माया सरकार के चार साल

‘अर्श’ से ‘फर्श’ तक की कहानी

संजय सक्सेना

वर्ष 2007 में डंके की चोट पर चौथी बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाली मायावती का आगाज जितना अच्छा था, अंजाम उतना ही खराब लग रहा है। माया सरकार के चार साल पूरे हो गए हैं। अगले साल चुनाव होना है,लेकिन मायावती के पास कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है जिसके बल पर वह जनता से वोट अपील करेंगी। कहना गलत नहीं होगा कि इन चार सालों में माया ‘अर्श’ से ‘फर्श’ पर आ गई हैं। माया के संबंध में आ रही रिपोर्टो और जनता में उभरते आक्रोश से इस बात का आंकलन किया जा रहा है, लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि आंकलन हमेशा सही नहीं होता है। हो सकता है जनता की नजरों में माया सरकार की अहमियत इससे इत्तर हो।बस एक साल और, इसके बाद जनता स्वयं तैयार करेगी मायावती सरकार का रिपोर्ट कार्ड। जनता की नजरों में माया की छवि ठीक वैसी ही है जैसी कि विरोधी दल वाले प्रचार कर रहे हैं या फिर उनके कामकाज से प्रदेश की जनता संतुष्ट हैं। इस बात का फैसला इन्हीं दिनों में साल 2012 में हो जाएगा। बसपा ने पांच सालों में क्या खोया और क्या पाया इसका फैसला तो होगा ही इसके अलावा सत्ता के लिए घात लगाए बैठी सपा,कांग्रेस और भाजपा सहित अन्य कई दलों के दावों की कलई भी प्रदेश की जनता खोलकर रख देगी। जनता हिसाब लेना जानती है। यह बात सभी दलों के नेता समझते हैं। यही वजह है राजनेता अपने को सुपर दिखाने के चक्कर में एक-दूसरे की पोल खोलने में पूरी ताकत लगाए हुए हैं। पोल खोलो अभियान से विपक्ष में बैठे दलों को तो कोई खास नुकसान नहीं हो रहा है लेकिन सत्तारूढ़ दल बसपा की समस्या इससे बढ़ गई है। बसपा सरकार और उसकी सुप्रीमों मायावती का अधिकांश समय भ्रष्टाचार, बिगड़ती कानून व्यवस्था और तानाशाही रवैये के आरोपों का जबाव देते हुए ही गुजर जाता है। कभी ‘ पत्थरों से प्रेम ‘ तो कभी दौलत की बेटी ‘ जैसी उपमाओं से नवाजी जाने वाली मुख्यमंत्री मायावती के ऊपर लगातार आरोप यह भी लगते रहे कि अपने स्वार्थ के कारण उन्होंने प्रदेश के विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया। कांग्रेस से राजनैतिक बढ़त बनाए रखने की कोशिश में केन्द्र सरकार के साथ उनके संबंध भी कभी अच्छे नहीं रह पाए जिसका खामियाजा प्रदेश की जनता को विकास न के बराबर होने के रूप में भुगतना पड़ा।वहीं मनरेगा जैसी केन्द्रीय योजनाओं में भ्रष्टाचार और अनाज घोटाले के चलते भी उनकी सरकार मुश्किल में घिरी रही।किसानों की भूमि अधिग्रहण के मामले मेें किसानों के आक्रोश और उसपर विपक्षी राजनीति का भी उनको सामना करना पड़ा। टप्पल से लेकर ग्रेटर नोयडा तक भूमि अधिग्रहण का मामला उनके लिए सिरदर्द ही बना रहा। एक तरफ बाहरी हमले तो दूसरी तरफ पार्टी के नेताओं की कारगुजारी से भी उनको शर्मशार होना पड़ा।कई बसपा नेताओं को तो ‘ पानी सिर से ऊपर होने ‘ पर जेल तक की हवा खानी पड़ गई।माया सरकार के दो दिग्गज मंत्रियों नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाह के बीच जारी प्रतिस्पर्धा ने भी सरकार की छवि को काफी नुकसान पहुंचाया। प्रतिस्पर्धा के चलते ही बाबू सिंह कुशवाहा को अपनी लाल बत्ती तक गवाना पड़ गई तो जमीन की लड़ाई में माया सरकार के मंत्री नंद गोपाल नंदी पर जानलेवा हमला प्रदेश की कानून व्यवस्था का मजाक उड़ाते दिखे। आखिरी साल में बरेली और मेरठ सहित कुछ अन्य जगह हुए साम्प्रदायिक दंगों की आग ने भी सरकार की छवि को ठेस पहुंचाई। नौकरशाही को अपने हिसाब से चलाने की नाकाम कोशिश सत्ता के आखिरी साल भी मायावती को सताती रही। इस दौरान कई मौकों पर अदालत का आदेश नहीं मानने के कारण बसपा सरकार को कोर्ट की फटकार का भी सामना करना पड़ा।माया सरकार के चार साल पूरे होने से ठीक हफ्ता भर पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बसपा सुप्रीमों की मंशा को धता बुलाते हुए उनकी सरकार द्वारा नगर निकाय चुनाव एक्ट में किए गए संशोधन को अवैध करार देते हुए निकाय चुनाव पुरानी परम्परा के अनुसार पार्टी सिम्बल पर ही कराए जाने का आदेश जारी करके उनको एक और झटका दे दिया।नगर निकाय चुनाव किसी भी दशा में पार्टी सिम्बल पर नहीं होने देने की कोशिश में लगी माया सरकार हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने जा रही है। गौरतलब हो उत्तर प्रदेश में बसपा को छोड़कर कोई भी दल नहीं चाहता है कि नगर निकाय चुनाव पार्टी के सिम्बल पर न हों। माया के पूरे कार्यकाल में किसानों की दशा में कोई सुधार नहीं आया।किसानों की जमीनें अमीरों को लुभाती रहीं तो प्रदेश सरकार अक्सर अमीरों के साथ खड़ी दिखी। केन्द्र सरकार द्वारा चलाई जा रही ‘मनरेगा’ जैसी योजनाओं में धांधली का आरोप भी लगा। वहीं अनाज घोटाले की धमक भी सुनाई दी। दारू के खेल में भी माया सरकार ने खूब ‘ बढ़त ‘ हासिल की। चुनावी सहालग की आहट होते ही मायावती ने अपने रणबाकुरों को भी चौकन्ना कर दिया। विभिन्न विधान सभा क्षेत्रों से प्रत्याशियों की घोषणा करने के साथ उन्हें वहां का कार्डिनेटर बनाकर मैदान में उतार दिया है।

