‘मीड डे मील’ या ‘मासूम मर्डर मील’

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mid day mealराजेश कश्यप

 

16 जुलाई, 2013 का दिन पूरी मानवता को शर्मसार कर देने वाले और देश व

समाज को बुरी तरह झकझोर देने वाले काले दिन के रूप में दर्ज हो गया। जिस

देश के मासूम, अबोध और फूलों से सुकोमल हंसते-खिलखिलाते बच्चे स्कूल में

विषाक्त मध्यान्तर भोजन (मिड डे मील) खाने के बाद देखते-देखते ही देखते

मौत के मुँह में समा जाएं, भला उससे बढ़कर और शर्मनाक विषय क्या होगा? उन

अभिभावकों के दिलों पर इससे बढ़कर और क्या वज्रपात होगा कि जिनके कलेजे के

टुकड़े सुबह हंसते-कूदते स्कूल में पढ़ने के लिए गये थे और वे अब कभी स्कूल

से वापस नहीं आने वाले हैं? बुढ़ापे का सहारा और भविष्य के कर्णधार कहलाने

वाले नन्हें बच्चे जिस स्कूल में पढ़ते-लिखते थे, खेलते-कूदते थे और हरदम

चहचहाते रहते थे अब वही बच्चे उसी स्कूल के सामने गड्डों में दफन हैं,

भला इससे बढ़कर और कोई नारकीय स्थिति होगी? कदापि नहीं….कदापि नहीं।

इस शर्मनाक, नारकीय और हृदय विदारक घटना की पृष्ठभूमि बिहार में सारण

जिले के मसरख के गंडामन धर्मासाती गाँव से जुड़ी है। यहां के मिडल स्कूल

में पहली से पाँचवीं कक्षा तक के 23 बच्चे जहरीला ‘मीड डे मील’ खाने के

बाद मौत की नींद सौ चुके हैं और दो दर्जन से अधिक अभी भी मौत से जंग लड़

रहे हैं। प्राप्त जानकारी के अनुसार इस स्कूल में 60 बच्चे पढ़ते थे। गत

16 जुलाई को बच्चों ने जैसे ही ‘मीड डे मील’ खाया, उन्हें तुरन्त उलटियां

और पेटदर्द की शिकायत होने लगी। जब सभी बच्चों की हालत एकदम नाजुक हो गई

तो स्कूल प्रबन्धन के हाथ-पाँव फूल गये। बच्चों को जैसे-तैसे प्राथमिक

स्वास्थ्य केन्द्र ले जाया गया। यहां पर दो बच्चे मौत के मुंह में समा

गए। इसके बाद सभी बच्चों को छपरा सदर अस्पताल भेजा गया। यहां पर एक के

बाद एक बच्चे दम तोड़ते चले गए और विषाक्त ‘मीड डे मील’ का शिकार होने

वाले बच्चों की संख्या 23 पर जा पहुंची। इनमें से 9 बच्चे तो एक ही

परिवार के थे। उनके साथ ही एक महिला कुक की मौत भी हो गई। अब भी कई बच्चे

मौत के मुंह में फंसे हुए हैं।

बिहार में घटी इस घटना ने हर किसी को हिलाकर रख दिया है। प्रधानमंत्री से

लेकर वर्ल्ड बैंक और यूनीसेफ तक ने ‘मीड डे मील’ के कारण हुई मौतों को

बेहद गंभीरता से लिया है और उन्होंने पूरी रिपोर्ट तलब की है। स्थानीय व

केन्द्रीय एजेन्सियां घटना की गहनता से जांच में जुटी हुई हैं। ये दूसरी

बात है कि अब लोगों को इस तरह की जांच सिर्फ औपचारिकता भर लगने लगी हैं।

देश में कितनी ही बड़ी घटना घट जाए, सब जांच के नाम पर ठण्डे बस्ती में

डाल दी जाती हैं। घटना में प्रभावित लोगों को मुआवजा आदि की घोषणा करके

तमाम खामियों पर पर्दा डाल दिया जाता है। गलतियों और खामियों से न कोई

सबक लिया जाता है और न ही जिम्मेदार लोगों को किसी तरह की कोई सजा दी

जाती है। इसी तरह की घोर लापरवाही, गैर-जिम्मेदारी और घटिया राजनीति के

चलते आम आदमी का प्रशासन व सरकार से विश्वास उठ चुका है।

