संजय सक्सेना
समाजवादी परिवार के बीच मचे घमासान के बाद उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण काफी बदल गया हैं। अभी तक जो सपा मुख्य मुकाबले में दिखाई दे रही थी,अब कहीं न कहीं वह कमजोर पड़ती दिख रही है। समाजवादी परिवार का संघर्ष मीडिया की सुर्खिंया बटोर रहा है। वहीं बीजेपी,कांगे्रस और बीएसपी नेता मुलायम परिवार में लगी आग में अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं। सभी को उम्मीद है कि बड़ी संख्या में परिवार के झगड़े से तंग आ चुके सपा वोटर मुलायम की पार्टी से मुंह मोड़ सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो सपा से दूर होने वाले बोट बैंक की ‘लाटरी’ किसी के नाम भी निकल सकती है। इसी लिये तमाम दलों के रणनीतिकारों ने सपा के वोट बैंक में संेधमारी के लिये बिसात बिछा दी है। समाजवादी पार्टी सें पिछले कुछ माह से से जो खबरें छन-छन कर आ रही है,उससे सबसे अधिक सपा का मुस्लिम वोट बैंक दुखी और नाराज लग रहा है। इस बात का अहसास मुस्लिम वोटों के लिये हमेशा चिंतित रहने वाले मुलायम सिंह को भी होते देर नहीं लगी। इसी लिये जब चचा-भतीजे की जंग मंें पार्टी को टूट से बचाने के लिये वृहत स्तर पर मैराथन मंथन चल रहा था,तब नेताजी को अन्य बातों के अलावा अपना मुस्लिम वोट बैक रह-रह कर याद आ रहा था मंच पर जब समाजवादी परिवार के सदस्य एक-दूसरे के विरोध में अपना-अपना गुबार निकाल रहे थे, उस दौरान मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी के मुख्य जनाधार समझे जाने वाले मुसलमानों की चिंता को लेकर अलग राग छेड़ रखा था। उन्होंने अखिलेश को अगाह करते हुए कहा मुझे चिठ्ठियां मिल रही हैं कि मुख्यमंत्री अल्पसंख्यकों की दिक्कतें दूर करने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। इस सवाल पर मुख्यमंत्री ने कहा कि कहां वह चिट्ठी कहा है? मुझ पर गलत इल्जाम न लगाये जाएं ? मुलायम ने उनकी बात को टालते हुए कहा कि राजनीति में गुरुर व घमंड नहीं होना चाहिए, मुसलमान मेरी आत्मा है, अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान रखा जाए।
नेताजी मुलायम सिंह की मुसलमानों को लेकर बेचैनी नाहक नहीं थी,दरअसल परिवार की लड़ाई के दौरानं यह रहस्य भी खुलकर सामने आ गया था कि कहीं न कहीं समाजवादी पार्टी के नेताओं के बीजेपी से काफी घनिष्ट रिश्ते हैं। मायावती तो यह बात लम्बे समय से कहती आ रही थी और बार-बार तमाम खुले मंचों पर वह कहती भी जा रही थीं,‘ एक-दूसरे को गाली देने वाले सपा और बीजेपी के बड़े नेता अंदर खाने से मिलने हुए हैं। अब यह बात मायावती और पूख्ता तौर पर सबके सामने रखेंगी। बसपा अकेली नहीं है जिससकी नजर सपा के मुस्लिम वोटरों पर है। बसपा की तरह कांगे्रस और राष्ट्रीय लोकदल जेसे दलों को भी सपा से छिटकने वाले मुस्लिम वोटर लुभा रहे हैं। बीएसपी,कांगे्रस और लोकदल वाले ऐसे ही नहीं मुस्लिम वोटों को ललचाई नजरों से देख रहे हैं। इन्हें मुस्लिम वोटरों का स्वभाव पता है कि समय पड़ने पर मुसलमान वोटर किसी भी ऐसे दल के साथ खड़ा होने मंे गुरेज नहीं करता है जो बीजेपी को हरा सकता हो। मुसलमानों के अपने सरोकार हैं।,जिन्हें पूरा करने के लिये वह कल तक कांगे्रस के साथ खड़ा हुआ था तो आज सपा के सथ खड़ा है। सपा के कमजोर होने और मौके की नजाकत को भांप कर मुस्लिम वोटर पाला बदलने में देर नहीं करेगा। इस लिहाज से मुस्लिम वोटरों के लिये बीएसपी ही सबसे मुफीद पार्टी नजर आ रही है।