बात माया के सत्तारूढ़ होने के दिन से की जाए तो ज्यादा बेहतर रहेगा। 13 मई 2007 का दिन माया के लिए काफी अहम था, इसी दिन चौथी बार (पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ) उनके हाथ सत्ता आई थी।न किसी का गठजोड़ न किसी का अहसान। जनता ने हाथी पर जमकर वोटिंग की थी। बहिन जी के बढ़ते हाथी ने सबको रौंद दिया था। चौखाना चित्त विपक्ष सदन में बौना बनकर लौटा था। खैर,यह बात अब पुरानी हो चुकी है। माया सरकार ने 13 मई 2011 को अपने चार साल पूरे कर लिए। इन चार सालों की उनकी कार्यशैली पर नजर दौड़ाई जाए तो माया का सफर बहुत अच्छा नहीं रहा। न वह जनता से किए वायदे पूरे कर पाईं, न ही वह वो वायदें निभा पाईं जो उन्होंने स्वयं से किए थे। विकास के मामले में उत्तर प्रदेश पिछड़ता गया,वहीं विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार की खबरों से जनता की नींद उड़ी रही।सत्ता संभालते ही बहिन जी ने सबसे पहले अपने उन रहनुमाओं को तरजीह दी, जिनके बल पर वह मुख्यमंत्री जैसी कुर्सी पर विराजमान हो सकीं। वे रहनुमा उनके लिए फरिश्ते के बतौर थे, उनके नाम थे कांशीराम और बाबा साहेब ।दलित सम्राज्ञी का ताज पहने माया ने जहां अपने दलित पुरोधाओं की पत्थर की कीमती मूर्तियों को नक्काशीदार पार्कों में लगाकर आम दलित जनता का दिल जीत लिया। वहीं अलग से भारी भूभाग पर कांशीराम स्मारक स्थल बनवाने के लिए ऐतिहासिक जेल और आलीशान कालोनी को गिराने में कोई संकोच नहीं दिखाया। अपनी धुन और जिद्द की पक्की बहिन जी ने हर वह स्थल चमकाया जहां कांशी और अम्बेदकर का नाम आया था।दूसरी तरफ पार्टी फंड जुटाने के लिए उनकी सरकार के ही कुछ विश्वासपात्र नेता उद्योगपतियों,व्यापरियों के मेलजोल बढ़ाते दिखे।

इस बीच राज्यसभा,विधानसभा और विधान परिषद के उपचुनावों का भी पार्टी को सामना करना पड़ा।लेकिन बसपा की टक्कर में दूसरा कोई नहीं दिखा। हर चुनाव में विपक्षी दल खेत रहे। इस बीच पंचायत चुनावों में भी बसपा समर्थित प्रत्याशियों का ही डंगा बजता रहा। सत्ता के जब करीब साढ़े तीन साल गुजर गए तो बसपा सुप्रीमों मायावती ने सभी उप-चुनावों से अपनी पार्टी को दूर कर लिया।शायद वह पूरा ध्यान सुचारू शासन करने पर लगाना चाहती थीं।प्रदेश को कायदे से चलाने के लिए मौका पड़ने पर तेज से तेज अफसरों को भी चलता करने में देर न लगाना उनका पुराना ढर्रा रहा। इसके प्रतीक आईएएस विजय शंकर पांडेय रहे। उनके ऊपर जैसी ही हसन अली को लेकर आरोप लगे, मुख्यमंत्री ने उन्हें समी महत्वपूर्ण पदों से हटाने में देरी नहीें की। सर्वजन हिताय की बात करने वाली मायावती का पूरा ध्यान दलितों के हित साधने में रहा।उनके द्वारा बैकलाग की भर्तियों पर बार-बार पूछताछ जारी रही। दलित कोटे का पूरा करना और महत्वपूर्ण पदों पर उन्हीं के लोगों की तैनाती इस बात को दर्शाती रही कि वे केवल उनके लिए ही शासन कर रही हैं।

साम दाम दंड भेद की नीति और कुछ चतुर सलाहकारों के चलते माया दरबार में इस बार एक फर्क जरूर आया । इस शासनकाल में उनकी बेलौस टिप्पणियां सुनने को नहीं मिली । चार सालों में कोई भी ऐसा अवसर नहीं रहा ,जहां बहिन जी ने लिखा भाषण न पढ़ा हो । 13 मई 2007 को माया ने जब चौथी बार ताज पहना था, तब से लेकर आज तक बसपा सुप्रीमों ने कई झंझावात देखे और झेले लेकिन उनके हौसलों की उड़ान जारी रही। मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर माया ने अपने विरोधियों को तो अरदब में रखा ही, इसके साथ-साथ पार्टी और सरकार को अंदर-बाहर दोनों मोर्चो पर भी मजबूती देती रहीं। अपनी ताकत बढ़ाने के लिए दूरदर्शी बसपा सुप्रीमों ने कई ऐसे फैसले भी लिए जो समय की कसौटी पर पूरी तरह ‘हिट और फिट’रहे, लेकिन उनके कार्यकाल का काला अध्याय यह भी रहा कि न चाहते हुए भी वह अपने दुश्मनों की संख्या लगातार बढ़ाती गईं। मुलायम से तो उनकी दूरी जगजाहिर थी ही, सत्ता संभालते ही उनकी कांग्रेस और उसके गठबंधन वाली केन्द्र सरकार से भी दूरियां बढ़ती गईं। केन्द्र से ठकराव का खमियाजा प्रदेश की जनता को तो भुगतना ही पड़ा, लेकिन माया सरकार की सेहत पर इसका कोई असर नहीं हुआ। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच लगातार तू-तू मैं-मैं का दौर जारी रहना राज्य की जागरूक जनता को काफी अखरता रहा है। एक तरफ बात-बात पर कांग्रेस और उसके युवराज राहुल गांधी को कोसना और दूसरी तरफ कांग्रेस की छत्रछाया में चलने वाली केन्द्र सरकार को बाहरी समर्थन देने का ‘अजूबा’ माया जैसी नेत्री ही कर सकती है।इसके उल्ट महिला आरक्षण विधेयक का विरोध और मंहगाई के मुद्दे पर विपक्ष के कट मोशन के खिलाफ कांग्रेस का समर्थन करके केन्द्र सरकार को मुश्किल से उबारना, माया की ऐसी ही कई ‘चालों’ को न विपक्ष समझ पाया न ही उनके बगलगीर।लोक लेखा समिति में जब वर्चस्व का मौका आया तो उन्होंने भाजपा का साथ देने से बेहतर कांग्रेस को पकड़ना ज्यादा बेहतर समझा। चार साल के शासन काल में माया को जीत की खुशी भी मिली और हार का गम भी सहना पड़ा। लोकसभा चुनाव में मनमाफिक नतीजे नहीं आने से मायावती काफी आहत दिखी। वहीं आय से अधिक सम्पति का मामला और उनका मूर्ति प्रेम कई परेशानियां लेकर आया। जिद्द और भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण माया को अदालत के चक्कर लगाने पड़ें,वहीं केन्द्र सरकार भी उन्हें सीबीआई के माध्यम से समय-बेसमय आंखें दिखाती रही। कहा तो यहां तक जाता है कि भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी मायावती चाह कर भी कांग्रेस से खुल कर दो-दो हाथ नहीं कर पा रही हैं।

