मीडिया इमेजों में नकली औरत के खेल

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

कामुकता के कारण लिंगभेद पैदा होता है, अत: लिंगभेद को जानने का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि कामुकता का गंभीरता से मूल्यांकन किया जाए। मेकनिन ने रेखांकित किया है कि लिंगों के बीच में विषमता का प्रधान कारण कामुकता है। मीडिया में स्त्रियों के विज्ञापन देखकर पहले यह कहा जा सकता था कि स्त्री का समर्पित रूप ही आदर्श रूप था। किन्तु हाल के वर्षों में स्त्री की स्वायत्त या स्वतंत्र छवि भी सामने आयी है,स्त्री और पुरूष के बीच में समानता का संदेश देने वाले विज्ञापन भी आए हैं। इसके बावजूद स्त्री का समर्पित रूप आज भी सबसे ज्यादा आकर्षित करता है, मुख्यधारा के विज्ञापनों में इसका वर्चस्व है। विज्ञापनों के माध्यम से जो मुख्य संदेश संप्रेषित किया जा रहा है कि स्त्री का मुख्य लक्ष्य है पुरूष को आकर्षित करना। पुरूषों के इस्तेमाल की वस्तुओं में जो कामुक औरत दिखाई जाती है उसकी कामुक अपील मर्द के साथ संबंध बनाते हुए सामने आती है। इसी तरह औरतों के इस्तेमाल वाली वस्तुओं के विज्ञापनों में रूपायित स्त्री कामुकता का लक्ष्य है मर्द को आकर्षित करना। विज्ञापन यह बताता है कि स्त्री और पुरूष आपस में कैसे व्यवहार करें। साथ ही हम यह भी सोचते हैं कि वे कैसे व्यवहार करें।

पितृसत्तात्मक समाज में विज्ञापनों के जरिए हैट्रोसेक्सुअल मर्द परिप्रेक्ष्य में इमेज बनायी जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में स्त्री को शारीरिक आकर्षण के साथ जोड़कर पेश किया जाता है। मर्द की पहचान इस संकेत से होती है कि उसके साथ कितनी आकर्षक स्त्रियां जुड़ी हैं। जो औरत शारीरिक तौर पर जितनी आकर्षक होगी उसके सहयोगी मर्द की उतनी ही प्रतिष्ठा होगी। फलत: मीडिया की स्त्री इमेजों और कामुकता से अंतत: पुरूष लाभान्वित होता है। यही वजह है कि कामुकता लिंगभेद की धुरी है, पुंसवादी वर्चस्व का आधार है। मीडिया में समर्पित कामुक औरत का रूपायन जेण्डर हायरार्की की सृष्टि करता है।

विज्ञापनों के अध्ययन की पहली पूर्वधारणा(हाइपोथिस) है -कामुक औरत को समर्पित और आश्रित रूप में पेश किया जाए। भारत में विज्ञापनों में स्त्री इमेज में हिन्दू स्त्री की इमेज ही चारों ओर छायी हुई है।अन्य अल्पसंख्यक समुदाय की स्त्रियों का रूपायन तकरीबन गायब है। कभी-कभार टीकाकरण अभियान के समय अल्पसंख्यक औरत नजर आ जाती है।

सवाल उठता है कि हिन्दू औरत की कामुकता का केन्द्र में बने रहना क्या अल्पसंख्यक स्त्रियों के लिए शुभ लक्षण है ? क्या इससे साम्प्रदायिक भेदभाव बढ़ता है ?

मीडिया के संदर्भ में दूसरी पूर्वधारणा यह है कि हिन्दू औरत अल्पसंख्यक औरत की तुलना में प्रभुत्वशाली और स्वतंत्र होती है। भारत की विशेषता है कि यहां का समूचा मीडिया मूलत: हिन्दू मीडिया है। यहां पर अल्‍पसंख्यकों का पक्षधर मीडिया गायब है। हिन्दू मीडिया में नमूने के मुस्लिम अभिनेता/ अभिनेत्रियों को देखकर हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि भारत का मीडिया धर्मनिरपेक्ष है।

मीडिया के हिन्दुत्ववादी पूर्वाग्रहों को उसकी प्रस्तुतियों के समग्र फ्लो के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

हमें इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि भारतीय सिनेमा ने कितनी फिल्में इस्लामिक संस्कृति की थीम या मुसलमानों की जीवन शैली पर पेश कीं ? कितनी फिल्में हिन्दुओं की संस्कृति और देवी-देवताओं पर पेश कीं ? जो मुस्लिम कलाकार मीडिया में नजर आते हैं वे कितना अल्पसंख्यक समाज का चित्रण करते हैं ?

