समाचार-पत्रों की खबर है कि आवश्यक वस्तुओं की कीमत में लगातार कमी आ रही है। गुजराती के एक सान्ध्य अखबार ने छापा कि रोजमर्रे के समान की कीमत में तीन से लेकर पांच रूपये तक की कमी आयी है। बीते दिन एक समाचार-पत्र की पहली सुरखी थी कि अगले साल भारतीय कंपनियों में बवाल की नियुक्ति होने वालीहै। ऐसी खबरें पढकर मन को सकून मिलता है लेकिन जब दैनिक जीवन से पाला पडता है तो अखबार की राजनीति और अखबार के द्वारा जनता से किया गया छल ध्यान में आने लगता है। क्या सचमुच बाजार भाव में कमी दर्ज की जा रही है ? इस खबर में कितना दम है कि वर्ष 2010 में भारतीय कंपनियों में भारी नियुक्ति होने वाली है। इसकी पडताल से पहले एक दो उदाहरण देना ठीक रहेगा। विगत दिनों देहरादून में एक प्रमुख समाचार-पत्र समूह में काम करने वाले एक मित्र का दूरभाष आया। कह रहे थे कि मंदी की बात बता, समाचार समूह ने उसे काम से दफा कर दिया है। बहुत गिडगिडाने पर कंपनी के आका ने कहा कि परिवार पालने के लिए आगरा में कुछ व्यवस्था हो सकती है। चाहो तो वहां तुम वर्तमान वेतन से 25 प्रतिशत कम पर योगदान दे सकते हो। दूसरे मित्र का पत्र मिला कि उसने इंण्डियन एक्सप्रेस छोड दिया है। दूरभाष पर जब कारण पूछा तो उसने भी यही बताया कि पत्र समूह ने मंदी की बात बता काम छोड देने की बात कही थी। आज वह नैनीताल के किसी अंग्रेजी अखबार में झख मार रहा है। यह तो केवल समाचार जगत में काम करने वाले सबसे प्रबुध्द जन के नौकरी की बात है। मुम्बई हो या गुआहटी, कानपुर हो या चेन्नई हर जगह मंदी की बात बता कामगारों को काम से लैटाया जा रहा है। और इधर अखबर तथा मीडिया जगत के कुछ होनहार पत्रकार इस नगमें को गाने में लगे है कि देश मे बेरोजगारी जैसी कोई समस्या नहीं है और आने वाले समय में तो भारत में रोजगार का छेल्ला प्रबंध होने वाला है। महगाई पर भी अखबार या तो चूक रह है या जान कर कीमत कम होने की बात बता रहा है। विगत 06 महीने में महगाई 40 प्रतिशत से ज्यादा बढ गयी है। आंकडे बताते हैं कि बीते महीने के समाप्ति सप्ताह में मुद्रस्फीति की दर बढकर 19.05 प्रतिशत तक पहुंच गयी। अक्टूबर में जो चावल 32 रूपये किलो था उसकी कीमत बढकर 35 रूपये किलो हो गयी है । हरी सब्जी, दाल और खद्यतेल की कीमतों मे जबरदस्त इजाफा हुआ है। अब एक जनवरी से अहमदाबाद में भोजनालयों ने अपने दामों में संशोधन की घोषणा की है। जिस भोजनालय में मात्र 50 रूपये में बढिया भोजना मिलता था वहां अब ग्राहकों को 75 रूपये चुकाने होंगे। सीएनजी गैस की कीमत में बढोतरी के कारण ऑटो रिक्शा महगा होगा। इधर दिल्ली और अन्य महानगरों में पानी बिजली आदि पर दाम बढाया गाया है। अब किस आधार से साबित होता है कि महगाई कम हो रही है। यही नहीं वेतन बढाने के लिए लडाई कर रहे मजदूरों पर लाठियां बरसाई जाती है। कारखाना मालिकों से वेतन बढाने के लिए कहो तो वह अपना कारखाना ही समेट लेता है। अब इस परिस्थिति में अखबार के आंकडों को सही माना जाये या वास्तविकता को।
ऐसे विसंगत समाचार छापने, दिखाने के कारण समाचार जगत में एक भयानक निराशा का वातावरण निर्मित हुआ है। विगत दिनों हैदराबाद में दुनियाभर के समाचार-पत्रों के मालिक तथा संपादकों का महाजुटान संपन्न हुआ। मौका था वर्ल्ड एडिटर फोरम का 16वां और न्यूज पेपर काग्रेस का 62वें सम्मेलन का । इस विषय पर सभी एक मत थे की संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपिये देशों में समाचार-पत्र पढने वालों की संख्या कम होती जा रही है। इससे समाचार-पत्र के प्रसार संख्या में कमी आ रही है। कुछ भारतीय संपादकों और समाचार-पत्र समूह के मालिकों ने अपनी पीठ थपथपाकर कहा कि भारत में अभी ऐसी कोई संभावना नहीं है। उनका कहना सही भी लगता है। जिस प्रकार भारत में समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या बढती जा रही है उससे यह अनुमान लगाया जानाआसान है कि समाचार-पत्र पढने वालों की संख्या बढी है। ऐसे में भारत के अंदर अभी इस उद्योग को झटका लगने की कोई संभावना नहीं है। लेकिन इसके काले पक्ष पर भी विचार करना चाहिए। विगत दिनों समाचार-पत्रों