माया के कुछ अहम फैसलों पर नजर दौड़ाई जाए तो साफ हो जाएगा कि उनके अधिकांश फैसले वोट बैंक को ध्यान में रखकर लिए जाते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के वरूण गांधी के उतेजित भाषण के बाद उन पर रासुका लगाने का फैसला मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए लिया गया तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा रीता बहुगुणा ने जब मायावती की नियत पर उंगली उठाई तो न केवल उनके ऊपर मुकदमाें की झड़ी लगा दी गई,बल्कि उनके घर तक को फूंकने का अरोप बसपाइयों पर लगा।एक तरफ वरूण और उत्तर प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्षा को माया के खिलाफ जहर उगलने के कारण कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने पड़ रहें हैं,वहीं राहुल गांधी पर माया के शब्दबाण लगातार जारी हैं। माया को राहुल का उत्तर प्रदेश में उठना-बैठना रास नहीं आता।राहुल कहीं बसपा के वोट बैंक में सेंध न लगा दे,इसलिए वह और उनकी पार्टी के अन्य नेताओं के निशाने पर राहुल अक्सर रहते हैं।

केन्द्र और माया सरकार के बीच के रिश्तों की बात की जाए तो साफ लगता है कि माया अपने चार साल के शासनकाल में केन्द्र से अपने रिश्तों को भुनाने में आतुर रहीं। वह कभी उनकी दोस्त बन जाती तो कभी दुश्मन। भाजपा और समाजवादी पार्टी भले ही कांग्रेस-बसपा को एक ही थाली का बैगन बता रहीं थी,लेकिन अपना वोट बैंक बचाने के लिए माया ने किसी की चिंता नहीं की। जब उन्हें जरूरत हुई तो वह कांग्रेस के साथ खड़ी हो गईं और जब उन्हें लगा कि कांग्रेस उनके लिए मुसीबत बन सकती है तो वह उसे कोसने काटने में भी देर नहीं लगाती। अपने सभी फैसलों को ‘राजनीति के तराजू’ पर तौलने मे माहिर मायावती शायद ही कभी अपने किसी फैसले पर पछताई होंगी। महिला आरक्षण पर जब उन्हें लगा कि नुकसान हो सकता है तो वह कोटे में कोटे की बात करने लगीं।पदोन्नती में आरक्षण के मामले में जब इलाहाबाद हाइकोर्ट का फैसला खिलाफ आया तो वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखाटने को आतुर दिखीं। दलितों के हितों की अनदेखी वह नहीं कर पाईं। मंहगाई के मुद्दे पर तो बसपा लगातार ही कांग्रेस से दो-दो हाथ करती रही, लेकिन इसी मुद्दे पर भाजपा संसद में ‘कट मोशन’ लायी तो माया, कांग्रेस गठबंधन सरकार बचाने के लिए ‘कट मोशन’ के खिलाफ हो गईं। ऐसा ही कुछ उसके सदस्यों ने लोक लेखा समिति की बैठक में किया। लोक लेखा समिति के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की एक रिपोर्ट पर जब प्रधानमंत्री और पीएमओ घिरते नजर आए तो बसपा ने कांग्रेस के हाथ मजबूत करना ही बेहतर समझा। माया को पता है कि आय से अधिक सम्पति सहित कई मामलों मेेंं केन्द्र उसकी मदद कर सकता है। हुआ भी यही, माया सांसदों द्वारा मनामोहन सरकार के पक्ष में वोट करते ही सीबीआई ने उनकी लगाम ढीली छोड़ने में जरा भी देर नहीं की। इतने सब ड्रामें के बाद माया को जैसे ही लगा कि उनकी छवि कांग्रेस समर्थित बन रही हैं तो उन्होंने घोषणा कर दी कि उत्तर प्रदेश के साथ कांग्रेस जो सौतेला व्यवहार कर रही है उसकी पूरी कहानी वह एक पुस्तिका में वर्णित कर चुकी है। एक तरफ माया अपने विरोधियों को चारों खाने चित करने में लगी रहती है तो दूसरी तरफ विपक्ष माया को दौलत की बेटी कहकर पुकारने से बाज नहीं आता, लेकिन माया पर इन बातों का कोई खास असर नहीं पड़ता है। इसी लिए तो बीते साल बसपा की 25 वीं वर्षगांठ के मौके पर माया ने हजार रूपए के नोटों की करीब सात मीटर लम्बी और दो फुट व्यास की माला धारण की। इस माला की कीमत करोड़ों रूपये बताई गई। इसको लेकर विवाद भी हुआ लेकिन माया के ऊपर कोई असर नहीं पड़ा।

