बसपाः बहुजन से सर्वजन का दावा लेकिन रह गयी दलितजन!

इक़बाल हिंदुस्तानी

इस बार चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक का भरम भी टूट जायेगा।

बसपा जब तक दलित वोट बैंक की राजनीति करती रही तब तक वह अपने बल पर सत्ता में नहीं आ सकी लेकिन जैसे ही उसने ‘तिलक तराजू और तलवार इनके मारो जूते चार’ का विषैला नारा छोड़कर बहुजन समाज से सर्वजन समाज बनने का व्यापक कदम उठाने का फैसला किया वैसे ही देखते देखते उसके साथ न केवल ब्राहम्ण, क्षत्रिय जुड़ा बल्कि मुसलमान भी बड़ी तादाद में शामिल होने लगा। विडंबना यह रही कि जिस तरह से रामराज लाने का दावा कर भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचार और पक्षपात के कीर्तिमान बनाये थे ठीक उसी तरह बसपा को यह गलतफहमी हो गयी कि केवल गैर दलित समाज के चंद लोगों को टिकट देकर विधायक और मंत्री बना देने से उनका समर्थन सदा बसपा को मिलता रहेगा। मायावती यह भी भूल गयी कि जिन दो दर्जन मंत्रियों और सौ से अधिक विधायकों को भ्रष्टाचार के आरोप में उन्होंने पौने पांच साल तक उनके ज़रिये सत्ता की मलाई चाटकर बाहर का रास्ता दिखाया उससे उन अपमानित किये गये जनप्रतिनिधियों की बिरादरियां बुरी तरह नाराज़ हो सकती हैं।

सबको पता है कि वे चाहे जैसे हों लेकिन उनकी बिरादरी उनको सर आंखों पर बिठायेगी ही क्योंकि उनका आधार जाति, धर्म और क्षेत्र आदि का होता है, नाकि योग्यता या सेवा का। विडंबना यह रही कि बहुमत के बाद भी मायावती ने अपने पुराने रिकॉर्ड के हिसाब से न तो कड़क स्वभाव से साफ सुथरा प्रशासन देने का गंभीर प्रयास किया और न ही गैर दलितों को उनका अनुपातिक और वाजिब हिस्सा सत्ता में देने का मन बनाया। मिसाल के तौर पर सरकार सबके वोट से बनने के बावजूद हर योजना और स्मारक मान्यवर कांशीराम, बाबा साहब अंबेडकर और खुद मायावती की मूर्तियों से सुशोभित होते रहे।

0माया सरकार ने जितने भी नये ज़िले बनाये उनके नामों पर गौर करें तो संत रविदास नगर, अंबेडकर नगर, ज्योतिबा फूले नगर, महामाया नगर, गौतमबुध्द नगर, संत कबीर नगर, कांशीराम नगर, छत्रपति साहूजी महाराज नगर और श्रीवस्ती आदि के नाम पर बनाये गये जो दलितों का प्रतिनिधित्व करते अधिक नज़र आते हैं। ऐसे ही दलितों को विशेष मान सम्मान से लेकर हर मामले में प्राथमिकता देने और पुलिस प्रशासन के कामों में उनको ‘अनड्यू एडवांटेज’ देने की खुली पक्षपातपूर्ण नीति पर चला गया जिससे अन्य गैर दलित समाज के लोग खुद को इस सरकार को बनाने में महती भूमिका निभाने के बावजूद ठगा से महसूस करते नज़र आने लगे। इतना ही नहीं किसी दलित महिला से बलात्कार होने पर पुलिस के बड़े अधिकारी न केवल मौके पर हेलीकॉप्टर से तत्काल जाते बल्कि उसकी कानूनी कार्यवाही पूरी कर एक बड़ी रकम नकद सहायता के तौर पर देकर आते थे जिससे अन्य लोगों को यह लगा कि ‘वोट हमारा राज तुम्हारा’ नहीं चलना चाहिये, हालांकि ऐसा करने में किसी को आपत्ति नहीं थी लेकिन अन्य मामलों में ऐसा न होने से लोगों को भेदभाव चुभने लगा।

यह अजीब पहेली है कि जब तक चुनाव में कोई वोटबैंक बना रहता है तब तक उसका कोई खास महत्व नहीं समझा जाता लेकिन जैसे ही वह इधर उधर जाने को तैयार होने लगता है वैसे ही उस वोट को अपनी ओर खींचने की राजनीतिक दलों में होड़ लग जाती है। आज मुस्लिम वोट बैंक के साथ यही हो रहा है। सबको पता है कि पहले चार दशक तक मुस्लिम कांग्रेस के साथ बिना शर्त जुड़ा रहा बिना यह देखे कि कांग्रेस उसका कितना भला कर रही है। कांग्रेस का समीकरण दलित,मुस्लिम ,ब्राहम्ण होता था। लंबे समय तक यह समीकरण चलता रहा। इसके बाद 1977 में आपातकाल का जो दौर आया उसमें जबरन नसबंदी से मुसलमान सबसे अधिक नाराज़ हुआ लेकिन 1980 में वह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ के नारे से एक बार फिर प्रभावित हो गया। मुसलमान के सामने कोई अन्य विकल्प भी नहीं था।