यदि बिहार की इस घटना का बारीकी से विश्लेषण किया जाये तो स्थानीय स्कूल

प्रबन्धन से लेकर पंचायतीराज संस्थाओं तक और जिला प्रशासन से लेकर राज्य

सरकार व केन्द्र सरकार तक इन 23 मासूम बच्चों की मौत की उत्तरदायी नजरआती

हैं। हर स्तर पर घोर लापरवाही व गैर-जिम्मेदारी साबित होती है। विषाक्त

‘मीड डे मील’ खाने की फोरेंसिक रिपोर्ट आ चुकी है। बिहार के एडीजी

रविन्द्र कुमार ने रिपोर्ट का खुलासा करते हुए बताया कि फोरंेसिक रिपोर्ट

के मुताबिक खाने में मोनोक्रोटोफॉस (ऑर्गनो फास्फोरस पेस्टीसाइड) का

इस्तेमाल हुआ था। इस कीटनाशक का इस्तेमाल खेती में होता है। ‘मीड डे मील’

में इस्तेमाल तेल में तो तय मानक से पाँच गुना अधिक कीटनाशक था। इससे

पहले बिहार के प्रमुख राज्य सचिव अमरदीप सिन्हा ने भी स्पष्ट तौरपर

खुलासा कर दिया था कि जिस ‘मीड डे मील’ ने बच्चों की जान ली, उसकी सब्जी

सरसों के तेल में नहीं, कीटनाशक में बनी थी। बच्चों के उल्टी-दस्त की

क्लीनिकल जांच में ऑर्गनो फॉस्फोरस की चिंताजनक मात्रा पाई गई है। उससे

जाहिर होता है कि खाना पकाने के लिए तेल के बदले कीटनाशक का ही इस्तेमाल

किया गया था। सिन्हा ने यह भी माना था कि लापरवाही कई स्तर पर हुई थी।

रसोईये ने तेल के रंग, गंध और कड़ाही में डालने के बाद उससे उठने वाले

धुंए की शिकायत की थी। लेकिन, उसे अनसुना कर दिया गया।

बच्चों को ‘मीड डे मील’ परोसने से पहले दो जिम्मेदार वयस्क व्यक्तियों

द्वारा भोजन चखने का प्रावधान किया गया है। इस मामले में भी घोर लापरवाही

बरती गई। जब बच्चों की तबियत बिगड़ी तो उन्हें प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र

तक पहुंचाने के लिए भी उचित प्रबंध नहीं था। कमाल की बात देखिए कि जिस बस

से बच्चों को सिविल अस्पताल ले जाया जा रहा था, उसका रास्ते में ही तेल

खत्म हो गया। इससे बढ़कर विडम्बना की बात यह रही कि मौत की जंग लड़ रहे

बच्चों को न तो मसरख प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र में उचित चिकित्सा सुविधा

मिली और न ही छपरा व पटना के सिविल अस्पतालों में। पटना के सबसे बड़े

‘पटना मैडीकल कॉलेज हॉस्पिटल’ में तो न पर्याप्त डॉक्टर मिले, न आवश्यक

दवाएं मिलीं और न ही अन्य दूसरी चिकित्सा सुविधाएं ही मिलीं। गजब की बात

रही कि अस्पताल में बच्चों को प्राण रक्षक दवाएं देने वाले 19 इन्फ्यूटन

पम्पों में से सिर्फ दो ही ठीक से काम करते हुए मिले, बाकी 17 बेकार पड़े

थे। यहां पर हृदय गति, रक्तचाप आदि जांच के लिए लगाए गए 6 मॉनीटरों में

से कोई भी ठीक नहीं मिला। यहां तक कि रूई, पेरासीटामोल के इंजेक्शन,

सिरिंज, मुंह के रास्ते रोगियों को पेट में डाली जाने वाली पाईपों पर

लगाने के लिए जायलोकेन जैल आदि भी समय पर उपलब्ध नहीं थे। ऐसे में कहना न

होगा कि यदि यदि बच्चों को प्राथमिक उपचार समय पर मिल जाता तो संभवतः

इतने बच्चों को जान से हाथ नहीं धोना पड़ता।

प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्र सरकार द्वारा बिहार में दो मानीटरिंग