उत्तर प्रदेश की जनता ने मायावती को प्रदेश की सत्ता की बागडोर उस समय सौंपी थी जब वह तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार की ध्वस्त कानून व्यवस्था से पूरी तरह से ऊब चुकी थी। प्रदेश में चारो ओर गुण्डाराज था और मुलायम के गुण्डे आम जनता को बुरी तरह से परेशान कर रहे थे। हर ओर लूट-खसोट का राज था। जनता की शिकायताें की कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही थी। महिलाओं की आबरू सुरक्षित नहीं थी, अपहरण एक उद्योग बन गया था। ऐसे में आम चुनावों के प्रचार के समय मायावती का यह कहना कि अगर उनकी सरकार बनी तो मुलायम सिंह को जेल भेजेंगी। जनता को खासा रास आया। इतना ही नहीं जतना ने इससे पूर्व भी उनकी सरकार की कार्यशैली को देखा था और उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि मायावती जो कहती हैं वह करती हैं। उनके पिछले शासनकालों में नौकरशाही पूरी तरह से चुस्त-दुरूस्त रहती थी। इसलिए जनता को उम्मीद थी कि उसे मुलायम के गुण्डाराज से मुक्त मिलेगी और कानून का राज होगा। प्रदेश की जनता ने आम चुनावों में मायावती पर पूरा भरोसा जताया तो बसपा को बहुमत मिल गया। करीब बीस सालों के बाद उत्तर प्रदेश बहुमत वाली सरकार आई थीं। इस लिए जनता की अपेक्षाएं सरकार से काफी बढ़ गईं थीं, लेकिन जनता के इसी फैसले ने बसपा सुप्रीमों को अहंकारी बना दिया। परिणामस्वरूप बसपा सरकार के सत्ता में काबिज होने के बाद जनता को कोई राहत नहीं मिली। उसकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। पूर्ण बहुमत होने के कारण सरकार पूरी तरह से निरंकुश हो गयी और नौकरशाही बेलगाम। जिनको जेल में होना चाहिए उन माफियाओं के लिए बसपा के दरवाजे खुल गए। माया अपराधियों को गरीबों का मसीहा बताने लगी। वह जल्द ही यह भूल गई कि मुलायम को प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था के कारण ही प्रदेश की जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था और प्रदेश को अपराध मुक्त करने का वादा करके वह सत्ता में आईं थीं, जिन गुंडे-बदमाशों को चुनाव प्रचार के दौरान वह जेल की सलाखों के पीछे डाल देने की बात करती थीं, वह उनके बगलगीर हो गए। कई को लाल बत्ती मिल गई। बाहुबली मुख्तार अंसारी, आनंद सेन, शेखर तिवारी, गुडडू पंडित,अरूण कुमार शुक्ला उर्फ अन्ना जैसे दर्जनों अपराधी बसपा की शोभा बढ़ाने लगे।जनता त्राहिमाम-त्राहिमाम करने लगी थी,लेकिन माया पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।उलटे वह विपक्ष को सबक सिखाने में लग गईं। सपा के करीबी निर्दल विधायक रघुराज प्रताप सिंह जो माया की आंख की हमेशा किरकिरी बने रहे थे, उन्हें अबकी बार भी मौका बना कर जेल की सलाखों के पीछे भेजने का मौका माया ने नहीं खोया। यहां तक कि उनके ऊपर रासुका लगाकर उनके महीनों जेल में रहने को मजबूर कर दिया तो अदालत ने औरेया के बसपा विधायक शेखर तिवारी सहित दस लोगों को इंजीनियर मनोज की हत्या के जुर्म में उम्र कैद की सजा सुनाकर बसपा को आईना दिखाने का काम किया।बसपा के एक और विधायक आनंद सेन के खिलाफ भी फैसला आने वाला है।आनंद पर एक लड़की को ब्लैकमेंल करने के साथ उसकी हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप लगा है।वहीं बांदा के बसपा विधायक पुरूषोतम पर भी एक लड़की को बंधक बनाकर उसके साथ रेप करने का मामला अदालत मे चल रहा है।इस मामले में भी बसपा सरकार को काफी फजीहत उठानी पड़ी थी।

चार साल के शासनकाल में यही देखने में आया कि माया एक साथ दो नावों पर पैर रखकर चलना चाहती थीं। अपराधियों के लिए बसपा शरणगाह बनी हुई थी, लेकिन बसपा सुप्रीमों यह नहीं चाहती थीं कि उनके ऊपर अपराधियों को संरक्षण देने का दाग लगे, शायद इसी लिए एक तरफ माया अपराधियों को संरक्षण देती रहीं तो दूसरी तरफ कुछ चुनिंदा गुंडे-बदमाशों और डकैतों के खिलाफ मुहिम चला कर वह अपना दामन भी दागदार होने से बचाती रही। इसमें काफी हद तक वह सफल भी रहीं। माया की दुरंगी राजनीति को आम जनता भले ही नहीं समझ पा रही थी,लेकिन ऐसे लोगों की कमी भी नहीं थी जो माया के इस खेल का पर्दाफाश करने में लगे थे। धीरे-धीरे मायावती की असलियत जनता के बीच उजागार होने लगी,लेकिन तब तक वह इन गुंडे-माफियाओं के साथ सत्ता की काफी मलाई मार चुकी थीं और जनता के बीच जाने का समय पुन: नजदीक आने लगा था। तभी एक हादसा हुआ। गोंडा में एक जनसभा के दौरान मंच पर एक अपराधी और कथित बसपा नेता की गोली मारकर हत्या किए जाने से बसपा पर विपक्ष कीचड़ उछालने लगा। भले ही बाद में बसपा ने मारे गए नेता को अपनी पार्टी का नहीं बता कर, पूरे मामले से पल्ला झाड़ लिया लेकिन विपक्ष को तो बसपा सरकार पर हमला करने का मौका मिल ही गया। विपक्ष इससे पहले की और आक्रमक होता मौके की नजाकत भांप कर माया ने अपने कारनामों से चर्चा बटोरने वाले बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी और उनके सांसद भाई अफजाल अंसारी को बाहर का रास्ता दिखा दिया ,वहीं यह घोषणा भी कर दी कि बसपा से बाहुबलियों को बाहर किया जायेगा,लेकिन यह काम माया पूरी ईमानदारी से कर नहीं पाईं।माया अपनी इमेज बनाने की कोशिश में लगी थीं।