ने चुनाव के दौरान अपनी किरकिरी की और उसके बाद से रोजगार और महगाई पर लगातार झूठ छापा रहा है। इससे समाचार जगत को ठेस पहुंचा है। इससे समाचार पत्रों की गरिमा खंडित हुई है। दूसरी ओर समाचार और सूचना उपलब्ध कराने वाली बडी एजेंसियों ने अपनी तकनीक में सुधार कर इन्टरनेट तथा अन्य माध्यमों से अपनी पहुंच आम आदमी तक बनाने में बहुत हद तक सफलता प्राप्त कर ली है। फिर कुछ छोटे और सिध्दांतों से वंधे समाचार पहुंचाने वाले सशक्त हुए हैं। ऐसे में कोई पीठ ठोक कर यह नहीं कह सकता है कि भरत में समाचार-पत्र की प्रसार संख्या लगातार बढती जाएगी। नये जवाने और युवाओं के लिए दैनिक जागरण और अमर उजाला दोनों ने आइनेक्स और कम्पैक्ट नाम का दो टैबुलाईट अखबर बाजार में लाया लेकिन आज उसका कोई अता पता नहीं है। कौन नहीं जानता है कि समाचार पत्र वास्तविक प्रसार से ज्यादा छाप कर विभिन्न स्थानों पर भेजा जाता है और प्रसार प्रबंधक उसे वापस मगवाता है। एक अनुमान के अनुसार बिहार छोड कर उन्य सभी प्रांतों में समाचार-पत्रों के पाठकों की संख्या में कमी आयी है। हर अखबार समूह, कंपनियों और सरकार से विज्ञापन लेने के लिए अपनी प्रसार संख्या ज्यादा कर दिखाती है। यही नहीं प्रसार संख्या की मोनेटरिंग करने वाली संस्था में भी भारी हेराफेरी होता है। छपने वाले अखबार की प्रसार संख्या का सही खांका उस एजेंसी के पास भी नहींहोता है। ऐसे में यह कहना कि समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या में बढोतरी हो रही पूरे पूरी सही नहीं है।
एक तो आज कोई अखबर तथ्यों पर ध्यान नहीं दे रहा है। केवल विज्ञापन उसके लिए महत्व रखता है। समाचार-पत्रों में जन-सरोकार से संबंधित समाचार हासिए पर ढकेल दिये गये हैं। समाचार माध्यम सरकार या फिर कंपनियों के यशोगान में लगे हैं। अब जब ऐसी परिस्थिति का निर्माण हो रहा है तो आम जन समाचार-पत्र क्यों पढे? इसलिए समाचार-पत्र पढने वालों की संख्या में कमी आना स्वाभाविक है। अब जब ऐसी परिस्थिति का निर्माण हो गया है तो समाचार माध्यमों में काम करने वाले श्रमजीवी पत्रकारों को सतर्क हो जाना चाहिए। क्योंकि व्यापारी जो समाचार माध्यमों में पैसा लगा रखा है वह घाटा नहीं सह सकता है और कोई अन्य व्यापार खडा कर लेगा लेकिन जो लोग केवल वैध्दिक व्यापार में संलग्न हैं उनको तो अखबार या समाचार की नौकरी के अलावा और कोई धंधा रास ही नहीं आएगा। ऐसे में समाचार व्यापार को बचाना जरूरी होगा। और वह तभी संभव है, जब आम जन का विश्वास समाचार माध्यमों पर बना रहे। मात्र पैसा कमाने के लिए अखबार का उपयोग बंद होना चाहिए। अखबार पैसा कमाए लेकिन झूठी खबर छाप कर नहीं। अखबार की गरिमा बनी रहे और जनता में उसके प्रति अविश्वास न हो ऐसी कोई व्यवस्था अखबार में काम करने वालों को ही करना होगा। ऐसा नहीं हो कि प्रथम पन्ना पर कांग्रेस पार्टी का उम्मीदबार जीते और दूसरे पन्ने पर भाजपा का। जब आर्यावर्त या इण्डियन नेशन में कोई खबर छपती थी तो उसे लोग सत्य मानते थे लेकिन आज अखबार में कोई खबर छपती है तो लोग उसे अखबारी खबर कहकर नकार देते हैं। इस परिस्थिति को बदलना होगा अन्यथा व्यापारी तो अपना व्यापार समेट लेंगे, फिर तेरा क्या होगा कालिया।
-गौतम चौधरी
अंग्रेजी में प्रसिद्ध कहावत है एवरी थिंग इज फ़ेयर इन लव एंड वार. इसे व्यवसाय जगत ने अपने लिये सटीक मान लिया है. व्यवसाय के लिये, मुनाफ़ा बढाने के लिये प्रतिस्पर्द्धा, अपने प्रतिस्पर्द्धी का नुक्सान और उसकी हत्या तक जायज समझी जा रही है. समाचार समूह अब मिशन तो रहा नहीं, पूरा व्यवसाय है, तो गौतम जी की चिन्ता समझ में नहीं आती. या चिन्ता का आयाम भिन्न है. आप जनता के विश्वास की बात कहते हैं, तो एक कुण्डली सुन लें…
विश्वासों की क्या कहें, बाप बङा ना बन्धु!
पैसा सिर चढ बोलता, कौन क्या करे बन्धु!
कौन क्या करे बन्धु!, साँस भी भारी लगती.
पर्यावरण विषाक्त, हुई संकट में धरती.
कह साधक कवि, व्यर्थ बन्धु चिन्ता अखबार की.
मानव समझ ना आय क्या कहें विश्वासों की.
अखबार सोचते होंगे कि सौ साल की धरती है, जितना लूट सकते हैं लूट लो…. साधक-उम्मेद.