इंस्टीच्यूट काम कर रहे हैं। इन्होंने अपनी रिपोर्ट में बिहार में

क्रियान्वित ‘मीड डे मील’ योजना में ढ़ेरों खामियां पाईं गई थीं। इसी

रिपोर्ट के आधार पर अब केन्द्र सरकार दावा कर रही है कि बिहार सरकार को

‘मीड डे मील’ से संबंधित खामियों के प्रति पहले ही अवगत करवा दिया गया

था। लेकिन, दूसरी तरफ बिहार राज्य के मानव संसाधन विभाग के प्रधान सचिव

अमरजीत सिन्हा ने सभी दावों को नकारते हुए कह दिया है कि ‘मीड डे मील’ के

संबंध में केन्द्र से बिहार प्रदेश सरकार को कोई चेतावनी नहीं मिली थी।

बेहद विडम्बना का विषय है कि बिहार की तर्ज पर ही अन्य राज्यों में ‘मीड

डे मील’ के क्रियान्वयन में समय-समय पर ढ़ेरों गम्भीर खामियां और कई

घटनाएं सामने आईं, लेकिन उनपर कोई गम्भीरता नहीं दिखाई गई। राजस्थान में

पिछले तीन सालों में छह बड़े मामले सामने आ चुके हैं और ‘मीड डे मील’ में

सांप, छिपकली, चूहे और कीड़े तक मिलने के समाचार प्रकाश में आ चुके हैं।

इसके साथ ही एक बच्चा मौत की भेंट चढ़ चुका है और 100 से अधिक बच्चे

बीमारी का सामना कर चुके हैं। मध्य प्रदेश में चार सालों में सात बड़े

मामले सामने आ चुके हैं। यहां भी ‘मीड डे मील’ में कीड़े, छिपकली, इल्ली

आदि होने के कारण 140 बच्चे बीमार पड़ चुके हैं। झारखण्ड में पिछले चार

साल में पाँच बड़े मामले सामने आ चुके हैं और ‘मीड डे मील’ में कीड़े होने

के कारण 25 से अधिक बच्चे बिमार हुए हैं। हरियाणा से भी कई बार ‘मीड डे

मील’ में खामियां होने की खबरें आती रही हैं और कुरूक्षेत्र, यमुनानगर,

पानीपत आदि से 150 के करीब बच्चों द्वारा बीमारी का सामना करने को विवश

होना पड़ा है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जहरीला ‘मीड डे मील’ बच्चों के लिए ‘मासूम

मर्डर मील’ साबित हुआ है। यह कोई महज एक दुर्घटना नहीं है, इसमें बहुत

बड़ी साजिश की तीखी बू आ रही है। ऐसे में क्या ‘मीड डे मील’ खाकर मरने

वाले मासूमों के गुनाहगारों को मृत्युदण्ड नहीं मिलना चाहिए? क्या

मासूमों के अभिभावकों की यह माँग जायज नहीं है कि दोषियों को उसी तरह

तड़पा-तड़पाकर मारा जाना चाहिये, जिस तरह उनके लाडले बच्चे तड़प-तड़पकर मरे

हैं? क्या ‘मीड डे मील’ के कार्यान्वयन में देशभर से आ रही एक से बढ़कर एक

खामियों व लापरवाहियों के कारण सम्पूर्ण योजना पर ही सवालिया निशान नहीं

लग गया है? अब लोगों में ‘मीड डे मील’ के प्रति जो रोष पनपा है और जिस

तरह से इस योजना को बन्द करने की गुहार लगाई जा रही है, उसमें कहीं न

कहीं योजना से विश्वास भंग नहीं हुआ है? इसके साथ ही अन्य बच्चों और

अभिभावकों में ‘मीड डे मील’ के प्रति जो मानसिक डर पनप चुका है, क्या वह

अनायास ही है? क्या यह डर आम लोगों का स्थानीय प्रशासन, प्रदेश सरकार और

केन्द्र सरकार के प्रति अविश्वास का प्रतीक नहीं है? क्या बिहार सरकार

द्वारा मासूमो की मौत की ऐवज में दो-दो लाख रूपये की आर्थिक सहायता पीड़ित

अभिभावकों के घावों को भर पायेगी? क्या आर्थिक सहायता के नाम पर सरकारें

मामले के प्रति अपना पल्ला नहीं झाड़ लेती हैं? इस तरह के ऐसे ही अनेक

गंभीर सवाल हैं, जिनके जवाब स्वतः ही दिल से निकलते हैं और हर किसी को

सोचने को बाध्य करते हैं।

 

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