मथुरा के गुनहगार

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प्रमोद भार्गव
मथुरा की घटना ने इस धारणा को पुख्ता किया है कि दशकों से हमारा शासन-प्रशासन तंत्र स्थिति को नियंत्रित करने की प्रभावी कार्यवाही तब करता है, जब हालात पूरी तरह बेकाबू हो चूके होते हैं। मथुरा के जवाहर बाग में दो साल से अवैध कब्जा किए बैठे तथाकथित ‘आजाद भारत विधिक वैचारिक क्रांति सत्याग्रही‘ के स्वयंभू नेता रामवृक्ष यादव के परिप्रेक्ष्य में तो उक्त धारणा एकदम सटीक बैठती है। यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की बाध्यता और आदेश की अवमानना का संकट नहीं होता तो शायद न तो फिलहाल परिसर खाली होने वाला था और न ही कथित सत्याग्रह के बहाने आतंक का पर्याय बन चुके संगठन का अंत होने वाला था। बहरहाल यह हैरान करने वाली बात है कि धार्मिक पंथ होने तथा ऊपटांग मांगें मनवाने के लिए सत्याग्रह कर रहा कोई संगठन कैसे आपराधारिक समूह में बदलता चला गया और प्रदेश की पुलिस एवं गुप्तचर संस्थाएं सोई रहीं। प्रशासनिक अमले द्वारा आंख मूंद लेने की वजह थी कि संगठन के हजारों लोग कानून के डर से मुक्त बने रहे। इसके साथ ही इस भयमुक्त अराजकता को राजनीतिक सरंक्षण मिलना भी हैरानी है। इस नाते मथुरा त्रासदी के गुनहगार रामवृक्ष के अलावा राजनेता और नौकरशाह भी हैं।
धर्म की ओट में हमारे यहां कितना कुछ नाजायज हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण रामवृक्ष यादव और उनका संगठन है। इस संगठन की पृष्ठभूमि की पड़ताल से पता चलता है कि मथुरा में एक संत हुआ करते थे, बाबा जय गुरूदेव। मई 2012 में उनके निधन के बाद उनके करोड़ों के साम्राज्य पर शिष्यों की निगाहें टिक गईं। रामवृक्ष और पंकज यादव इस होड़ में थे कि इस करोड़ों-अरबों की विरासत का वारिस कौन बने ? बताते हैं, अंत में उत्तर प्रदेश की सपा सरकार के मुखिया मुलायम सिंह यादव के अनुज शिवपाल सिंह ने दखल देकर पंकज यादव को जय गुरूदेव का वास्तविक हकदार घोषित कराने में अहम् भूमिका भिाई। इस फैसले से निराश रामवृक्ष कुछ समय के लिए गुमसुम हो गए।
लेकिन हकीकत यह नहीं थी, बल्कि हकीकत यह थी कि रामवृक्ष ने अपने को नेताजी सुभाषचंद्र बोस का कट्टर अनुयायी घोषित किया और ‘स्वाधीन भारत सुभाष सेना‘ के बैनर तले एक बड़ा संगठन खड़ा करने में सफल हो गया। इस समूह ने पता नहीं किस बद्नीयत से एकाएक मध्य प्रदेश के सागर से दिल्ली के लिए कूच कर दिया। मथुरा आने पर जिला प्रशासन से जवाहर बाग में दो दिन के लिए डेरा डालने और सत्याग्रह करने की अनूमति