से जुड़ा है जिसे मीडिया रूप तय कर रहे हैं,छठा आयाम वर्चुअल यथार्थ से जुड़ा है जिसे अत्याधुनिक वर्चुअल तकनीक, कम्प्यूटर  आदितयकर रहा है।इसके कारण तेरे-मेरे राम अलग-अलग हैं।
रामचरित मानस का पाठ इतना व्यापक और लचीला है कि इसका किसी भी किस्म के वैचारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। मसलन् आर्यसमाजियों को यदि इससे नफरत है तो प्रगतिशीलों में भी इसे खारिज करने वाले और प्रतिक्रियावादी पाठ के रूप में इसकी आलोचना करने वाले बड़ी तादाद में हैं।
उसी तरह ”रामचरित मानस” यदि परंपरावादियों की सांस्कृतिक पहचान का अस्त्र है तो दूसरी ओर रामविलास शर्मा जैसे प्रगतिशील आलोचकों के लिए  ”रामचरित मानस” प्रगतिशील पाठ है। वहीं रामानन्द सागर से लेकर रवीन्द्र जैन तक ,श्याम बेनेगल से लेकर रामकिंकर उपाघ्याय तक रामचरित मानस का अर्थ और उपयोग एक नहीं है, इनकी मंशाएं  और उपयोग अलग -अलग हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ”रामचरित मानस”
का अर्थ और कार्य-व्यापार का संबंध ‘मंशा’ ‘मीडिया’ और ‘विचारधारा’ से जुड़ा है।

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