0 धीरे धीरे मुसलमान को यह महसूस होने लगा कि कांग्रेस न केवल उसके हितों का ख़याल नहीं रख रही बल्कि हिंदू साम्प्रदायिकता को खुलकर खेलने का और भाजपा का खौफ बनाये रखने का सोचा समझा खेल खेल रही है। बात इतनी ही रहती तो मुसलमान कांग्रेस के साथ एक बार फिर सारे पाप भुलाकर बना रहता लेकिन यूपी के उन चुनिदा शहरों में जब बार बार दंगे होने लगे जहां मुसलमानों का कारोबार अच्छा माना जाता था तो मुसलमान का कांग्रेस से एक बार फिर मोहभंग हुआ और यह नाराज़गी का गुब्बारा 1989 में बाबरी मस्जिद का ताला राजीव गांधी के पीएम और वीर बहादुर सिंह के कांग्रेस का सीएम रहते खुलवाने से फूट गया। पहले चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी और लोकदल के बैनर तले पिछड़ों और मुसलमानों का जो समीकरण पूरी तरह से परवान नहीं चढ़ सका था वह इस बार जनतादल के नेतृत्व में सेंटर में वी पी सिंह और यूपी में मुलायम सिंह-अजित सिंह के नेतृत्व में फलने फूलने लगा। इस दौरान बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ और कुछ मुसलमानों को दलितों, अति पिछड़ों और मुसलमानों का समीकरण स्वाभाविक नज़र आने लगा।

0 अभी मुसलमान इस बारे में सोच विचार कर ही रहा था कि मायावती ने 1993 में सपा बसपा के मज़बूत विकल्प की भाजपा के सहयोग से भू्रणहत्या कर सत्ता शॉर्टकट से हथिया ली। इसके बाद मुसलमान कांग्रेस और बीएसपी से दूरी बनाकर सपा के झंडे के नीचे आ गया। हालांकि वह मुलायम सिंह के यादववाद और गुंडाराज से भी खुश नहीं था लेकिन दलितों को जैसे मायाराज में मनोवैज्ञानिक तौर पर यह लगता है कि उनकी अपनी सरकार राज कर रही है वैसे ही मुलायम के राज में मुसलमानों को कमोबेश यह महसूस होने लगा कि चलो एक ऐसी पार्टी और एक ऐसे शख़्स की हकूमत चल रही है जो मुसलमानों के मन की बात कहता और समझता है। जाहिर बात है कि मुसलमानों का ना तो सपा के साथ जाने का मकसद कोई विकास का एजंेडा था और न ही ऐसा हुआ लेकिन उर्दू अनुवादकों की प्रतीकात्मक भर्ती और बाबरी मस्जिद के मामले में कारसेवकों पर गोली चलाकर संविधान और कानून की रक्षा कर अपनी सरकार दांव पर लगाकर मुलायम ने मुसलमानों का दिल जीत लिया।

0 इसके बाद मुलायम ने यह मानने की भूल कर दी कि वह कुछ भी करें मुसलमान उनका साथ नहीं छोड़ेगा। बाबरी मस्जिद पर पहली कुदाल चलाने के आरोपी साक्षी महाराज और बाबरी मस्जिद सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जानबूझकर न बचाने के आरोप में सज़ायाफ्ता पूर्व भाजपाई मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को आज़म खां को नाराज़ कर सपा में शरीक कर बैठे जिसका नतीजा यह हुआ कि मुसलमान अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस में ही नहीं बल्कि बसपा में भी जाने पर गंभीरता से सोचने लगा। इस दौरान एक बदलाव यह भी आया कि बसपा रूपी विषकन्या के साथ बार बार उसकी शर्तों पर आत्मघाती गठबंधन बनाने से भाजपा का यूपी से लगभग सफाया ही हो गया जिससे मुसलमान को भगवा पार्टी का सत्ता में लौटने का डर ख़त्म हुआ तो वह सपा के विकल्प तलाशने लगा।

आज अगर मुसलमान सपा के अलावा कांग्रेस,लोकदल और पीस पार्टी को भी मैरिट पर या भाजपा को हराओ मकसद को पूरा करने के लिये अपनी समझ और पसंद के हिसाब से वोट कर रहा है तो यह लोकतंत्र के हिसाब से भी अच्छा संकेत है और साम्प्रदायिक धु्रवीकरण रोकने की भी बेहतर शुरूआत है, क्योंकि यह तय है कि अगर मुसलमान सपा के बैनर तले धर्म के आधार पर वोटबैंक बनकर एक तरफा वोट करेगा तो फिर हिंदू राष्ट्र और राममंदिर बनाने का दावा करने वाली साम्प्रदायिक और फासिस्ट सोच वाली भाजपा के बैनर तले हिंदुओं के ध्रुवीकरण को रोकना भी संभव नहीं होगा और इसका नुकसान पूरे देश प्रदेश को पहुंचने के साथ ही खुद मुसलमानों को ही अधिक होगा।

दीवानगी हमारी हर राज़ खोल देती है,

खामोशी हमारी हर बात बोल देती है,

शिकायत है तो सिर्फ इस दुनिया से,

जो दिल के जज़्बात वोटों से तोल देती है।।

Previous articleसचिन तेंदुलकर का सौंवाँ शतक
Next articleवजूद खोती राजनीति
इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here