मांगी। यह अनुमति ‘आजाद भारत विधिक वैचारिक क्रांति सत्याग्रही संस्था‘ के शीर्ष-पत्र पर मांगी गई। अमूमन लोकतांत्रिक संगठनों को आंदोलन करने के लिए इजाजत दे दी जाती है,सो मथुरा जिला-प्रशासन ने दे भी दी। लेकिन सतयुग लाने वाले दिवगंत बाबा जयगुरूदेव के पंथ से अलग हुए इस धरे ने अप्रत्याषित, अकल्पनीय और अविश्वसनीय घटनाओं को अंजाम देने का सिलसिला शुरू कर दिया। संस्था द्वारा सामने लाए गए ज्ञापनों में धार्मिक-आध्यात्मिक अजेंडा तो कहीं था नहीं, जो राजनीतिक अजेंडा था, वह इतना अजीबोगरीब और हास्यास्पद था कि भारतीय संविधान और संसदीय प्रणाली को चुनौती देता लगता था। इस अजेंडे में कुल जमा नौ ऊटपटांग मांगे शामिल थीं। ये थीं, नेताजी सुभाष से संबंधित सभी गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक किए जाएं। भारत की शासन-प्रणाली वर्तमान संविधान की बजाय, आजाद हिंद फौज द्वारा तय किए गए कायदे-कानूनों से संचालित हो। देश में चल रही वर्तमान मुद्रा की बजाय आजाद हिंद फौज की मुद्रा चले। मुद्रा सोने की हो। मात्र एक रुपए में 60 लीटर पेट्रोल और 40 लीटर डीजल बेचा जाए। सोने की दर 12 रुपए प्रति तोला तय की जाए।
इस तरह की बेबुनियाद बातें करने वाले रामवृक्ष ने जवाहर बाग में न केवल अपनी समानांतर सरकार और प्रशासनिक ढांचा बना लिया था, बल्कि अदालतें और कारागार व बेरेक भी बना लिए थे। मूर्खतापूर्ण बातें करने के बावजूद उसने करीब 3000 निष्ठावान अनुयायी बना लिए थे। जवाहर बाग के भीतर बने उद्यान विभाग के दफ्तर व अन्य भवनों पर कब्जा कर लिया था। 3000 की आबादी वाले इस नगर पर रामवृक्ष के रचे विधान ही लागू होते थे। भारतीय संविधान और कानून उसे मंजूर नहीं थे। उसके बनाए नियम यदि कोई बस्ती का नागरिक तोड़ता था तो उसे प्रताड़ित किया जाता और बाकायदा सजा सुनाकर जेल के सींखचों के पीछे कर दिया जाता थ। इस बस्ती में रामवृक्ष ने सस्ती दरों पर भोजन की व्यवस्था की हुई थी। 50 महिलाओं का समूह भोजन तैयार करने का काम करता था। बस्ती में बुनियादी जरूरतों से जुड़ी सामग्री बेचने वाली दुकानें भी थीं, जहां चीजें बेहद सस्ती मिलती थीं। शुद्ध देशी घी का भाव 100 रुपए किलो था। आष्चर्य इस बात पर भी है कि रामवृक्ष का मूल-आधार धार्मिक जरूर था, लेकिन वह कोई चमत्कार नहीं दिखाता था। बावजूद वह कैसे 3000 अनुयायिओं को अपने बूते खिलाता पिलाता रहा, भोजन सामग्री कहां से जुटाता रहा, यह रहस्य अनसुलझे सवाल की तरह बरकरार है ? सवाल यह भी है कि मथुरा जैसे प्रमुख शहर के बीचोंबीच वह सरकारी बाग में डेरा कैसे डाले रहा ?
