मातृसत्ताक समाज और ‘वोल्गा से गंगा’– सारदा बनर्जी

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राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ मातृसत्ताक समाज में स्त्री वर्चस्व और स्त्री सम्मान को व्यक्त करने वाली बेजोड़ रचना है। इस रचना में यदि स्त्रियों के ओवरऑल पर्फ़र्मेंस और प्रकृति पर नज़र दौराया जाए तो पता चलता है कि मातृसत्ताक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं। स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी। स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था। आज स्त्री-मुक्ति के लिए चाहे वह कायिक हो चाहे मानसिक अनेक शाब्दिक और कानूनी जद्दोजहद के दौरान हम गुज़रते हैं। फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के संविधान प्रदत्त अधिकार की प्राप्ति के लिए कितनी फजीहत हो रही है, लेख पर लेख लिखे जा रहे हैं लेकिन स्त्रियों की हालत जस की तस है। इस संदर्भ में मातृसत्ताक समाज अपने डिसिशन्स और कार्यों में स्त्री को कितनी आज़ादी देता रहा है, यह सोचने और विचारने की बात है। सिर्फ स्वच्छंदता ही नहीं परिवार के मूल्यवान फैसले भी मां लेती थी और परिवार के सारे पुरुष उस फैसले को बिना इंटरप्शन के फ़ोलो करते थे। है ना अचंभे की बात!

‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है। कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, ईरान और यूरोप की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं। शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी ठीक जैसे आज के पितृसत्ताक समाज में मुसीबतों के समय पुरुषों का बढ़-चढ़कर अपना साहस दिखाना या आगे बढ़ना। इस कहानी के अनुसार मातृसत्ताक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं। बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं। जंगल में रहते हुए जब जंगली पशु आक्रमण करते थे तो जुझारु स्त्रियां ही आगे बढ़कर एक योद्धा की तरह उनका सामना करती थीं। यह सच है कि इस बात को यकीन करने में हमें थोड़ी देर लगेगी क्योंकि हम पितृसत्ताक समाज में दूसरी चीज़ें देखने और सुनने के आदी हो गए हैं।

मातृसत्ताक समाज में दूसरी दिलचस्प बात यह थी कि स्त्री किसी पुरुष की पर्सनल प्रॉपर्टी नहीं थी। वहां संपर्क का दायरा आज की तरह इतना संकुचित और संदेहप्रवण नहीं था। वहां हर एक स्त्री स्वच्छंदतापूर्वक नृत्य के दौरान अपना प्रेमी चुनती और उससे बिंदास प्रेम करती। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह फलां व्यक्ति से जिंदगी भर के लिए बंध गई। अगले दिन वह अपनी मर्ज़ी के अनुसार किसी और पुरुष को अपने पार्टनर के रुप में चुन सकती थी। लेकिन इसके लिए उस पर ‘यूस्ड अप’ होने का धब्बा नहीं लगता था। यही उस समाज का रिवाज़ था। भले ही आज ये बातें हमारी नैतिकता को कचोटे और हम घृणित दृष्टि से इन चीज़ों को देखें लेकिन यह हकीकत है कि वह ज़माना स्त्रियों के पक्ष में था। यानि स्त्री स्वतंत्रता को वरीयता देता था। वहां पुरुष भी स्वच्छंद थे, अस्तित्वहीन नहीं थे। स्त्री-पुरुष में समानता का दृष्टिकोण था। राहुल जी के शब्दों में, ‘माँ का राज्य था, किन्तु वह अन्याय और असमानता का राज्य नहीं था।’ जबकि पितृसत्ताक समाज में स्त्रियों की पूरी लड़ाई ही अस्तित्व के लिए है।

इस कहानी-संग्रह की ‘दिवा’ कहानी भी स्त्री के नए रुप को उद्घाटित करती है। स्त्रियों के आवरण-मुक्त एपीअरेंस का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में वे पहलकदमी करती हैं। इस कहानी के अनुसार पुरुष उस दौरान लज्जाशील होते थे और स्त्री लज्जाहीन। स्त्री बिना किसी झिझक के अपने प्रेम का इज़हार करती थी। चाहे चुंबन हो चाहे आलिंगन या फिर सेक्स उसमें भी वे पहलकदमी करती दिखाई देती थी। साथ ही वे किसी आवरण को ओढ़कर बात नहीं करती थी। संपर्क सहज और स्वाभाविक हुआ करता था, ना कि कृत्रिम। ऐसा भी होता था कि किसी स्त्री को दसियों पुरुष पसंद करते थे और उससे प्रेम करना चाहते थे। लेकिन वे स्त्री की सहमति के लिए वेट करते थे। इसके लिए वे अकेले में पाकर उस स्त्री के साथ गैंगरेप नहीं करते थे। मां के प्रति भी हर एक सदस्य चाहे पुरुष चाहे स्त्री भरपूर श्रद्धा भाव रखते थे। मां की आज्ञा का हर तरह से पालन करते थे। मां के नाम से ही परिवार की पहचान होती थी, मसलन् निशा-जन, दिवा-जन, उषा-जन आदि। जन-नायिका भी एक स्त्री ही होती थी जो बहादुरी से पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी संभालती थी। वह जब वृद्धा हो जाती तो दूसरी युवती पर परिवार का दायित्व आता और वह जन-नायिका का पद संभालती।

राहुल ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्ताक समाज को पितृसत्ताक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है। वे दिखाते हैं कि स्त्री किस तरह धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता और मुक्तता से वंचित हो रही है, उसे अपहरण किया जा रहा है, वह दासी बनाई जा रही है, उसका मोल हो रहा है, किस तरह एक से अधिक पत्नी रखने का विधान समाज में लागू होता है। स्त्री-तंत्र पुरुष-तंत्र में बदल जाता है। स्त्रियों का योद्धा रुप गायब हो जाता है और पुरुष असली योद्धा के रुप में शक्ति अर्जित करते हैं। स्त्रियां केवल सौंदर्यवती और कोमलांगी है। हालांकि नायिकाएं प्रतिभाशाली होती हैं। विद्या और बुद्धि में पुरुष के समकक्ष दिखती हैं, महत्वाकांक्षी हैं लेकिन बाकि स्त्रियां केवल सुंदर है। वे बंदिनी की तरह ज़िंदगी बसर करती हैं। कृति के अंत तक आते-आते राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे समाज की छवि सामने लाते हैं जो फ़्यूडल मानसिकता के तहत स्त्री को भोग्या के रुप में देखता है, स्त्री का बलात्कार करता है। अब नायिका का फ़र्क नहीं रह जाता, सभी स्त्रियां अंतत: पुंस-शोषण से पीड़ित रहती हैं और अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही होती हैं।

 

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