चार साल के शासन में एक बात तो साफ हो ही गई थीं कि माया का अब पहले वाला रसूख नहीं रह गया था। इसी लिए न तो अपराधी उनसे डर रहे थे न ही नौकरशाह। शायद नौकरशाही ने माया की नब्ज पकड़ ली थी। वहीं जनता से माया की दूरियां बढ़ गयी थीं। जब सांसद और विधायक तक मुख्यमंत्री से नहीं मिल पाते तो आम आदमी का हाल तो सहज ही समझा जा सकता है। माया के पिछले शासनकालों पर नजर दौड़ाई जाए तो देखने में यह आता था कि मुख्यमंत्री अपने सांसदों और विधायकों से मिलने में काफी दिलेरी दिखाती थीं। इसका फायदा यह होता था कि सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं की जमीनी सच्चाई का हाल उन्हें मिल जाया करता था। उस समय नौकरशाही भी सहमी रहती थी कि कहीं मुख्यमंत्री तक उनकी शिकायत न पहुंच जायें। इससे दो फायदे होते, सांसदों और विधायकों का रसूख कायम रहता था और जनता अपनी शिकायतों को लेकर अपने जनप्रतितिनिधि तक पहुंच जाती थी। लेकिन अबकी हालात बिल्कुल बदले हुए हैं। इस बार नौकरशाही ने एक सोंची समझी रणनीति के तहत मुख्यमंत्री को जनप्रतिनिधियों और जनता से दूर कर दिया है। नौकरशाह शासन का कामकाज पूरी तरह से अपनी मर्जी से चला रहे हैं। शायद उन्हें इस बात का अहसास अच्छी तरह से है कि सांसदों और विधायकों की पहुंच मुख्यमंत्री तक है नहीं, ऐसे में उसकी शिकायत उन तक पहुंचने की कोई संभावना भी नहीं है। थोड़ा कुछ अगर मीडिया व प्रचार माध्यमों से सरकार के कानों तक बात पहुंचा करती थी तो उसे भी नौकरशाहों ने एक तयशुदा रणनीति के तहत अपने कब्जे में ले रखा है। मीडिया से दूरी क्या रंग लाएगी, यह तो 2012 के विधान सभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा,लेकिन इस समय जो हालात चल रहे हैं,वह बहुत ज्यादा अच्छे नहीं लग रहे।

उत्तर प्रदेश में सरकारी योजनाओं की बात करें तो प्रदेश की जनहित योजनाओं की कौन कहे केन्द्र सरकार की जो जनहितकारी योजनाएं यहां चलायी जा रही हैं और भारत सरकार जिसके लिए पूरा धन दे रही है उनका हाल भी बेहाल है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(मनरेगा) हो या फिर वृध्दावस्था पेंशन अथवा कोई और योजना,सब जगह बंदरबांट हो रहा है। यह महत्वाकांक्षी योजना भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, लालफीताश्शाही और भाई-भतीजावाद की भेंट चढ़ गई हैं। मनरेगा में अब तक विभिन्न जिलों से जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उसे देखकर इसका अपने उद्देय से अलग ही काम करने के प्रमाण मिल रहे हैं। इसका उद्देश्य ग्रामीण स्तर पर जरूरतमंदों को न्यूनतम सौ दिनों का रोजगार उनके अपने ही क्षेत्र में मुहैया कराना था। जिससे उनके रोजी-रोटी की तलाश मे अनावश्यक पलायन को रोका जा सके, साथ ही ग्रामीण इलाकों का समुचित विकास हो। अफसोस की बात यह भी है कि मनरेगा में सबसे ज्यादा फर्जीवाड़ा उत्तर प्रदेश में ही चल रहा है। जॉब कार्ड व मस्टर रोल में बड़े पैमाने पर धांधली, अपात्रों का चयन, निर्धारित दर से कम पर भुगतान करना, ग्राम प्रधान तथा जिला व ब्लाक स्तर के अधिकारियों के बीच मिलीभगत से अनकों जिलों में हो रही धांधलियां अखबारों की सुर्खियां बनी रहती हैं।एक तरह से उत्तर प्रदेश में मनरेगा भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुका है।2009.10 में केन्द्र ने इस योजना के लिए 750 करोड़ रूपये आवंटित किये। यह पैसा सभी जिलों को भेजा गया ,लेकिन कोई ऐसा जिला नहीं, जहां इसको लेकर लूट ना मची हो। नियमानुसार यदि इसके खर्च किया जाता तो कार्य दिवस का सृजन हो सकता था किन्तु राज्य सरकार ने जो वार्षिक रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी, उसके अनुसार केवल 18 करोड़ कार्य दिवस का ही सृजन हो पाया था। इसी प्रकार 57 करोड़ कार्य दिवस का पैसा अधिकारियों के पेट में चला गया। यह तो एक वर्ष का आंकड़ा था, इससे पहले 2008-09 में केन्द्र सरकार ने 5500 करोड़ रूपये और उसे पहले 4800 करोड़ रूपये दिया था। उसकी भी बन्दरबांट हो गई। इस योजना के तहत गांव में संपर्क मार्गों का निर्माण, तालाबों की खुदाई और उनका जीर्णोद्वार, वृक्षारोपण जल संवर्धन एवं जल संरक्षण, मेड़ बन्दी, हदबन्दी,जैसे काम कराये जाने थे।