दिलीप कुमार से लेकर शाहरूख खान तक की पूरी फिल्मी पीढ़ी हिन्दू कथानकों और जीवनशैली के चित्रण से भरी है।फिल्म उद्योग में अनेक मुस्लिम अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के होने के बावजूद हमें मुस्लिम समाज की न्यूनतम जानकारी तक नहीं है। हिन्दू और मुस्लिम समाज के बीच विगत 60 सालों में बेगानापन बढ़ा है। इस बेगानेपन को मीडिया तोड़ सकता था,किन्तु ऐसा नहीं हुआ। मीडिया में हिन्दू औरत का दर्द,उत्पीडन,शोषण,कामुक रूप तो बार-बार और प्रत्येक क्षण सामने आता है किन्तु मुस्लिम औरत की कामुकता, शोषण, वैषम्य, दर्द, सुख आदि को हम देख ही नहीं पाते।

मुस्लिम औरत के बारे में हम खास किस्म के स्टीरियोटाईप से कभी-कभार दो-चार होते हैं, हिन्दुओं में भी ऊँची जाति की औरतें ही मीडिया का पर्दा घेरे हुए हैं। ऊँची जाति का सवर्ण विमर्श ही प्रमुखता से दोहराया जा रहा है। इसी तरह अल्पसंख्यक मीडिया में भी अल्पसंख्यक स्त्री की इमेज एकसिरे से अनुपस्थित है। समग्रता में देखें तो मध्यवर्गीय हिन्दू ऑडिशंस के बाजार को केन्द्र में रखकर मीडिया में स्त्री इमेजों का रूपायन हो रहा है।

मीडिया में खासकर फिल्मों में सारी दुनिया में यह देखा गया है कि अभिनय के क्षेत्र में स्त्रियों की तुलना में मर्द ज्यादा उम्र तक अभिनय करते हैं। हॉलीवुड फिल्मों के बारे में किए गए अनुसन्धान बताते हैं कि औरतों की अभिनय उम्र तीस साल के आसपास जाकर खत्म हो जाती है जबकि मर्द की औसत अभिनय उम्र चालीस साल है। टीवी में बूढ़े चरित्रों का नकारात्मक रूपायन युवाओं में बढ़ी हुई उम्र के कलाकारों के प्रति आकर्षण घटा रहा है। टीवी पर बूढ़ी उम्र के स्त्री चरित्रों का कम आना या उनकी नकारात्मक प्रस्तुति के कारण भी प्रौढ़ स्त्री चरित्रों का प्रयोग घटा है।

मीडिया में मर्द की सफलता का पैमाना इस बात से तय होता है कि वह क्या करता है ? जबकि औरत की सफलता का पैमाना उसके लुक से तय होता है।मर्द की तुलना में औरत का शारीरिक तौर पर आकर्षक होना ज्यादा महत्वपूर्ण है। सौन्दर्य और जवानी को स्त्री के साथ जोड़कर देखा जाता है, इसके कारण ही स्त्री की ज्यादा उम्र को नकारात्मक तत्व के रूप में लिया जाता है। मर्द की उम्र उसकी सफलता और ज्ञान या अनुभव के रूप में देखी जाती है जबकि स्त्री ज्योंही अपनी जवानी के दौर को पार कर जाती है।उसका सौन्दर्य खण्डित मान लिया जाता है। वह सामाजिक तौर पर या कार्य क्षेत्र में अपना सामाजिक मूल्य खो देती है।