2007 के विधान सभा में बड़ी तादात में मुस्लिम वोटर बसपा का दामन थाम चुके हैं, जिसके बल पर मायावती सत्ता की दहलीज चढ़ने में सफल रहीं थीं। इसी बार भी मायावती मुस्लिमों को लुभाने के लिये सभी तरह के दांवपेंच चल रही है। इसी लिये जैसे ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महोबा की रैली में तीन तलाक को मुस्लिम महिलाओं के हितों के खिलाफ बताया मायावती ने प्रेस रिलीज जारी कर तीन तलाक का विरोध शुरू कर दिया। बसपा सुप्रीमों का तीन तलाक के मसले पर मुस्लिम पर्सलन लाॅ बोर्ड का समर्थन और समान नागरिक संहिता को आरएसएस का एजेंडा साबित करने की मुहिम इसी कड़ी का हिस्सा है। मुस्लिमों को अपने पाले में खींचकर मायावती दलित-मुस्लिम वोट बैंक दुरूस्त करना चाहती हैं। इसके लिये उन्होंने तैयारी काफी पहले से कर ली थी,बसपा ने जितने मुस्लिम नेताओं को टिकट दिया है,उसके मुकाबले सपा और कांगे्रस कहीं नहीं टिकते दिख रहे हैं। मुसलमानों से जुड़ा कोई भी मुद्दा हो यहां तक की सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे पर भी बसपा सुप्रीमों मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करती नजर आती रहती हैं। मुसलमानों को सपा से सचेत करने का भी कोई मौका माया नहीं छोड़ती हैं। इसका प्रभाव होता दिख भी रहा है। कई जगह मुसलमानों के बीच मायावती के पक्ष में माहौल देखा भी जा रहा है। माया ‘मोह’ में जिस तरह से सपा का मुस्लिम वोटर फंसता नजर आ रहा है,उससे सपा में बेचैनी देखी भी जा रही है,लेकिन इसे कोई सावर्जनिक नहीं कर रहा है।
अगर माया मुस्लिम वोटरों को लुभाने की मुहिम में सफल हो गईं तो शायद उन्हंे अन्य वर्गो के वोटों की कोई खास जरूरत भी नहीं पड़ेगी। यूपी में करीब 21 प्रतिशत दलित और 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं,जिनके एक साथ आने से यह प्रतिशत 39 तक पहुंच जाता है,जो बसपा की जीत के लिये हर तरह से संतोषजनक है। देखना यह है कि कांगे्रस की इसमें क्या भूमिका रहती है। कहीं वह भी तो नहीं कुछ प्रतिशत वोट झटक लेगी। फिलहाल कांगे्रस की मुस्लिम वोटरों की दावेदारी को लेकर कोई ज्यादा गंभीर नहीं है। इसकी जगह चर्चा यह जरूर हो रही है कि अगर सपा में अखिलेश अलग-थलग पड़े तो उन्हें कांगे्रस अपने फायदे के लिये सहारा दे सकती है। जानकार बताते हैं कि राहुल गांधी समाजवादी घमासान पर बारीक नजर रखें हैं तो वहीे सपा से बाहर किये गये प्रोफेसर रामगोपाल यादव को लेकर भी अटकलों का बाजार गरम है और कहा जा रहा है कि प्रोफेसर कांगे्रस या बीजेपी में से किसी एक दल का का दामन थाम सकते हैं।
बात बीजेपी की कि जाये तो बेचैनी वहां भी कम नहीं है। बीजेपी नेताओं को लगता है कि अगर समाजवादी पार्टी कमजोर हुई तो उसका कुछ प्रतिशत यादव और बड़ी संख्या में पिछड़ा वोट बैंक बीजेपी के पक्ष में लामबंद हो सकता है। सार्वजनिक तौर पर भाजपा भले ही सपा के विवाद को तवज्जो नहीं दे रही है, लेकिन नई राजनीतिक परिस्थितियों में उप्र विधानसभा चुनाव को लेकर अपनी मौजूदा रणनीति पर फिर से विचार करने की जरूरत पूरी गंभीरता से महसूस कर रही है। भाजपा एक रणनीति के तहत बसपा को अभी तक अहम प्रतिद्वंदी नहीं मान रही थी। लेकिन सपा के बिखरते कुनबे का फायदा बसपा को मिलने की आशंका से वह सतर्क भी है। इसी लिये एक सोची-समझी रणनीति के तहत वह (भाजपा) उत्तर प्रदेश में सपा को ही अपना प्रतिद्वंद्वी बता रही थी।