वृक्षारोपण का हाल यह है कि वर्ष 2009-10 में 1600 करोड़ रूपये खर्च करके महीने भर के भीतर बुन्देलखंड में 10 करोड़ पेड़ लगा दिये गये, केन्द्रीय रोजगार गारन्टी परिषद के सदस्य संजय दीक्षित ने केन्द्रीय टीम के साथ इसकी जांच की तो वहां एक भी पेड़ नहीं मिला। इसके बावजूद इस मामले में एक भी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई, क्योंकि मामला वनमंत्री से सीधे जुड़ा हुआ था। आश्चर्य इस बात पर भी है कि इस मामले में प्रदेश के मुख्य सचिव ने भी मौके का मुआइना किया, किन्तु वे भी कुछ ना कर सके। आज भी इसकी जांच हो जाए तो सच्चाई सामने आ जायेगी।सच कहा जाये तो केन्द्र सरकार का पैसा पात्र व्यक्तियों को मिलने के बजाय अपात्रों की जेबें भर रहा है। 30 अप्रैल 11 को प्रधामनंत्री मनमोहन सिंह बुंदेलखंड के दौरे पर आए थे। उन्होंने बुंदेलखंड की प्यास बुझाने के लिए दौ सौ करोड़ रूपए देने की घोषणा की तो इससे पहले दिए गए पैसों का हिसाब भी बसपा सरकार से मांगा। 27 अप्रैल को अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी के दौरे से लौटते समय राहुल गांधी ने अचानक लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के राज्य कार्यक्रम प्रबंधन इकाई में पहुंचकर जननी सुरक्षा योजना और ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के मद और खर्च का जन सूचना अधिकार अधिनियम के तहत ब्योरा मांगा तो लोगों को समझते देर नहीं लगी कि उनका निशाना कहां पर है। राहुल ने लखनऊ पहुंच कर जनसूचना अधिकार अधिनियम 2005 के तहत उक्त योजना से संबंधित कई जानकारियों की मांग करके माया सरकार को जता दिया है कि चुनावी मौसम में उनकी सरकार के लिए राह आसान नहीं होगी। कांग्रेस और अन्य राजनैतिक दल अगर माया सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं तो उन्हें सिर्फ राजनैतिक मामला बता कर टाला नहीं जा सकता। धुआ वहीं से उठता है जहां आग लगी होती है।एक तरफ माया सरकार पर आरोप लग रहे हैं तो दूसरी तरफ वह अपनी सरकार के खिलाफ उठने वाली किसी भी आवाज को दबाने के लिए धरना-प्रदर्शन तक पर रोक लगाने की कोशिश में हैं। माया सरकार ने एक तुगलकी आदेश जारी करके कहा कोई भी दल या संगठन तब तक धरना-प्रदर्शन नहीं कर सकता है जब तक कि प्रशासन से इसकी इजाजत नहीं ले ली जाती।माया सरकार के इस फरमान से विपक्षी बौखला गए। उत्तार प्रदेश में धरना प्रदर्शनों एवं रैलियों आदि के आयोजन के लिए राज्य सरकार की ओर से 27 अप्रैल 11 को जारी किये गये नये दिशा निर्देशों में सार्वजनिक अथवा निजी संपत्तिा के नुकसान की भरपाई आयोजकों से कराये जाने के प्रावधान को राजनीतिक दलों पर अंकुश लगाने का हथकण्डा करार देते हुए प्रतिपक्षी दलों ने इस कदम को ”अघोषित आपातकाल” की संज्ञा दी।

बात घोटालों तक ही सीमित नहीं है। यही हाल सभी जगह है। मामला चाहे अफसरशाही की अपनी टीम का हो या फिर किसी महत्वपूर्ण पद पर तैनाती का। मायावती सरकार ने अपने चहेतों को रेवड़ियों की तरह पद बांटे हैं। योग्यता की जगह कास्ट अच्छी नियुक्ति का पैमाना बन गया है। बसपा ने विभिन्न आयोगों में अपने खास सिपहसलारों को अध्यक्ष बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से उस पर अपना कब्जा कर लिया है। यही हाल पंचम तल पर तैनात उनकी अपनी टीम का है। जिस अधिकारी ने उनकी हॉ में हॉ मिलाने से मना किया उसे तत्काल ही वहां से हटाकर किसी महत्वहीन पद पर भेज दिया गया। माया के पिछले शासनकाल के दौरान जो अधिकारी सरकार के बहुत खासमखास हुआ करते थे उन्हें इस बार ना तो कोई महत्वपूर्ण विभाग मिला और ना ही पंचम तल पर जगह। खींज कर कई काबिल अफसरों ने तो दिल्ली का रुख किया। पंचम तल पर आज भी मुट्ठी भर अधिकारियों का ही बोलबाला है। उन्हीं की बातों को तरजीह दी जाती है, यह बात दीगर है कि वे मायावती सरकार के लिए कोई ज्यादा फायदेमन्द साबित नहीं हो पा रहे हैं। उनके निर्णयों से लगातार सरकार की किरकिरी होती है तथा राजनैतिक तौर पर इसका बसपा को नुकसान भी हो रहा है। नौकरशाहों के हथकण्डों से बसपा सुप्रीमो और मुख्यमंत्री की जनता के बीच एक कड़े प्रशासक की साख में भी दिनों-दिन गिरावट आ रही है। ‘तबादलों की गोली’ से चुनिंदा नौकरशाहों को हल्कान किया जा रहा है। वजह कोई भी हो लेकिन आश्चर्यजनक रूप से माया के कोप के शिकार एक जाति विशेष(ब्राहमण) के ही ब्यूरोक्रेट बन रहे हैं। तबादलों की आंधी में करीब आधा दर्जन ब्राहमण नौकरशाह हाशिए पर चले गए तो कुछ अन्य बिरादारी के ब्यूरोके्रटों के भाव अचानक बढ़ गए हैं। पंचम तल (मुख्यमंत्री सचिवालय) से लेकर जिलों तक में महत्वपूर्ण पदों पर तैनात ब्राहमण नौकरशाहों को छांट-छांट कर किनारे किए जाने से बसपा से जुड़े ब्राहमण नेताओं के भी कान खड़े हो गए हैं। पहले बसपा सरकार में अहम रूतबा रखने वाले राष्ट्रीय महासचिव सतीश मिश्र को सक्रिय राजनीति से दूर करना और उसके बाद उनके शुभचिंतकों को भी महत्वपूर्ण पद से हटाया जाना इस बात का संकेत है कि माया दलित वोटरों की कीमत पर सर्वजन की राजनीति नहीं करना चाहती हैं। बहुजन समाज पार्टी की मुख्यमंत्री ने सत्तासीन होते ही यह ठान लिया था कि वे बात सर्वजन हिताय की करेंगी, लेकिन भला दलितों का । पूरे चार साल दलितों की ही बात करने वाली बसपा ने दलितों को रोटी, कपड़ा और मकान दिलाने की जुगाड़ करवायी । पुलिस महकमा हो या प्रशासनिक अधिकारी, अधिकतर सीटों पर आरक्षित श्रेणी के ही लोगों को क्रीम कही जाने वाले पदों पर रखा गया । थानों में दलित मुलाजिम ही देखे गये । माया सरकार ने दलितों की रहनुमाई में उन खाली पड़ी आरक्षित रिक्तियों को तो विशेष अभियान के तहत भरा, वरन अनारक्षित सीटों पर पर कब्जा जमाने की कोशिश हुई। सीटों को भरने एवं पढ़ाई लिखाई में विशेष छूट प्रदान करने में दलितों का ही हित देखा गया । गांव की तरफ चलें तो तो सारे के सारे विकास कार्य अंबेडकर गांवों तक ही सीमित रहे। सरकार ने अंबेडकर गांवों के लिए अपनी झोली खोल रखी है। प्रदेश भर में चार हजार डॉ अंबेडकर सामुदाियक केंद्रों का निर्माण करा रही हैं। इसके लिए उसने 327.80 करोड़ रूपए भी जारी कर दिए हैं समाज कल्याण विभाग की जानकारी के अनुसार राज्य सरकार ने अंबेडकर गांवों में 4 हजार सामुदायिक केन्द्रों के निर्माण की योजना बनाई है।दलितों के लिए मान्यवर कांशीराम योजना के तहत मकानों का निर्माण कराया जा रहा है।कुछ निर्धनों को तो मकान मुफ्त तक में दिए जा रहे हैं।