ऐसा नहीं है कि जिला प्रशासन ने बाग खाली कराने के लिए संस्था प्रमुख को नोटिस नहीं दिए। दिए, किंतु उत्तर प्रदेश की सपा सरकार का सरंक्षण मिलने के कारण प्रशासनिक अमला, एक पाखंडी के आगे बौना साबित होता रहा। सरकार द्वारा सरंक्षण देने का संदेह इसलिए भी पुष्ट होता है कि रामवृक्ष अपनी मायानगरी में राज्य सरकार के विरुद्ध अपनी समानांतर सरकार चला रहा था, इसकी जानकारी लखनऊ सचिवालय को भेजी जा रही थी। इस संगठन के लोग खुलेआम धन वसूली, छेड़खानी और सरकारी संपत्ति पर कब्जे के विस्तार में लगे थे। बीते दो वर्षों में मथुरा के विभिन्न थानों में इस बस्ती के लोगों पर करीब 2 दर्जन आपराधिक मामले दर्ज हैं, लेकिन पुलिस एक भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। क्या ऐसा खेल राज्य के सरंक्षण के बिना चल सकता है ? साफ है, सरकार का सरंक्षण मिल रहा था, इसलिए ये आततायी अवैध हथियारों का जखीरा भी इकट्ठा करते चले गए। ये हथियार कहां से आए और कैसे बाग में पहुंचे, इस सवाल को लेकर पुलिस पर भी सवाल उठ रहे हैं। इस संदर्भ में खुफिया महकमे की काहिली भी उजागार हुई है।
आखिरकार 280 एकड़ के इस भूभाग से कब्जा हटाने के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता और उद्यान विभाग के अधिकारी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं दाखिल कीं। न्यायालय ने तत्काल कब्जा हटाने का आदेश जारी किया। किंतु पुलिस जब आदेश की तमील और कब्जाधारियों की स्थिति का सुराग लेने बाग में पहुंची तो भीड़ ने हल्ला बोल दिया। बंदूकें गोलियां छोड़ने लगीं। परिसर में रखे 1000 गैस सिलेण्डरों में आग लगा दी गई। मथुरा नगर पुलिस अधीक्षक मुकुल द्विवेदी और फरह थाना के प्रभारी संतोश कुमार यादव समेत 24 लोग मारे गए। इससे साफ हुआ कि पुलिस ने आईक्यू से काम नहीं लिया। यदि लिया होता तो जिम्मेबारी ठीक ढंग से निभाने के नतीजे सामने आते। पुलिस ने न तो पर्याप्त एहतियात बरते और न ही बाग में डेरा जमाए बैठे संगठन की ताकत का अनुमान लगाया। इसके दुश्परिणाम स्वरूप ही पुलिस के दो जांबाजों को प्राण गंवाने पड़े। इसीलिए मुख्यमंत्री अखिलेष यादव को कहना पड़ा कि ‘इस कार्यवाही को अंजाम देने में पुलिस से चूक हुई है। यदि पुलिस बेहतर तैयारी से जाती तो शायद मौत का ऐसा तांडव नहीं होता।‘ लेकिन यह चूक केवल पुलिस या जिला प्रशासन की नहीं है, बल्कि विचारणीय पहलू यह भी है कि दो साल यह भीड़ कब्जा किसकी कृपा से जमाए रही ? यह जरूर सही है कि पुलिस मौके पर पेशेवर कौशल जताने में असमर्थ रही।
इस घटना के परिप्रेक्ष्य में चिंतनीय पहलू यह भी है कि जब संत और नेता दोनों की ही नैतिक सत्ता समाप्त हो जाती है तो वह एक प्रकार से असमंजस की सत्ता का पर्याय बन जाती है। नेता और नौकरशाह त्रिशंकुबने रहकर दया के पात्र भर रह जाते हैं। मथुरा में कमोबेश शासन-प्रशासन इसी दुर्बल हालात का शिकार हुआ है। इसीलिए राजतंत्र, पाखंड के खिलाफ बोलने की ताकत नहीं बटोर पाता है। वे अपने को प्रगतिशील जताने की कोशिष तो करते हैं, किंतु अंधविश्वास के विपरीत मुखर होने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। नतीजतन जो साधू-संत लोगों को लालच, मोह-माया त्यागने और भैतिकवादी जीवन-शैली से दूर रहने का उपदेश देते हैं,वस्तुतः वे स्वयं उन्हीं के प्रति मोहग्रस्त दिखाई देते हैं। गलत तरीके से जमीन-जायदाद हथिया कर अपना धर्म-साम्राज्य खड़ा करने को आतुर व लालयित दिखाई देते हैं। षांति का जीवन-दर्शन अपनाने की सलाह देते-देते स्वयं हिंसा के कारोबार से जुड़ी सामग्री इकट्ठी करने लग जाते हैं। जब ऐसे चरित्रों को पनपने और दुर्गुणों को सामूहिक रूप लेने में ढिलाई शासन-प्रशासन की ओर से मिल जाती है तो अकसर ये समूह हिंसा, अराजकता और आक्रामकता के पर्याय बन जाते हैं। मथुरा की यह लोमहर्शक घटना कुछ ऐसी ही शिथिलता का खतरनाक परिणाम साबित हुई है। इस घटना से पूरे देश के राजतंत्र को सबक लेने की जरूरत है।

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