समाचारों में स्त्री एंकर या प्रवाचिका मूलत: अपनी एपीयरेंस के कारण बनी रह पाती है। जबकि मर्द एंकर को अनुभव और विशेषज्ञता के आधार पर देखा जाता है। मर्द का चेहरा झुर्रियों रहित,सफेद बालों वाला भी आकर्षक माना जाता है,जबकि औरत को एक सामान्य स्टैण्डर्ड के हिसाब से युवापन को दर्शाना होता है। टीवी पत्रकारिता पर यदि मर्द और औरत के लिए एक ही मानक लागू किया जाए तो ज्यादातर मर्द बेरोजगार हो जाएंगे। कार्य क्षेत्र की प्रस्तुतियों में टीवी चरित्रों में स्त्रियां कुछ ही किस्म के काम करती नजर आती हैं। तुलनात्मक रूप से मातहत पदों पर काम करती नजर आती हैं। जबकि मर्द व्यापक क्षेत्र में काम करता नजर आता है ,कर्ता के रूप में नजर आता है। अपने पद पर काम करते हुए औरतें यदि अपनी क्षमता का इस्तेमाल करती हैं तो उन्हें खतरों का सामना करना पड़ता है, यहां तक कि नौकरी जाने का भी खतरा रहता है।

सफल स्त्री चरित्र हमेशा अस्थिर, चंचल, जड़ से कटे हुए, स्त्रीत्व और मर्दानगी से विच्छिन्न नजर आते हैं। इस तरह के स्त्री चरित्रों के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि यदि आप असली औरत हैं तो रीयल में जो कार्य है उसे नहीं कर सकती हैं। यदि रीयल कार्य कर लेती हैं तो रीयल औरत नहीं है। जबकि इस तरह का वर्गीकरण मर्द चरित्रों के संदर्भ में पेश नहीं किया जाता।

3 COMMENTS

  1. चतुर्वेदी अगर आप मुस्लिम महिलाओं के इतने पक्षधर हैं तो एक बात और भी जानते अच्छी तरह समझते होंगे कि जब भी कोई ऐसी फिल्म. उपन्यास, या फिर कोई समाचार जिसमें इस्लाम के नाम पर घृणा फैलाई जा रही हो या फिर औरतों पर और महिलाओं का शोषण किया जा रहा हो दिखाई या जनता के बीच लाई गई हो तो कैसे-कैसे विरोध प्रदर्शन किए गए हैं. इस्लाम भारतीय संविधान से इतर अपना संविधान चलाता है और इसी को ढाल बनाकर औरतों पर अत्याचार और बच्चों में कट्टरता भरी जाती है क्या इस विषय पर कोई फिल्म बना सकता है.
    आपको याद होगा कि गदर पिक्चर में फिल्म के नायक ने सिर्फ एक मुस्लिम महिला की मांग भरी थी पूरे देश में हंगामा ख़ड़ा हो गया था जबकि अगर नायक उसकी मांग नही भरता तो फिल्म में कुछ गुंडे उसका बलात्कार कर देते. अब आप ही बताइए कि कौन अभिनेता या फिल्मनिर्माता इतना सर दर्द लेगा. रही सही कसर कुछ कथित धर्मनिरपेक्षवादी राजनीतिक पार्टियां और मानवाधिकार संगठन पूरे कर देते हैं कि इस्लाम को बदनाम किया जा कहा है. आप कोई ऐसी फिल्म बता दीजिए जिसमें किसी मौलवी का मजाक या उसको गलत काम करते दिखाया गया हो. लेकिन हिंदी फिल्मों का इतिहास उठाकर देख लीजिए हर दौर में ऐसी फिल्म मिल जाएगी जहां पंडितों की वेषभूसा और साधू संतो का मजाक या गलत काम करते दिखाया गया है. हिंदू सहिष्णु है इसलिए कुछ भी कह लो .दुख तो इस बात का है कि आपकी भी सोच ऐसी है.

  2. मीडिया . धर्मनिरपेक्षता .स्त्री विमर्श .के संदर्भ में विवेचनात्मक आलेख .की भूरी -भूरी
    प्रसंशा करने के बरक्स्स बिना मांगे सलाह दूंगा की विभूतिनारायण राय पर किये जा रहे नारीवादी प्रत्याक्रमनो का भी विश्लेषण करने का pryas करें .

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