चार साल के बाद माया का ‘तीसरा नेत्र’ धीरे-धीरे खुलने लगा है।शायद इसकी वजह विधान सभा चुनाव का समय नजदीक आना है। बसपा सुप्रीमों नहीं चाहती कि दागदार नेताओं के कारण उन्हें जनता को जवाब देने में मुश्किल आए और विपक्ष को उन्हें घेरने का मौका मिल जाए, इसी लिए वह अपना दामन साफ करने की मुहिम में लगी तो हैं, लेकिन ऐसा करते समय वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी भी नहीं मार लेना चाहती। उन्हें अपनी सरकार की मजबूती की भी उतनी ही चिंता है,जितनी की बसपा से अपराधियों को बाहर निकालने की। यही वजह है कि अभी तक मुख्तार को छोड़कर बसपा से ऐसे किसी अपराधी को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया गया है जो अपराधी होने के साथ-साथ जनता का नुमांइदा भी हो। कहना गलत नहीं होगा कि बसपा से वह बाहुबली ही बाहर किए गए जो थोड़ा निर्बल थे,जिनको पार्टी से कोई खास फायदा हो नहीं रहा था और बदनामी ऊपर से उठानी पड़ रही थी।

 

मायावती के चार साल के कार्यकाल में जनता अब पूरी तरह से जान चुकी है कि सरकार की प्राथमिकता जनहित की नहीं बल्कि सिर्फ अपनी मूर्तियां लगवाने और स्मारकों के निर्माण में न्यायालय की लगी रोक हटवाने में है।अधिक से अधिक पैसा वह इस दौरान बटोर लेना चाहती हैं। माया का शासन करने का जो तौर तरीका है उससे यही लगता है कि प्रदेश की जनता पूरी तरह से छली गयी है। बसपा का स्थायी वोट बैंक कहलाने वाला दलित,जिसने लम्बे समय से एकजुट होकर बसपा को एक बड़ी ताकत के रूप में खड़ा किया उसका भी मोह माया से भंग होता दिख रहा है। इसकी मुख्य वजह है कि उसकी कहीं पर भी सुनवाई नहीं हो रही है। उस पर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है। महज अधिकारियों के तबादले कर व समय-समय पर अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करके मुख्यमंत्री अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हैं।खैर, इतना तो तय है कि मायावती के शाासनकाल में विपक्ष और प्रदेश की जनता को लाखों खामियां दिख रहीं हो लेकिन बसपा के वोटर के लिए तो यही खुशी की बात है कि ‘बहनजी’ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं।उनके समाज के महापुरूषों को पहचान दिलाने का काम भी बसपा सुप्रीमों ने बखूबी किया। यही वजह है , उनका वोटर बहनजी को पांचवी बार भी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होता देखना चाहता है।

माया शासन विपक्ष की नजर में

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती भले ही अपने चार साल के शासनकाल से संतुष्ट हों लेकिन विपक्ष को माया राज में खामियां ही खामियां नजर आईं। किसी की नजर में प्रदेश के हालात जंगलराज जैसे हो गए थे तो कोई माया सरकार को भ्रष्टाचार बढ़ाने वाला बता रहा था। वहीं ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं थी जिनकी नजर में बसपा सरकार किसान विरोधी, जनविरोधी, मूर्ति प्रेमी, उद्योगपतियों की चहेती, साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली और न जाने क्या-क्या है। इस संबंध में विभिन्न नेताओं ने अलग-अलग प्रतिक्रिया व्यक्त की।

समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि चार साल से प्रदेश में जंगलराज चल रहा है।अदालत के आदेश पर बसपा विधायकों की गुंडागर्दी के खिलाफ मुकदमें दर्ज हो रहे हैं और माया सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है।महिला मुख्यमंत्री के शासनकाल में महिलाओं के साथ ही सबसे अधिक आपराधिक मामले हो रहे हैं।कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब गैंग रेप जैसे घृणित मामले सामने न आते हो। यह सरकार अपराधियों-माफियाओं की सरकार बन गई है। मुख्यमंत्री जनता को बरगला रही हैं। बसपा में अपराधियों को संरक्षण देने वाली माया इसका ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ना चाहती हैं,लेकिन जनता बेवकूफ नहीं है। उसे सब मालूम है। मुलायम ने माया को जिम्मेदारियों से भागने वाला नेता बताते हुए विश्वास जताया कि 2012 के विधान सभा चुनाव में प्रदेश की जनता मायावती सरकार को उखाड़ फेंकने में देरी नहीं करेगी।सपा प्रमुख ने अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि शिक्षा मित्रों, सपाइयों, वकीलों, किसानों,मजदूरों किसी को भी तो नहीं छोड़ा मायावती सरकार ने।निर्दल विधायक राजना भैया को जेल भेजने जैसी घटनाएं माया की सोच उजागर करती हैं। जिसने भी जुबान खोली उसे लाठी मिली। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही ने माया को गरीबी की दुश्मन और पूंजीपतियों की हिमायती बताते हुए कहा कि माया सरकार ने चार साल में प्रदेश को चालीस साल पीछे छोड़ दिया। विकास का कोई काम आगे नहीं बढ़ पाया है,जो जनहित योजनाएं भाजपा शासन में शुरू की गईं थी उसे रोक दिया गया है।सरकार दुर्भावनावश होकर फैसले ले रही है। उन्हें नोटों की माला पहनने और वसूली करने से ही छुट्टी नहीं मिल रही है।शाही ने बसपा को कांग्रेस की बी पार्टी करार दिया।

भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने बसपा सरकार को अब तक की सबसे अधिक भ्रष्ट सरकार बताते हुए इस बात पर दुख जताया कि केन्द्र सरकार माया के भ्रष्टाचार के कारनामों को उजागर करने के बजाए छिपा रही है। उनका कहना था सीबीआई माया के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए उनके आय के स्रोत तलाश रही थी, लेकिन भाजपा के ‘कट मोशन’ और लोक लेखा समिति में मचे बवाल के समय बसपा ने केन्द्र सरकार का साथ क्या दिया, माया के खाते तलाशने का काम रोक दिया गया। उन्हें पैसा बटोरने की और मौका दे दिया हैं। भ्रष्टाचार में डूबी माया सरकार सरकारी योजनाओं के पैसे का बंदरबांट करने में लगी है। वृध्दा अवस्था पेंशन ,मनरेगा कोई सरकारी योजना ऐसी नहीं बची है जो घोटालों से मुक्त हो। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार बनी तो माया राज के सभी फैसलों की समीक्षा की जाएगी।भाजपा के वरिष्ठ नेता और लखनऊ के सांसद लाल जी टंडन भी इस बात से आहत हैं कि माया ने लखनऊ को पत्थर और मूर्तियों का शहर बना डाला। भाजपा के युवा नेता वरूण गांधी, माया सरकार को बहुसंख्यक विरोधी और साम्प्रदायिक करार देते हैं।बसपा नेताओं की लगाम अदालत को कसनी पड़ रही है।

उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षा डा. रीता बहुगुणा की नजर में भी माया सरकार की कोई खास इज्जत नहीं है। उन्हें इस बात का दुख है कि माया राज में महिलाओं को अपनी अस्मत की रक्षा के लिए घरों में कैद होकर रहना पड़ रहा है। बलात्कारियों, दुराचारियों और महिलाओं का उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ सरकार इस लिए कोई कारवाई नहीं करती है क्योंकि यह लोग रसूख वाले होते हैं।औरत को इंसाफ मिलता नहीं ,उसकी आबरू की कीमत सरे बाजार लगाई जाती है।राज्य कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता सुबोध श्रीवास्तव ने इस बात पर दुख जताया कि बसपा के जनप्रतिनिधि ही जनता पर अत्याचार करने में लगे हैं।सरकार उनके खिलाफ कारवाई करने के बजाए उनके बचाव में लगी रहती है।उन्होंने कहा जिस तरह से औरेया में इंजीनियर के हत्यारे विधायक शेखर तिवारी को बचाने के लिए माया सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था,उसी प्रकार गौरीगंज में कांग्रेस कार्यकर्ता मयंकेश शुक्ल की निर्मम हत्या के दोषी विधायक सहित चन्द्र प्रकाश मिश्र ‘मटियारी’ तथा अन्य दोषियों को अविलम्ब गिरफ्तार किए जाने हेतु मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक को लिखने के बाद भी उसे गिरफ्तार करने की बजाए विधायक को क्लीनचिट दे दी गई। मात्र उक्त दो घटनाओं से बसपा सरकार का असली चेहरा उजागर हो जाता है,जबकि ऐसी घटनाओं का अंबार लगा हुआ है।

राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी अजीत सिंह उत्तर प्रदेश की माया सरकार को हर मोर्चे पर विफल मानते हैं।उनका कहना था कि कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार के कारण प्रदेश खोखला हो गया है,माया राज में सबसे अधिक अत्याचार और उत्पीड़न का सामना किसानों को करना पड़ रहा है ।उन्हें न तो समय से खाद मिल रही है, न बीज। खेतों में सिंचाई नहीं हो पाने से सूखे की मार झेलना तो किसानोें की नियति ही बन गई है। गन्ना किसानों की बात की जाए तो पता चल जाएगा कि माया सरकार को गन्ना किसानों से अधिक चिंता चीनी मिल मालिकों की है। यही वजह है चीनी आयत होकर आ गई है,लेकिन चीनी मिल मालिकों को फायदा पहुंचाने के लिए उसे उठाया नहीं जा रहा है।

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संजय सक्‍सेना
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के लखनऊ निवासी संजय कुमार सक्सेना ने पत्रकारिता में परास्नातक की डिग्री हासिल करने के बाद मिशन के रूप में पत्रकारिता की शुरूआत 1990 में लखनऊ से ही प्रकाशित हिन्दी समाचार पत्र 'नवजीवन' से की।यह सफर आगे बढ़ा तो 'दैनिक जागरण' बरेली और मुरादाबाद में बतौर उप-संपादक/रिपोर्टर अगले पड़ाव पर पहुंचा। इसके पश्चात एक बार फिर लेखक को अपनी जन्मस्थली लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्र 'स्वतंत्र चेतना' और 'राष्ट्रीय स्वरूप' में काम करने का मौका मिला। इस दौरान विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे दैनिक 'आज' 'पंजाब केसरी' 'मिलाप' 'सहारा समय' ' इंडिया न्यूज''नई सदी' 'प्रवक्ता' आदि में समय-समय पर राजनीतिक लेखों के अलावा क्राइम रिपोर्ट पर आधारित पत्रिकाओं 'सत्यकथा ' 'मनोहर कहानियां' 'महानगर कहानियां' में भी स्वतंत्र लेखन का कार्य करता रहा तो ई न्यूज पोर्टल 'प्रभासाक्षी' से जुड़ने का अवसर भी मिला।

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